जनवादी लेखक संघ के ग्यारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन में केंद्र की रिपोर्ट का जो मसौदा पेश किया गया, उस पर बहस के बाद एकाधिक सुझावों के साथ रिपोर्ट पारित हुई। इस रूप में यह पिछले सम्मेलन के बाद के यानी पिछले तीन सालों के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर जनवादी लेखक संघ की आम राय है।
जो सुझाव लिखित रूप में मिले बिना भी शामिल किये जा सकते थे, उन्हें यहाँ शामिल कर लिया गया है। शेष लिखित रूप में मिलने पर शामिल किये जायेंगे।
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वे सबके काम आते थे
वे मूर्खता का रिज़र्व बैंक थे/ बदहवासी और बेवकूफ़ी का/ राष्ट्रीय कोष/ देश में जो भी सबसे कम हुनर से हो सकता था/ वह करने के लिए/ उनको ही लगाया जाता
रतजगों में शोर कराने/ कीर्तनों में नाच मचाने/ चीखदार/ पीकदार चैनलों की/ टी आर पी बढ़ाने/ सिरकटे एंकरों के/ कबंध-नृत्य में ढोल बजाने/ उत्तेजक फ़िल्मों के टिकट खरीदने/ खाली पंडाल भरने/ धर्म का राज्य स्थापित करने
वे सब करते/ पिताओं, अध्यापकों, गुरुओं/ और ग्रंथों ने उन्हें शक्तिशाली पुरुषों/ और रहस्यमय ताक़तों के/ हुक्म पालना सिखाया था
उनके लिए किताबें भी अलग ढंग से छपतीं/ मोटे अक्षरों में/ जो बतातीं कि करना क्या है/ यह नहीं कि सोचना क्या है/ जो सोचने को कहतीं/ या जिनकी छपाई महीन होती/ उन्हें वे तुरंत जला देते/ जैसे उन लोगों को/ जो उन्हें रुकने को कहते
सुबह उन्हें किक मारकर छोड़ दिया जाता/ और वे देर रात तक/ घुड़ घुड़ घों घों करते/ शहर भर में भागते रहते/ उन्हें रोकना मुश्किल ही नहीं/ नामुमकिन हो जाता
वे जो कहते वह तो करते ही/ पर जो नहीं कहते उसे ज़रूर ही करते/ मसलन गाय बचाने जाते तो आदमी मार आते/ धर्म पढ़ाने जाते तो घर फूँक आते/ त्यौहार मनाने जाते तो दंगे कर आते
पुराने बदरंग जांघिये/ और नये कुर्ते पहनकर/ वे झुंड में निकलते/ मोबाइल पर तिलक/ और लैपटॉप पर माला चढ़ाकर/ धरती को डंडों से कोंचते/ तलवारें लहराते/ वे हर वह काम करने को तैयार मिलते/ जिसकी न देश को ज़रूरत हो न दुनिया को
स्थायी कार्यक्रम के तौर पर/ उन्हें एक सादा काग़ज़ दिया गया/ जिस पर बीचोंबीच/ एक मोटी लकीर खिंची थी/ उनके दिमाग़ के लिहाज से/ भविष्य का यह नक्शा ठीक ही था/ उनका काम लकीर के एक तरफ़ कूदते रहना था/ जिसमें उनको, ज़ाहिर है, इतना मज़ा आया/ कि वे बाकी सब भूल गये
वे अजीब थे/ नहीं, शायद बेढंगे/ नहीं, डरावने/ न, सिर्फ़ अहमक/ नहीं, अनपढ़/ नहीं, पैदायशी हत्यारे/ नहीं, भटके हुए थे वे/ नहीं, वे बस किसी के शिकार थे/ हाँ, शायद किसी के हथियार
पढ़े-लिखे लोगों के लिए/ वे पहेली हो गये थे/ वे बैठे उन्हें बस देखते रहते/ उनकी समझ में न आता/ कि वे कब कहाँ और कैसे बने/ क्यों हैं कौन हैं क्या हैं
दाम्पत्य की ऊब का विस्फोट?/ वैवाहिक बलात्कारों की ज़हरीली फसल?/ स्वार्थ को धर्म और धर्म को स्वार्थ बना चुके/ पाखंडी समाज का मानव-कचरा?/ ऊँच-नीच के लती देश की थू थू था था?/ या असहाय माता-पिता की/ लाचारियाँ दुश्वारियाँ बदकारियाँ?
या कुछ भी नहीं/ बस माँस-पिंड/ जो कुछ भविष्यहीन/ अतीतजीवी/ हास्यास्पद/ लेकिन चतुर जनों को/ पड़े मिल गये थे!
(‘वे’, आर चेतनक्रांति)
आर चेतनक्रांति की कविता में आनेवाले ‘किसी के शिकार’ और ‘किसी के हथियार’ ये युवा कौन हैं? निस्संदेह, यह बेरोज़गार, अर्द्ध-बेरोज़गार या बहुत कम मेहनताना पानेवाला वह तबका है जिसे इस मुल्क में नव-उदारवादी नीतियों ने पैदा किया है और जो उसी नव-उदारवाद की सबसे प्रबल समर्थक-संरक्षक हिंदुत्ववादी ताक़तों के काम आ रहा है। अगर कामगार वर्ग की मोलतोल वाली क्षमता को ख़त्म करने के लिए बेरोज़गारों की रिजर्व आर्मी रखनेवाला उग्र पूँजीवाद न होता तो हिन्दुत्व की ताक़तों को स्टॉर्मट्रूपर्स की भूमिका निभाने वाले ये निठल्ले कहाँ से मिलते! और अगर हिंदुत्व की ताक़तें न होतीं तो नव-उदारवादी संकट से पैदा होने वाले असंतोष को दूसरी दिशा में मोड़ने के काम को कौन अंजाम देता!
ग़रज़ कि चेतनक्रांति की इस कविता के ‘वे’ हिन्दुत्व-कॉर्पोरेट गठजोड़ की पैदाइश हैं जिन्हें नवउदारवादी नीतियों ने सम्मानजनक काम के अवसरों से वंचित किया है और हिंदुत्व ने जिनके वर्गचेतन होने की संभावनाओं को कुंद करके हाथ में धर्म की ध्वजा थमा दी है। इस रुझान को एजाज़ अहमद ने 2013 के ही अपने एक व्याख्यान-आलेख में बहुत स्पष्टता से चिह्नित किया था जिसका हवाला हमारी 2018 की रिपोर्ट (नौवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन, धनबाद) में देखा जा सकता है।[*]
हम फरवरी 2014 में हुए अपने आठवें राष्ट्रीय सम्मलेन से लगाकर अपने विश्लेषणों में निरंतर इस सांप्रदायिक-कॉर्पोरेट गठजोड़ पर बल देते आये हैं और इन वर्षों में हमारे बलाघात की सुसंगतता अधिक पुष्ट ही हुई है।
न सिर्फ़ भारत बल्कि पूरी दुनिया में नव-उदारवादी नीतियों की नाकामी का लाभ संकीर्ण राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी ताक़तों को मिलता दिख रहा है। कह सकते हैं कि उन नीतियों से उपजे असंतोष का वैकल्पिक नीतियों के लिए होने वाले संघर्ष में फलित न होना और व्यापक पैमाने पर दक्षिणपंथ द्वारा उसे भुना लिया जाना हमारे समय को परिभाषित करने वाला एक प्रमुख अभिलक्षण है। एक बार फिर एजाज़ अहमद का उक्त व्याख्यान-आलेख याद आता है जहाँ वे कहते हैं : ‘रोज़ा लक्सेमबर्ग सही थीं। पूँजीवाद अनिवार्यतः समाजवाद की ओर नहीं ले जाता; यह बर्बरता की ओर भी ले जा सकता है।’
वैश्विक परिदृश्य
1.1 पिछले तीन सालों में, जैसा कि पीछे कहा जा चुका है, दक्षिणपंथी राजनीति को नव-उदारवादी नीतियों से पैदा हुए असंतोष और आक्रोश का स्पष्ट लाभ मिलता हुआ दिखा है। याद कीजिये कि हमारे गृहमंत्री ने कुछ साल पहले बांग्लादेश से आये लोगों को देश के संसाधन चट कर जानेवाले दीमक बताया था। ठीक इसी तरह विभिन्न मुल्कों में बाहर से आये हुए लोगों और अपनी ही आबादी के भीतर चिह्नित किये गये ‘दूसरों’ को अपनी दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहराने वाली, दीमक विचार से ग्रस्त दक्षिणपंथी राजनीति फल-फूल रही है। जर्मनी, नीदरलैंड, फ़्रांस समेत अनेक देशों में धुर दक्षिणपंथी ताक़तों का असर बहुत बढ़ा है और इटली में मेलोनी तथा अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता सत्ता-शीर्ष पर क़ाबिज़ हुए हैं। ठीक जिस समय यह मजमून लिखा जा रहा है, ऑस्ट्रेलिया में जगह-जगह नव-नाज़ियों के आप्रवासन-विरोधी प्रदर्शन और हिंसक हमले हो रहे हैं। उनके निशाने पर वहाँ बसे हुए भारतीय भी हैं जिनकी संख्या लगभग नौ लाख है और जिनके बारे में उनका मानना है कि वे उनकी नौकरियाँ और सुख-सुविधाएँ छीनने में अव्वल हैं।
1.2 इन स्थितियों के बीच यह भी एक तथ्य है कि जहाँ-जहाँ नव-उदारवादी शोषण के ख़िलाफ़ वाम आंदोलन सघन हुए हैं, संकीर्ण दक्षिणपंथी राजनीति को अपने पाँव पसारने का मौक़ा नहीं मिला है। श्रीलंका, कोलंबिया, ब्राज़ील, मेक्सिको और उरुग्वे में वामपंथी ताक़तों ने चुनावी जीत हासिल कर सरकार का गठन किया है।
1.3 वैश्विक राजनीति में अमरीकी साम्राज्यवाद की दादागीरी बरक़रार है। ट्रम्प द्वारा टैरिफ़ का हथियार की तरह इस्तेमाल शुरू किये जाने के बाद तो ‘दादागीरी’ शब्दशः लागू होती दिख रही है। प्रभात पटनायक के शब्दों में, यह ‘साम्राज्यवाद की एक पूरी तरह से नयी कार्यनीति है’। निरुपनिवेशीकरण के बाद तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों ने जो नियंत्रणात्मक रणनीति अपनायी थी, उसके ख़िलाफ़ साम्राज्यवाद ने लगातार अपनी लड़ाई जारी रखी। अंततः भ्रामक उदाहरणों के धुआँधार प्रचार, विभिन्न देशों के बड़े पूँजीपतियों और उच्च मध्यवर्ग के लोभ-लाभ, तथा विश्व बैंक और आइएमएफ़ द्वारा आगे बढ़कर उन देशों के वित्त मंत्रालयों में निर्णयकारी पदों पर अपने कर्मचारियों की नियुक्ति के कारण नियंत्रणात्मक नीति को सभी जगहों पर देर-सबेर तिलांजलि दी गयी। ‘अब यह स्पष्ट है कि तीसरी दुनिया के देशों को ललचाकर विकसित दुनिया के बाज़ारों पर निर्भर बनाने और “नियम-आधारित” अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की बड़ी-बड़ी बातें करने के बाद, साम्राज्यवाद अब टैरिफ़ के ज़रिये उन्हें धौंस में लेने की स्थिति में आ गया है जिससे उन्हें अपने फ़रमान मानने के लिए मजबूर कर सके’। हम जो हर दिन टैरिफ़ वॉर की बातें सुनते हैं, उन्हें इस पृष्ठभूमि में देखे जाने की ज़रूरत है। अमरीकी साम्राज्यवाद अब उसका इस्तेमाल उन मुल्कों की बाँह मरोड़ने के लिए कर रहा है जिनकी अर्थव्यवस्था की निर्यात पर निर्भरता काफ़ी बढ़ गयी है, और जो बहुध्रुवीय होती विश्व-व्यवस्था में अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके पश्चिमी सहयोगियों के हितों से अलग कोई फ़ैसला लेने की दिशा में क़दम बढ़ाते हैं।
1.4 अमरीकी साम्राज्यवाद ने भूमंडल पर हर जगह दूसरों के फटे में टांग अड़ा रखी है और अपने सामराजी मंसूबों के हक़ में युद्धों का इस्तेमाल कर रहा है। यूक्रेन के मामले में वह शांति प्रयासों का जितना भी बड़बोलापन दिखा ले, इस युद्ध में रूस और यूक्रेन को झोंके रखने की परिस्थितियाँ निरन्तरता में अमरीका और कुख्यात नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाईजेशन (नाटो) ने ही बना रखी है। पश्चिम एशिया में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए वह इस्राइल-फिलिस्तीन युद्ध में, जिसे अब युद्ध के बजाये एकतरफ़ा जनसंहार कहा जाना चाहिए, इस्राइल को युद्ध-सामग्री की आपूर्ति करने के साथ-साथ भारी आर्थिक और राजनयिक मदद पहुँचा रहा है। उसने संयुक्त राष्ट्र में लाये गये अविलंब युद्ध-विराम के हर प्रस्ताव के ख़िलाफ़ अपनी वीटो शक्ति का इस्तेमाल किया है और 2023 के बाद से इस्राइल को हथियारों की निर्बाध आपूर्ति करते हुए तथा मौद्रिक मदद को पाँच-गुना बढ़ाते हुए यह सुनिश्चित किया है कि पश्चिम एशिया के शक्ति-संतुलन में इस्राइल कहीं से कमज़ोर न पड़े।
1.5 लगभग दो सालों से जारी युद्ध में अब तक गज़ा पट्टी के 62 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इस आँकड़े में वे मृतक शामिल नहीं हैं जो स्वास्थ्य-सेवाओं की तबाही, प्रदूषित पानी, सफ़ाई के अभाव आदि के कारण हुई बीमारियों से मर रहे हैं और अब खाने की आपूर्ति बाधित होने के कारण भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। इन्हें शामिल किया जाए तो संख्या कई गुना ज़्यादा ठहरती है। गज़ा में मुफ़्त सेवाएँ देनेवाले 99 स्वास्थ्यकर्मियों ने 2 अक्टूबर 2024 को, युद्ध की शुरुआत के एक साल पूरे होने से ठीक पहले, तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बिडेन को जो खुला पत्र लिखा था, उसमें तमाम सबूतों के आधार पर यह अनुमान व्यक्त किया था कि ‘गज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जितना बताया है, युद्ध से होने वाली मौतों की संख्या उससे कई गुना ज़्यादा है।’ उनका तर्क यह था कि स्वास्थ्य-सेवाओं की सुनियोजित तरीक़े से की गयी तबाही और कुपोषण, प्रदूषण आदि के कारण फैलनेवाली महामारियों से जो मौतें हो रही हैं, उन्हें युद्ध से होने वाली मौतें न मानने का कोई कारण नहीं। ध्यातव्य है कि यह बात साल भर पहले की है। बीच में 19 जनवरी 2025 से युद्ध-विराम भी लागू हुआ जिसका इस्राइल ने सैकड़ों बार उल्लंघन करने के बाद अंतत 18 मार्च 2025 को पूरी तरह से युद्ध-विराम की समाप्ति की घोषणा कर दी। उसके बाद से इस्राइल की क्रूरता सारी हदें पार कर चुकी है; गज़ा की एक बड़ी आबादी को बारूद से और बचे हुओं को भुखमरी से मौत के घाट उतार देने के उसके मंसूबे बहुत साफ़ हैं। पूरी दुनिया में जगह-जगह उसके इस जनसंहार के ख़िलाफ़ अभूतपूर्व प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन अमरीकी दादागिरी और उसके बल पर इस्राइल को मिली हुई छूट के आगे सब लाचार हैं।
1.6 ग़ौर किया जाना चाहिए कि अमरीका और इस्राइल का प्रति व्यक्ति सैन्य खर्च विश्व में क्रमशः पहले और दूसरे नंबर पर है। अमरीका का प्रति व्यक्ति सैन्य ख़र्च विश्व के प्रति व्यक्ति औसत से 12.6 गुना ज़्यादा है और इस्राइल का 7.2 गुण ज़्यादा। यह तथ्य ट्राईकॉन्टीनेंटल शीध संस्थान के जनवरी 2024 के एक अध्ययन में सामने आया। उसी अध्ययन में यह भी पाया गया कि अमरीका और वैश्विक उत्तर के उसके सहयोगियों के हिस्से में विश्व के कुल सैन्य ख़र्च का 74.3 फ़ीसद आता है। इनमें से अधिकांश मुल्कों के साथ (नाटो समूह) अमरीका की बहुपक्षीय सैन्य संधि है और बचे हुए देशों के साथ द्विपक्षीय। इसके बरक्स वैश्विक दक्षिण के देशों के बीच ऐसा कोई सैन्य सहयोग मौजूद नहीं है।
1.7 इसके बावजूद वैश्विक दक्षिण से जो नयी चुनौतियाँ उभरनी शुरू हुई हैं, वे अमरीका निर्देशित विश्व-व्यवस्था के पतन की शुरुआत को इंगित करती हैं। प्रौद्योगिकी और दुर्लभ खनिजों (रेयर अर्थस) के मामले में चीन की विशिष्ट स्थिति वैश्विक उत्तर के लिए चिंता का कारण है। लंबे अंतराल के बाद हम एक बहुध्रुवीय विश्व में हैं जहाँ वर्चस्व की चली आती व्यवस्था पहले की तरह स्थिर और आशंका-मुक्त नहीं है।
देश दशा
2.1 पिछले ग्यारह सालों से व्यापक अर्थों में हम कमोबेश एक जैसे सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के बीच हैं जिसे अपने विश्लेषणों में हमने फ़ासीवादी हिंदुत्व और नवउदारवाद के ज़हरीले गठजोड़ के रूप में देखा है। सदी के दूसरे दशक की शुरुआत से ही इस प्रक्रिया का आग़ाज़ हो गया था जिसने 2014 में मोदी सरकार की स्थापना के साथ एक ठोस शक्ल अख्तियार कर ली। उसके बाद से हम जिस हिंदुस्तान में रह रहे हैं, वह संवैधानिक मूल्यों का माखौल उड़ाते आततायी हिंदू राष्ट्र की शक्ल में ढलता हुआ हिंदुस्थान है जहाँ एक ओर धार्मिक अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, महिलाएँ और पूरा मेहनतकश तबका कल्पनातीत दुर्दशा की ओर धकेला जा रहा है तो दूसरी ओर खरबपतियों की संख्या में साल-दर-साल इज़ाफ़ा हो रहा है।
2.2 हमने इस बात पर भी लगातार बल दिया है कि यद्यपि एक लेखक संगठन के रूप में लेखन और संस्कृति-कर्म से जुड़े मुद्दे हमारा केंद्रीय सरोकार हैं, ‘इन्हें मौजूदा यथार्थ की समग्रता से अलग करके नहीं देखा जा सकता। कलात्मक और वैचारिक अभिव्यक्तियों का दमन, निस्संदेह, समाज में जारी उस दमन का ही विस्तार है जिसके ख़िलाफ़ ये अभिव्यक्तियाँ हमें जाग्रत करती हैं और जिन्हें जारी रखने के लिए अभिव्यक्तियों को कुचलना अनिवार्य हो जाता है। हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना को साकार करने के लिए मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिकों में तब्दील करना, हिन्दू समाज की विविधता को ख़त्म कर हिंदुत्व का एकाश्म गढ़ना, दलितों और स्त्रियों को मातहत की भूमिका में रखना और मनुस्मृति के आदर्श के अनुरूप वर्णाश्रम का श्रेणीक्रम लागू करना प्राथमिक महत्व के कार्यभार हैं। जो विचार और कला इस कार्यभार के ज़मीनी अमल की आलोचना करे, उसे चुप कराना इसका सम्बद्ध कार्यभार है। इस तरह कलाकारों और विचारकों पर हो रहे हमलों को इस देश के अल्पसंख्यकों, दलितों और स्त्रियों पर हो रहे हमलों से अलग करके नहीं समझा जा सकता।’
फ़ासीवादी हिन्दुत्व का हमला
2.3 हमारे पिछले राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद के इन तीन सालों में भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की मुहिम अधिक सघन हुई है। एक तरफ़ केंद्र और अनेक राज्यों की सरकारें अपनी असंवैधानिक कारगुज़ारियों और नये-नये क़ानूनों के अमल के ज़रिये इस काम को आगे बढ़ा रही हैं तो दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके खड़े किये हुए विभिन्न संगठन हमारे साझा सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को ध्वस्त करने में लगे हुए हैं। इस ताने-बाने के क्षरण को आनंद तेलतुम्बड़े ने, उचित ही, मोदी सरकार द्वारा भारत को पहुँचाये गये किसी भी और नुकसान के मुक़ाबले ज़्यादा बड़ा नुकसान बताया है और आँकड़ों के आधार पर बताया है कि ‘2014 से पहले के और वर्तमान भारत के मुख्य सामाजिक सूचकों की तुलना करें तो सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद, बौद्धिकता-विरोध और सांस्थानीकृत भेद-भाव की दिशा में तीखा अपसरण साफ़ दिखता है’ (द वायर, 26 जून 2025)। यहाँ हमारी बात मुख्यतः पिछले तीन सालों में हिन्दू राष्ट्र के लिए सघनतर हुई मुहिम पर केंद्रित रहेगी।
2.4 हमारा संविधान कहता है कि राज्य की अपनी कोई धार्मिक संलग्नता या प्राथमिकता नहीं होगी, पर क्रमशः नये संसद भवन के उद्घाटन और राम मंदिर के उद्घाटन के मौक़ों पर जो दृश्य उपस्थित हुआ, वह हमारे संवैधानिक उसूलों का मखौल उड़ाने जैसा था। 28 मई 2023 को तमाम हिंदू प्रतीकों और रीति-रिवाजों के बीच पंडों-पुरोहितों से घिरे प्रधानमंत्री ने संसद भवन का उद्घाटन किया जहाँ वैदिक मंत्रोच्चार के साथ सेंगोल की प्रतिष्ठा हुई। यह वही सेंगोल था जिसे जवाहरलाल नेहरू ने उपहार-स्वरूप ग्रहण करने के बाद उसकी सही जगह, म्यूज़ियम में पहुँचा दिया था और जिसे द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के संस्थापक श्री अन्नादुरै ने लुटेरे मठाधीशों द्वारा सरकार को दी गयी घूस बताते हुए कहा था कि ‘हमारे भावी शासक अगर लोगों के तन-मन का शोषण करने के लती लोगों से ऐसे राजदंड स्वीकार करने लगें तो यह शुभ संकेत नहीं होगा।’
2.5 इससे एक क़दम आगे बढ़कर, 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन का अवसर आधिकारिक स्तर पर हिन्दू राष्ट्र की घोषणा होने जैसा था। यहाँ सारे कर्मकांड देश के प्रधानमंत्री के हाथों संपन्न हुए और इस उद्घाटन को आगामी चुनावों में भुनाने के लिए भी एक देशव्यापी अभियान की शक्ल दी गयी। तमाम सरकारी महकमों, बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में आधे दिन की छुट्टी घोषित हुई, तमाम माध्यमों से सुनिश्चित किया गया कि देश भर की आबादी इस उद्घाटन की साक्षी बने। राम मंदिर का उद्घाटन संपन्न होते ही काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा के शाही ईदगाह का मसला गरम किया गया जिनके बारे में हिंदुत्ववादियों का दावा है कि वे मूलतः हिंदू मंदिर हैं और उन्हें हिंदू समुदाय को सौंपा जाना चाहिए। फिर संभल की शाही जामा मस्जिद और अजमेर की दरगाह का मामला भी इसमें जुड़ गया। प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप ऐक्ट 1991 के बावजूद इन जगहों पर स्थानीय अदालतों ने मस्जिद परिसर के सर्वेक्षण की इजाज़त दी ताकि यह तय किया जा सके कि वहाँ कभी कोई मंदिर था या नहीं, और आश्चर्यजनक ढंग से भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने भी यह कहकर इस सर्वेक्षण की इजाज़त बरक़रार रखी कि इससे 1991 के क़ानून का उल्लंघन नहीं होता है। इस तरह के फ़ैसले के साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भविष्य के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा हथियार हिंदुत्ववादियों को सौंप दिया है।
2.6 अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाले अनेक कठोर क़ानून इस बीच सामने आये। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2021 के धर्मांतरण विरोधी क़ानून में संशोधन कर प्रोहिबिशन ऑफ़ अनलॉफुल कन्वर्शन ऑफ़ रिलीजन (अमेंडमेंट) बिल 2024 पारित किया, जिसके ज़रिये अंतरधार्मिक विवाहों को और मुश्किल बनाते हुए सिर्फ़ पीड़ित पक्ष को ही नहीं, किसी को भी एफ़आईआर दाख़िल करने की छूट दी गयी है और सज़ा में भी अच्छा-ख़ासा इज़ाफ़ा किया गया है। इनके अलावा भी अनेक कठोर प्रावधान शामिल किये गये हैं। इसी तरह के मुस्लिम-विरोधी क़ानून अन्य भाजपा-शासित राज्यों में भी बने हैं। उत्तराखंड में सामान नागरिक संहिता लागू कर दी गयी है और भाजपा की अन्य राज्य सरकारों के लिए वह संहिता एक मॉडल का काम कर रही है। स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर मुसलमानों को निशाने पर लेना इस संहिता की विशेषता है जो दो बातों से बिलकुल स्पष्ट हो जाती है। एक तो यह कि अनुसूचित जनजातियों को इस सामान नागरिक संहिता के दायरे से बाहर रखा गया है, और दूसरे, सहजीवन संबंध का पंजीकरण कराने की शर्त थोपी गयी है, पंजीकरण कराने के लिए अधिकारी द्वारा कई तरह की पूछताछ का प्रावधान रखा गया है और निर्धारित अवधि के भीतर पंजीकरण न होने पर उसे दंडनीय अपराध की श्रेणी में रख दिया गया है। इससे पता चलता है कि क़ानून बनाने वालों के सरोकार में तथाकथित लव जिहाद शामिल है और मुसलमानों को निशाना बनाना तथा स्त्री को निजी पसंद के अधिकार से वंचित करना इसका मुख्य उद्देश्य है।
2.7 भाजपा-शासित राज्यों में इस तरह के क़ानूनों को अमल में लाना तो एक समस्या है, उससे कहीं से कमतर यह समस्या नहीं है कि उन राज्यों में मुख्यमंत्री से लेकर विधायक तक, ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए सभी लोग सामाजिक वातावरण को विषाक्त बनाने वाला ज़हर उगलने में मुब्तिला हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पिछले साल झारखंड, दिल्ली आदि राज्यों के चुनाव के समय ‘बँटोगे तो कटोगे’ का नारा ही दे दिया जिसमें यह स्पष्ट संदेश था कि पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में स्वयं को न देखकर हिंदू के रूप में देखो, वरना ‘उनके’ हाथों कटोगे। यही संदेश प्रधानमंत्री ने भी ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ के नारे के माध्यम से दिया। यह शर्मनाक है कि भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री और उसके दल के लोग ‘एक’ होने और ‘न बँटने’ का संदेश पूरे देश या प्रदेश की जनता के लिए नहीं देते, बल्कि एक समुदाय के लिए देते हैं! यह संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों द्वारा सीधे-सीधे नफ़रती संदेश देना है।
2.8 वस्तुतः सार्वजनिक रूप से दिये जाने वाले नफ़रती बयानों के इतने उदाहरण इस बीच सामने आये हैं कि उनमें से गिनती के उदाहरणों का उल्लेख करने का कोई मतलब नहीं। ऐसे बयान देनेवालों में संवैधानिक पदों पर बैठे नेताओं से लेकर हिन्दुत्व के झण्डाबरदार बाबा लोग और गली के गुंडे तक शुमार हैं। रामनवमी, गणेश पूजा, हनुमान जयंती जैसे धार्मिक अवसरों को मुस्लिम-वरोधी गाली-गलौज और हिंसा में बदल डालना हिन्दुत्ववादियों की रणनीति रही है और अब उसका पैटर्न बहुत जाना-पहचाना है। इनके जुलूस मुस्लिम-बहुल इलाक़ों से निकाले जाते हैं, मस्जिदों और लोगों के घरों के आगे खड़े होकर ये कानफ़ाड़ू शोर और गाली-गलौज के ज़रिये उकसावा देते हैं, फिर दोनों समुदायों में टकराव होता है जिसके नतीजे के तौर पर पुलिस मुस्लिम समुदाय से धड़ाधड़ गिरफ्तारियाँ करती है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद किसी बहाने से उनके घरों को बुलडोज़र से ज़मींदोज़ किया जाता है। इसका एक प्रारूपिक उदाहरण मेवात के नूह में ब्रजमंडल जलाभिषेक यात्रा के दौरान हुआ दंगा है जिसका हवाला 2024 की हमारी केन्द्रीय परिषद बैठक की रिपोर्ट में दिया गया था। शुद्ध रूप से सांप्रदायिक उकसावे के कारण हुआ वह दंगा पूरे नूह के मुस्लिम समुदाय पर प्रशासन के क्रैक डाउन का बहाना बन गया जिसमें निरपराधों की गिरफ़्तारी से लेकर बुलडोज़र (अ)न्याय तक, तमाम ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक तौर-तरीक़े शामिल थे। इतने बड़े पैमाने पर निर्दोष लोगों की गिरफ्तारियाँ हुईं कि नूह के गाँव के गाँव गिरफ़्तारी के डर से ख़ाली हो गये और पुरुषों ने अरावली की पहाड़ियों में जाकर शरण ली। इसके साथ ही, बिना किसी पूर्व सूचना के मुस्लिम समुदाय के भवनों से लेकर झोंपड़ों तक को, अवैध ढाँचा होने के नाम पर, बुलडोज़रों से ध्वस्त कर दिया गया। ध्वस्त किये गये ढाँचों की संख्या 750 (हर्ष मंदर, स्क्रॉल.इन) से लेकर 1208 (हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट) तक होने का अनुमान है। यह सरकारी तौर पर अंजाम दी गयी ऐसी कार्रवाई थी जिसके बारे में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की डिविज़न बेंच को भी कहना पड़ा कि “… क़ानून और व्यवस्था की समस्या की आड़ में कहीं एक ख़ास समुदाय के भवनों को ही तो धराशायी नहीं किया जा रहा और राज्य द्वारा नृजातीय सफ़ाये/एथनिक क्लीनज़िंग की क़वायद तो नहीं हो रही है!”
2.9 धर्मांतरण-विरोधी क़ानून का सहारा लेकर ग़लत तरीक़े से ईसाई समुदाय के लोगों के उत्पीड़न की घटनाएँ भी सामने आती रही हैं। अभी पिछले महीने ही केरल की दो इसाई ननों पर छत्तीसगढ़ में बजरंग दल के लोगों ने मानव तस्करी और धर्मांतरण के आरोप लगाकर हमला किया और उनके साथ हिंसा करने के बाद पुलिस के हवाले कर दिया जहाँ से लगभग हफ़्ते भर बाद उन्हें जमानत मिली। ऐसी घटनाओं के साथ-साथ चर्च और प्रार्थना सभाओं पर हमले की घटनाएँ भी लगातार बढ़ी हैं। 2023 में ऐसी 734 और 2024 में 834 घटनाएँ रिपोर्ट की गयीं।
2.10 भाजपा के अब तक के शासनकाल में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से पूरे मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से स्थायी रूप से निष्काषित करने या पूरी तरह हाशिये पर डालने के क़दम उठाये जाते रहे हैं। पिछले आम चुनावों में भाजपा की ओर से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी का न होना और फिर मंत्रिमंडल का गठन होने पर मुस्लिम समुदाय से एक भी मंत्री का न होना इस बात का स्पष्ट संदेश है कि वे इस पूरे समुदाय की उपस्थिति को ही अनावश्यक और अनपेक्षित मानते हैं। संस्कृति के क्षेत्र से भी वे मुस्लिम प्रभाव का नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं जिसके अनेक उदाहरण हमारी केंद्रीय परिषद और कार्यकारिणी की बैठकों की रिपोर्ट में मौजूद हैं।
2.11 भारत को धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक गणराज्य से एक हिन्दू राष्ट्र में तब्दील कर देने की यह मुहिम, ज़ाहिर है, संविधान के बुनियादी ढाँचे को बदलकर ही अपनी मंज़िल तक पहुँच सकती है। इसीलिए इस बीच बार-बार भाजपा-आरएसएस से जुड़े क़ानूनविद सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को बहस में लाते रहे हैं जिसमें संविधान के बुनियादी ढाँचे की अपरिवर्तनीयता की बात की गयी है। पूर्व-उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ अपने विलुप्त होने से पहले कई बार इस अपरिवर्तनीयता वाली बात को लोकतंत्र-विरोधी बताकर चर्चा में ला चुके थे। निश्चित रूप से, यह कहना ग़लत होगा कि उनके विलुप्त होने से यह मुद्दा भी विलुप्त हो गया है। इसी तरह संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘सेक्युलर’ शब्द को हटाने की बात बार-बार उठती है और उसके पीछे यह तर्क होता है कि आपातकाल में किये गये 42वें संविधान संशोधन के कई अन्य बिंदु बाद में ख़ारिज कर दिये गये तो प्रस्तावना में शामिल किया गया यह शब्द क्यों बचा हुआ है? यह फिर से बुनियादी ढाँचे से जुड़ा हुआ मुद्दा ही है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायलय ने अपने एक फ़ैसले में स्पष्ट रूप से ‘सेकुलरिज़्म’ को संविधान के बुनियादी ढाँचे का अंग बताया है।
2.12 शिक्षा पर फ़ासीवादी हिन्दुत्व का हमला बहुमुखी है। शिक्षा का अधिकाधिक केन्द्रीकरण करते हुए समवर्ती सूची के इस विषय में राज्यों की पहल को पूरी तरह से ख़त्म कर देना इस हमले का एक पहलू रहा है। इसके साथ-साथ पाठ्यक्रम में ऐसे बदलाव करना जिससे भारतीय इतिहास और समाज संबंधी सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा मिले और तार्किक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास बाधित हो, इसकी मुसलसल कोशिश पिछले सालों में चलती रही है। इन तीन वर्षों में भी अनेक बदलाव, मुख्यतः छँटनी के काम, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किये गये और दिलचस्प यह कि उसके लिए कोविड से परेशान विद्यार्थियों को राहत देने का बहाना सामने रखा गया जबकि कोविड का दौर गुज़रे डेढ़-दो साल बीत चुके थे। इन तीन वर्षों में बड़े पैमाने पर पाठशालाएँ बंद भी की गयीं जो कि शिक्षा के अधिकार के तहत प्रस्तावित/निर्देशित ‘पड़ोस की पाठशाला’ की अवधारणा पर ही एक प्रहार है। सरकारी विद्यालयों को बंद करके निजी विद्यालयों के लिए गुंजाइश बनाना, उच्च शिक्षा संस्थानों में एक तरह की अव्यवस्था पैदा कर निजी संस्थानों के लिए अवसर मुहैया कराना, विश्वविद्यालयों में आरएसएस के लोगों की नियुक्ति कर सरकारी उच्च शिक्षा को चरम स्तरहीनता की ओर धकेलना—इस सरकार की ये कारगुज़ारियाँ बिना किसी दुराव-छिपाव के जारी हैं। विश्वविद्यालयों में सभी निर्णयकारी पदों पर आरएसएस के लोग बैठे हैं और परिसर भगवा कार्यक्रमों के अड्डे बन चुके हैं जहाँ भारतीय ज्ञान परंपरा के नाम पर हास्यास्पद भाषण सुनाये जाते हैं और ‘जय श्रीराम’ के नारे लगते हैं। ग़ैर-भाजपा शासित अनेक राज्यों के राज्य विश्वविद्यालयों में वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिए यूजीसी ने कुलपतियों की नियुक्ति के लिए नये नियमों का जो मसौदा जारी किया है, उसमें राज्य सरकारों की भूमिका को ख़त्म कर वहाँ के राज्यपाल, जो विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते हैं, के हाथ में पूरा अधिकार केंद्रित कर दिया गया है। यह सभी राज्यों में परिसरों का भगवाकरण करने की चाल है।
2.13 स्त्रियों के प्रति भाजपा-आरएसएस का पितृसत्ताक दृष्टिकोण जगज़ाहिर है। वे उन्हें पारंपरिक भूमिका में देखना चाहते हैं, जिसका मतलब है, चौका-बर्तन और सेवा-सुश्रुषा के कामों में लगे रहना, अर्थात ऐसा श्रम करना जिसका मुद्रा में आकलन कर उसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद का हिस्सा न माना जाये। कोई हैरत नहीं कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के नारों के बावजूद भारत अभी भी स्त्रियों के लिए दुनिया के सबसे असुरक्षित देशों में से एक है। मोदी सरकार के दौर में स्त्री के विरुद्ध अपराधों में 28 फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा 2024 में सामने लाये गये आँकड़ों के मुताबिक़, 2022 में भारत में औसतन हर घंटे महिलाओं के विरुद्ध 50 अपराध हुए और प्रति दिन 88 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ जिनमें से 11 महिलाएँ दलित जातियों से आती थीं। बलात्कारियों को सज़ा मिलने का रिकॉर्ड इतना ख़राब रहा है कि हर 100 मामले में 75 आरोपी छूट गये। भाजपा-आरएसएस के नेता जिस ‘नारी शक्ति’ का बराबर उल्लेख करते हैं, उसकी ज़मीनी सच्चाई का नग्न प्रदर्शन तब हुआ जब 2023 में महिला पहलवानों ने रेसलिंग फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न के आरोप की सुनवाई के लिए आंदोलन शुरू किया। पूरी दुनिया ने ‘बेटियों’ और ‘नारी शक्ति’ के बारे में प्रधानमंत्री की लफ़्फ़ाज़ी को तार-तार होते देखा जब भाजपा सरकार निर्लज्जता से अपने सांसद का बचाव करने, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान बढ़ानेवाली महिला पहलवानों को अपमानित करने में जुटी रही।
2.14 सनातनी मनुवादी व्यवस्था में दलित अधिकारों की बात बेमानी है। आरएसएस समानता की नहीं, समरसता की बात करता है, जिसका मतलब है, परंपरागत श्रेणीक्रम को मानते हुए अपने लिए निर्धारित जातिगत कर्तव्यों एवं सामाजिक स्थान से संतुष्ट रहना। इसीलिए दलितों को सबक़ सिखाने वाले अपराध मोदी सरकार के दौर में बहुत तेज़ी से बढ़े हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2021 से 2022 के बीच ही अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराधों में 13 फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। कुल 26 फ़ीसद मामलों के साथ उत्तर प्रदेश इस मामले में अव्वल नंबर पर है और राजस्थान तथा मध्य प्रदेश क्रमशः 15 फ़ीसद और 14 फ़ीसद मामलों के साथ दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं। अकारण नहीं है कि ये सभी भाजपा शासित राज्य हैं।
2.15 सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बंद करने और हर जगह निजीकरण को प्रोत्साहित करने की भाजपा-आरएसएस की नीति से उसके दलित-पिछड़ा-विरोध का मक़सद घलुए में पूरा होता है। संविधान में की गयी आरक्षण की व्यवस्था निजी क्षेत्र में लागू नहीं है, लिहाज़ा निजीकरण के माध्यम से हिन्दुत्ववादियों को अपने आरक्षण-विरोध का एजेंडा पूरा करने में मदद मिलती है।
आम आदमी की बदहाली
2.16 गुज़रे एक-दो महीनों के भीतर देश की आर्थिक प्रगति के बड़े-बड़े दावे सामने आये हैं। एक दावा यह है कि हम जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। यह दावा करते हुए इस बात को छुपा लिया जाता है कि हमारी आबादी जापान की आबादी की 10 गुनी से भी ज़्यादा है। इसी तरह यह दावा भी सामने आया कि विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, हम गिनी गुणांक के आधार पर दुनिया की चौथी सबसे अधिक समतामूलक अर्थव्यवस्था हैं। यह दावा करते हुए इस बात को छुपा लिया जाता है कि अव्वल तो विश्व बैंक का विश्लेषण पूरी दुनिया में हमारी जगह बताने के बजाये उसके अध्ययन में शामिल 61 देशों के बीच हमारी जगह बताता है; दूसरे, गिनी गुणांक निकालने के लिए उस अध्ययन में बहुत मिश्रित क़िस्म के आँकड़ों को लिया गया है और हमारे देश के मामले में आय के वितरण की जगह उपभोग व्यय के वितरण के आँकड़े आधार बने हैं जिनकी रोशनी में बराबरी और ग़ैर-बराबरी की बात करना सुसंगत नहीं है। सच्चाई यह है कि लोगों की वास्तविक आय में गिरावट आयी है। प्रभात पटनायक गिनी गुणांक के आधार पर बतायी गयी कम ग़ैर-बराबरी के दावों की पोल खोलते हुए यह निष्कर्ष देते हैं कि “अगर गिनी गुणांक असमानता का संतोषजनक माप होता और अगर भारत में आय की असमानता वाकई घटकर बहुत निचले स्तर पर आ गयी होती, तो देश में भूख और कुपोषण के सर्वव्यापी होने तथा बढ़ रहे होने की व्याख्या करना मुश्किल होगा। चूँकि सरकार जीडीपी की वृद्धि दर ऊँची बनी रहने का दावा करती है, तब भारत में असमानता घटने के साथ आबादी के सबसे निचले तबकों की आय में भी उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई होनी चाहिए। और चूँकि आय बढ़ने के साथ खाद्यान्न का उपभोग बढ़ता है, तो न तो भारत विश्व भूख सूचकांक में 125 देशों के बीच 107 वें स्थान पर होता और न ही भारतीय महिलाओं के बीच रक्ताल्पता के मामले बढ़ रहे होते। और कैलोरी आहार के मानक के नीचे आबादी का अनुपात भी, जिसे पहले के योजना आयोगों द्वारा ग़रीबी को परिभाषित करने का पैमाना माना गया था, बढ़ नहीं रहा होता। जीडीपी वृद्धि के दावों की इस बिगड़ते हुए स्वास्थ्य संबंधी संकेतकों के साथ, जो खुद सरकारी आँकड़ों से निकलते हैं, एक ही तरह से संगति बैठ सकती है, कि यह माना जाए कि आय वितरण की स्थिति बदतर हो रही है।”
2.17 निश्चित रूप से जीडीपी की वृद्धि से पैदा हुई आमदनी का लाभ हमारे देश की मेहनतकश जनता को नहीं मिल रहा है। थॉमस पिकेट्टी एवं अन्य के काम से यह पता चलता है कि 2023-24 में देश की शीर्ष 1 फ़ीसद आबादी का देश की राष्ट्रीय आय में हिस्सा 23 फ़ीसद था जो कि पिछले सौ सालों में अधिकतम है। उस 1 फ़ीसद के पास देश की कुल संपदा का 40 फ़ीसद से अधिक हिस्सा था जबकि निचली 50 फ़ीसद आबादी के पास कुल संपदा का महज़ 3 फ़ीसद था। 2014 में देश में बिलियनेअर्स की संख्या 100 थी और मोदी सरकार के 10 सालों के शासन में उनकी संख्या बढ़कर 200 हो गयी। इसके बरक्स आम जनता की स्थिति को देखें तो निजीकरण के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाएँ बहुत महँगी हो चुकी हैं और उनमें उसे जितना ख़र्च करना पड़ता है, उसके आगे उसकी आय में हुई मामूली बढ़ोत्तरी नगण्य है, यानी वास्तविक अर्थों में उसकी आय घटी है। पीछे भारतीय महिलाओं में बढ़ती हुई रक्ताल्पता, भूख और कुपोषण, मानक कैलोरी आहार के नीचे की आबादी के बढ़ते हुए अनुपात की बात की गयी, वह बढ़ती हुई ग़ैर-बराबरी के कारण आय में आयी इस कमी का परिणाम है। सरकार हर साल कॉर्पोरेट करों में 1 लाख 45 हज़ार करोड़ की छूट दे रही है जबकि पैसों की कमी के कारण जनकल्याणकारी योजनाओं में लगातार कटौती की जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, मनरेगा, खाद्य सब्सिडी, उर्वरक सब्सिडी—हर मद में कटौती हो रही है जिससे आम आदमी की आमदनी उसकी ज़रूरियात को पूरा करने के लिए बेहद नाकाफ़ी ठहर रही है। किसानों और मज़दूरों पर इसकी मार सबसे तेज़ है और इन वर्गों के भीतर भी दलित, स्त्री और आदिवासी हिस्से अधिकतम प्रभावित हैं।
तानाशाही बेलगाम
2.18 भाजपा-आरएसएस की मंशाएँ—चाहे वे हिन्दू राष्ट्र से संबंधित हों या फिर बड़े पूँजीपति वर्ग को लाभ पहुँचाने से—एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर पूरी नहीं हो सकतीं जहाँ खुली बहस और विचार-विमर्श से चीज़ें तय हों और संस्थाएँ तथा संवैधानिक निकाय कार्यपालिका के अवैध निर्देशों के दबाव में न रहें। इसीलिए पिछले 11 सालों से हम देख रहे हैं कि हर स्तर पर लोकतंत्र के ढाँचे को विखंडित करने की कोशिशें जारी है और बहुत दूर तक कामयाब हो चुकी हैं। सारे अहम और दूरगामी फ़ैसले संसद में समुचित बहस के बगैर पारित करवाये जाते रहे हैं, न्यायपालिका सरकार के गहरे दबाव में है, केंद्रीय एजेंसियाँ सरकार की ओर से धमकाने, बदला निकालने और सबक़ सिखाने का ज़रिया बन चुकी हैं, यूएपीए और पीएमएलए जैसे क़ानूनों का उपयोग विपक्ष के नेताओं और मुखर लेखकों-पत्रकारों तथा कार्यकर्ताओं को जेल में ठूँसने के लिए हो रहा है, चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता बस कहने की चीज़ रह गयी है और वे सरकार के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं।
2.19 2023 में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों के चयन के लिए संसद से चयन समिति का संघटन पारित हुआ जिसमें स्पष्ट रूप से कार्यपालिका का बहुमत होना सुनिश्चित किया गया था। प्रधानमंत्री समेत सरकार के दो लोग और एक विपक्ष का नेता—इस संघटन में हमेशा प्रधानमंत्री के पसंदीदा व्यक्ति का ही चयन होगा, यह कौन नहीं जानता! इसके पीछे मंशा चुनावों को अपनी मुट्ठी में करने की थी और वह हुआ। पहले भी भाजपा-आरएसएस की सरकार चुनाव आयुक्तों पर कई तरह के दबाव बनाये रखती थी जो कि 2019 के आम चुनावों में साफ़ दिखा था, लेकिन अब तो यह एकदम खुला खेल हो चुका है। 2024 के लोकसभा चुनावों और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में तो यह स्पष्ट दिखा कि चुनाव आयोग न सिर्फ़ ज़िम्मेदार पदों पर बैठे भाजपा नेताओं के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण संबंधी प्रयासों और नफ़रती बयानों का कोई संज्ञान नहीं ले रहा है, बल्कि चुनावों में होने वाली कई तरह की गड़बड़ियों—मसलन, 5 बजे तक हुए मतदान और अंतिम मतदान की संख्या में बहुत बड़ा अंतर, तीन महीने के अंतराल पर होने वाले दो चुनावों में मतदाताओं की कुल संख्या में भारी इज़ाफ़ा, राज्य की कुल वयस्क आबादी से अधिक मतदाताओं की संख्या—का कोई उत्तर देने को तैयार नहीं है। विपक्षी दलों द्वारा वीडियो फुटेज और प्रीजाइडिंग ऑफ़िसर की डायरी आदि की माँग किये जाने पर जब हरियाणा एंड पंजाब हाईकोर्ट ने यह मुहैया कराने को कहा तो चुनाव आयोग ने सरकार के साथ मिलकर मूल नियमों में ही बदलाव कर दिये ताकि ये चीज़ें मुहैया कराने की मजबूरी न रहे। ग़रज़ कि अब चुनाव आयोग कई तरह की अनियमितताओं के लिए जवाबदेह नहीं है और आपको अनियमितताओं के सबूत इकठ्ठा करने की छूट भी नहीं दे सकता। इसके बावजूद विपक्ष ने मतदाता सूची में आयोग द्वारा की गयी गड़बड़ियों को पकड़ने की मुस्तैदी दिखायी है और उसे लेकर सरकार तथा आयोग का रवैया बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रहा है। अगर एक देश में निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने वाले संवैधानिक निकाय का यह हाल है तो वह लोकतंत्र होने की पहली शर्त पर ही अनुत्तीर्ण कहा जायेगा।
2.20 सत्रहवीं लोकसभा के समय में निहायत अलोकतांत्रिक तरीक़े से पारित कराया गया भारतीय न्याय संहिता बिल 2023 अगले वर्ष 2024 की पहली जुलाई से अमल में आ गया। आईपीसी को प्रतिस्थापित करने वाली यह भारतीय न्याय संहिता सरकार पर सवाल खड़े करनेवालों के लिए कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है। यह पुलिस के हाथों में अधिक अधिकार सौंपती है और अधिकारियों द्वारा मनमानी व्याख्या कर उसका दुरुपयोग किये जाने की गुंजाइश इसमें बहुत ज़्यादा है। सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह क़ानून को स्थगित रखने के सबंध में जो फ़ैसला दिया था, उसके मद्देनज़र ‘राजद्रोह/सिडिशन’ शब्द को तो यहाँ औपचारिक रूप से हटा दिया गया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले की मूल भावना की अवहेलना करते हुए भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 (Acts endangering sovereignty, unity and integrity of India) को इस तरह सूत्रबद्ध किया गया है कि उसके तहत किसी को ‘राष्ट्रविरोधी’ साबित करना आसान हो गया है। शब्दावली की अस्पष्टता और द्वयर्थकता के कारण वाजिब प्रतिरोध और शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के साथ असहमति के इज़हार को अब इस ग़ैर-जमानती धारा के तहत आपराधिक ठहराया जा सकता है, जो कि सीधे-सीधे संविधान की धारा 19 (अभिव्यक्ति का अधिकार) का उल्लंघन है। क़ानूनविदों का मानना है कि इसमें आये “सब्वर्सिव ऐक्टिविटीज़” जैसे पद इतने अस्पष्ट हैं कि सरकार के ख़िलाफ़ वाजिब विरोध-प्रदर्शन तथा असहमति को इसके अंतर्गत आपराधिक क़रार दिये जाने की गुंजाइश रहेगी। स्पष्टता का यह अभाव देखते हुए इसमें उसी तरह के न्यायिक हस्तक्षेप की ज़रूरत है जैसी राजद्रोह के संदर्भ में की गयी थी, ताकि इसके दुरुपयोग और धारा 19 पर इसके दुष्प्रभाव को दूर किया जा सके।
2.21 मुश्किल यह है कि जिस न्यायपालिका से हस्तक्षेप और स्पष्टता की उम्मीद की जा रही है, उसकी स्वायत्तता अब सवालिया घेरे में है। कुछ बेहद निर्णायक मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय तक का रवैया संवैधानिक मूल्यों के प्रतिकूल नज़र आता है। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर उसने जिस तरह निराश किया था, वैसे ही निराशा धारा 370 के निरस्तीकरण और जम्मू और कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के मुद्दे पर भी उसके फ़ैसले (दिसम्बर 2023) से हुई। सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला इस निरस्तीकरण को जायज़ ठहराते हुए अव्वल तो विलय के बाद विलय की शर्त के निष्प्रभावी हो जाने के विस्तारवादी तर्क को मान्यता देता है, दूसरे, जम्मू और कश्मीर को किसी भी अन्य राज्य के समान बताते हुए उसे उस स्पेशल स्टेटस की संभावना से भी वंचित कर देता है जो धारा 371 के तहत उत्तर-पूर्व के राज्यों एवं कुछ अन्य राज्यों को हासिल है। साथ ही, यह फ़ैसला पुनर्गठन की प्रक्रिया को वैध ठहराते हुए संघीय ढाँचे की बुनियाद पर ही प्रहार करता है। आने वाले समय में केंद्र द्वारा किसी भी राज्य के पुनर्गठन के लिए अगर वही प्रक्रिया अपनायी जाये जैसी जम्मू और कश्मीर में अपनायी गयी थी, तो यह फ़ैसला एक नज़ीर के तौर पर उसे वैध ठहराने के काम आयेगा। क्या इसके बाद संघीय ढाँचे का, जो हमारे संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से है, कोई मतलब रह जाता है?
2.22 सरकार ने न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम की अनेक नियुक्ति संबंधी सिफ़ारिशों को दुबारा भेजे जाने के बाद भी लागू नहीं किया जबकि यह बाध्यकारी है। नियुक्ति संबंधी सिफ़ारिशें जब एक बार लौटाये जाने के बाद दुबारा भेजी जाती हैं, तब प्रधानमंत्री का दायित्व है कि नियुक्ति हेतु उन सिफ़ारिशों को राष्ट्रपति की ओर अग्रसारित कर दे। लेकिन अनेक मामलों में ऐसा नहीं किया गया, जिससे पता चलता है कि मोदी सरकार न सिर्फ़ अपने मन-मिज़ाज के प्रतिकूल ठहरने वाले जजों की नियुक्ति न करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है, बल्कि वह अपने तेवर दिखाकर हर स्तर के जजों को सरकारी कोप और कृपा की ताक़त भी बताना चाहती है। कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार की भाषा बोलनेवाले एकाधिक फ़ैसले या जजों के वक्तव्य इस बीच सुनने को मिले। सर्वोच्च न्यायालय ने राहुल गाँधी को ‘सच्चा भारतीय’ बनने के लिए सोशल मीडिया छोड़कर संसद में मामले उठाने की सलाह दे दी और मुंबई हाई कोर्ट ने सीपीआई(एम) को सुझाव दिया कि उसे ‘देशभक्त’ बनना चाहिए और फ़िलिस्तीन के मुद्दे उठाने के बजाये अपने देश की बात करनी चाहिए। इस देश में समस्त संवैधानिक क़ायदों और अधिकारों को दरकिनार कर अदालतें ‘देशभक्ति’ और ‘सच्ची भारतीयता’ के उपदेश देने लगेंगी, यह कुछ समय पहले तक कल्पनातीत था। ऐसे माहौल में ही यह संभव है कि उमर ख़ालिद समेत 10 लोग 2020 के दिल्ली दंगों की साज़िश के आरोप में पाँच साल से यूएपीए के तहत जेल में बंद रहें, उनके ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत भी न हों और इसीलिए चार्जशीट दाख़िल न हो पाये, इसके बावजूद बार-बार उनकी जमानत की दरख्वास्त ख़ारिज होती रहे।
2.23 वस्तुतः, इस निजाम में यूएपीए और पीएमएलए जैसे क़ानून विरोधियों पर प्रहार करने के हथियार बन गये हैं और प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, एनआईए, सीबीआई, पुलिस जैसे महकमे प्रहार करने वाले हाथ हैं। इंडियन एक्सप्रेस की 2024 की एक रिपोर्ट बताती है कि 2014 के बाद से भ्रष्टाचार के आरोप में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा घेरे गये 25 राजनेता अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके हैं और उनमें से 23 को इसका सीधा लाभ मिला है। 3 मामले वापस ले लिये गये और शेष ठंडे बस्ते में डाल दिये गये। यही है भाजपा की वाशिंग मशीन। जिन लोगों ने समर्पण करने से इंकार कर दिया, उन्हें उसके नतीजे भुगतने पड़े। आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि दो राज्यों में विधानसभा चुनावों के पहले मुख्यमंत्री हिरासत में ले लिये गये। ऐसी सत्ताधारी पार्टी जब लगातार 30 दिनों तक जेल में रहने पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री समेत किसी भी मंत्री के पदच्युत किये जाने से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक संसद के पटल पर लाती है तो समझा जा सकता है कि उसके इरादे क्या हैं। जिनका इरादा भ्रष्टाचार से लड़ने का होगा, वे क्या हर तरह की जवाबदेही से मुक्त पीएम केयर्स फंड और ‘क्विड प्रो क्वो’ (भ्रष्ट लेन-देन) को वैधता दिलाने वाली चुनावी बांड योजना की मदद से रिश्वत और हफ़्ता-वसूली का खुला खेल खेलेंगे! चुनावी बांड जैसी भ्रष्ट योजना की पोल-पट्टी 2024 के आम चुनावों से पहले ही खुल गयी थी और इस खुलासे का जनमत पर बहुत अधिक असर न होने के कारणों में से एक निश्चित रूप से मुख्यधारा मीडिया द्वारा इसे ब्लैक-आउट किया जाना या सभी दलों को सामान रूप से इसका लाभार्थी दिखाना था। वस्तुतः भाजपा-आरएसएस के लिए दाम और दंड की नीति से मीडिया को अपने काबू में रखना इसीलिए ज़रूरी है।
2.24 यूएपीए और पीएमएलए जैसे क़ानूनों, और बिना सिडीशन का नाम लिये उसके प्रावधानों को अधिक कठोरता से लागू करने वाली, भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 का सहारा लेकर पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर हमले करने में इस सरकार ने रिकॉर्ड क़ायम किया है। हमारे पिछले सम्मेलन के बाद के इन तीन सालों में यह हमला परिमाणात्मक रूप से ही नहीं, गुणात्मक रूप से भी अधिक सघन हुआ है। किसी आरोप के बहाने पत्रकारों के मोबाईल फ़ोन, लैपटॉप, आईपैड आदि ज़ब्त कर लेना और उसका हैश वैल्यू तक पत्रकारों को न सौंपना एक नया रुझान है। ध्यान रखें कि हैश मूल्य ही वह सबूत है जो सुनिश्चित करता है कि उपकरण में सुरक्षित सामग्री के साथ किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं की जायेगी। अक्टूबर 2022 में द वायर के पाँच पत्रकारों के साथ यह किया गया और अगस्त 2023 में न्यूज़क्लिक से संबद्ध 90 पत्रकारों के साथ यही हुआ। छापा मारकर उनके 250 उपकरण ज़ब्त किये गये और संस्था के दफ़्तर से ‘नेटवर्क अटैच्ट स्टोरेज’ डिवाइस भी ज़ब्त की गयी जो मीडिया संस्थान के लिए निजी अभिलेखागार के समान होती है। पत्रकारों से दिन भर जो पूछताछ हुई, उसमें मुख्य सवाल ये थे कि क्या उन्होंने किसान आंदोलन, सीएए विरोधी आंदोलन, कोविड से निपटने में सरकारी तौर-तरीक़ों की नाकामी आदि से संबंधित रिपोर्टिंग की थी? कहने की ज़रूरत नहीं कि न्यूज़क्लिक पर गाज गिरने की असली वजह उसकी मुखर रूप से आलोचनात्मक पत्रकारिता ही थी। इस तरह की मुखर आलोचनात्मक पत्रकारिता करनेवाले सभी पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को चुप कराने के लिए केंद्र और अनेक राज्यों की सरकारें किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखती हैं।
2.25 अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि मामला सिर्फ़ प्रेस की आज़ादी का नहीं है। हर स्तर पर अभिव्यक्ति के अधिकार का दमन हो रहा है—कहीं सरकारी तंत्र के हाथों तो कहीं हिंदुत्ववादी स्टॉर्मट्रूपर्स के द्वारा—जिसके नतीजे के तौर पर सभा-मंचों से लेकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स तक पर अपनी बात कहने में लोगों को ज़रूरत से ज़्यादा एहतियात बरतना पड़ता है। अपनी बात कहने वाले हर कलाकार, लेखक, विचारक, टिप्पणीकार को पता है कि जब सत्ता-समर्थित लंपट उसकी बात पर हंगामा खड़ा करेंगे तब प्रशासन और पुलिस भी लंपटों का ही साथ देगी। फ्री स्पीच कलेक्टिव ने इस साल के शुरुआती चार महीनों में ही अभिव्यक्ति के दमन की 329 घटनाओं का आँकड़ा सामने रखा है जिसमें से 283 मामले पत्रकारों से नहीं बल्कि विद्यार्थियों, विद्वानों, कलाकारों, फ़िल्मकारों और स्टैंड अप कॉमेडियनों से संबंधित थे। नेहा सिंह राठौर, डॉ. मेडुसा के नाम से ख्यात डॉ. माद्री काकोटी, शमिता यादव, कुणाल कामरा जैसे व्यंग्य टिप्पणीकारों के ख़िलाफ़ किस तरह मामले बनाये गये, हम जानते हैं। अनेक कार्टूनिस्टों पर हमले हुए जिनमें मंजुल, हेमंत मालवीय, सतीश आचार्य आदि शामिल हैं। किसी पर एफ़आईआर दर्ज हुई और किसी को सरकारी धमकी मिली। राजनीतिक दबाव के आगे झुकते हुए ‘एमपुराण’ और ‘फुले’ जैसी फ़िल्मों को अनेक कट्स के साथ रिलीज़ करने की शर्त रखी गयी। एक में गुजरात के 2002 के दंगों से संबंधित हिस्सों को बदलने की माँग थी तो दूसरी में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अत्याचारों को धुँधला कर देने की। ‘पंजाब 95’ को 120 कट्स सुझाये गये जिनकी वजह से फ़िल्म पिछले ढाई सालों से सेंसर बोर्ड में लंबित है। फ़िल्म के निर्देशक हनी त्रेहन की स्पष्ट राय है कि ‘सेंसर बोर्ड फ़िल्म की दुनिया को नियंत्रित करने के लिए सरकार का चोर-दरवाज़ा है’। अभी हाल में, धारा 370 के निरस्तीकरण की छठी सालगिरह पर जम्मू और कश्मीर प्रशासन के गृह विभाग ने कश्मीर समस्या से सम्बंधित 25 किताबों को प्रतिबंधित कर दिया, जिसमें ए जी नूरानी, अनुराधा भसीन, अरुंधति रॉय, सुमंत्र बोस जैसे लेखकों के काम शामिल हैं। अभिव्यक्ति पर सरकारी-ग़ैरसरकारी अंकुश के ये सभी प्रसंग साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में एक भय का माहौल बनाते हैं, जिसका एक असर कलाकारों-लेखकों की सेल्फ़-सेंसरशिप के रूप में दिखता है तो दूसरा वैचारिक समर्पण के रूप में।
साहित्य-संस्कृति पर निशाना
2.26 पिछले सम्मेलन की रिपोर्ट में हमने साहित्य-कला-संस्कृति क्षेत्र के रुझानों से संबंधित जिन बिंदुओं पर सहमति बनायी थी, वे विगत तीन वर्षों के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। हमारे मुख्य बिंदु इस प्रकार थे: (1) ऐसी तमाम बौद्धिक और कलात्मक गतिविधियाँ जो राष्ट्रवादी लफ़्फ़ाज़ी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों और सरमायेदारों को अकूत लाभ पहुँचाने की प्रक्रिया का पर्दाफ़ाश करती हैं, आरएसएस-भाजपा की सरकार के निशाने पर हैं; (2) साहित्य और कला के संस्थान उदारीकरण और हिंदुत्व के एजेंडे के गहरे दबाव में हैं। साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और अनेक अन्य संस्थाओं तथा पुस्तकालयों को 2017 में जो ‘मेमोरेंडम ऑफ़ अन्डर्स्टैन्डिंग’ साइन करनी पड़ी और उनके वित्तपोषण में कमी आयी, उसका नकारात्मक असर संस्थाओं पर साफ़ दिखने लगा है। हर चीज़ के लिए इन जगहों पर उपयोग-शुल्क देना पड़ता है जो साहित्य-कला-संस्कृति को प्रोत्साहन देने की इनकी बुनियादी संकल्पना से बिल्कुल उलट है; (3) काग़ज़ी तौर पर स्वायत्त दर्जा रखनेवाले ये ज़्यादातर संस्थान हिंदुत्ववादियों या उनके प्रति समर्पण-भाव रखनेवाले प्रशासकों के क़ब्ज़े में हैं। इन ठिकानों पर आलोचनात्मक विवेक से संपन्न कोई सार्थक आयोजन हो, दूरगामी महत्त्व की कोई नेकनीयत परियोजना सामने आये, यह अब कल्पनातीत हो चुका है। इन मंचों से प्रगतिशील पहचान वाले रचनाकार भी जब सावधान और निरापद भाषण देते हैं, इस अंदाज़ में अपनी बात रखते हैं जैसे उनके देशकाल में लिंचिंग, बुलडोज़र, दलित और स्त्री उत्पीड़न, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारकर्मियों की गिरफ़्तारी कोई समस्या ही नहीं है, तब समझ में आता है कि संस्थानों पर क़ब्ज़े का मतलब क्या है; (4) हालाँकि हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य में हिंदुत्ववादी ताक़तों की कोई ग़ौरतलब पैठ नहीं बन पायी है, यह चिंता का विषय ज़रूर है कि रचनाकारों की एक बड़ी संख्या राजनीति और समाज के इन हालात के प्रति मुखर होने से परहेज़ बरत रही है।
2.27 पिछले सम्मेलन के बाद से इन सभी मामलों में स्थितियाँ बदतर ही हुई हैं। आज यह कहना सुसंगत नहीं होगा कि हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य में हिंदुत्ववादी ताक़तों की कोई ग़ौरतलब पैठ नहीं बन पायी है। उनकी पैठ अनेक रूपों में दिख रही है जिनमें से सबसे चिंताजनक रूप वह है जिसमें हिंदुत्व के प्रभाव से इंकार करते हुए भी अनेक लेखक वैचारिक रूप से उन्हीं के संकीर्ण राष्ट्रवाद की बातें दुहराते पाये जाते हैं और कई बार तो राष्ट्रवाद के हिंसक-आततायी स्वभाव की बात से उनका खून भी खौल उठता है। नाटक तथा चित्रकला के क्षेत्र में एक तरह का पूर्ण समर्पण-भाव देखने को मिल रहा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में एक स्वयंसेवक की निदेशक के रूप में नियुक्ति के साथ उस जगह की बची-खुची स्वायत्तता भी पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है। निदेशक चित्तरंजन त्रिपाठी के निर्देशन में विभाजन विभीषिका तमस का मंचन एनएसडी के चरित्र में आये मूलगामी बदलाव की घोषणा के समान था। भीष्म साहनी की महान औपन्यासिक कृति तमस पर आधारित नाटक के मंचन को 2023 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह रोक क्यों लगायी गयी होगी, बताने की ज़रूरत नहीं। 2025 में नये निदेशक ने तमस पर आधारित नाटक के मंचन की ज़िम्मेदारी ली जिसका नतीजा था, सरकार द्वारा घोषित विभाजन विभीषिका दिवस पर विभाजन विभीषिका तमस का प्रदर्शन। तमस उपन्यास की मूल संवेदना को पूरी तरह से विकृत कर उसका यह नाट्य रूपांतरण तैयार किया गया है जिसमें विभाजन विभीषिका के गुनहगार सिर्फ़ मुसलमान दिखते हैं, हिंदू अतिवादियों की कारगुज़ारियों वाले अंश या तो हटा दिये गये हैं या बेजान बना दिये गये हैं, और सबसे बड़ी बात कि एक नया चरित्र सृजित कर उसके माध्यम से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान, ऑपरेशन सिंदूर, न्यू इंडिया आदि का गुणगान करते हुए काँग्रेस की देश-विरोधी भूमिका पर भाषण दिलवाये गये हैं। इस तरह के मंचन जिस संस्थान के निदेशक की देख-रेख में हो रहे हों, उसके बारे में ज़्यादा क्या कहना! इस संस्थान में अब हिंदी और अन्य भाषाओं के प्रखर नाटकों का मंचन अतीत की बात हो गयी है और ‘रानी लक्ष्मीबाई’ सरीखे नये ‘राष्ट्रवादी’ स्क्रिप्ट लिखवाने पर ज़ोर है।
2.28 आरएसएस ने नाटक के क्षेत्र में काफ़ी पैसा लगाया है और अनेक जाने-माने नाट्य-समूह ‘संस्कार भारती’ से जुड़ गये हैं। उनके नाटकों में हिंदू राष्ट्रवादी स्वर मुखर होने लगा है। जिस तरह एनएसडी ने तमस की मूल संवेदना को विकृत कर उसे प्रस्तुत किया, उसी तरह संस्कार भारती से वित्तपोषण पानेवाले एक समूह ने असग़र वजाहत के जिस लाहौर नइ देख्या वो जम्याइ नइ को हर तरह के कट्टरपंथ की आलोचना के रूप में प्रस्तुत करने के बजाये मुस्लिम कट्टरपंथ पर केंद्रित नाटक बनाकर प्रस्तुत किया। नाटक की विधा अपनी आलोचनात्मक चेतना और व्यवस्था-विरोधी तेवर के लिए जानी जाती है, लेकिन कुछ तो वित्तपोषण के दबाव में और कुछ हिंदुत्ववादी हुड़दंगियों के खौफ़ से नाटक नख-दंत-विहीन होते जा रहे हैं।
2.29 वित्तपोषण पर निर्भरता किस तरह कलाओं और कलाकारों को नख-दंत-विहीन बना सकती है, इसका उदाहरण 2023 की एक कला-प्रदर्शनी में देखा गया। मई महीने में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में पंद्रह दिनों की एक प्रदर्शनी लगायी गयी जिसमें देश के तेरह नामचीन कलाकारों ने प्रधानमंत्री के कार्यक्रम ‘मन की बात’ की सौ कड़ियाँ पूरी होने का जश्न मनाते हुए उन कड़ियों में उठाये गये किसी एक मुद्दे से प्रेरित कलाकृति प्रदर्शित की थी। इन कलाकारों में ‘समकालीन संदर्भ में कला को स्वतंत्र आवाज़ और अभिव्यक्ति के आख़िरी दुर्ग की तरह’ देखनेवाले रियास कोमू शामिल थे जिनका वाम रुझान असंदिग्ध रहा है। इनमें गाँधी की अहिंसा के प्रति गहरी आस्था रखते हुए उन पर पूरी शृंखला बनानेवाले, 2002 के गुजरात दंगों में हुए मुस्लिम-जनसंहार का अपनी कला पर गहरा प्रभाव स्वीकार करनेवाले अतुल डोडिया शामिल थे। किसान आंदोलन का मुखर समर्थन करनेवाले और उसका दस्तावेज़ीकरण करनेवाले जीतेन ठुकराल और समीर टागरा भी इन कलाकारों में शामिल थे। अगर ऐसे लोग मोदी को एक विज़नरी प्रधानमंत्री बताते हुए ‘मन की बात’ से प्रेरणा ग्रहण करने लगें तो यह कोई सामान्य बात नहीं है। संस्कृति मंत्रालय द्वारा आयोजित इस प्रदर्शनी की सलाहकार किरण नाडार थीं और यह अनुमान लगाना बेबुनियाद नहीं कहा जायेगा कि कला के बाज़ार की नकेल हाथ में रखनेवाली ऐसी आर्ट कलेक्टर के आदेश को ना करने और इस तरह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का साहस इन कलाकारों में नहीं था।
2.30 साहित्य की दुनिया में आरएसएस के सुनियोजित प्रयास एक ओर साहित्योत्सवों के रूप में तो दूसरी ओर समय-समय पर उठायी जानेवाली बेहद लचर बहसों के रूप में दिखायी पड़ते हैं। साहित्योत्सवों में जो लोग बड़ी पूँजी लगा रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर या तो वैचारिक रूप से या फिर लाभ की आशा में आरएसएस के निकट हैं। निश्चित रूप से उनके मंचों पर अगर दो-चार फ़ीसद प्रगतिशील-जनवादी नज़रिये वाले, सत्ता के आलोचक बुलाये जाते हैं तो पंचानवे फ़ीसद आलोचकों के आलोचक आमंत्रित होते हैं। ऐसा अनुपात रखकर वे मंच अपने निष्पक्ष होने का ढोल भी पीटते हैं, बार-बार इस बात की याद भी दिलाते हैं कि देखिए, हमने सबको बोलने का मौक़ा दिया है, और साथ में यह सुनिश्चित भी करते हैं कि सत्ता-विरोधी स्वर या प्रगतिशील नज़रिया दीगर शोर-शराबों में दब जाये। ऐसे आयोजक या आयोजनों के क्यूरेटर पूँजी लगानेवाले की इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकते, यह बात बार-बार प्रमाणित हुई है।
2.31 11 सालों से भाजपा-आरएसएस के सत्ता में होने का साहित्य में सक्रिय हिंदुत्ववादियों के आत्मविश्वास पर असर पड़ा है। पहले जहाँ वे गंभीर, स्तरीय बहसों में घुसने का आत्मविश्वास नहीं रखते थे, वहीं अब वे खुद साहित्य के क्षेत्र में स्थापित प्रगतिशील-जनवादी कॉमन सेंस को चुनौती देनेवाली बहसें खड़ी करने का प्रयास करते दिखते हैं। वे बहसें जितनी भी लचर हों, उन्हें उछालने की हिम्मत क़ाबिले-दाद है। मसलन, पिछले दिनों उन्होंने सोशल मीडिया पर यह साबित कर देने का सुनियोजित अभियान चलाया कि प्रेमचंद ने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की सदारत नहीं की थी। इसी तरह यह साबित करने के लिए वे बाक़ायदा शोध-पत्र आदि लिख-लिखवा रहे हैं कि प्रेमचंद सनातन धर्म के पक्के अनुयायी थे। इतिहास के मिथ्याकरण की उनकी सभी कोशिशों दो कारणों से परास्त हो जाती हैं—एक, वे जिस प्रेमचंद के बारे में मिथ्या प्रचार करना चाहते हैं, उनका समस्त लेखन अभी भी छप रहा है और पढ़ा जा रहा है, इसलिए उनके संबंध में किसी झूठ को हवा देना मुश्किल है; दो, सर्वस्वीकृत मान्यताओं को चुनौती देने के लिए जिस तरह की तैयारी और बौद्धिक परिष्कार दरकार है, वह इन लोगों के पास कभी रहा नहीं।
2.32 वस्तुतः साहित्य की दुनिया में हिंदुत्ववादियों की सक्रियता उतनी चिंता का विषय नहीं है जितनी यह कि अपने समय के सरोकारों से निरपेक्ष लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है—जिन्हें न व्यापे जगत गति। वे साहित्य की दुनिया की पल-पल की ख़बरें रखते हैं लेकिन उनकी बातों से कभी यह प्रकट नहीं होता कि हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने का ध्वंस करनेवाली घटनाएँ भी आसपास घट रही हैं। वे जैसे समाज में घट रही घटनाओं की कोई नोटिस ही नहीं लेते। जहाँ तक विभिन्न धड़े के लोगों का सवाल है, उन्हें किसी से परहेज़ नहीं होता। अच्छे-और-बुरे-व्यक्ति-हर-जगह-होते-हैं-वाले विचार से प्रेरित ये लोग आज हिंदी के साहित्यिक संसार का बहुत बड़ा हिस्सा संघटित करते हैं और ये साहित्य की दुनिया में हिंदुत्व के लिए सबसे बड़ा सहारा हैं। हिंदुत्ववादियों की बौद्धिक क्षमता स्वयं साहित्य में वर्चस्व क़ायम करने या सम्मानजनक स्थिति हासिल करने के लायक़ भले न हो, इस सरोकार-निरपेक्ष तबके की उपस्थिति से उनका एक बड़ा लक्ष्य अपने-आप पूरा हो जाता है—हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता-जनवाद के मूल्यों की आम स्वीकार्यता का क्षरण।
2.33 यहाँ इसका भी उल्लेख होना चाहिए कि ऐसे माहौल में भी हमारे कई लेखक पुरस्कारों को ठुकराने के उदाहरण पेश कर पाये। प्रायोजकों में अदानी का नाम होने के कारण देवी प्रसाद मिश्र, केशव तिवारी, नाइश हसन, गौहर रज़ा, भँवर मेघवंशी जैसे लेखकों ने कलिंगा लिटफेस्ट की अंतिम सूची में आने पर अपने को पुरस्कार से दूर रखने की घोषणा कर दी। यह एक बड़ा क़दम था, हालाँकि इसका जैसा असर होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। कई और लोग अनुगृहीत होने वाले भाव से उसी पुरस्कार को ग्रहण करने पहुँच गये। ठीक इसी तरह विमल कुमार ने बिहार सरकार के राजभाषा विभाग का चार लाख का प्रेमचंद पुरस्कार ठुकरा दिया। यह एक बड़ी बात थी, लेकिन हिंदी की साहित्यिक दुनिया में सरोकार-निरपेक्ष लेखकों का तबका इतना फल-फूल रहा है कि इसकी भी ठीक से नोटिस नहीं ली गयी। बल्कि कुछ लोगों ने इसका मज़ाक़ बनाने और कुत्सित आरोप लगाने की भी कोशिश की। यह प्रतिरोध-विरोधी माहौल इस वक़्त हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। हमें पूरी संजीदगी से इसकी जटिलताओं, रंगतों और कारणों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
2.34 बहुत बड़ा हिस्सा संघटित करनेवाले प्रतिरोध-विमुख लेखकों का होना लेखक संगठनों की कमज़ोरी का कारण है या परिणाम, यह भी हम लोगों के लिए एक विचारणीय विषय है। इसे कारण मानने का मतलब यह होगा कि हम अपने को किसी भी तरह के दोषारोपण से मुक्त करते हैं। इसे परिणाम मानने का मतलब यह होगा कि हम वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों को पूरी तरह से दरकिनार कर अपनी इच्छा शक्ति यानी आत्मनिष्ठ पहल की कमी को ही कारण मान रहे हैं। सच्चाई कहीं बीच में है। और निश्चित रूप से बीच में स्थित उस सच्चाई को देखने की कोई भी कोशिश इस आत्म-स्वीकृति के साथ ही शुरू हो पायेगी कि आज साहित्य में लेखक संगठनों की स्वीकार्यता आम तौर पर एलपीजी-पूर्व दौर के मुक़ाबले बहुत कमतर है।
हमारी सांगठनिक स्थिति
3.1 गुज़रे तीन सालों में जनवादी लेखक संघ के केंद्रीय कार्यालय की वह समस्या बनी रही जिसका पिछली रिपोर्ट में भी ज़िक्र किया गया था। इसे देखते हुए हमें केंद्र के कामकाज के तरीक़े में कुछ आवश्यक परिवर्तन करने पड़े। सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन था, नया पथ को प्रिंट से पूरी तरह हटाकर ऑनलाइन कर देना। एक प्रिंट पत्रिका निकालने के लिए जिस अधिसंरचना की ज़रूरत होती है, उसका अभाव हम 2019 से ही अनुभव कर रहे थे। इसके बावजूद आगे के तीन सालों तक उसका प्रकाशन जारी रहा। दफ़्तर का साज़ो-सामान लेकर एक से दूसरी जगह शिफ़्ट होते हुए भी पत्रिका के बंडल बनाकर डाक से भेजने और मनी ऑर्डर या चेक कहीं भटक न जाये, इसके लिए अलग-अलग डाकखानों में दौड़ लगते रहने के बाद हमने फरवरी 2023 की बैठक में प्रिंट का प्रकाशन स्थगित करने का निर्णय लिया। इसके बाद ऑनलाइन नया पथ निकालने की तैयारी शुरू हुई। ऑनलाइन में जाने का एक मक़सद प्रिंट का ख़र्च बचाना भी था, इसलिए कोशिश की गयी कि इस लाइन के पेशेवरों को बहुत ऊँची दर से शुल्क देकर काम कराने के बजाये अपने बिरादराना समूहों की मदद से निःशुल्क काम कराया जाये। इस कोशिश में थोड़ा अधिक समय लगना स्वाभाविक था, लेकिन आख़िरकार जनवरी 2024 में नया पथ ऑनलाइन की शुरुआत हो गयी जिसके लिए हमें बमुश्किल छह हज़ार रुपये के वेब स्पेस की ख़रीद के अलावा कोई और ख़र्च नहीं करना पड़ा था। नया पथ डॉट इन को नियमित अद्यतन बनाते रहने के बाद भी उसकी शुरुआत के बाद के इन बीस महीनों में हमें वेब स्पेस के लिए दिये जाने वाले मामूली सालाना शुल्क के अलावा कोई और ख़र्च नहीं करना पड़ा है।
3.2 छापे में निकलने वाली पत्रिका का अपना महत्त्व होता है, ख़ासकर तब तक तो अवश्य जब तक प्रिंट में ही चीज़ें पढ़ने वाली पीढ़ी सक्रिय है। लेकिन ऑनलाइन की भी अपनी विशेषताएँ हैं जो किसी त्रैमासिक पत्रिका में संभव नहीं हैं। हमने 2024 के आम चुनावों से पहले जिस तरह 10 सालों की भाजपा सरकार की आलोचना करनेवाली लंबी लेख शृंखलाएँ प्रकाशित कीं, वैसा समयबद्ध अभियान त्रैमासिक के माध्यम से संभव नहीं था। उस शृंखला में मुख्य रूप से जवरी मल्ल पारख ने योगदान किया, लेकिन साथ ही शम्सुल इस्लाम और संजीव कुमार के लेख भी शाया हुए। ख़ास बात है कि हमारे इन लेखों को बीसियों ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और दैनिक समाचारपत्रों ने भी साभार प्रकाशित किया। इसी तरह जयपुर लिटरचर फ़ेस्टिवल के मौक़े पर हमने उसके प्रायोजक ‘मारुति’ की सच्चाई बताता हुआ नंदिता हक्सर का लेख द वायर से लेकर अविलंब हिंदी में अनूदित और प्रकाशित किया। यह ठीक उस समय हुआ जब जेएलएफ़ चल रहा था। 4 अगस्त 2024 को 99 चिकित्सकों के एक दल ने गाज़ा के हालत को लेकर जो खुला पत्र अमरीकी राष्ट्रपति के नाम लिखा, वह तीन दिनों के अंदर अनूदित होकर हमारी वेबसाईट पर शाया हो चुका था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। वस्तुतः समयबद्ध तरीक़े से हस्तक्षेप करने के लिए यह माध्यम सर्वोत्तम है। इसके साथ-साथ पाठकों की प्रतिक्रिया पाने की लेखकों की आतुरता को भी यह बेहतर संतुष्ट कर पाता है, जिसके कारण युवा लेखकों का इस माध्यम के प्रति आकर्षण अधिक है, ऐसा हमने ऑनलाइन नया पथ निकलते हुए अनुभव किया।
3.3 नया पथ के अलावा जनवादी लेखक संघ केंद्र की सक्रियता इस अवधि में अपेक्षाकृत सीमित रही। किसी बड़े प्रतिरोध कार्यक्रम की पहल हमारी ओर से नहीं हुई। ‘हम देखेंगे’ के नाम से जलेस, प्रलेस, जसम, दलेस, जनम, प्रतिरोध का सिनेमा, अभादलम आदि संगठनों का जो साझा मंच 2020 से चला आ रहा है, वह भी इस बीच अनेक कारणों से बड़े आयोजनों की दिशा में सक्रिय नहीं हो पाया। अलबत्ता, इस साझा मंच की ओर से साथी बजरंग बिहारी की पहल पर घरेलू बैठक योजना की शुरुआत हुई जिसकी अनेक कड़ियाँ 2023-24 में आयोजित हुईं ।
3.4 केंद्र की ओर से ‘जलेस समीक्षा संवाद’ की अनेक कड़ियों के अलावा दो बड़े आयोजन हुए। एक था, राँची में आयोजित ऑल इंडिया उर्दू कन्वेन्शन (6-7 मई 2023), जिसमें हमारी पूरी झारखंड इकाई और साथी एम ज़ेड ख़ान, अली इमाम ख़ान, झारखंड सचिव कुमार सत्येन्द्र आदि की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी। दूसरा आयोजन था, दिल्ली में आयोजित ‘लोकतंत्र, संविधान और दलित साहित्य’ शीर्षक राष्ट्रीय दलित परिसंवाद (29-30 मार्च 2025), जिसके संयोजक हमारे संयुक्त महासचिव बजरंग बिहारी थे।
3.5 इन तीन वर्षों में हमारी केंद्रीय कार्यकारिणी की दो बैठकें, केंद्रीय कार्यकारिणी और केंद्रीय परिषद की दो संयुक्त बैठकें तथा कार्यकारी मंडल की दो बैठकें हुई हैं। इन निकायों के आकार को देखते हुए इनमें होने वाली उपस्थिति बहुत अच्छी तो नहीं कही जायेगी, पर हम हर बार कोरम पूरा करने से काफ़ी आगे रहे हैं।
3.6 केंद्रीय कार्यकारिणी की पहली बैठक (26 फरवरी 2023) में ही हमारे तत्कालीन अध्यक्ष असग़र वजाहत के नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी गोडसे : एक युद्ध’ के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित हुआ, जिसका उपसंहार इन पंक्तियों के साथ हुआ था: “जनवादी लेखक संघ सदैव से सांप्रदायिक फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर सक्रिय रहा है। 2014 से जलेस हिंदुत्ववादी नीतियों और गतिविधियों के विरुद्ध प्रखर रूप से संघर्षरत रहा है। यह फ़िल्म न केवल इस संघर्ष को कमज़ोर करती है वरन जनवादी लेखक संघ के बारे में भ्रम फैलाने में भी सहायक हुई है। यही वजह है कि जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह स्पष्ट करना ज़रूरी समझती है कि ‘गांधी-गोडसे: एक युद्ध’ फ़िल्म में व्यक्त किये गये विचारों और इतिहास को हिंदुत्ववादी ताकतों के पक्ष में विकृत करने की कोशिशों को वह पूरी तरह से अस्वीकार करती है और ऐसी कोशिश की भर्त्सना भी करती है। जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी यह मानती है कि ऐसे समय में जब देश हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताक़तों के चंगुल में जकड़ा हुआ है, उसके विरुद्ध समझौताविहीन अनवरत संघर्ष को और तेज़ करने की ज़रूरत है। ऐसे समय उन सभी लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से, जो जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यक़ीन करते हैं, जलेस उम्मीद करता है कि वे उन वैचारिक विभ्रमों से भी संघर्ष करेंगे जो कई बार वैचारिक भटकावों का कारण बन जाते हैं।” असग़र साहब उक्त फ़िल्म का लगातार बचाव कर रहे थे और आगे भी करते रहे, लेकिन जलेस कार्यकारिणी द्वारा पारित इस प्रस्ताव पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। अध्यक्ष पद एवं संगठन की साधारण सदस्यता से उनका इस्तीफ़ा हमें लगभग पौने दो साल बाद 4 नवंबर 2024 को मिला जिसमें उन्होंने किसी कारण का उल्लेख नहीं किया था। चूँकि वे कोई बात करने को तैयार नहीं थे, उनके इस्तीफ़े की वजह के बारे में सिर्फ़ क़यास लगाये जा सकते हैं जिसके लिए यह रिपोर्ट उपयुक्त स्थान नहीं है। उनके इस्तीफ़े को नवंबर 2024 में हुई केंद्रीय परिषद की बैठक में रिपोर्ट कर दिया गया था। परिषद ने इसे स्वीकृति दी और इस प्रस्ताव की संस्तुति की कि कार्यकारी अध्यक्ष चंचल चौहान अगले राष्ट्रीय सम्मेलन तक के लिए अध्यक्ष की भूमिका का निर्वाह करेंगे।
3.7 राज्य इकाइयों की गतिविधियों के बारे में राज्यों के प्रतिनिधि इस सभा को अवगत करायेंगे, लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस राष्ट्रीय सम्मेलन से पहले ज़्यादातर राज्यों ने अपने सम्मेलन संपन्न कर लिये हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान और हरियाणा के सम्मेलन राष्ट्रीय सम्मेलन की पूर्वपीठिका के रूप में इसी वर्ष हुए। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के सम्मेलन थोड़ा पहले, लेकिन 10 वें राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद हुए थे, इसलिए उनके अगले सम्मेलन का अभी समय नहीं हुआ है। दिल्ली में राज्य सम्मेलन पिछले राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद की अवधि में नहीं हुआ है, लेकिन हमें विश्वास है कि आने वाले तीन-चार महीनों में वह हो जायेगा। मध्य प्रदेश में भी राज्य सम्मेलन नहीं हो पाया, इसका संज्ञान मध्य प्रदेश के हमारे वरिष्ठ साथियों को लेना चाहिए और वहाँ की समस्याओं का हल निकालते हुए एक कामकाजी सम्मेलन का संपन्न होना सुनिश्चित करना चाहिए। पश्चिम बंगाल की स्थिति चिंताजनक है। वहाँ से पिछले राष्ट्रीय सम्मेलन में भागीदारी शून्य थी। राज्य सम्मेलन न होने और भागीदारी न होने के कारण कार्यकारिणी और परिषद में उनके स्थान रिक्त रखे गये। फिर केंद्र की ओर से नलिन रंजन सिंह के अनेक बार संपर्क करने के बावजूद वहाँ के राज्य सचिव की ओर से राज्य सम्मेलन की कोई पहल नहीं हुई। हिमाचल प्रदेश में जलेस को पुनरुज्जीवित करने के प्रयास साथी संदीप मील ने आरंभ किये हैं और हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही वहाँ ऑरगैनाइजिंग कमेटी गठित कर दी जायेगी।
3.8 राज्य इकाइयों की गतिविधियों के बारे में केंद्र को विभिन्न माध्यमों से जो जानकारियाँ मिलती रही हैं, उनके आधार पर यह संतोष व्यक्त किया जा सकता है कि अपनी-अपनी शक्तियों-सीमाओं के साथ सभी राज्य सक्रिय रहे हैं। अलबत्ता, बेहतरी के संभावना हर समय रहती है। उत्तर प्रदेश ने जिस तरह कुछ ख़ास शृंखलाओं की परिकल्पना कर उन्हें साल-दर-साल या शहर-दर-शहर आयोजित करने की पहल की है, वह हम सभी के लिए एक मार्गदर्शक बन सकता है। ऐसी शृंखलाएँ संगठन की पहचान बनाने में बहुत काम आती हैं। एक और सुझाव यह है कि सभी राज्य इकाइयों को अपने राज्य में होने वाले उद्विकासों की नोटिस लेते हुए बयान जारी करने चाहिए। राजस्थान ने इसका उदाहरण पेश किया है। जो भी घटनाएँ विशेष रूप से राजस्थान से संबंधित हैं, उन पर उन्होंने केंद्र से बयान की उम्मीद नहीं की। ऐसा सभी राज्यों में हो तो बेहतर। अगर किसी वजह से राज्य के हमारे साथियों को ऐसा लगता है कि वे अपनी ओर से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहे हैं तो उन्हें केंद्र के साथियों से संपर्क करके अपनी दुविधा का निवारण करना चाहिए।
गुज़रे तीन सालों में जलेस केंद्र के कामकाज पर एक नज़र
27-29 सितंबर 2022 : नया पथ एजाज़ अहमद विशेषांक का डिस्पैच
04.10.22 : शेखर जोशी के निधन पर शोक-संदेश
05.10.22 : राष्ट्रीय सम्मेलन में निर्वाचित प्रतिनिधियों की सूची सदस्यों को मेल की गई
07.10.22 : शेखर जोशी स्मृति सभा का आयोजन
27.10.22 : मिया संस्कृतिकर्मियों की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ बयान
08.11.22 : कार्यकारी मंडल की बैठक
26.11.22 : आनद तेलतुंबड़े की रिहाई पर बयान
10.12.22 : जलेस समीक्षा संवाद 3 : रत्न कुमार सांभारिया के उपन्यास साँप पर चर्चा
25.12.22 : बरेली में इक़बाल की प्रार्थना स्कूल में गवाने के जुर्म में शिक्षामित्र और प्रधानाध्यापिका पर दर्ज हुए एफ़आईआर के ख़िलाफ़ बयान
02.01.23 : नया पथ जुलाई-सितंबर अंक के डिस्पैच की शुरुआत
13.01.23 : 21 फरवरी को रेड बुक डे के रूप में मनाने का आह्वान जारी
14.01.23 : बिहार के शिक्षा मंत्री के तुलसीदास संबंधी भाषण पर बयान
21.01.23 : भारंगम में तितुमीर के मंचन का आमंत्रण वापस लिए जाने के ख़िलाफ़ बयान
16.02.23 : क्यूबा के कवि अलेक्स पौसीदेस के साथ एक मुलाक़ात
23.02.23 : सुरेश सलिल के निधन पर शोक संदेश
23.02.23 : नेहा सिंह राठौर को दी गई नोटिस को वापस लिए जाने के संबंध में बयान
26.02.23 : केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक
30.03.23 : विवान सुंदरम के निधन पर शोक संदेश
04.04.23 : सुनीत चोपड़ा के निधन पर शोक संदेश
25.04.23 : एनसीईआरटी की किताबों को मूल स्वरूप में बहाल करने के संबंध में बयान
6-7 मई 2023 : रांची में जलेस केंद्र की ओर से ऑल इंडिया उर्दू कन्वेन्शन का आयोजन
29.05.23 : नए संसद भवन के उद्घाटन की आलोचना करते हुए बयान
26.07.23 : सरकारी पुरस्कार पाने वाले लेखकों से ‘अवॉर्ड वापसी’ न करने का शर्तनामा भरवाने के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ बयान
29.07.23 : जलेस समीक्षा संवाद 4 : प्रतिरोध का स्त्री स्वर पर चर्चा
01.09.23 : रमेश कुंतल मेघ के निधन पर शोक संदेश
04.09.23 : मणिपुर में एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की तथ्यान्वेषी टीम पर दर्ज हुई एफ़आईआर के खिलाफ़ बयान
23.09.23 : संसद में रमेश बीधूड़ी के भाषण की निंदा और उसके निलंबन की माँग करता बयान
03.10.23 : न्यूज़क्लिक पर छापे के ख़िलाफ़ बयान
04.10.23 : न्यूज़क्लिक में तलाशी, जब्ती और गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ ‘हम देखेंगे’ का बयान
20.10.23 : जलेस समीक्षा संवाद 5 : ‘मार्क्सवाद का नवीकरण’ पर चर्चा
02.12.23 : केन्द्रीय कार्यकारिणी और परिषद् की संयुक्त बैठक
27.12.23 : साथी रामप्यारे राय के निधन पर शोक-सन्देश जारी
23.01.24 : ‘नया पथ ऑनलाइन की शुरुआत
26-30 जनवरी 2024 : ‘ढाई आखर प्रेम’ के दिल्ली पड़ाव पर भागीदारी
12.03.24 : ‘हिमोलिम्फ़’ : फ़िल्म स्क्रीनिंग और चर्चा
07.05.24 : साथी सलाम बिन रज्जाक के निधन पर शोक-संदेश जारी
12.05.24 : सुरजीत पातर के निधन पर शोक-संदेश जारी
13.05.24 : चौथीराम यादव के निधन पर शोक-संदेश जारी
08.06.24 : जलेस समीक्षा संवाद 5 : ‘साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र’ पर चर्चा
11.06.24 : प्रो. हिमांशु पंड्या के साथ अभाविप द्वारा हुए दुर्व्यवहार पर ‘हम देखेंगे’ की ओर से बयान
16.06.24 : एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किए गए बदलाव पर बयान
21.06.24 : अरुंधती रॉय और शेख शौकत हुसैन के खिलाफ़ यूएपीए के इस्तेमाल के फ़ैसले पर ‘हम देखेंगे’ का बयान
14.07.24 : साथी कांतिमोहन के निधन पर शोक-संदेश जारी
20.07.24 : कांतिमोहन स्मृति सभा का आयोजन
08.08.24 : वायनाड के लिए सहायता राशि की अपील जारी
12.09.24 : साथी सीताराम येचुरी के निधन पर शोक-संदेश जारी
17.11.24 : केंद्रीय कार्यकारिणी और परिषद की संयुक्त बैठक
18.10.24 : प्रलेस के सम्मेलन के लिए शुभकामना संदेश
24.11.24 : केंद्रीय परिषद की बैठक का कार्यवृत्त सदस्यों को भेजा गया
25.01.25 : बयान : मक़बूल फ़िदा हुसैन के चित्रों को निशाना बनाना बंद करो
05.03.25 : राजस्थान में विदाई समारोह का नाम ‘जश्न-ए-अलविदा’ रखे जाने पर जाँच बिठाए जाने के विरोध में बयान
29-30 मार्च, 2025 : ‘लोकतंत्र, संविधान और दलित साहित्य’ : राष्ट्रीय दलित परिसंवाद का आयोजन
15.04.25 : प्रो. निर्मल जैन के निधन पर शोक संदेश जारी
26.04.25 : सुश्री मीना गुलाटी के निधन पर शोक संदेश जारी
04.05.25 : राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए कार्यकारी मंडल की ऑनलाइन बैठक
18.05.25 : केंद्रीय परिषद के साथियों को सम्मेलन के संबंध में पत्र भेजा गया
19.05.25 : इरशाद खान के निधन पर शोक संदेश जारी
01.05.25 : ‘अनाइलेशन ऑफ़ कास्ट’ के 90 वर्ष पूरे होने पर ‘हम देखेंगे’ की ओर से विचार-गोष्ठी
13.05.25 : सभी राज्य इकाइयों को फंड कलेक्शन से संबंधित सामग्री डिस्पैच
10.07.25 : कार्यकारी मंडल की बैठक
14.07.25 : कांतिमोहन की याद में सभा (मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने पर)
15.07.25 : बयान : ‘स्वतंत्र पत्रकारिता को निशाना बनाना बंद करो’
07.08.25 : बयान : ‘किताबों की ज़ब्ती का आदेश वापस लो’
23.08.25 : जलेस समीक्षा संवाद 6 : ‘काव्यालोचन’ पर चर्चा
02.09.25 : कट्टरपंथियों के दबाव में प. बंगाल उर्दू अकादमी के कार्यक्रम को रद्द किए जाने के खिलाफ़ बयान
07.09.25 : लोकार्पण एवं चर्चा : ‘दलित मुक्ति से वर्ग संघर्ष तक’
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[*] “…भारतीय साम्प्रदायिकता के पूरे ढाँचे में—वह संघ का हो, मुसलमानों का हो या शिव सेना का—लम्पट सर्वहारा और लम्पटीकृत निम्न-पूँजीपति वर्ग से आये हुए स्टॉर्मट्रूपर्स इतनी अहम भूमिका इसलिए निभाते हैं कि वह भारतीय पूँजीवाद की, ख़ासकर उसके इस नवउदारवादी दौर में, संरचनात्मक विशेषता है. किसी स्थिर रोज़गार में लगे कामगारों की तुलना में बेरोज़गारों की फ़ौज कहीं ज़्यादा है, नतीजे के तौर पर मज़दूरी इतनी कम है कि एक समुचित सर्वहारा संस्कृति का निर्वाह मुश्किल हो जाता है और खुद सर्वहारा के भीतर से बहुतेरे लोगों में लम्पट होने का रुझान दिखने लगता है : ऐसे लोग जो पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर अंशतः श्रम और मज़दूरी से अपनी जीविका कमाते हैं, पर साथ ही जाल-फरेब, और कभी-कभी अपराध, के द्वारा अर्जित कमाई से भी उसकी कमी की भरपाई करते हैं. और बदतर यह कि बेरोज़गारों की इतनी विराट और इतनी स्थायी फ़ौज में से एक बहुत बड़ी तादाद रोज़गार हासिल करने की कोशिश ही छोड़ देती है, क़ायदे से जिसे पूँजीवादी व्यवस्था कहते हैं उससे बाहर छिटक जाती है, ऐसे किसी श्रम में भागीदार नहीं होती जिससे अतिरिक्त (सरप्लस) मूल्य सृजित होता है, उस छद्म अर्थतंत्र की काली दुनिया में उतर जाती है जो वास्तविक अर्थतंत्र के समानांतर काम करता है और जिसमें कोई नियम नहीं चलता, यहाँ तक कि शोषण का नियम भी नहीं, और जहाँ रोज़ी-रोटी से लेकर अपार दौलत तक या एक दाँव से अगले दाँव के बीच आकस्मिक मौत तक, कुछ भी कमाया जा सकता है. उत्पादक श्रमिक का सुव्यवस्थित जीवन एक व्यक्ति के अन्दर अपने काम को लेकर आत्मसम्मान, या कम-से-कम पैरों के नीचे ठोस ज़मीन, का अहसास भरता है, लेकिन उत्पादकता का अभाव, इस बोध का अभाव कि मैं कौन हूँ, व्यक्ति को उस आत्मसम्मान से वंचित कर देता है; यह आत्मसम्मान पुनः अर्जित किया जाना ज़रूरी है, भले ही वह दूसरों को नुक़सान पहुँचा कर हो. इसका ज़रिया अपराध भी हो सकता है और वह तथाकथित नॉन-क्राइम भी जो कि साम्प्रदायिकता है, अपनी तमाम हिंसाओं के साथ. मूल्य-उत्पादक श्रमिक अपने जैसा काम करने वाले दूसरे लोगों की बिरादरी में अपना जीवन जीता है, जबकि लम्पट सर्वहारा का जीवन अपने स्वभाव से ही ऐसा है कि श्रम की साझा परिस्थितियों के आधार पर वह कोई बिरादरी निर्मित नहीं करता, बल्कि ऐसे समूहों में काम करता है जो अनिश्चित होते हैं और परिवर्तनशील हैं, और जिनके सामने हमेशा अपने को नये सिरे से गढ़ने की ज़रूरत दरपेश रहती है, उन संकटों के चलते जो हर वक़्त इस आभास-वर्ग (Quasi-class) के व्यक्ति के सर पर तलवार की तरह लटकते रहते हैं. वर्गीय जुड़ाव से छिन्नमूल, वे जाति, धर्म या इसी तरह के सामुदायिक जुड़ाव के लोभ में पड़ते हैं—एक ऐसा जुड़ाव जो मज़दूर-समुदाय वाले ठोस जुड़ाव की बनिस्पत ख़ासा अमूर्त है. साम्प्रदायिक राजनीति में भागीदारी अक्सर उन्हें एक वास्तविक समुदाय से जुड़े होने का वह बोध मुहैया कराती है जिसकी उन्हें ज़रूरत है, भले ही वह बोध झूठा हो. इस प्रक्रिया में, हावभाव की वह आक्रामकता, जो लुम्पेन जीवन में बचे रहने (सर्वाइवल) भर के लिए बहुत ज़रूरी है, साम्प्रदायिक/फ़ासीवादी क़िस्म की संगठित हिंसा में आसानी से तब्दील हो सकती है.”
–एजाज़ अहमद, ‘Communalism: Changing Forms and Fortunes’, The Marxist, अप्रैल-जून 2013.







रिपोर्ट शानदार है
रिपोर्ट में वर्तमान सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों का प्रभावी ढंग से विश्लेषण किया गया है साथ में सांगठनिक मुद्दे पर भी चर्चा की गई है.
संग्रहणीय दस्तावेज । आभार ।