जलेस के 11 वें राष्ट्रीय सम्मेलन (19-21 सितंबर 2025, बाँदा) में पारित प्रस्ताव


19-21 सितंबर को बाँदा में हुए जलेस के ग्यारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन में कुल दस प्रस्ताव रखे गये और मामूली संशोधनों के साथ पारित हुए। उनमें से नौ प्रस्ताव आप यहाँ पढ़ सकते हैं। दसवाँ प्रस्ताव – ‘महाराष्ट्र में हिंदी भाषा संबंधी सख्ती का विरोध – सुझावों को शामिल करते हुए अभी अंतिम रूप न दिये जा सकने के कारण यहाँ नहीं है। शायद दो-तीन दिनों बाद उसे साझा किया जा सकेगा।

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संवैधानिक मूलाधारों पर निरंतर हमले के विरुद्ध प्रस्ताव

यह दौर आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा दौर है। धर्म के नाम पर जिस तरह एक पूरे धार्मिक समुदाय को देश के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है और संविधान में मिले नागरिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील किया जा रहा है, वह इस राजसत्ता के फ़ासीवादी चरित्र का ही प्रमाण है। भारत का यह फ़ासीवाद अपने चरित्र में अतिदक्षिणपंथी भी है और ब्राह्मणवादी भी। मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष उन सब भारतीयों का कर्त्तव्य है जो भारतीय संविधान में यक़ीन करते हैं और जो भारत की बहुविध धार्मिक, जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखना चाहते हैं क्योंकि असली भारत इसी परंपरा में निहित है जिसे हिंदुत्वपरस्त ताक़तें ख़त्म करना चाहती हैं’।

भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश हैं। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की संकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों का या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है इसलिए वह एक राष्ट्र्, एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है।

भारतीय जनता पार्टी जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने उस दिशा में लगातार कदम उठाये जो आरएसएस की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है कानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बारबार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो चुका है जिसका उद्घाटन स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है और कई राज्यों ने समान नागरिक संहिता को कानून बनाकर अपने यहाँ लागू कर दिया है।

जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेजी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले चुकी है। कह सकते हैं कि इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जो और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएं थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमजोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की साम्राज्यवादी नीतियां जिम्मेदार हैं, तो उस प्रौद्योगिकी का भी हाथ है जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आये हैं। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मजबूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ जबकि हिंदूत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खुंखार रूप में सामने आ चुका है। यहां यह नहीं भुला जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले भी आतंकवाद ही है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोजर चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना भी आतंकवाद ही है। मणिपुर में पिछले दो साल से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की सी स्थिति बनी हुई है। सत्ता समर्थक मैतेई समूहों (जो अधिकतर हिंदू हैं और बताया जाता है कि आरएसएस उनके बीच सक्रिय है) द्वारा कुकी अल्पसंख्याकों (जो अधिकतर ईसाई हैं) हिंसक हमले किये जा रहे हैं, वह भी एक तरह का आतंकवाद ही है। अब तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लगभग छः हजार घरों को जलाया जा चुका है। लगभग 250 चर्च नष्ट किये गये हैं। 60 हजार लोग विभिन्न शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हजारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं। कई महिलाओं को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया है। इतनी भयावह स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री ने न मणिपुर जाना जरूरी समझा और न वहां शांति स्थापित करने के लिए कोई कदम उठाया है।

इन दस सालों में मनुवादी, दलितविरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम-विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताक़तों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है। यह अकारण नहीं है कि इन दस सालों में लगातार मुसलमानों पर ही नहीं महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमज़ोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बंद होते जा रहे हैं।

लेकिन इन सबसे अधिक खतरनाक है, कानूनों में ऐसे बदलाव जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है। अभी हाल ही में संसद में जिस 130वां संविधान संशोधन प्रस्तावित किया गया है, अगर वह संसद द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो केंद्र की सरकार कभी भी किसी भी राज्य सरकार के मुख्यमंत्री को और वहां की सरकार को बर्खास्त कर सकती है.

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद हिंदुओं को एकजुट करना है ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दे। उनके और मुसलमानों में इस हद तक विभाजन पैदा करना है जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला, गोमांस या गोतस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग करलें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दे (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाए। हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसीके लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है और जिसका अगला कदम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो, उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों के अलग कर दिया गया है।

पिछले दस साल में मोदी सरकार ने धारा 124 का काफी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसा कानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव मामले में पिछले आठ साल से ज्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाये जेलों में बंद है। इसी तरह बिना किसी सबूत के और बिना मुकदमा चलाये फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे भड़काने के आरोप में उमर खालिद, शर्जील इमाम और आठ अन्य को पिछले पांच साल से जेल में बंद रखा गया है और उनकी जमानत तक नहीं होने दी जा रही है। कानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमान हैं जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोजर के द्वारा धराशायी किया गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूंह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोजर से धराशायी कर दिये गये। न्याय करने का यह गैरकानूनी तरीका है लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों द्वारा आगे सुनवाई हो उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया। यही नहीं बुलडोज़र मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की खुले आम अवहेलना की जा रही है.
दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है जो इस सांप्रदायिक फासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। संसद का हाल हम देख रहे हैं जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमंत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से जरूरी विधेयक बिना बहस-मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज्यादा विरोध करता है तो उसे निलंबित कर दिया जाता है। इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फैसले न्याय से नहीं बल्कि सत्ता की राजनीतिक जरूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी का मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सजा दी गयी, वह इसका ठोस प्रमाण है। अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीका अपनाया गया, वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बैंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक संसद कानून नहीं बनाता तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अपने बहुमत के बल पर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाकर प्रधानमंत्री द्वारा एक केन्द्रीय मंत्री को मनोनीत करने की व्यवस्था कर दी गयी है.

ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन है। इसका एक मकसद हिंदू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमजोर करना है। ये दोनों मकसद दरअसल एक ही हैं।

हो सकता है कि फौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालात को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जाएगा तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है वह भी उनसे छीन ली जाए। सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है जिसे वे खत्म न कर सकें तो पूरी तरह से कमजोर और निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

जनवादी लेखक संघ का यह ग्यारहवां राष्ट्रीय सम्मलेन मोदी सरकार द्वारा भारतीय संविधान के मूलाधारों पर किये जा रहे हमले का विरोध करता है और संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष करने का आह्वान करता है।

 

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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के विरुद्ध प्रस्ताव

भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल को अब अघोषित आपातकाल के रूप में पहचाना जाने लगा है. 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा भारत की जनता पर जो आपातकाल थोपा था उसकी एक विशेषता प्रेस की आज़ादी पर पूरी तरह प्रतिबन्ध था. आपातकाल का वह दौर केवल 18 महीने ही रहा और उसके बाद उसे हटा लिया गया. लोकसभा के चुनाव हुए और कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई. लेकिन अघोषित आपातकाल पिछले 11साल से लागू है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तरह-तरह से प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रतिबन्ध लगाए गए हैं. यही नहीं धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन के विरुद्ध संघर्ष करने वाले विवेकवादी लेखक और बुद्धिजीवी एम एम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की सांप्रदायिक फासीवादियों द्वारा खुले आम हत्या कर दी गयी थी.

इन ग्यारह सालों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने लगातार कोशिश की है कि विरोध की किसी भी तरह की आवाज़ उठने से पहले उसे कुचल दिया जाये। यह काम अभिव्यक्ति पर तरह-तरह के प्रतिबंधों के द्वारा ही नहीं किया जा रहा है बल्कि मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण द्वारा भी किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में NDTV का उदहारण लिया जा सकता है जिस पर विभिन्न तरह के दबाव डालकर उसे अडानी के हाथों बेचने को मजबूर होना पड़ा. यह एक मात्र चैनल था जो मौजूदा सत्ता के प्रति वस्तुपरक रहते हुए निर्भीक आलोचना पेश करता था. लेकिन अब अडानी के हाथों में पहुंचकर उसका चरित्र भी अन्य गोदी मीडिया चैनलों की तरह हो गया है. आज देश में कोई भी समाचार चैनल ऐसा नहीं है जिससे निष्पक्षता की उम्मीद की जा सके। प्रत्येक चैनल मौजूदा सत्ता की ग़ुलाम हो गयी है। ये न्यूज चैनल न केवल मोदी और उनकी सरकार और उनकी पार्टी के भोंपू में तब्दील हो गये हैं बल्कि मौजूदा सत्ता के विरोधियों पर हमला करने के मंच भी बन गये हैं। यही नहीं भाजपा और आरएसएस के सांप्रदायिक एजेंडे का उग्र प्रचार करने में भी ये चैनल पूरी बेशर्मी से लगे हुए हैं और यह भी नहीं सोचते कि इसका देश के ताने-बाने पर कितना भयावह असर पड़ रहा है। ऑपरेशन सिन्दूर के समय जिस तरह के उग्र राष्ट्रवाद और पूरी तरह झूठ पर आधारित युद्धोन्माद भड़काया गया था वह भविष्य के भयावह संकेत देने वाले हैं. दरअसल आज मीडिया (जिनमें प्रिंट मीडिया भी शामिल है) के मालिक देशी-विदेशी निगम हैं और वे अपना हित इसीमें समझते हैं कि मोदी सरकार के भोंपू बने रहें। मीडिया के इस चाल और चरित्र की वजह से ही उसे गोदी मीडिया नाम दिया गया है। वे स्वतंत्र लेकिन छोटे-छोटे मीडिया समूह जो निगमों के स्वामित्व से मुक्त हैं और यूट्यूब और सोशल मीडिया द्वारा अपनी बात जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर हर समय तलवार लटकी रहती हैं। न्यूजक्लिक का उदहारण लिया जा सकता है जिसे सरकारी दमन का सामना करना पड़ा. न्यूज़क्लिक अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओँ में प्रसारण करता रहा है. इस न्यूज़ चैनल पर केवल इसलिए छापा मारा गया कि वह मौजूदा सरकार की तीखी आलोचना करता था. इसके संस्थापक प्रवीर पुरकायस्थ को मनी लौंड्री के मनगढ़ंत आरोपों में जेल में डाल दिया गया और कई महीने बाद ही अदालत से उन्हें जमानत मिली.
धारा 370 के ख़ात्मे की छठी सालगिरह पर, 5 अगस्त 2025 को जम्मू और कश्मीर प्रशासन के गृह विभाग ने—जो सीधे-सीधे केंद्र सरकार के नुमाइंदे, उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के मातहत है—कश्मीर समस्या से संबंधित 25 महत्त्वपूर्ण किताबों को प्रतिबंधित कर एक बेहद चिंताजनक और निंदनीय संदेश दिया है। सरकार यह कहना चाहती है कि उसके द्वारा स्वीकृत आख्यान से मतभेद रखने वाले किसी भी लेखन-प्रकाशन को लोगों तक पहुँचने का, और लोगों को ऐसे किसी लेखन-प्रकाशन तक पहुँचने का अधिकार नहीं है। ए जी नूरानी, अनुराधा भसीन, अरुंधति रॉय, सुमंत्र बोस समेत अनेक देशी-विदेशी लेखकों की कश्मीर-समस्या से संबंधित ये पुस्तकें गहन शोध, विश्लेषण और फ़ील्ड-वर्क का नमूना मानी जाती हैं। गृह विभाग का आरोप है कि वे ‘अलगाववाद को बढ़ावा’ देती हैं, ‘भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने’ का काम करती हैं, और ‘जम्मू और कश्मीर के बारे में झूठा आख्यान प्रचारित करती हैं, जो हिंसा और आतंकवाद में युवाओं की भागीदारी के पीछे एक अहम प्रेरक रहा है’। इसी आधार पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 की धारा 98 के तहत उन्हें ‘ज़ब्तशुदा’ घोषित करने आदेश जारी हुआ है।जम्मू और कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली का कोई संकेत मिलने के बजाये लगातार उसे कुचलने के उदाहरण सामने आ रहे हैं। यह सिलसिला बहुत सीमित दायरे में प्रसारित हो पाने वाली शोधपरक विश्लेषणात्मक पुस्तकों को प्रतिबंधित करने तक भी आ पहुँचा है। जनवादी लेखक संघ ने एक बयान जारी कर इस प्रतिबंध की निंदा की थी और मांग की थी कि इस आदेश को अविलंब वापस लिया जाए. जलेस ने लेखक समुदाय से भी अपील की थी कि विभिन्न मंचों पर इस फ़ैसले का विरोध करते हुए लोगों तक सच को पहुँचाने का काम करे। किताबों को विचार-विमर्श और बहस का विषय होना चाहिए, ज़ब्ती का नहीं। साथ ही, अगर ‘भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने’ के झूठे आरोप में आज किताबें प्रतिबंधित की जा रही हैं तो कल को लेखकों की गिरफ़्तारी भी हो सकती है। हमें इस रुझान का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए।

वरिष्ठ और विश्वसनीय पत्रकार श्री अजित अंजुम पर बिहार के बेगूसराय में दायर की गयी प्राथमिकी (एफ़आईआर) इस देश की बची-खुची स्वतंत्र पत्रकारिता पर एक हमला है। श्री अजित अंजुम ने अपने यूट्यूब चैनल पर बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण की प्रक्रिया को ख़बर बनाते हुए उसकी अनेक अनियमितताओं को जनता के सामने उजागर किया। यह बात शासन-प्रशासन के गले नहीं उतरी और जिस बीएलओ ने श्री अंजुम से सबसे लंबी बातचीत की थी, उन्हीं की ओर से उन पर प्राथमिकी दर्ज करवायी गयी। श्री अंजुम का यह कहना निराधार नहीं है कि उक्त बीएलओ तो बलि का बकरा हैं। इसके पीछे कौन हैं, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इसी तरह एक अन्य पत्रकार अभिसार शर्मा को भी प्राथमिकी का सामना करना पड़ा है. दी वायर के संस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन और वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के विरुद्ध भी कई तरह के मुकदमें दायर किये गए हैं. जनवादी लेखक संघ पत्रकारों पर हो रहे दमन और उत्पीडन की भर्त्सना करती है.

पत्रकार और पत्रकारिता ही सरकारी दमन और उत्पीड़न का शिकार नहीं हो रही है. शिक्षक और शैक्षिक संस्थान भी सरकारी दमन के शिकार हो रहे हैं. पहले के किसी भी समय की तुलना में भारतीय विश्वविद्यालयों की अकादमिक आज़ादी आज बहुत अधिक खतरे में है. सरकारी हस्तक्षेप की वजह से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुँच चुकी है. कुलपति और विश्वविद्यालय के नीति-निर्धारण के लिए बनी निकायों को भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के प्रतिनिधियों से भर दी गयी हैं. कुलपति भी आमतौर पर उन्हें ही नियुक्त किया जा रहा है जो अकादमिक पहचान से ज्यादा आरएसएस से निकटता के लिए जाने जाते हों. दिल्ली स्थित साउथ एशियाई विश्वविद्यालय के चार शिक्षक स्नेहाशीष भट्टाचार्य, श्रीनिवास बर्रा, रवि कुमार और इर्फानुल्लाह फ़ारूकी को छात्रों को भड़काने के आरोप में निलंबित कर दिया गया. इसी तरह सोनीपत स्थित अशोका यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर सव्यसाची दास को इसलिए नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया कि उन्होंने अपने एक शोध प्रबंध में पाया था कि भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के चुनाव उन कुछ सीटों पर जहाँ हार-जीत बहुत कम अंतर से हुई है , अंतिम दौर में बड़ी मात्रा में मतदान हुआ. एक और निजी कॉलेज सिम्बायोसिस पुणे में एक शिक्षक को केवल इसलिए निशाना बनाया गया कि वह कक्षा में सर्वधर्म समभाव के बारे में बता रहे थे. यह बात उन कट्टरपंथी हिन्दू विद्यार्थियों को नागवार गुजारी जो उनके वक्तव्य को हिन्दू धर्म का विरोध समझ रहे थे. उन्हें धार्मिक भावनाओं को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. ऑनलाइन कोचिंग कराने वाली बहुचर्चित कंपनी अनअकेडमी के शिक्षक कारन सांगवान को इस बात के लिए ट्रोल किया गया कि उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के राजनीति में आने की वकालत की थी. उत्तराखंड के पंतनगर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर राजेश प्रताप सिंह को इसलिए निलंबित कर दिया गया कि उन्होंने राज्य सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की नीतियों की सोशल मीडिया पर आलोचना की थी. इस तरह की घटनाओं के कारण अध्यापक ऐसे किसी भी मामले में जबान खोलने से कतराता है जिसके कारण उन्हें ट्रोल किये जाने, निलंबित किये जाने और गिरफ्तार होने तक का डर हो. वे अपनी अकादमिक स्वतंत्रता का उपयोग करने से पहले ही अपनी जबान पर ताला लगा लेते हैं. अध्यापक ही नहीं विद्यार्थी भी ऐसे किसी मामले में बोलने से या सोशल मीडिया पर अपनी बात लिखने से कतराते हैं जिससे उन्हें शिक्षा संस्थान से निलंबित किये जाने से लेकर गिरफ्तार किये जाने का खतरा पैदा हो. इसी तरह स्टैंडअप कॉमेडी करने वाले कलाकारों को भी आये दिन तरह तरह की धमकियों और हमले का सामना करना पड़ता है. कुणाल कामरा और कई अन्य कलाकारों को अपने शो करने के लिए जगह तक उपलब्ध होना मुश्किल हो गया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का खतरा केवल सत्ता की तरफ से ही नहीं है बल्कि धार्मिक कट्टरपंथियों की तरफ से भी है. अभी हाल ही में कोलकाता में उर्दू शायर और गीतकार जावेद अख्तर के कार्यक्रम को मुस्लिम कट्टरपंथियों की धमकियों के कारण निरस्त करना पड़ा.

जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे इन चौतरफा हमले की निंदा करता है और लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से एकजुट होकर इन हमलों के विरुद्ध संघर्ष करने का आह्वान करता है.

 

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पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायीकरण के विरुद्ध प्रस्ताव

भारतीय जनता पार्टी द्वारा एनसीइआरटी और स्कूल की पुस्तकों में बदलाव पहली बार नहीं किया गया है। जब-जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश की है। इन कोशिशों के पीछे जो भी कारण वे बताते रहे हों, लेकिन उनका मकसद हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रमों में फेरबदल करना होता है, चाहे उसके लिए तथ्यों को छुपाना या उनको बदलना ही क्यों न पड़े। 2014 में सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव की कई कोशिशें की। पहली कोशिश 2017 में की गयी जब 182 पाठ्यपुस्तकों में 1334 परिवर्तन किये गये। दूसरी कोशिश तत्कालीन शिक्षामंत्री प्रकाश जावडेकर की देखरेख में 2019 में की गयी और तीसरी कोशिश 2022 में हुई। कोरोना महामारी का बहाना लेकर मोदी सरकार ने यह फैसला किया था कि स्कूली पाठ्यक्रमों का बोझ विद्यार्थियों पर कम किया जाए और इसके लिए कथित रूप से ‘पाठ्यक्रम विवेकीकरण’ का कार्य संपन्न किया गया और इसी के तहत उन अंशों को हटाने का प्रस्ताव किया गया जिनमें उनके अनुसार जिन्हें या तो कई बार दोहराया गया था या जो अब अप्रासंगिक हो गये हैं। 2023-24 सत्र के लिए पाठ्यचर्याओं में संशोधनों को प्रस्तावित किया गया। ये संशोधन इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं नागरिक शास्त्र (राजनीति विज्ञान और समाजविज्ञान सहित), विज्ञान और हिंदी के पाठ्यक्रमों में भी किये गये। लेकिन 2022 में जो संशोधन प्रस्तावित किये गये थे, उनके अलावा भी कुछ संशोधन बिना पूर्व घोषणा के किये गये हैं। ये संशोधन 2023-24 सत्र की पाठ्यक्रम में लागू कर दिये गए हैं। हटाये गये पाठों में मुख्य रूप से गुजरात दंगे, मुग़ल दरबार, आपातकाल, शीतयुद्ध, नक्सलबाड़ी आंदोलन, कृषि और पर्यावरण संबंधी अध्याय, डार्विन का विकासवाद, वर्ण और जाति संघर्ष, दलित लेखकों का उल्लेख आदि शामिल हैं। महात्मा गांधी की हत्या संबंधी पाठों में किये गये संशोधन पिछले साल घोषित संशोधनों की सूची में शामिल नहीं हैं। उन्हें बिना पूर्व सूचना के हटाया गया है।

एनसीइआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव के मौजूदा अभियान में सर्वाधिक फेरबदल इतिहास की पुस्तकों में किया गया है। इतिहास संघ परिवार के निशाने पर सदैव से रहा है। वे चाहते हैं कि भारत के इतिहास को इस तरह पेश किया जाए जिससे उनके राजनीतिक मकसद को पूरा करने में मदद मिले। वे औपनिवेशिक शासकों की तरह भारतीय इतिहास को भी हिंदू और मुसलमान में विभाजित कर देखते हैं। उनकी नज़र में यह देश केवल हिंदुओं का है और मुसलमान आक्रांता हैं। अपनी इस सांप्रदायिक दृष्टि के अनुसार वे इतिहास की पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में मुस्लिम शासकों का उल्लेख आक्रांता और आततायी के रूप में ही देखना चाहते हैं जिन्होंने हिंदू जनता का उत्पीड़न किया था, उनके पूजा स्थलों को तोड़ा था और उनकी स्त्रियों को बेइज्जत किया था। स्वाभाविक है कि ऐसे इतिहास को पढ़ने से हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत पैदा होगी और इस नफरत का लाभ उठाकर वे हिंदू राष्ट्र के प्रति अपने जनसमर्थन का विस्तार कर सकेंगे। कक्षा 12 के इतिहास विषयक पाठ्यक्रम में से जो कई अध्याय हटाये गये हैं उनमें मुख्य रूप से मुग़ल साम्राज्य संबंधी अध्याय हैं। संशोधित पाठ्यक्रम के अनुसार ‘किंग्स एंड क्रॉनिकल्स: मुग़ल दरबार’ (16वीं और 17वीं सदी) नामक अध्याय अब विद्यार्थी नहीं पढ़ पायेंगे जो इतिहास की किताब ‘थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री- पार्ट-2 से हटा दिया गया है। भाजपा सरकार का मानना है कि मुग़ल आक्रमणकारी थे, इसलिए इनके इतिहास को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए। इतिहास की पुस्तकों में से मुग़लों का उल्लेख हटाने के पीछे मुख्य मकसद जैसाकि कुछ विद्वानों का मत है, पाठ्यक्रमों से संबंधित सारी बहस को इतिहास पर केंद्रित करना है और इस तरह वे अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे का प्रचार कर सकेंगे जिसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिल सके। एनसीइआरटी की 10वीं और 11वीं की पाठ्य पुस्तक ‘थीम्स इन वर्ल्ड हिस्ट्री’ से ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड्स’, ‘संस्कृतियों का टकराव’ और ‘औद्योगिक क्रांति’ अध्याय भी हटा दिये गये हैं।

इतिहास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मनमाने ढंग से काटा-छांटा जा सके। तीन सौ साल से अधिक समय तक मुग़लों का शासन रहा है और भारतीय इतिहास में यह काल बहुत महत्त्वपूर्ण भी रहा है। इस काल को पाठ्यपुस्तकों से तो हटाया जा सकता है, लेकिन इन तीन सौ सालों को हटाकर भारत का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। इन तीन सौ सालों का महत्व अलग-अलग शासकों के आपसी संघर्षों और युद्धों तक ही सीमित नहीं है और इन युद्धों की सच्चाई यह भी है कि अकबर का सेनापति एक राजपूत राजा था, तो महाराणा प्रताप का सेनापति एक पठान था जो उनकी तरफ से लड़ते हुए शहीद हुआ था। शिवाजी के तोपची मुसलमान थे। उस समय के शासक हिंदू हो या मुसलमान, उनकी सेना में हिंदू और मुसलमान दोनों होते थे। मुग़ल काल को युद्धों के लिए ही नहीं नयी शुरुआतों के लिए भी जाना जाता है। प्रशासनिक क्षेत्र का एक बेहतर ढांचा उन्होंने विकसित किया। मनसबदारी प्रथा, भूमि बंदोबस्ती, डाक व्यवस्था भी इसी काल की देन है। यही वह काल भी है जब एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन उदित और विकसित हुआ था और जिस दौर में नानक, कबीर, रैदास, मलिक मोहम्मद जायसी, मीरा, सूरदास और तुलसीदास जैसे महान संत और कवि पैदा हुए थे। विडंबना यह भी है कि एनसीइआरटी की हिंदी की पाठ्य पुस्तक से कबीर और मीरा के काव्य को भी हटा दिया गया है। इसी तीन सौ साल में उस साझा संस्कृति का विकास हुआ है जिसका गहरा असर आज भी देखा जा सकता है। भाषा, खान-पान, वेशभूषा, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला यानी संस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिनकी परंपराओं का निर्माण इसी बहुस्तरीय साझेपन से न हुआ हो। यहां तक कि धर्म भी इस मेलजोल से अछूता नहीं रहा है। इस दौर में जो नये संप्रदाय, नये पंथ अस्तित्व में आये वे इसी मेलजोल और साझेपन के परिणाम रहे हैं। इन तीन सौ सालों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने का मतलब है हमारे वर्तमान की उस बुनियाद को खोखला करना जिसके बिना ना हमारा वजूद संभव है और न हमारी पहचान।

इतिहास में किये जा रहे बदलावों के पीछे किसी तरह की बौद्धिक समझदारी काम नहीं कर रही हैं, बल्कि राजनीति है। यह सरकार मौजूदा पीढ़ी को असंबद्ध अतीत पढ़ाने जा रहे हैं। वे इतिहास को हिंदू और मुसलमानों में विभाजित कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि इतिहास को इस तरह से विभाजित करना कितना खतरनाक हो सकता है. पाठ्यपुस्तकों में से इतिहास के अलावा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की न केवल महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है, अन्य कई प्रमुख घटनाओं, प्रसंगों और महापुरुषों को भी या तो हटा दिया गया है या उनमें फेरबदल किया गया है। 10वीं की पाठ्यपुस्तक ‘लोकतांत्रिक राजनीति-2’ से ‘लोकतंत्र और विविधता’, ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन’ और ‘लोकतंत्र की चुनौतियां’ अध्याय हटा दिये गये हैं। स्वतंत्र भारत में राजनीति से संबंधित पाठ्यचर्या में से ‘जन आंदोलन का उदय’ और ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर’ पाठ भी हटा दिये गये हैं। कक्षा 11 की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक ‘अंडरस्टेंडिंग सोसाइटी’ में से 2002 के गुजरात दंगों का संदर्भ भी हटा दिया गया है और इन दंगों के साथ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट का हवाला भी हटा दिया गया है। जिन अध्यायों को हटाया गया है उनसे आसानी से समझा जा सकता है कि इसके पीछे मकसद क्या है। मसलन, ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर’ दरअसल तानाशाही प्रवृत्ति की आलोचना प्रस्तुत करता है। आपातकाल को एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में ही देखा जाता था। लेकिन भारतीय राजनीति का मौजूदा दौर भी एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में पहचाना जाने लगा है जो लोकतंत्र के विरुद्ध है। इस पाठ को हटाकर एक तरह से विद्यार्थियों को मौजूदा दौर के प्रति आलोचनात्मक रुख विकसित करने से रोका गया है। इसी तरह जनसंघर्षों और जन आंदोलनों से संबंधित पाठों को हटाना भी मौजूदा सत्ता की लोकतंत्र विरोधी तानाशाही प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है जो किसी भी तरह के लोकतांत्रिक आंदोलनों और संघर्षो को जिसका अधिकार जनता को संविधान में मिला हुआ है, अपनी सत्ता के प्रति विद्रोह और इस तरह देशद्रोह के रूप में देखती हैं।
संघ-भाजपा केवल इतिहास और राजनीति के साथ ही छेड़छाड़ नहीं कर रहे हैं, अन्य विषयों के पाठ्यक्रमों के साथ भी कर रहे हैं। 11वीं के समाजशास्त्र की किताब ‘अंडरस्टेंडिंग सोशियोलॉजी’ में से कई विषय हटा दिये गये। इस पाठ्यपुस्तक के अध्याय तीन ‘पर्यावरण और समाज’ के एक सेक्शन जिसका शीर्षक है, ‘पर्यावरण की समस्याएं सामाजिक समस्याएं क्यों हैं?’ में दी गयी दो केस स्टडीज को हटा दिया गया है। एक केस स्टडी का संबंध विदर्भ से है जहां सूखे और कृषि संकट से जूझते किसानों की व्यथा-कथा बतायी गयी है। दूसरी केस स्टडी जिसमें दिल्ली जैसे महानगर में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता को विषय बनाया गया है, उसे भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। यह भी महज संयोग नहीं है कि समाजशास्त्र की पुस्तक में से वर्ण और जाति संबंधी पाठ को हटा दिया गया है और इस तरह हिंदू समाज के सबसे बड़े अभिशाप के बारे में विद्यार्थियों को अंधेरे में रखने की कोशिश की गयी है।

एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किये गये संशोधनों में सबसे खतरनाक है विज्ञान के पाठ्यक्रमों में किया गया बदलाव। सीबीएसइ के दसवीं के पाठ्यक्रम से जैविक विकास का सिद्धांत जो डार्विन के विकासवाद पर आधारित है, को हटा दिया गया है। यहां मोदी सरकार के एक मंत्री के कथन को याद किया जा सकता है जिसका कहना था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत पूरी तरह से गलत है। हमारे किसी बाप-दादा ने बंदरों से मनुष्य बनते हुए नहीं देखा था। इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्तव्य को भी याद किया जा सकता है जो मुंबई में डाक्टरों की एक सभा के सामने दिया था और जिसमें उन्होंने यह दावा किया था कि मनुष्य के सिर पर हाथी का सिर लगाना यह बताता है कि हमारे पूर्वज सर्जरी में कितने आगे बढ़े हुए थे। स्पष्ट है कि जो पौराणिक कल्पनाओं को सच मानते हों वे विज्ञान के सिद्धांतों में कैसे यकीन कर सकते हैं। यही वजह है कि देश के 1800 से अधिक वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और विज्ञान शिक्षकों ने एक खुला पत्र लिखकर एनसीइआरटी के दसवीं के पाठ्यक्रम में जैविक विकास के सिद्धांत को हटाये जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की है जिसका अध्ययन वैज्ञानिक चेतना के निर्माण और हमारे आसपास की दुनिया को समझने के लिए जरूरी है। दसवीं के पाठ्यक्रम से जो अध्याय हटाये गये हैं वे हैं : चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन, विकासवाद और मानव विकास।

मौजूदा सत्ता द्वारा पाठ्यक्रमों में बदलाव का उद्देश्य शिक्षा के पूरे क्षेत्र को अपनी विचारधारा के दायरे में लाना है और ऐसा करते हुए वे अतीत और वर्तमान की उन सभी बातों को अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र से बहिष्कृत करना चाहते हैं जिनके बने रहने से उनके वैचारिक वर्चस्व को अंदर से ही चुनौती मिलने लगती है। महात्मा गांधी की हत्या हो या मुग़ल काल, गुजरात के दंगे हो या विभिन्न जन आंदोलन, आपातकाल हो या लोकतंत्र की चुनौतियां, नक्सलबाड़ी अंदोलन हो या जातिवादी उत्पीड़न, डार्विन का विकासवाद या वैज्ञानिक चेतना पाठ्यक्रमों में इनका बने रहना उनके सांप्रदायिक और पुनरुत्थानवादी एजेंडे का प्रतिलोम पैदा कर सकता है। यही डर इन बदलावों के पीछे काम कर रहा है।
जनवादी लेखक संघ का यह ग्यारहवां राष्ट्रीय सम्मलेन पाठ्यक्रमों के हिंदुत्वपरस्त संप्रदायीकिकरण की कोशिश का विरोध करता है. पाठ्यक्रमों के साम्प्रदायिकीकरण कि कोशिश का विरोध करना हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाये रखने के लिए जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे आने वाली पीढ़ियां, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक विवेक से वंचित रहकर मध्ययुगीन कूपमंडूकता के दलदल में न फंस जाये।यह भारत की बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक और बहुराष्ट्रीयतावादी पहचान को बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है। तब ही संघात्मक राष्ट्र के रूप में हम अपने वजूद को बनाये रख सकेंगे।

 

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लेबर कोड यानी गुलामी के दस्तावेज के विरोध में प्रस्ताव

लेबर कोड कानून मालिकों द्वारा मजदूरों पर नव उदारवाद के जरिये हमलों का अगला चरण है. जिस समय हमारा देश कोरोना महामारी से ग्रस्त (2019-20) था उस समय आपदा को अवसर की तरह इस्तेमाल करते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एन डी ए सरकार ने यदि एक और कृषि क्षेत्र को पूंजीवादी हाथों में सौंपने के लिए किसान विरोधी कृषि क़ानून लागू करने की कोशिश की, तो दूसरी ओर, श्रम कानूनों को सरलीकृत और आधुनिक बनाने के नाम पर चार लेबर कोड के अंतर्गत समस्त श्रम कानूनों को समेटते हुए उन्हें इस तरह संशोधित किया गया जिससे लम्बे संघर्ष से हासिल मजदूरों के हितकारी कानूनों को या तो कमजोर कर दिया गया या उनको पूंजीपतियों के हित में बदला गया. कृषि कानूनों को तो लम्बे संघर्ष और बलिदान के बाद सरकार को वापस लेने को मजबूर किया लेकिन यह चार लेबर कोड के विरुद्ध मजदूर वर्ग को कामयाबी मिलना शेष है.

पहला कोड मजदूरी संहिता के बारे में हैं जिनमें मजदूरी भुगतान अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम को शामिल किया गया है. इस कोड में न तो न्यूनतम मजदूरी की परिभाषा दी गयी है और न ही इसकी गणना का कोई सूत्र. अब न्यूनतम मजदूरी ‘न्यूनतम मजदूरी सलाहकार बोर्ड’ से छीनकर कानून द्वारा तय न करके सरकार ने इसे अपने हाथ में ले लिया है. काम के घंटे भी अब सरकार तय करती है.
दूसरा कोड औद्योगिक सम्बन्धी संहिता के बारे में हैं जिनमें तीन पुराने कानूनों को शामिल कर दिया गया है. औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946. इस कोड के अनुसार जो सुपरवाइजरी पद पर कार्यरत है और प्रतिमाह 18000 रुपये या अधिक वेतन पाता है तो वह मजदूर की परिभाषा में नहीं आएगा. अगर किसी को निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किया जाता है तो उसे उसके बाद बिना नोटिस या मुआवजे के नौकरी से हटाया जा सकता है. मालिक यह अवधि एक वर्ष से कम की रख सकता है. वे पद जिनकी प्रकृति तो स्थायी है लेकिन उन पर भी निश्चित अवधि के लिए नियुक्ति करने पर कोई रोक नहीं है और उस व्यक्ति को जिसे निश्चित अवधि के लिए नियुक्त किया गया है, उसे ही बार बार नियुक्त किया जाता रहता है और इस तरह स्थायी नियुक्ति से होने वाले लाभों से उसे वंचित रखा जाता है. निश्चित अवधि के लिए काम करने वाले इस डर से कि उनकी नौकरी कभी भी जा सकती है, मालिक की शर्तों के अनुसार काम करने को मजबूर होंगे. किसी भी औद्योगिक इकाई में काम पर रखने, हटाने और उस प्रतिष्ठान को बंद करने के लिए सरकार से स्वीकृति के लिए अब मजदूरों की संख्या बढ़ाकर 300 कर दी गयी है इससे अधिकतर कारखानों से मजदूरों को निकालना और छंटनी करना आसान हो जायेगा. इस कोड से श्रमिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों पर भी रोक लगेगी. कम से कम 10 फ़ीसदी सदस्यता पर ही ट्रेड यूनियन को मान्यता मिलेगी और 50 प्रतिशत सदस्यता वाले यूनियन को ही प्रबंधन से समझौता करने का अधिकार होगा. अगर मजदूर संगठनों और प्रबंधन के बीच समझौता नहीं होता है तो मामले को ट्रिब्यूनल को अग्रसारित करना बाध्यकारी नहीं होगा . इस तरह इस दूसरे कोड में भी किये गए बदलाव मजदूरों के हितों के विरुद्ध हैं और उनमें असुरक्षा पैदा करेगी और उनकी सौदेबाजी करने की ताकत को कमजोर करती है.

तीसरे कोड में नौ श्रम कानूनों को समेटा गया है. कर्मचारी मुआवजा अधिनियम 1923, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम 1952, रोज़गार कार्यालय (रिक्तियों की अनिवार्य अधिसूचना) अधिनियम 1959, मातृत्व लाभ अधिनियम 1961, ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम 1972, सिनेमा श्रमिक कल्याण निधि अधिनियम 1961, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक उपकर अधिनियम 1996, असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008. पीएफ केवल उन प्रतिष्ठानों पर लागू होता है जिनमें 20 या अधिक कर्मचारी हो, ईएसआई सुविधा केवल उन प्रतिष्ठानों पर लागू होती है जहाँ 10 या उससे अधिक कर्मचारी हों, ग्रेच्युटी, मातृत्व लाभ और भवन और अन्य निर्माण कार्य भी उन प्रतिष्ठानों पर लागू होती हैं जहाँ 10 या उससे अधिक कर्मचारी हो. इस प्रकार 40 करोड़ से अधिक श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का दावा एक धोखा है. असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए न तो कोई योजना कानूनी तौर पर लागू की गयी है और न ही किसी कल्याणकारी योजना के लिए धन निर्धारित किया गया है. पीएफ में अंशदान की दर को 12 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया है. यह कोड कर्मचारी राज्य बीमा योजना में मालिकों द्वारा उल्लंघन में दंडात्मक ब्याज दर कम करता है. अन्य बहुत से क्षेत्रों में भी दंडात्मक ब्याज दर को कम किया गया है.

चौथे कोड का संबंध व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियों से सम्बंधित 13 कानूनों से है जिन्हें इस कोड में शामिल किया गया है. कारखाना अधिनियम, अनुबंध श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, भवन निर्माण एवं अन्य निर्माण श्रमिक (रोज़गार विनियमन एवं सेवा शर्तें) अधिनियम, बिक्री संवर्धन कर्मचारी (सेवा शर्तें) अधिनियम, अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक (रोज़गार विनियमन) अधिनियम, मोटर परिवहन श्रमिक अधिनियम, सिनेमा श्रमिक एवं सिनेमा थिएटर श्रमिक (रोज़गार विनियमन) अधिनियम, बागान श्रमिक अधिनियम, खान अधिनियम, श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें) एवं विविध प्रावधान अधिनियम, श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, बीडी एवं सिगार श्रमिक (रोज़गार शर्तें) अधिनियम, गोदी श्रमिक (सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण अधिनियम. ये पुराने कानून हर सेक्टर के विशेष कार्य पैटर्न, प्रक्रियाओं, समस्याओं एवं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए बनाये गए थे, अब यह कोड सभी सेक्टर के लिए एक ही मॉडल रखता है. कोड कवरेज को कम करके असंगठित क्षेत्र के अधिकांश श्रमिकों को कवरेज से बाहर करता है. कोड सिविल न्यायालयों को संहिता के अंतर्गत किसी भी मामले की सुनवाई करने से रोकती है. यह कोड ठेका प्रथा को आगे बढाता है. नये नियमों के अनुसार 50 से कम कर्मचारी रखने वाले ठेकेदारों को लाइसेंस लेने की आवश्यकता नहीं है जबकि पहले 20 कर्मचारी पर लाइसेंस लेना होता था. इससे ठेकेदारों को बिना नियंत्रण के श्रमिकों का शोषण करने का अवसर मिल जाता है.

इन चार लेबर कोड का प्रभाव श्रमिकों पर कई रूपों में दिखाई देगा. 18000 रुपये से अधिक वेतन पाने वाले मजदूर मजदूर की श्रेणी में नहीं माने जायेंगे. अब यूनियनें बेलेंस शीत देखकर बोनस की मांग नहीं कर सकते. निश्चित अवधि के जरिये पक्के मजदूरों की ताकत को कम किया जायेगा. निश्चित अवधि वाले मजदूर यूनियनों से जुड़ने से डरेंगे. समान काम के लिए समान वेतन को लेबर कोड निरस्त करता है. इस तरह मजदूरों ने लम्बी लड़ाई से जो कुछ हासिल किया था उसे खोने का खतरा पैदा हो गया है. मजदूरों के अधिकारों के इस लम्बे संघर्ष को जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन पूरा समर्थन करता है और उनके इस संघर्ष में वह उनके साथ है.

 

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर प्रस्ताव

केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने 29 जुलाई 2020 को नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की थी. इसने 1986 से चली आ रही राष्ट्रीय शिक्षा नीति का स्थान ग्रहण किया था. जनवरी 2015 में पूर्व केबिनेट सचिव टी एस आर सुब्रहमनियन के नेतृत्त्व में एक समिति ने नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सम्बन्ध में विचार-विमर्श आरम्भ कर दिया था और इस समिति की संस्तुति के आधार पर इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बने पैनल ने 2019 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप विचार के लिए पेश किया. 484 पृष्ठों के इस प्रारूप को मानव संसाधन मंत्रालय ने व्यापक विचार विमर्श के लिए जारी किया. मंत्रालय ने पूरे भारत से दो लाख से अधिक सुझाव प्राप्त किये थे. नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति पहले की सभी समितियों द्वारा प्रस्तावित नीतियों से काफी अलग है. पहले की नीतियों को बनाने में मुख्य भूमिका शिक्षाविदों की होती थीं और उसका उद्देश्य राष्ट्र निर्माण होता था जबकि इस नयी नीति का निर्माण शिक्षाविदों के द्वारा नहीं बल्कि निगम घरानों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया गया है. कहने को इस राष्ट्रीय नीति में भी इस बात को दोहराया गया है कि शिक्षा के बजट को तीन प्रतिशत से बढ़ाकर 6 प्रतिशत तक ले जाया जायेगा. लेकिन इसे कैसे लागू किया जायेगा, इसकी कोई ठोस रूपरेखा पेश नहीं की गयी है.

इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ऐसी बहुत सी बड़ी बड़ी बातें दोहराई गयी हैं जो पहले के नीतिपत्रों में भी कही गयी हैं लेकिन उनको लागू करने की कोई ठोस योजना इस नीतिपत्र में प्रस्तावित नहीं की गयी है. इन पुरानी बातों को दोहराने का मकसद यही प्रतीत होता है कि इनके द्वारा शिक्षाविदों के एक हिस्से का समर्थन हासिल किया जा सके जबकि यह नयी राष्ट्रीय नीति अपने दृष्टिकोण में पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी है और समतावादी समाज बनाने के लक्ष्य से पीछे हटा गया है. इसे उन कदमों द्वारा समझा जा सकता है जिसके परिणामस्वरुप शिक्षा क्षेत्र से सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित लोगों को बहिष्कृत करना है. इस नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जोर शिक्षा के निजीकरण पर है और इसे लागू करने के लिए जो नए कदम प्रस्तावित किये गये हैं उससे सभी स्तरों पर शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आयेगी. शैक्षिक सुविधाओं और अवसरों में विषमता को और चौड़ा करेगी और विशेष रूप से ग्रामीणों, गरीबों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों और अन्य पिछड़े और वंचित समुदायों के लिए शिक्षा की उपलब्धता को कम करेगी. यह इससे भी जाहिर होता है कि इस दस्तावेज में न तो आरक्षण और न ही उनके लिए ठोस कदमों का उल्लेख किया गया है. इसके विपरीत विश्वविद्यालयों में चुपचाप ऐसे कदम उठाये जा रहे हैं जिससे दलित और पिछड़े वर्ग को अब तक मिलने वाले आरक्षण की सुविधा को धीरे-धीरे उनसे छीना जा रहा है.

इस नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मकसद निगम क्षेत्र की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उसके अनुरूप उसे ढालना है और इसीलिए शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजानिक निवेश की बजाय निजी निवेश पर बल देना है. लेकिन पूँजी प्रेरित निजी निवेश शिक्षा के केवल उन क्षेत्रों में ही दिलचस्पी लेती है जो निगम क्षेत्र के हितों अनुरूप हो. निजी पूँजी शिक्षा के उन क्षेत्रों की उपेक्षा करती है जो वैज्ञानिक. मानविकी और सामाजिक विकास के लिए जरूरी है. निजी पूँजी की दिलचस्पी केवल प्रौद्योगिकी कौशल और व्यावसायिक प्रबंधन के क्षेत्र तक ही शिक्षा को सीमित कर देना चाहती है और यही वजह है कि उच्च शिक्षा में निजी पूँजी ज्यादातर इन दो क्षेत्रों में ही लग रही है और ज्ञान-विज्ञान के वास्तविक क्षेत्रों को हाशिये पर डाल दिया गया है. निजी पूँजी का मकसद मुनाफा कमाना भी होता है इसलिए स्कूलों, कोलेजों और विश्वविद्यालयों में ली जाने वाली फीस इतनी अधिक होती है कि उनमें प्रवेश लेना निम्न और मध्य वर्ग की पहुँच से बाहर हो जाता है और निजी संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था न होने के कारण अनुसूचित जाति और जनजाति परिवारों के बच्चों के लिए प्रवेश लेना असंभव हो जाता है. यह केवल उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए ही सत्य नहीं है बल्कि इसे स्कूली शिक्षा के लिए भी सत्य है. यह संयोग नहीं है कि पिछले दो तीन सालों में हिंदी राज्यों में विशेष रूप से उन राज्यों में जहाँ भाजपा की सरकारें हैं लगभग नब्बे हजार प्राइमरी स्कूलों को अन्य स्कूलों में विलय के नाम पर बंद कर दिया गया है. नतीजतन बड़ी संख्या में गरीबों के बच्चे जिनमें दलितों और लड़कियों की संख्या ज्यादा है, उन्हें पढाई बीच में छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया है क्योंकि अब स्कूल जाने के लिए ज्यादा दूरी तय करनी होती है. सरकारी स्कूलों के लगातार बंद होते जाने के कारण प्राइवेट स्कूल उनकी जगह ले रहे हैं और ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों की पहचान अधिक शुल्क और निम्नस्तरीय शिक्षा है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पिछले पांच साल यह बताने के लिए पर्याप्त है कि प्राइमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक जहाँ एक तरफ शिक्षा का तेजी से व्यवसायीकरण हुआ है और वंचित वर्गों को शिक्षा क्षेत्र से बहिष्कृत करने का अभियान चल रहा है, वहीँ दूसरी ओर, राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की शिक्षा के नाम पर आरएसएस और भाजपा हिंदुत्व की विचारधारा को न केवल थोपने की कोशिश कर रही है बल्कि समाज, संकृति, विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों का संप्रदायीकरण भी किया जा रहा है. इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जो अपने मूल में देशी-विदेशी निगम पूँजी के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर निर्मित की गयी है और जो संविधान के आधारभूत मूल्यों अर्थात लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघात्मकता और सामाजिक न्याय को विस्थापित करना चाहती है को पूरी तरह नकारने और शिक्षा के हर स्तर को दोबारा संविधान प्रदत्त मूल्यों के अनुरूप ढालने के लिए संघर्ष करने की जरूरत है. जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन इस 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति को देश की एकता, वैज्ञानिक सोच और लोकतान्त्रिक मूल्यों के विरुद्ध मानते हुए उसे पूरी तरह नकारने का आह्वान करती है.

 

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दलित समुदाय का उत्पीड़न तत्काल बंद हो

हाशिए पर धकेले गए समाज के विभिन्न समुदायों पर हिंसा में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। जिस प्रशासन को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप चलना था वह विपरीत दिशा में जाता दिख रहा है। अदालती न्याय की जगह बुलडोज़र न्याय ले आया गया है। यह बुलडोज़र पीड़ित के घर पर चलने से पहले न्यायिक प्रक्रिया पर चलता है, संविधान पर चलता है। दिल्ली जैसे महानगरों में पूरी बस्ती उजाड़ दी जाती है और पीड़ितों की चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं होता है। अदालती प्रक्रिया इतनी खर्चीली, थकाऊ और अवसादकारक होती है कि उजाड़े गए लोग इंसाफ़ माँगने के लिए उधर जाने से पहले हज़ार बार सोचते हैं। पीड़ितों में ज़्यादातर दलित ही होते हैं। पहले से संसाधनविहीन दलित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के कमज़ोर पड़ते जाने से और भी शोचनीय स्थिति में डाल दिए गए हैं। कल्याणकारी राज्य का क्षरण नवउदारवादी वैश्विक नीति की सोची-समझी कार्रवाई है। उसने हमारे देश की मनुवादी ताकत से प्रगाढ़ संबंध बना रखे हैं।

साम्प्रदायिक हिंसा करने वाली शक्तियाँ ही मनुवाद की पोषक और अभ्यासक है। डिजिटल और प्रिंट मीडिया गवाह है कि गाँवों से लेकर शहरों तक आए दिन दलित परिवारों पर हमला होता है, लूट होती है और हत्याएँ होती हैं। दलित महिलाओं पर यौन हिंसा का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। वे दलित विशेष रूप से निशाना बनाए जाते हैं जो स्वाधीनचेता हैं, गरिमा से रहना चाहते हैं और अपने अधिकारों को लेकर मुखर हैं। शिक्षा को निजी हाथों में सौंपे जाने से नागरिक स्वाभिमान की संभावना पर ही मानो रोक लगा दी गई है। निजीकरण का सिलसिला प्राइमरी शिक्षा से आरंभ हुआ था और अब यह विश्वविद्यालयी शिक्षा को अपनी गिरफ़्त में ले चुका है। निजी शैक्षिक संस्थानों में प्रतिरोध की आवाज़ें उठने ही नहीं दी जातीं। जातिगत भेदभाव झेलते दलित विद्यार्थी ऐसे प्रतिकूल माहौल में घुटते रहते हैं। साहस करने वाले स्वरों को कुचल दिया जाता है।

मनुवादी शक्तियों को निर्णायक शिकस्त दिए बग़ैर न्यायपूर्ण, प्रेमपूर्ण समाज संभव नहीं है। यह सभा समतामूलक, साम्यवादी व्यवस्था में भरोसा करने वाले सभी समविचारी लोगों को संगठित होकर हिंसक सामाजिक ढाँचे के उन्मूलन हेतु अभियान छेड़ने की मांग करती है। अन्याय व अत्याचार को अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

 

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फिलिस्तीन की भयावह त्रासदी और उसके प्रति भारत का शर्मनाक रवैया

वैश्विक स्तर पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जो समस्या सर्वाधिक गंभीर रही है वह फिलिस्तीनी राष्ट्र को विभाजित कर यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र इजराइल की स्थापना करना. इजराइल की स्थापना उस ज़मीन पर दो हजार साल से अधिक समय से रहते आये फिलिस्तीनियों को हिंसा के बल पर विस्थापित कर की गयी थी. यहूदियों का एक हिस्सा इस बात में यकीन करता था कि फिलिस्तीन ही वह क्षेत्र है जो यहूदियों की मूलभूमि इजराइल है. इसी विश्वास के कारण बहुत से यहूदी बीसवी सदी के आरम्भ से ही इस क्षेत्र में आकर बसने लगे थे. यह भी मांग उठने लगी थी कि फिलिस्तीन क्षेत्र में यहूदियों के लिए एक अलग राज्य की स्थापना की जानी चाहिए. तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस मांग का समर्थन भी किया. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर द्वारा 60 लाख यहूदियों के निर्मम नरसंहार के बाद इजराइल राज्य की मांग जोर पकड़ती गयी और इस तरह 1948 में अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके समर्थक यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन भूमि पर जोर-जबरदस्ती इजराइल की स्थापना कर दी थी. यह एक यहूदीवादी राष्ट्र था जो केवल दुनिया भर के यहूदियों के लिए था. इस तरह इजराइल की स्थापना उसी सिद्धांत पर हुई थी जिस नस्लवादी सिद्धांत पर हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों से बाहर खदेड़ा था. द्वितीय विश्वयुद्ध में नाज़ीवाद और फासीवाद की पराजय के बावजूद यूरोप के देशों ने उन यहूदियों को अपने देश में सम्मानित नागरिक के रूप में वापस बुलाने की बजे उनके लिए बने एक अलग देश की ओर धकेल दिया.

इजराइल की स्थापना लाखों फिलिस्तीन नागरिकों के नरसंहार और विस्थापन के द्वारा हुई. 1947 से 1949 के दौरान ही, यहाँ की 19 लाख की कुल जनसँख्या में से साढ़े सात लाख लोगों को जबरन घरों से भगाकर शरणार्थी बना दिया गया. 571 गाँव नष्ट कर दिए गए और 15 हजार लोग मारे गए. फिलिस्तीनी इस भीषण नरसंहार को नकबा कहते हैं. यह फिलिस्तीनियों के लिए एक बहुत लंबे और न ख़त्म होने वाले दु:स्वप्न की शुरुआत थी. तेल के बड़े-बड़े भंडारों वाले पश्चिम एशिया के इस पूरे क्षेत्र को राजनीतिक रूप से अस्थिर रखने के इरादे से ताकि जब जरूरत हो वहां सैन्य दखलंदाजी की जा सके. इस क्षेत्र का पिछले आठ दशकों का इतिहास अमरीकी दखलंदाजी का इतिहास है. अधिकतर निरंकुश मुस्लिम देशों के बीच इजराइल की स्थापना दरअसल अमरीकी साम्राज्यवाद के हितों की रक्षा करने वाले एक चौकीदार से अधिक कुछ नहीं है. इजराइल की यहूदीवादी सरकारों ने अमरीका और यूरोप के समर्थन के बल पर फिलिस्तीनियों के विरुद्ध लगातार हिंसक कार्रवाइयां की हैं. उन्हें लगातार अपनी ज़मीनों से खदेड़ा जाता रहा है और यहूदी बस्तियां बसाई जाती रही हैं. अपनी आत्मरक्षा के लिए और अपनी जन्मभूमि हासिल करने के लिए संघर्ष करने के अलावा फिलिस्तीनियों के पास और कोई रास्ता नहीं था. विश्व राजनीति की विडम्बना यह है कि फिलिस्तीनियों के विरुद्ध इजराइल द्वारा किये जाने वाले अनवरत बर्बर हमलों को आत्मरक्षा में की गयी कार्रवाई बताया जाता रहा है और फिलिस्तीनियों द्वारा अपनी मातृभूमि वापस लेने और इजराइली हिंसा के विरोध में की गयी प्रत्येक कार्रवाई को आतंकवाद कहा जाता रहा है.

पिछले दो साल से इजराइल और फिलिस्तीन के बीच एक नए युद्ध की शुरुआत तब हुई जब 7 अक्टूबर 2023 के दिन हमास ने इजराइल पर हमला किया. इस हमले में लगभग 1200 इसरायली नागरिक मारे गए और लगभग 250 नागरिक बंदी बनाये गए. लेकिन इन दो सालों में इजराइल ने गाज़ा पर लगातार किये गए हमले के द्वारा 60 हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं जिनमें लगभग एक चौथाई संख्या बच्चों की है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि फिलिस्तीनियों को दी जाने वाली मानवीय सहायता भी इजराइल उन तक नहीं पहुँचने दे रहा है जिसके कारण भूख से तड़प-तड़प कर 250 लोग मारे जा चुके हैं और इनमें बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा है. इजराइल के हमले बेगुनाह नागरिकों, स्कूलों, अस्पतालों और शरणार्थी शिविरों पर हो रहे हैं. अमरीका और यूरोप के सशस्त्र समर्थन के बल पर इजराइल ने पिछले 75 साल से फिलिस्तीनियों को अपनी ही ज़मीन पर शरणार्थी बनने को मजबूर कर दिया है.

यहूदीवादियों का यह दावा कि फिलिस्तीन यहूदियों की मातृभूमि है एक मिथकीय अवधारणा से अधिक कुछ नहीं है और इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण भी नहीं है जबकि फिलिस्तीनी हजारों सालों से यहाँ रह रहे हैं. अमरीका के समर्थन और उकसावे के बल पर इजराइल की नेतान्याहू सरकार ने अभी हाल में ग़ज़ा शहर पर कब्ज़ा करने की योजना को मंजूरी दी है. इससे युद्ध न केवल और अधिक उग्र होगा बल्कि ग़ज़ा पट्टी पर रहने वाले नागरिकों के लिए और खतरनाक मंजर पैदा होंगे. इजराइल की इस योजना का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जबरदस्त विरोध भी हो रहा है. फिलिस्तीनियों के विरुद्ध पिछले दो साल से की जाने वाली इजराइल की हिंसक और बर्बर कार्रवाइयों का उन देशों की जनता द्वारा भी जबर्दस्त विरोध किया जा रहा है जहाँ की सरकारें इजराइल के साथ खड़ी हैं और उनमें अमरीका के युवा और विद्यार्थी भी शामिल है. शायद भारत अकेला ऐसा देश है जो पूरी तरह से इजराइल के साथ खड़ा है यहाँ तक कि मौजूदा सांप्रदायिक फासीवादी सत्ता समर्थक जनता भी जो इजराइल और फिलिस्तीन के मसले को यहूदी और मुस्लिम के बीच के झगडे के रूप में देखने लगी है. जबकि भारत परंपरागत रूप से फिलिस्तीन के समर्थन में खड़ा रहा है. इजराइल की फिलिस्तीनी नागरिकों के विरुद्ध बर्बर और नरसंहारक कार्रवाइयों पर मौजूदा मोदी सरकार की चुप्पी भारत के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के शानदार इतिहास के बिलकुल विपरीत है. यही नहीं कुछ शहरों में इक्का-दुक्का वामपंथी पार्टियों के विरोध प्रदर्शनों को छोड़कर अधिकतर विपक्षी पार्टियाँ भी चुप्पी साधे रही हैं. फिलिस्तीनियों के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई तक की गयी है. बॉम्बे हाई कोर्ट में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को फिलिस्तीनियों के समर्थन में प्रदर्शन को न केवल मंजूरी नहीं दी. इसके विपरीत न्यायाधीश महोदय ने उन्हें किसी विदेशी मसले पर प्रदर्शन करने की बजाय भारत की अपनी नागरिक समस्याओं पर ध्यान देने का उपदेश दिया.

महात्मा गाँधी ने फिलिस्तीन की समस्या का समाधान यह बताया था कि जिन देशों से यहूदियों को निर्वासित किया गया है या उन्हें निर्वासित होने के लिए मजबूर किया गया है, वे देश वापस अपने यहाँ उन्हें पुनः बसाये. अगर उनकी इस सर्वाधिक उपयुक्त उपाय को लागू न करना संभव न हो तो कम से कम संयुक्त राष्ट्र संघ के द्विराष्ट्र को लागू करवाए. लेकिन इजराइल और अमरीका की दिलचस्पी भी इसमें नहीं है. वे फिलिस्तीन के वजूद को ही ख़त्म कर देना चाहते हैं.
जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन इस पूरे क्षेत्र में स्थायी शांति स्थापित करने, इजराइल के युद्ध अपराधियों के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय अदालतों में मुक़दमा चलाने और फिलिस्तीनियों को अपने राष्ट्र में शांति और सुरक्षित ढंग से जीने का समर्थन करता है. जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन भारत सरकार से इजराइल से हर तरह के सम्बन्ध तोड़ने की मांग करता है.

 

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भ्रष्ट और आपराधिक राजसत्ता के विरुद्ध एकजुट संघर्ष का प्रस्ताव

जिस समय हिंदुत्व की सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति के प्रभाव का विस्तार हो रहा था, ठीक उसी अवधि में भारत का शासक वर्ग अधिकाधिक दक्षिणपंथ की ओर झुकता जा रहा था। भाजपा की नीतियां किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में ज्यादा दक्षिणपंथी थी। वह तो जनता के पक्ष में उतने कदम भी उठाने में यकीन नहीं करती थी, जो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में वामपंथी दलों के दबाव में उठाये गये थे। अटल बिहारी वाजपेयी को कई जनविरोधी कदमों को उठाने का श्रेय जाता है जिसमें सरकारी कर्मचारियों के हित में कई दशकों से चली आ रही पेंशन योजना समाप्त करना भी शामिल है। उन्होंने अपने कार्यकाल में विनिवेशीकरण का एक अलग मंत्रालय बना दिया और सार्वजनिक क्षेत्र की कई लाभ कमाने वाली कंपनियों का निजीकरण किया। वाजपेयी के काल में संघ का सांप्रदायिक एजेंडा भी जारी रहा, विशेष रूप से शिक्षा के भगवाकरण की कोशिशें जोर-शोर से चलायी गयी।

धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में यकीन करने वालों को नरेंद्र मोदी और भाजपा के सत्ता में आने को लेकर जो-जो आशंकाएं थीं, वे सब और अधिक भयावह रूप में पिछले ग्यारह सालों में सच साबित हुई हैं। नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने से पहले जो भी वादे किये, उनमें से एक भी पूरा करना तो दूर छुआ तक नहीं गया। विदेश से काला धन नहीं आया, बेरोज़गारी पहले के किसी भी समय से ज्यादा बढ़ गयी। महंगाई बेलगाम हो गयी। यहां तक कि सेना में स्थायी भर्ती को समाप्त कर अग्निवीर योजना लायी गयी जिसके कारण ग्रामीण युवाओं के रोज़गार का एक बड़ा क्षेत्र लगभग बंद हो गया। गौरतलब यह है कि अग्निवीर की गाज सामान्य सैनिकों की भर्ती पर पड़ी थी, सेना में अफसर बनने वाले वर्ग पर नहीं। मोदी सरकार ने कई ऐसे कदम उठाये जिसके मूल में कुछ पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना था। 2016 में अचानक नोटबंदी के द्वारा 500 और 1000 के नोटों का चलन बंद कर दिया गया। उसके पीछे दावा यह किया गया कि इससे काला धन बाहर आ जायेगा और आतंकवाद पर रोक लगेगी। लेकिन हुआ इसके विपरीत। 98 प्रतिशत मुद्रा वापस बैंकों में पहुंच गयी। यानी कि अगर इन 98 प्रतिशत में काला धन भी था तो वह अब सफेद हो चुका था। सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश बी वी नागरत्ना ने नोटबंदी पर सवाल उठाते हुए सही कहा कि अगर 98 प्रतिशत मुद्रा बैंकों में वापस पहुंच गयी थी, तो फिर काला धन कहां था। कहीं यह योजना काले धन को सफेद में बदलने की योजना तो नहीं थी? आमतौर पर बड़े नोट इसलिए बंद किये जाते हैं कि यह माना जाता है कि काला धन बड़े नोटों में ही रखा जाता है। लेकिन 500 और 1000 के नोट दरअसल कुल मुद्रा के अस्सी प्रतिशत से ज्यादा थे और स्वाभाविक था कि जिनके पास काला धन था, उन्होंने भी बड़ी आसानी से बैंकों के द्वारा अपने धन को सफेद करने में बिना किसी रुकावट के कामयाबी हासिल की। यह स्पष्ट रूप से एक सोचा-समझा घोटाला था, अपने उन पूंजीपति मित्रों को लाभ पहुंचाने के लिए जिनके पास नगदी में काफी काला धन एकत्र हो गया था। यह इस बात से भी साबित होता है कि एक हजार के नोट पर पाबंदी लगाकर दो हजार के नोट की शुरुआत की गयी।

दूसरा बड़ा घोटाला जीएसटी लागू करना था जिसके माध्यम से लगभग हर चीज को टैक्स के दायरे में ला दिया गया और टैक्स की दरें भी बढ़ा दी गयी। इसके साथ ही राज्यों को टैक्स का उनका हिस्सा समय पर देने की बजाय विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों पर दबाव डालने के लिए इस्तेमाल किया गया। जीएसटी ने चीजों को महंगा करने में अहम भूमिका निभायी है। इसके विपरीत उन उत्पादों और सेवाओं को जीएसटी से बाहर रखा गया जो उनके प्रिय पूंजीपति मित्रों की कंपनियों द्वारा मुहैया करायी जा रही है।

इसके बाद सबसे बड़ा घोटाला इलेक्टारल बॉन्ड है जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इस बॉन्ड के द्वारा भाजपा ने आठ हजार करोड़ से ज्यादा धन एकत्र किया है और इनमें से ज्यादातर स्वेच्छा से दिया गया धन नहीं है बल्कि ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स विभागों द्वारा धमकाकर, गिरफ्तारी का डर दिखाकर, लाभ पहुंचाकर, ठेके देकर यह धन एकत्र किया गया हे। आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा घोटाला है जो लाया ही इसलिए गया था ताकि असली-नकली और छोटी-बड़ी कंपनियों से उगाही की जा सके। अगर सुप्रीम कोर्ट इसे असंवैधानिक घोषित नहीं करता और अब तक किन कंपनियों ने कितने के बॉन्ड खरीदे और किन राजनीतिक पार्टियों को कितने के बॉन्ड कब दिये यह उजागर करने का आदेश स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को नहीं देता, तो जनता को यह मालूम ही नहीं पड़ता कि किस तरह इलेक्टारल बॉन्ड के नाम पर हजारों-हजार करोड़ों का घोटाला किया गया है। और जो महज परंपरागत भ्रष्टाचार नहीं बल्कि अपनी प्रकृति में पूरी तरह आपराधिक लेन-देन को कानूनी जामा पहनाया गया है। यह घोटाला उतना ही नहीं है जितने के इलेक्टारल बॉन्ड खरीदे गये हैं बल्कि इन बॉन्डों को हासिल कर भाजपा ने जो हजारों-हजार करोड़ के ठेके दिये हैं, वे भी इस भ्रष्टाचार का हिस्सा हैं। इस तरह इलेक्टारल बॉन्ड दरअसल कुछ लाख करोड़ रुपये का घोटाला है जिसकी पूरी सच्चाई तब ही बाहर आ सकती है जब निष्पक्ष जांच हो। नोटबंदी की तरह इलेक्टारल बॉन्ड का लाया जाना पूरी तरह से सोच-समझकर किया गया था जिसका मकसद ही बड़े पैमाने पर वसूली करना था और इसके लिए कई पुराने कानूनों को या तो खत्म कर दिया गया या उन्हें इस तरह से बदला गया कि इलेक्टारल बॉन्ड के माध्यम से अधिक से अधिक धन एकत्र किया जा सके। उदाहरण के लिए, पहले यह कानून था कि चुनावी चंदा केवल वे ही कंपनियां दे सकती थीं जो लगातार तीन साल तक लाभ में चल रही हों और ऐसी कंपनी भी अपने लाभ का केवल साढे सात प्रतिशत ही अधिकतम चंदा दे सकती थीं। इस कानून को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया और अब कोई कंपनी चाहे वह लाभ में चल रही हो या घाटे में, इलेक्टारल बॉन्ड के माध्यम से जितना चाहे धन दे सकती थीं। इसीका परिणाम है कि घाटे में चलने वाली कंपनियां भी कई सौ करोड़ के बॉन्ड खरीद रही थीं और लाभ कमाने वाली कंपनियां भी अपने लाभ से कई-कई गुना ज्यादा के बॉन्ड खरीद रही थीं। यही नहीं पहले विदेशी कंपनियों से चंदा लेने पर प्रतिबंध था, लेकिन अब कोई भी विदेशी कंपनी अपनी देशी शाखा के माध्यम से जितना चाहे धन दे सकती थी। कंपनियों को भी अपने बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं थी। इसीका नतीजा है कि इलेक्टारल बॉन्ड खरीदने वाली बहुत-सी कंपनियां शेल (नकली) कंपनियां हैं जो इसी मकसद से स्थापित की गयी प्रतीत होती हैं।

इसी तरह एक और बड़ा घोटाला ‘पीएम केयर्स फंड’ है जिसे प्राइवेट फंड बताया जा रहा है लेकिन जिसमें प्रधानमंत्री पदनाम का उपयोग किया गया है। प्राइवेट फंड के नाम पर उसे आरटीआई से बाहर रखा गया है ताकि इसके बारे में कोई जानकारी जनता तक न पहुंच सके। वे इलेक्टारल बॉन्ड जिसे राजनीतिकि पार्टियां 15 दिन में भुनाने में नाकामयाब होती हैं तो वह पैसा स्वत: ही पीएम केयर्स फंड में चला जाता है। इस फंड की स्थापना कोविड काल में की गयी थी, लेकिन इस फंड में पैसा कई बार सरकारी कर्मचारियों से भी वसूला गया है। दरअसल, इस फंड की भी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा जांच होनी चाहिए क्योंकि जनता को यह जानने का हक है कि इस फंड में पैसा किन स्रोतों से वसूला गया और उसे कहां व्यय किया गया।

इन कुछ बड़े घोटालों के अलावा भी कई अन्य घोटाले हैं जैसे फ्रांस से राफेल विमानों की खरीद का पूरा मामला बहुत ही संदिग्ध है और उसकी भी जांच होनी चाहिए। इसी तरह पिछले दस सालों में अडानी और अंबानी जैसे गुजरात के कुछ गिने-चुने धनासेठों को जिस तरह लाभ पहुंचाया गया है, वह स्वयं में बहुत बड़े घोटाले की ओर संकेत करता है। इसी तरह पिछले दस सालों में बैंकों से बड़ी निजी कंपनियों द्वारा लिये गये लाखों करोड़ रुपये के कर्जों को बट्टे खाते में डाला गया है, वह स्वयं में बहुत बड़ा स्कैम है। बताया जाता है कि अनिल अम्बानी ने 49 हजार करोड़ का कर्ज बैंकों से लिया था जिसे महज 455 करोड़ रुपये में सेटल कर दिया गया बचा हुआ 48545 रुपये जनता की जेब से चुकाए जायेंगे. और ऐसे एक नहीं कई मामले हैं. इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि मोदी शासन के दौरान जो पूंजीपति बैंकों का हजारों करोड़ का कर्ज चुकाये बिना भारत से बाहर भाग गये उनको भारत लाने में सरकार असफल क्यों रही हैं। अगर इन दस सालों का पूरा लेखा-जोखा लिया जाये तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि यह आज़ादी के बाद की सबसे भ्रष्ट सरकार है, जिसने कानूनों का सहारा लेकर और सरकारी संस्थानों की मदद से भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया है. अब तो स्वयं प्रधानमंत्री जिन्होंने 2014 से पहले विदेशों से काला धन वापस लेन का दावा किया था, वे अब स्वदेशी के नाम पर काले धन का स्वागत करने के लिए तैयार हैं.  बिना सोचे समझे जिस तरह विदेश नीति को निजी सनक के आधार पर चलाया गया है कि आज अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत से अमरीका को निर्यात होने वाले सामन पर 50 प्रतिशत टैरिफ थोप दिया है. इससे भारत के कई उद्योगों पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ने जा रहा है. इन जनविरोधी और आपराधिक पूँजीपरस्त नीतियों ने देश की पूरी अर्थव्यवस्था को तबाही की ओर धकेल दिया है।

उत्पादन और रोज़गार बढ़ाने के लिए जो कदम उठाने चाहिए थे, उसकी कोई संकल्पना तक इस सरकार के पास नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र को पंगु बनाकर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की जो नीति नरेंद्र मोदी के शासन में आने से ढाई दशक पहले से चल रही थी, उसके भयावह परिणाम मोदी शासन के दौरान सामने आने लगे। 2020 में कोविड महामारी के दौरान जनता को उपयुक्त इलाज और अस्पताल उपलब्ध कराने की बजाय यह सरकार ताली और थाली बजाने और दिया और मोमबत्ती जलाने के टोटके करवाने में व्यस्त थीं। निजी अस्पतालों का लालच और नकारापन खुलकर सामने आ रहा था और सरकारी अस्पतालों को तो पहले ही बर्बादी की ओर धकेल दिया गया था। इसीका परिणाम था कि 2020 से 2022 के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार भारत में इस महामारी से लगभग चालीस लाख लोग मारे गये थे। इसका विडंबनात्मक पहलू यह भी है कि मोदी शासन के अत्यंत प्रिय बाबा रामदेव को एलोपेथी के विरुद्ध न केवल जहर उगलने की छूट दी गयी बल्कि उनकी फर्जी दवाइयों को प्रचारित करने के लिए तमाम तरह के मंच उपलब्ध कराये गये। अपने विज्ञापनों द्वारा उन्होंने झूठे दावे किये और जिसके नतीजतन इन संदिग्ध दवाइयों से न मालूम कितने लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया। सुप्रीम कोर्ट अगर सख्त न होता तो न मालूम उनका यह गोरख धंधा कब तक चलता रहता। देश में रोजग़ार की हालत इस हद तक बदतर है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में बेरोजगारों की कुल संख्या का अस्सी प्रतिशत युवा हैं। पिछले पांच दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी अभी है। हालत इस हद तक बदतर है कि आइआइटी और आइआइएम से निकले विद्यार्थियों को भी नौकरी नहीं मिल रही है। ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आज मोदी राज के दौर में हो रहा है। मोदी सरकार यह दावा करती है कि वह कोविड के काल से अब तक प्रतिदिन 80 करोड़ लोगों को पांच किलो प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुफ्त अनाज उपलब्ध करा रही है। लेकिन यदि देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी सुबह-शाम का भोजन भी जुटाने में असमर्थ है तो इससे देश की दयनीय दशा का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। देश को ऐसी भयावह स्थिति में डालने वाली इस सरकार का विरोध करने का अधिकार देश की जनता को भी है और उन विपक्षी पार्टियों को भी जो नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों से सहमत नहीं है। विरोध का यह अधिकार भारत का संविधान उन्हें देता है लेकिन मोदी सरकार किसी भी तरह के विरोध को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है।

इस भ्रष्ट सांप्रदायिक फासीवादी सरकार का जो नवीनतम घोटाला सामने आया है उसने हमारे पूरे लोकतंत्र की जड़ों को हिला दिया है. एक लम्बे समय से चुनाव आयोग की निष्पक्षता को लेकर संदेह किया जा रहा था. मामला जब सर्वोच्च न्यायलय में पहुँचा तब अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि जब तक इस बारे में कानून नहीं बन जाता तब तक तीन सदस्यों के चुनाव आयोग में एक प्रधानमंत्री, दो, सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता और तीसरा सदस्य सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों. लेकिन जब क़ानून बना तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाकर तीसरा सदस्य प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत केन्द्रीय मंत्रिमंडल का एक मंत्री हो. स्पष्ट है कि वह मंत्री कभी भी प्रधानमंत्री के निर्णय से असहमत नहीं हो सकता. इस तरह बहुमत के आधार पर प्रधानमंत्री जिसे चाहे चुनाव आयोग का सदस्य मनोनीत कर सकता है और विपक्षी दल के सुझाव का कोई व्यवहार में कोई अर्थ नहीं रह जायेगा. इसी तरह संसद से यह कानून भी पास करा लिया गया है कि आयोग के किसी भी सदस्य के विरुद्ध कोई मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता. इन दो महत्त्वपूर्ण बदलावों की रोशनी विपक्ष द्वारा वोट चोरी के जो आरोप लगाये गए है, उन्हें देखा जाना चाहिए. वोट चोरी के जो आरोप लगाये गए हैं वे महज आरोप नहीं हैं बल्कि उन्हें ठोस सबूतों के साथ पेश किया गया है और ये एक-दो निर्वाचन क्षेत्रों या राज्यों तक सीमित नहीं है. अशोका यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर सव्यसाची दास अपने एक शोध प्रबंध में यह बता चुके थे कि भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के चुनाव उन कुछ सीटों पर जहाँ हार-जीत बहुत कम अंतर से हुई है , अंतिम दौर में बड़ी मात्रा में मतदान हुआ था और यह आशंका व्यक्त की गयी थी कि भाजपा उम्मीदवारों की जीत में अंतिम दौर के इन वोटों का हार हो सकता है. कांग्रेस ने अपनी खोज से यह पता लगाया था कि महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बीच 57 लाख वोटों का बदलाव हुआ है. 48 लाख वोट नए जुड़े हैं और 9 लाख वोट वोट हटाये गए हैं. महाराष्ट्र के शेतकरी कामगार पक्ष के उम्मीदवार बलराम दतात्रेय पाटिल द्वारा पनवेल विधान सभा क्षेत्र में 85,211 फर्जी वोटर होने का प्रमाण चुनाव आयोग को चुनाव से पहले ही दे दिया था. इसी तरह उत्तर प्रदेश के कुन्दरकी विधान सभा क्षेत्र में 20 24 में हुए उपचुनाव में हुई धांधली के पुख्ता प्रमाण बताये जाते हैं. लोकसभा चुनाव के बाद मुस्लिम बाहुल्य बूथों पर बड़े पैमाने पर वोट कटे और वहां मतदान भी अजीब तरीके से घटा. विपक्ष के नेता राहुल गाँधी द्वारा कर्णाटक के बंगलुरु के महादेवपुरा में वोटर लिस्ट में धांधली के आरोप ज्यादा संगीन और ज्यादा पुख्ता है. एक विधान सभा क्षेत्र में एक लाख से अधिक संदेहास्पद वोटरों का होना शक पैदा करता है. और अंत में बिहार में किये गए विशेष गहन पुनरीक्षण में 65 लाख वोटरों का हटना संदेह पैदा करता है. इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि चुनावों में बहुत बड़े पैमाने पर तरह-तरह से धांधली की जा रही है, जबकि इवीएम को लेकर पहले से ही शंका प्रकट की जाती रही है. वोट चोरी का यह मामला आर्थिक भ्रष्टाचार से भी ज्यादा गंभीर है क्योंकि इससे लोकतंत्र ही ढकोसला मात्र रह जाता है.

जनवादी लेखक संघ का यह राष्ट्रीय सम्मलेन देश की इस गंभीर स्थिति को देखते हुए जनता के हर वर्ग और समुदाय को जागरूक होने और एकजुट होकर हमारे लोकतंत्र पर हो रहे लगातार हमले के विरुद्ध संघर्षरत होने का आह्वान करता है.

 

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साहित्य अकादमी के सचिव के निलंबन के लिए प्रस्ताव

यह शर्मनाक है कि हमारे देश की केंद्रीय साहित्यिक संस्था, साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव यौन उत्पीड़न के आरोपी हैं और एक मामले में अदालत का फ़ैसला सर्वाइवर के पक्ष में आने के बावजूद लगातार पद पर बने हुए हैं। एक महिला सहकर्मी ने 2018 में उनके ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज की। उन्हें ‘काम में खराब प्रदर्शन’ के नाम पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। अब दिल्ली हाई कोर्ट ने 25 अगस्त 2025 के फ़ैसले में इस बर्खास्तगी को ‘बदले की कार्रवाई’ बताते हुए अवैध ठहराया है और महिला कर्मचारी को दुबारा बहाल किया है। कोर्ट ने लोकल कंप्लेंट्स कमेटी में उत्पीड़न के मामले की सुनवाई की इजाज़त भी दी है जबकि अकादमी की माँग थी कि इसकी सुनवाई इंटरनल कंप्लेंट्स कमेटी में होनी चाहिए।

अब जबकि अदालत के इन फैसलों से बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि अकादमी सचिव पर यौन उत्पीड़न का मामला अभी भले ही जाँच की प्रक्रिया में हो और उसके सम्बंध में कोई अंतिम निर्णय सामने न आया हो, उस पर ‘बदले की कार्रवाई’ का आरोप सिद्ध हो चुका है। अदालत के इस फ़ैसले के बाद उनका पद पर बने रहना हर दृष्टि से अनुचित ही नहीं, शर्मनाक है। जनवादी लेखक संघ का यह ग्यारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन सचिव पद से के. श्रीनिवास राव के तत्काल प्रभाव से निलंबन की माँग करता है और लेखकों से अपील करता है कि उनका निलंबन न होने की सूरत में अकादमी के सभी कार्यक्रमों का बहिष्कार करें।


2 thoughts on “जलेस के 11 वें राष्ट्रीय सम्मेलन (19-21 सितंबर 2025, बाँदा) में पारित प्रस्ताव”

  1. विस्तार से सम्मेलन की जानकारी के लिए नया पथ टीम को धन्यवाद ।

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