कथाकार अमरकांत के इस जन्मशती वर्ष में आप पहले ‘ज़िंदगी और जोंक’ पर चंचल चौहान का लेख पढ़ चुके हैं। इस बार ‘डिप्टी कलेक्टरी’ पर माधव महेश की टिप्पणी पढ़िए। उन्होंने खूब रमकर कहानी को पढ़ा है और हमें भी पढ़ने का एक सलीक़ा सौंपा है। टिप्पणी में कोई उपसंहारात्मक अंत नहीं है, जैसे आपके द्वारा इसे आगे बढ़ाने के लिए खुला छोड़ दिया गया है। हमने भी उसे बंद करने की कोई कोशिश नहीं की। यह टिप्पणी इस अर्थ में शब्दशः मुक्तमुखी है।

‘डिप्टी कलेक्टरी’ एक बेचैन करने वाली कहानी है। यह उस दौर की कहानी है जब परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंगों का जाल नहीं था। प्रतिभागी आमतौर पर सेल्फ़ स्टडी से ही परीक्षा की तैयारी करते थे। सिर्फ़ इस कहानी के आधार पर ही कहा जा सकता है कि यदि हम कुछ गिने चुने कहानीकारों की लिस्ट बनायें जिनसे कुछ सीख सकते हैं, तो उसमें अमरकांत का नाम ज़रूर शामिल किया जायेगा। आज के दौर में जब कहानियाँ विचार विमर्श तले दबी नज़र आती हैं, अमरकांत सिर्फ़ कहानी कहते हैं। वे नदी में तैरने के साथ तल को छूने की कामयाब कोशिश करते हैं। उन्हें अलग से लेखकीय वक्तव्य देने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इस कहानी को दो भागों में बाँट कर देखा जा सकता है। पहले हिस्से में शकलदीप बाबू अपने बेटे के लिए हर संभव कोशिश करते नज़र आते हैं। उसके खान पान, कमरे की साफ़-सफ़ाई से लेकर सिगरेट तक का इंतज़ाम करते हैं। एक पिता यथाशक्ति जितनी कोशिश कर सकता है, उतनी कोशिश वे करते हैं। कहानी का दूसरा हिस्सा नारायण के पेपर देने के बाद ख़ासकर इंटरव्यू हो जाने के बाद शुरू होता है। असल में यही कहानी का मज़बूत हिस्सा है। जब तक हम प्रयास करते हैं या कर सकते हैं अर्थात जब तक हम खुद को असक्षम नहीं पाते, तब तक हमारे भीतर एक संतुष्टि का भाव रहता है। इसको हम ऐसे भी देख सकते हैं–युक्रेन और फिलिस्तीन दोनों ही जगहों पर युद्ध चल रहा है जिसमें बच्चे भी मारे जा रहे हैं, लेकिन दोनों में ही एक बड़ा अंतर यह है कि युक्रेन में बच्चे भूख से नहीं मर रहे लेकिन फिलिस्तीन मे बच्चे अपने मां बाप के सामने भूख से दम तोड़ रहे हैं। उस पिता का दर्द या ज़हनियत क्या होगी जो अपनी आँखों के सामने अपने बच्चे को भूख से मरता देख रहा हो और कुछ भी न कर पा रहा हो! वहीं कहानी के दूसरे हिस्से में जब सिर्फ़ इंतज़ार करना है और हमारे हाथ में कुछ नहीं है, वही परेशानी का सबब भी है। फिर खुद को कहीं न कहीं व्यस्त रखने की कोशिश शुरू हो जाती है। हमारे देश में सबसे आसान और व्यापक रास्ता है- पूजा पाठ।
इस कहानी को अन्य तरीक़े से भी देखा जा सकता है। जैसे एक वृद्ध हो रहे सेनापति की चिंता होती है, अगला कौन? और क्या वह ज़िम्मेदारी उठाने के क़ाबिल है। शकलदीप बाबू रिटायरमेंट के क़रीब हैं और उनकी चिंता है कि उनका बेटा ठीक जगह लग जाये ताकि घर की ज़िम्मेदारी उठा सके। और इसलिए वह अपनी तरफ़ से हर संभव कोशिश करते हैं।
कहानी को संबंधों के आधार पर भी देखा जा सकता है। जैसे शकलदीप बाबू और उनकी पत्नी के बीच संबंध। ख़ासकर जब वे एक दूसरे पर टीका टिप्पणी करते हैं, जो कि एकदम जीवंत लगता है। कहानी में शकलदीप बाबू की पत्नी अन्य भारतीय पत्नियों की तरह अपने पति के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित दिखती हैं। एक दिन जब शकलदीप बाबू जल्दी जाग जाते हैं और नहाने लगते हैं तो उस आवाज़ से उनकी पत्नी भी जग जाती हैं और शकलदीप बाबू के इतनी सुबह-सुबह नहाने को लेकर उनके स्वास्थ्य के प्रति चिंता व्यक्त करती हैं।
दूसरी तरफ़ कहानी को पिता पुत्र के संबंध के तौर पर भी देखा जा सकता है। कहानी में शकलदीप बाबू और उनके पुत्र के बीच एक भी सीधा संवाद नहीं है। 90 के बाद की पीढ़ी या ख़ासकर ‘जेन ज़ी’ की पीढ़ी में अंतर देखा जा सकता है। बाप बेटों के बीच पहले की पीढ़ियों की तुलना में कहीं बेहतर संवाद की स्थिति देखी जा सकती है। वहीं शकलदीप बाबू सिर्फ़ चेहरे के हाव-भाव व इशारों से अनुमान लगाते हैं।
कहानी के दूसरे हिस्से में जैसे जैसे इंतज़ार बढ़ता है, बेचैनी भी बढ़ती है। हर तरफ़ से खुद को व्यस्त रखने की कोशिश शुरू हो जाती है। शकलदीप बाबू पूजा पाठ में तो खुद को व्यस्त रखते ही हैं, साथ में आश्वस्त रखने के तरीक़े ढूँढे जाते हैं। इसके लिए मान्यताओं का सहारा लिया गया है। सुबह जब शकलदीप बाबू बताते हैं कि आज उन्होंने सपने में देखा कि नारायण का सेलेक्शन हो गया, तो इस बात की ताकीद की जाती है कि सपना सुबह का है कि नहीं। शकलदीप बाबू दो बार सपना देखते हैं जबकि नारायण की पत्नी भी देखती है। सपने के आधार पर ही शकलदीप बाबू अपनी बहू को डिप्टी कलेक्टराइन कहकर चुहल करते हैं तो उनकी बहू शर्म के मारे खुद को किसी तरह से छुपाने की कोशिश करती है। अमरकांत ने जीवन संबंधों को बहुत ही आयसहीन तरीक़े से दिखाया है।
जब मेहनत का फल दिखने लगता है तो इंसान ऊर्जा से भर जाता है। बहुत से संकोच व दायरे वह लाँघ जाता है जो पहले नहीं लाँघता था। जैसे ही शकलदीप बाबू को पता चलता है कि इंटरव्यू देर तक चला है और नारायण के सफल होने की उम्मीद बढ़ गयी है, वे खुद को रोक नहीं पाते और शुरूआत में जो दूरी नारायण के दोस्तों से बनाकर चल रहे थे, उस झिझक या बांउड्री को तोड़ देते हैं। नारायण के दोस्तों के बीच शामिल हो जाते हैं। वहीं पहले जब ट्रेन में उसे बैठाने जाते हैं तो उसे दोस्तों के साथ छोड़ देते हैं, लेकिन जैसे ट्रेन लगती है, उसे अंदर बैठा कर आते हैं। वापस जब एक स्टॉल पर आ जाते हैं और किताब के पन्ने पलटने लगते हैं तो उन्हें याद आता है कि कुछ देना भूल गये। उसके बाद वह जिस तरह से भागते हुए जाते हैं, लोग उन पर हँसते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं। बावजूद इसके वे नारायण को भोले बाबा का प्रसाद देते हैं। यहाँ पिता का अपने बेटे के लिए एफ़र्ट देखते ही बनता है। जब दोस्त बोलते हैं कि उन्हें को दे दिया होता तो कुछ और ही बोल देते हैं। यही बाउंड्री या झिझक बाद में टूटती नज़र आती है।
जब शकलदीप बाबू को पता चलता है कि रिज़ल्ट आ गया है, तो वे घर की तरफ भागते हैं। घर के माहौल को देखकर समझ जाते हैं कि बात नहीं बनी। पत्नी से कहते हैं जो कर्ज़ लिया है, उसके बारे में बेटे को मत बताना। उसके बाद बेटे के कमरे में जाकर मुआयना करते हैं और थाह लेना चाहते हैं। लेकिन जब उनकी शंका गहराती है, “उन्होंने काँपते हृदय से अपना बायाँ कान नारायण के मुख के बिल्कुल नज़दीक कर दिया और उस समय उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।” कितना मार्मिक और इंटेंस सीन है! ऐसा लगता है, कोई फ़िल्म चल रही है। हम अक्सर सुनते हैं, फेल होने पर बच्चे ने आत्महत्या कर ली। माता-पिता को कहीं न कहीं फ़िक्र रहती है कि बेटा फेल होने पर कुछ कर न ले। उस समय वह उसके फेल होने की चिंता छोड़ देते हैं। उधार लिये पैसे कैसे चुकायेंगे या अब फेल हो गया, अब क्या होगा–यह नहीं। पूरा फोकस मानवीय पहलुओं पर केंद्रित रहता है।
जब हम जी तोड़ मेहनत करते हैं और पूरी उम्मीद हो कि सफल होंगे लेकिन नहीं हो पाये, तो जो दुख होता है, उसका सजीव चित्रण इस कहानी में दिखता है। ऐसी दशा में इंसान किसी से बात नहीं करना चाहता। वह कुछ समय के लिए अकेला ही रहना चाहता है। यह बात शकलदीप बाबू अच्छे से समझते हैं और इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी को इशारे से बोलने से मना किया और संकेत से बुलाते हुए अपने कमरे में चले गये। पत्नी की आशंका को शांत करते हुए शकलदीप बापू गदगद स्वर में कहते हैं, “बाबुआ सो रहे हैं।वह आगे कुछ ना बोल सके। उनकी आँखें भर आयी थीं। वह दूसरी ओर देखने लगे।” बगैर किसी नाटकीयता के बहुत ही मार्मिक अंत है।
‘डिप्टी कलेक्टरी’ कहानी में एक ग़लती दिखती है। एक जगह कहा गया है, ‘उसका चेहरा शर्म से तमतमा गया’। मुझे लगता है, तमतमाना गुस्से के साथ इस्तेमाल होता है। इसके अलावा मुहावरों का बहुत अच्छा इस्तेमाल है। पूरे देशी अंदाज़ में। “बड़े-बड़े बहे जायें गदहा कहे केतना पानी”। इस तरह के बहुत से मुहावरों का प्रयोग दिखता है। ऐसे ही मुहावरे हमें प्रेमचंद की रचनाओं में भी देखने को मिलते हैं।
अमरकांत ज़िंदगी के बारीक अध्येता हैं और शायद इसलिए वे जीवन के सामान्य सी लगने वाली घटनाओं को अपनी कहानी में जगह देते हैं । नारायण के लिए लाये गये मेवे को संदूक में रखने के बाद भी बच्चा चुराकर खा जाता है। आमतौर पर बचपन में बहुत से बच्चे ऐसा करते हैं। दास्तावस्की कहते हैं, “ग़रीबी पाप नहीं है, अभाव पाप है”। सकलदीप बाबू का परिवार ग़रीब नहीं है लेकिन उनके परिवार में अभाव दिखता है।
संपर्क: 91400 92759







बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है माधव ,
मुझे भी अमरकांत जी की कहानियों में जो बात आकर्षित करती है वह है जीवन की बहुत ही सामान्य घटनाओं का इन्टैन्स चित्रण ,इस रूप में दोपहर का भोजन भी एक शानदार कहानी है ।
यथार्थवादी साहित्य परंपरा से जुड़ी एक ऐसी कहानी जो सात दशक बाद भी आम आदमी की समस्याओं और उसके संघर्ष की दुनिया का आइना बनी हुई है।
”आज के दौर में जब कहानियाँ विचार विमर्श तले दबी नज़र आती हैं, अमरकांत सिर्फ़ कहानी कहते हैं। वे नदी में तैरने के साथ तल को छूने की कामयाब कोशिश करते हैं। उन्हें अलग से लेखकीय वक्तव्य देने की ज़रूरत नहीं पड़ती।”
… माधव ने अच्छी समीक्षा लिखी जिसके लिए उन्हें मुबारकबाद।
बहुत सुंदर समीक्षा
बढ़िया समीक्षा