वफ़ादारी के ख़तरे : काज़ुओ इशीगुरो की ‘द रिमेन्स ऑफ द डे’ का एक पाठ / महेश मिश्र


‘अच्छे साहित्य की एक पहचान यह भी होती है कि वह हमारी चेतना को उन्नत करता है और परम्परागत प्रगति-विरोधी अवधारणाओं के संदर्भ में हमें अपनी स्थिति (पोज़ीशनैलिटी) नियत करने का अवसर देता है। इस प्रक्रिया में वह हमें शर्मसार करने के उद्देश्य से चालित नहीं होता बल्कि यह हमारी चेतना को दोलन में डालता है और उसे गतिमान कर देता है।’–काज़ुओ इशीगुरो के उपन्यास द रिमेंस ऑफ द डे पर महेश मिश्र की टिप्पणी:

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काज़ुओ इशीगुरो जापानी मूल के ब्रिटिश लेखक हैं जिन्हें साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इशीगुरो का लेखन इस मायने में अपनी अलग पहचान रखता है कि वे अपने कथ्य को अति-साधारण रखते हैं। एक व्यक्ति अपनी सामान्य दिनचर्या में सामान्य-सा जीवन जी रहा है। उस सामान्य-सी लगने वाली ज़िंदगी के भीतर कितनी तरह की सामान्य और साधारण-सी दैनिक भावनाएँ बन रही होंगी और हम कहानी के एक बाहरी सिरे को पकड़े एक लीनियर (रैखिक) कहानी से जुड़ रहे होंगे, लेकिन पात्रों की स्मृति एक अलग यात्रा कर रही होगी। पात्र उन स्मृतियों में जायेगा और हम भी पीछे-पीछे वहाँ की सैर करेंगे। उन सामान्य और साधारण विवरणों के बीच कोई बड़ी थीम छिपी होगी। यह थीम बहुत बड़ी भी हो सकती है।

कहानी की ऊपरी सतह कुछ और संकेत करेगी और कहानी की भीतरी वलय में छिपे होंगे मानवता के इतिहास, नियति और सम्भावनाओं के दीर्घ प्रश्न! यह सब करने में इशीगुरो अद्भुत रूप से कुशल हैं।

उपन्यास द रिमेंस ऑफ द डे एक बटलर स्टीवेंस की कहानी है। वह इंग्लैण्ड के डार्लिंगटन हॉल में वर्षों से नियुक्त है। पुस्तक अपनी बाहरी कथा में बटलर की ज़िम्मेदारी, उसकी डिग्निटी को केन्द्र में रखता है और डिग्निटी को परिभाषित करता है- कि उसे अपने नियोक्ता के हिसाब से ही सारे काम करने होते हैं। अपने नियोक्ता का हर हाल में ख़याल रखना और उसके हितों के लिए हर संभव प्रयास करना ही एक अच्छे बटलर की ज़िम्मेदारी है। उसकी व्यक्तिगत इच्छाएँ, सपने, विचार कोई मायने नहीं रखते।

डिग्निटी को अपनी सबसे बड़ी ऊपरी थीम बनाते हुए यह उपन्यास इंग्लैण्ड और यूरोप की राजनीति, दो विश्व-युद्धों के बीच और उसके बाद की कूटनीतिक उठा-पठक को गहरी संलग्नता से अपने कथ्य के केन्द्र में रखता है। अभिजात वर्ग के कुछ सदस्यों, ओपिनियन लीडर्स और निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्वों के बाहरी आचरण और भीतरी हलचल को मितव्ययिता से पकड़ते हुए कथ्य कई धाराओं में प्रवहमान है। हम इन पात्रों की बातचीत के माध्यम से इस आंतरिक कथा-विन्यास के सूत्र पकड़ते हुए आगे बढ़ते हैं।

अभिजात वर्ग की इस सफ़ेदपोश अहम्मन्यता को यह उपन्यास बड़ी ही धीमी, अ-मुखर शब्दावली में अनावृत्त करता है। यहाँ इशीगुरो आलोचना को लगभग मौन बनाये रखते हैं और अभिजात बनावटीपन व कृत्रिमता के अंदर छिपी निरंकुशता को धीरे-धीरे खोलते हैं। यह आलोचना किसी नैरेटर या अदृश्य आवाज़ के माध्यम से भी नहीं होती है बल्कि उपन्यास के कथानक में ही यह सादे ढंग से बुन दी गयी है।

उपन्यास के एक दृश्य में हम इंग्लैण्ड के एक गाँव का चित्रण देखते हैं। वहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता, नवोन्मेष व जवाबदेही की लोकतांत्रिक आकांक्षा के उत्सव को उस गाँव के निवासियों के माध्यम से देखते हैं और बटलर स्टीवेन्स उस पूरी बातचीत के समय वहीं रहते हैं।

यहाँ भी स्टीवेंस ही नैरेटर रहता है लेकिन उस गाँव के लोग स्व-निर्णय को जीने की कोशिश में हैं, अभिजात-अवधारणा की आलोचना करते हैं और लोकतांत्रिक आग्रहों की अभिव्यक्ति करते हैं। स्टीवेंस असहज होता है और हम उसके असहज होने की प्रतिक्रिया में स्टीवेंस के भुलावे (कंसीटेडनेस) को देखने लग जाते हैं और आज की अपनी लोकतांत्रिक मनोवृत्ति के आलोक में पूरे उपन्यास के कथ्य पर एक आलोचनात्मक नज़रिया विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं।

अच्छे साहित्य की एक पहचान यह भी होती है कि वह हमारी चेतना को उन्नत करता है और परम्परागत प्रगति-विरोधी अवधारणाओं के संदर्भ में हमें अपनी स्थिति (पोज़ीशनैलिटी) नियत करने का अवसर देता है। इस प्रक्रिया में वह हमें शर्मसार करने के उद्देश्य से चालित नहीं होता बल्कि यह हमारी चेतना को दोलन में डालता है और उसे गतिमान कर देता है। अपने कथ्य से इस गहरी संलग्नता से जोड़कर ऐसा साहित्य इस काम को कुछ इस तरह सम्पन्न करता है कि हमें एक मीठी झिड़की का आभास तो मिलता है लेकिन इस झिड़की में आत्मीयता का एक मृदु-भाव भी रहता है।

उपन्यास द रिमेन्स ऑफ द डे अपने कथानक में वफ़ादारी को जिस मूल्य-विन्यास के बीच से गुज़ारता है, वह इसे एक सीमित गुण वाला मूल्य साबित कर देती है। कथानक बाहरी तौर पर वफ़ादारी को सेलिब्रेट करता हुआ दिखता है लेकिन कथ्य के आंतरिक वलय में वफ़ादारी को वृहत्तर मनुष्य समाज के संदर्भ में हानिकारक और आत्म-छल से भरी हुई दिखा दिया जाता है।

लॉर्ड डार्लिंगटन की सेवा में लगे स्टीवेंस अपनी कर्त्तव्य-परायणता से पाठक को प्रभावित करते हैं लेकिन उनकी निष्ठा एक ऐसे मालिक के लिए है— प्रकारांतर से ऐसी व्यवस्था के लिए है— जो कभी लोकतंत्र-विरोधी बन जाती है, कभी नाज़ी समर्थक बन जाती है, कभी तानाशाही व्यवस्था के समर्थकों के साथ उनकी राजनीति का समर्थन करने लगती है।

लोकतंत्र और विदेश-नीति के बारे में अपने छलावे भरे भ्रमों को जीते हुए लॉर्ड डार्लिंगटन और उनके जैसे अभिजात-वर्गीय लोग स्टीवेंस (कॉमन लोग?) को लगभग अभिभूत किए रहते हैं और स्टीवेंस जैसे चरित्र उन भ्रमों को जीने लगते हैं। वे उन्हें अपना सच बना लेते हैं और उन धोखों को नहीं पहचान पाते जिनमें वे पड़ जाते हैं और जीते रहते हैं।

इसी कथावस्तु में मिस केंटन के साथ मिस्टर स्टीवेंस का सम्बंध, जो मौन ही रह गया, निष्प्राण हो गया और बेमौत मर गया। ये विवरण इतने सधे हुए हैं, इतने संयमित हैं कि इनको प्रेम-सम्बंध के रूप में देखना भी हमारी निगाह में अलक्षित रह जाता है। लेकिन इसीगुरो यही कमाल तो करते हैं कि हम पात्रों के जीवन में इतना गहराई से प्रवेश कर जाते हैं कि पात्र से अधिक पीड़ा महसूस कर पाते हैं। स्टीवेंस का अकेलापन और दु:ख हमें महसूस होने लगता है और उसके सारे भुलावों और भ्रमों को शिद्दत से देख पाते हैं।

मानवीय व्यवस्था ने अपने सुचारु संचालन के लिए जो मूल्य बनाये हैं, उनका लगातार परीक्षण होते रहना मनुष्य सभ्यता की गतिशीलता के लिए एक अवश्यम्भावी स्थिति है। वफ़ादारी, गरिमा, कर्त्तव्यपालन की भावना ऐसे मूल्य हैं जो समाज-व्यवस्था से निरपेक्ष नहीं हैं। सामन्ती और राजतंत्रात्मक व्यवस्था के लिए ये प्रशंसनीय मूल्य हैं लेकिन जनतंत्रात्मक व्यवस्था के लिए ये मूल्य असंगत हैं और इनकी प्रशंसा और अनुपालन सोच-समझकर ही किया जाना चाहिए। इस क़ायदे और सलीक़े को सीखने की ज़रूरत है और द रिमेंस ऑफ द डे इस काम को शिद्दत से कर पाता है।

2017 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित करते समय स्वीडिश अकादमी ने प्रशस्ति पत्र में यह कहा-

काज़ुओ इशीगुरो ने अपनी गहरी भावनात्मक शक्ति वाली रचनाओं के अंदर व्याप्त उस गहन शून्य को उजागर किया है जो हमारे दुनिया से जुड़ाव के भ्रमपूर्ण एहसास के नीचे छिपा है।

काज़ुओ इशीगुरो स्मृति, पहचान और आत्म-छल की जटिलताओं को समझने वाले गहरे और संवेदनशील मर्मज्ञ हैं। उनकी कला अद्भुत रूप से श्रेष्ठ है क्योंकि यह बड़े ही शांत सुर में और विश्वसनीय तरीक़े से यह काम कर ले जाती है।

  

 

 


1 thought on “वफ़ादारी के ख़तरे : काज़ुओ इशीगुरो की ‘द रिमेन्स ऑफ द डे’ का एक पाठ / महेश मिश्र”

  1. बेहतरीन समीक्षा।अच्छी समीक्षा पुस्तक की न सिर्फ जानकारी देती है बल्कि पढ़ने का आग्रह करती है।

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