‘भाषा के साथ इस अद्भुत तादात्म्य को दस्तावेज़ के रूप में दर्ज करती ‘इन अदर वर्ड्स’ भाषा के साथ होने वाले एक लेखक के आत्मसंवाद का एक विलक्षण संस्मरण है। यहाँ भाषा एक जीवंत व्यक्तित्व लिये हुए पात्र के रूप में खड़ी है, जिसके साथ लेखक के संबंध पूरी यात्रा के दौरान विकसित होते रहते हैं।’–झुम्पा लाहिरी की किताब ‘इन अदर वर्ड्स’ पर अदिति भारद्वाज की टिप्पणी:

कथा साहित्य हो या वैचारिक साहित्य, कल्पनात्मक साहित्य (फिक्शन) हो या गैर-कल्पनात्मक साहित्य (नॉन-फिक्शन), दोनों ही में रचनाकार के पास पहले से कोई कथ्य या विचार होता है जिसे रचना का रूप दिया जाता है। कोई कृति जब हाथों में उठायी जाती है तो सबसे पहली बात भी जो अनिवार्यतया देखने की होती है, वह यह कि रचनाकार उसमें किस विचार या वस्तु से जूझ रहा है। इन अदर वर्ड्स (In Other Words) (2015) विधा के रूप में लेखिका झुंपा लाहिरी की एक विलक्षण रचना है जो बतौर लेखक उनके स्वयं के व्यक्तितत्वांतरण की बात करती है। मूल रूप से इटालियन में रचित और ऐन गोल्डस्टीन द्वारा अंग्रेजी में अनूदित यह रचना लेखक और भाषा के संबंधों को रेखांकित करती है जो लाहिरी के अपने अनुभवों पर आधारित है। एक रचनाकार अपने सबसे ज़रूरी औज़ार – भाषा – के साथ वह किस प्रकार संवाद/ऐंगेज़ करता/करती है, उस पूरी यात्रा को यह शब्दों में समेटती है। और यह यात्रा इसीलिए भी अधिक मानीखेज हो उठती है कि भाषा के साथ लेखक का संबंध, निरंतर निर्माण और विकास की एक प्रक्रिया के तौर पर प्रतिफलित होता है। यह बाह्य से अधिक उसके मनोजगत के भीतर की यात्रा है जिससे जूझने के लिए लेखक नितांत अकेला होता है। इन अदर वर्ड्स भाषा के साथ लेखक के इसी विकसनशील लेकिन अत्यंत आत्मीय संबंधों की एक कथा है।
झुंपा लाहिरी ब्रिटिश-अमेरिकन लेखिका हैं जिनकी पहचान के कई सारे बिन्दु हैं। भारतीय प्रवासी माता-पिता की संतान झुंपा की बंगाली पहचान उनके व्यक्तित्व का एक अकाट्य हिस्सा होने के बावजूद मूल रूप से उनकी ग़ैर-भारतीय पहचान के सामने एक गौण पक्ष ही रही। पर अपनी रचनाओं में अपनी भारतीय जड़ों को आधार बना कर उन्होंने एक आधुनिक व्यक्ति के द्वंद्वों को दिखलाया और एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया से संबंधित साहित्य को एक उत्तर-औपनिवेशिक नैरटिव का हिस्सा बनाने में प्रमुख भूमिका निभायी। प्रवासी जीवन के अनुभवों और स्थान की संबद्धता से जुड़े प्रश्नों को उठाती हुई उनकी रचनाएँ व्यक्ति की पहचान को ही कई आयामों से देखने का प्रयास करती हैं। पहले ही उपन्यास द नेमसेक (The Namesake, 2003) पर मीरा नायर की बनी फ़िल्म ने उनके लेखन को एक वैश्विक पहचान दी। उनके कहानी संग्रह Interpreter of Maladies (1999) हों या Unaccustomed Earth (2008), दोनों ही कथावस्तु के बारीक और नये ट्रीटमेंट के लिए प्रसिद्ध हुए।
अब सवाल यह उठता है कि पहचान के इन अनेकानेक बिंदुओं में भाषा किस तरह घुसपैठ करती है। झुंपा की भाषायी संबद्धता उनकी बहुआयामी पहचान के ही विविध बिंदुओं को घेरेने वाले एक वृहत्तर वृत्त का निर्माण करती है। बांग्ला निस्संदेह उनकी मातृभाषा रही है- एक ऐसी भाषा जो उनके माता पिता के उस पीछे छूट गये भारतीय बंगाली संसार से जुड़ने का एकमात्र ज़रिया थी और जिसे सुदूर अमेरिका में जीवित रखना अपने आप में एक श्रमसाध्य कार्य था। अंग्रेजी, जो अमेरिकन परिवेश और जीवन की अनिवार्य आवश्यकता थी, हालाँकि सहज थी पर संबद्धता का प्रश्न वहाँ भी समस्याग्रस्त था। और फिर बारी आती है इटालियन की, जो लेखिका का अपना चयन, अपनी इच्छा का परिणाम थी। अपना समस्त लेखन जिसने अब तक अंग्रेजी में किया हो, पर फिर भी कभी उस भाषा के लिए वह संबद्धता न महसूस की हो, ऐसे में एक और दूसरी विदेशी भाषा को सीखने के लिए किया गया जतन न केवल अब तक के लेखकीय व्यक्तित्व से दूर होने जैसा था बल्कि अंग्रेज़ी की उस दुनिया को भी तिलांजलि देने का साहसपूर्ण कार्य था। एक ऐसा सचेतन निर्णय जो लाहिरी लेती हैं, जब वह बीस-पच्चीस साल की उम्र से इटालियन सीखने का श्रम करती हैं और फिर एक ऐसा समय (2012) भी आता है जब वह महज इस नयी भाषा या यूँ कह लें एक नयी पहचान की प्रतिबद्धता के लिए अपनी अमेरिकन ज़िंदगी को छोड़ कर इटली में ही बस जाती हैं। भाषा के साथ इस अद्भुत तादात्म्य को दस्तावेज़ के रूप में दर्ज करती इन अदर वर्ड्स भाषा के साथ होने वाले एक लेखक के आत्मसंवाद का एक विलक्षण संस्मरण है। यहाँ भाषा एक जीवंत व्यक्तित्व लिये हुए पात्र के रूप में खड़ी है, जिसके साथ लेखक के संबंध पूरी यात्रा के दौरान विकसित होते रहते हैं।
एक नयी और एकदम अपरिचित संदर्भों की भाषा को सीखना वस्तुतः एक श्रमसाध्य यात्रा है जो विभिन्न चरणों में पूरी होती है। भाषा सिर्फ़ व्याकरणिक नियमों से नहीं बल्कि शब्दों के वृहत संसार से मिल कर भी निर्मित होती है। इसमें उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा अभिव्यक्त होती हुई, निर्माण और विनाश की प्रक्रिया से गुज़रती उसका मौखिक और लिखित रूप स्थिर करती है। लाहिरी की इटालियन सीखने की प्रक्रिया सबसे पहले एक शब्दकोश ख़रीदने और उसके द्वारा शब्दों के उस रहस्यमयी वृहत संसार में प्रविष्ट होने से होती है। आकर्षण के विविध पड़ावों से गुज़रते हुए यह प्रक्रिया भाषा के प्रति उस पहले प्रेम में तब्दील हो जाती है जहाँ भाषा एक निर्जीव-निश्चेष्ट वस्तु की तरह नहीं बल्कि एक सचेतन मानव के रूप में दृष्टिगत होती है। वह इसे दर्ज करते हुए लिखती हैं :
I feel a connection and at the same time a detachment. A closeness and at the same time a distance. What I feel is something physically inexplicable. It stirs an indiscreet, absurd longing. An exquisite tension. Love at first sight.
और देखा जाये तो वाकई एक नयी भाषा जीवन में उस प्रेम की तरह आती है जिसकी कमी उसके मिलने तक महसूस नहीं होती रहती है। लाहिरी स्वयं स्वीकार करती हैं कि कैसे उन्हें एक नितांत नयी भाषा सीखने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी क्योंकि ऐसा भी नहीं था कि वह इटली में रहती थीं, पर उन्हें यह भाषा सीखने की एक ज़बरदस्त चाह थी। पर किसी चीज़ के लिए चाह अंततः एक ज़िद में परिणत हो जाती है, लगभग उसी तरह जैसा कि बकौल लाहिरी उन उत्तेजनापूर्ण प्रेम संबंधों में होता है जहाँ प्रारंभिक आकर्षण एक समर्पण, एक जुनून में बदल जाता है और अंततः वह उस एकतरफ़ा प्रेम से पीड़ित प्रिय की तरह यह कहने के लिए मजबूर हो जाती हैं कि
I’m in love but what I love remains indifferent. The language will never need me.
हालाँकि देखा जाये तो लेखिका का यह तर्क उतना मज़बूत नहीं लगता क्योंकि किसी भी भाषा को उसके बोलनेवाले की आवश्यकता सिर्फ़ इस एक बात भर के लिए भी होती है कि वह तभी अपना अस्तित्व भी बनाये रख सकेगी। भाषा को उसके प्रयोगकर्ता हमेशा चाहिए होंगे वरना वह पुरातन लिपियों की तरह अपने अर्थ और चलन दोनों को खो देती है। बहरहाल, भाषा को उस स्तर तक सीख जाने के लिए जहाँ वह आपके विचार प्रवाह और चेतना का सहज अंग बन जाये, कई चरणों से गुज़रना होता है जहाँ कठिन अध्यवसाय और पूर्ण समर्पण न्यूनतम योग्यता हैं। लाहिरी की भाषा की इस यात्रा के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत प्रामाणिक बात यह है कि वह भाषा के साथ अपने संबंध को हमेशा एक तटस्थ नज़रिये से देख सकी हैं। अपने अमरीकी जीवन के संदर्भ में भी यह आत्मस्वीकार करते हुए वह कहती हैं कि कैसे वह हमेशा से एक भाषाई निर्वासन (linguistic exile) की अवस्था में रही हैं। कारण कि मातृभाषा बंगाली अमेरिकन संदर्भों में एक विदेशी भाषा थी। घर के सीमित परिवेश में बोली गयी भाषा, बाह्य अंग्रेजी के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अपने आप में इतनी विच्छिन्न थी कि एक विभाजित व्यक्तित्व का त्रास उन्हें बचपन से झेलना पड़ा। इसीलिए बांग्ला मातृभाषा होते हुए भी चूँकि अपने जैविक-नैसर्गिक परिवेश से दूर रोपी गयी भाषा थी, उनके मानस में गहरी जड़ें नहीं जमा पाती। और अंग्रेज़ी में दक्षता रखते हुए भी वह मूल रूप से अमेरिकन नहीं थीं, तो यह भाषाई संबंद्धता का एक और छद्म-आरोपित प्रयास था जिसने उन्हें अपने आप से और अलग कर दिया। इसीलिए जब वह इटालियन, एक दूसरी विदेशी भाषा को सीखने का संधान करना चाहती हैं तो यह मानसिक दूरी और मुखरित हो उठती है जिसे अनुभूत करते हुए लेखिका कहती हैं कि आख़िर एक ऐसी भाषा जो मेरी अपनी नहीं है, उससे निर्वासित महसूस करना किस तरह संभव है? भाषा के साथ अपने द्विधाग्रस्त संबंधों पर होने वाली यह चिंता अंततः उनके साहित्य के साथ अपने संबंधों को भी एक निरपेक्ष रूप से देखने की दृष्टि देती है जहाँ वह कहती हैं कि वह एक ऐसी लेखिका हैं जो किसी एक भाषा से पूर्ण रूप से सम्बद्ध नहीं महसूस करतीं।
भाषा के साथ संबंध स्थापित करने के लिए एक आवश्यक शर्त, जैसा कि लाहिरी मानती हैं, उसमें संवाद करना है। इस संबंध में वह यह कहती हैं कि एक भाषा को सीखने के लिए अंततः उस भाषा में संवाद करना ज़रूरी है, चाहे वह संवाद किसी बच्चे की तुतलाहट के मानिंद ही क्यों न हो, कितना ही अपूर्ण या त्रुटिपूर्ण क्यों न हो। वह संवाद सिर्फ़ और सिर्फ़ अभ्यास से ही तराशा जा सकता है। अपने संस्मरण में वह ज़िक्र करती हैं कि किस प्रकार भाषा सीखने में अपने प्रयासों के अतिरिक्त उन सभी शिक्षकों की भी विशिष्ट भूमिका रही जिन्होंने एक विदेशी अपरिचित भाषा के प्रति लेखिका को सहज होना सिखलाया। शिक्षकों के सान्निध्य में सीखी गयी भाषा ने ही अंततः उनमें यह आत्मविश्वास जगाया कि वह इटली जाने और वहीं बस जाने का निर्णय लेती हैं।
यह रचना एक आत्मनिरीक्षण है। यह लाहिरी के अन्तर्जगत की उन मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की भी झलकियाँ देती है जिनसे एक साहित्यकार की सृजन प्रक्रिया का पता चलता है। एक भाषा से दूसरी भाषा तक पहुँचने की उनकी इस यात्रा में, ग्रहणशीलता के साथ ज़रूरी था कि पिछले किसी संबंध का परित्याग भी किया जाये। अंग्रेजी जो लेखिका की पहचान की एकमात्र वाहक भाषा थी, उसे पूर्ण रूप से त्याग देने का निर्णय लेखिका के अपने बाह्य सृजन कर्म के एकमात्र माध्यम का परित्याग भर नहीं बल्कि अपनी चेतना में भी जिस भाषा से पहचान के सूत्र बंधे थे, उससे भी विच्छिन्न हो जाने का एक निर्णय था। एक पूरा अध्याय लेखिका ने इस परित्याग को संबोधित करते हुए लिखा है, जहाँ वे बतलाती हैं कि कैसे इटालियन भाषा के स्वीकार की प्रक्रिया अंग्रेजी के परित्याग की मानसिक तैयारी से शुरू हुई:
In preparation, I decide, six months before our departure, not to read in English any more. From now on I pledge to read only in Italian. It seems right, to detach myself from my principal language. I consider it an official renunciation.
और इस प्रकार अंग्रेजी के पूर्ण परित्याग का यह सचेतन निर्णय उनके पास केवल एक ही विकल्प छोड़ता है कि वह इटालियन को समग्रता से अपनाएँ, आकंठ डूब कर सीखें। सीखने की यह पूरी प्रक्रिया भाषा को एक निर्जीव वस्तु की तरह नहीं बल्कि एक सचेतन जीवंत प्राणी की तरह मान कर ही संपन्न हो सकती है। इस संबंध के विकास के, उसकी दक्षता के विविध पड़ाव होते हैं। मसलन, पहले वह इटालियन में लिखी किताबें पढ़ती हैं, जिनमें वह समझने की कोशिश करते हुए भी कुछ नहीं समझ पाने की हताशा झेलती हैं। इस अनुभव को जिस व्यथा के साथ लाहिरी लिखती हैं वह अद्भुत है: I read slowly, painstakingly with difficulty. Every page seems to have a light covering of mist. पढ़ने के क्रम में वह जिन शब्दों को नहीं समझ पातीं, उनकी सूची बनाती हैं और उनके अर्थ जानकर वापस उसे उसके संदर्भ के साथ बिठा कर पढ़ने-समझने का जतन करती हैं। एक नितांत अपरिचित-विदेशी भाषा को पढ़ने के लिए किया गया यह श्रम लेखिका को, जो अंततः लेखन करना पसंद करती हैं, एक बार फिर किसी किताब को पढ़ने के आनंद से रू-ब-रू करवाता है।
भाषा के साथ लेखिका अपने अंतर्संबंधों को जीवन के व्यापक रूपक से जोड़ कर दिखलाती हैं जो एक ऐसी पृष्ठभूमि है जिसमें संभावनाओं के अनंत द्वार खुलते हैं। एक नयी भाषा को सीखने के लिए किये जाने वाले प्रयत्न कुछ-कुछ वैसे ही हैं जब हम किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम में होते हैं। एक ऐसी मनोदशा जहाँ असीम-अनंत संभावनाएँ होती हैं। वह उत्साह, वह उत्कंठा जो जीवन जीने के प्रति व्यक्ति को आस्थावान बनाती है। एक नयी भाषा और किसी व्यक्ति के प्रति ध्वनित प्रेम में यह साम्य अनूठा है। दोनों ही लेखिका को शाश्वतता का आश्वासन देते हैं। वे लिखती हैं :
I realise that in spite of the limitations the horizon is boundless. Reading in another language implies a perpetual state of growth, of possibility. When you are in love, you want to live forever, you want the emotions, the excitement you feel to last. Reading in Italian arouse a similar longing in me. I don’t want to die, because my death would mean the end of my discovery of my language. Because every day there will be a new word to learn. Thus, true love can represent eternity.
भाषा सीखने की यह सतत प्रक्रिया अंततः एक ऐसे पड़ाव पर आती है जब अपने सभी द्वंद्व, सभी भय, सभी आशंकाओं को किनारे करते हुए उसी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करने के ख़तरे उठाने पड़ते हैं। इटालियन में स्वयं को अभिव्यक्त करते समय लेखिका की प्रारंभिक चिंता अगर कुछ है तो केवल यह कि वह सीमित शब्द-भंडार और लचर व्याकरणिक नियमों के साथ भी जब लिखें तो वह कम-से-कम, समझे जाने योग्य हो और मानस से पन्नों में विचार के हस्तांतरण की प्रक्रिया में वह स्वयं को भी थोड़ा और समझ सकें। यह प्रक्रिया वस्तुतः एक पहाड़ लाँघने जैसी है जहाँ बकौल लाहिरी, उनके पास शब्दों का असीमित कोश नहीं है बल्कि इसके विपरीत उन्हें बराबर अपने भाषा ज्ञान के संदर्भ में अकिंचन होने का एहसास है, और इसके बावजूद ऐन उसी वक़्त वह अधिक स्वतंत्र, अधिक हल्का भी महसूस करती हैं। और इसी प्रकार अभिव्यक्ति की यातना से ग्रस्त, पहाड़ों को लाँघते हुए लाहिरी अपनी पहली इटालियन कहानी लिखती हैं, जो एक नयी भाषा में उनकी साहित्य-रचना का पहला शैशव क़दम समझा जा सकता है। इस अर्थ में देखा जाये तो इस संस्मरण की एक विशिष्ट बात यह है कि जहाँ एक नयी भाषा सीखने की प्रक्रिया प्रायः पिछली भाषा के समानांतर रख कर देखी गयी है, वहीं उस नयी भाषा में साहित्य रचना को भी अपनी उस पुरानी भाषा में रचित साहित्य के बर-अक्स रख कर विश्लेषित किया गया है। अंग्रेजी में साहित्य लिखते वक़्त भाषा के प्रश्न पर रुकने, शब्दों के लिए जूझने की आवश्यकता लाहिरी को नहीं पड़ती। वहाँ, वे अंग्रेजी पर अपने असीमित अधिकार के कारण अधिकाधिक तरह के प्रयोग कर सकती हैं, शब्दों से खेल सकती हैं, किसी बात को अभिव्यक्त करने के लिए कई तरह की वाक्य संरचनाओं का मनमाना उपयोग कर सकती हैं। पर इटालियन में उनके पास सीमित साधन हैं और उन्हीं से बिना अधिक मंथन किये हुए उन्हें लगातार बस चलते जाना होता है, ठीक उसी तरह जैसे “किसी रेगिस्तान में एक सिपाही के पास आगे बढ़ते जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता”। और वस्तुतः अपनी पहली कहानी वह एक बार में लिखती हैं जहाँ कि उनके पास कथोपकथन की विविध शैली, अलंकरण के विविध विकल्प उपलब्ध नहीं है, इटालियन के शब्द-भंडार सीमित हैं और अभिव्यक्ति की भंगिमा भी एकायामी है। पर पन्नों से निकल कर जब वह रचना कंप्यूटर के स्क्रीन पर टाइप हो एक व्यवस्थित रूप पाती है तो एक नयी भाषा में साहित्य रचना का साहस करनेवाली लेखिका को सहज ही अपनी साहित्यिक दिशा दिख जाती है। इस अप्रत्याशित अनुभव के संदर्भ में वह लिखती हैं : “I know that my life as a writer will no longer be the same”.
यह रचना भाषा के साथ निर्मित एक लेखक के निजी संबंधों को इतनी प्रामाणिकता से हमारे सामने रखती है कि हम सीखने वाले के मन की दुविधाओं और अनिश्चितताओं की भी झलक पाते हैं। और इस बिन्दु पर यह रचना अपने पाठकों से भी सीधे संवाद करती है। हम न केवल लेखिका के अनुभवों से बल्कि साहित्य-सृजन की पीड़ा से भी तादात्म्य स्थापित कर पाते हैं। एक नयी विदेशी भाषा को सीखने और उस पर अधिकार प्राप्त करने का कोई त्वरित और आसान तरीका नहीं हो सकता। उल्टा वहाँ अधिक जानने पर द्वंद्व या जटिलताएँ और अधिक बढ़ जाती हैं। लेखिका भी जितना नज़दीक उस भाषा के पहुँचना चाहती है, वह उससे और दूर सरक जाती है, और इटालियन सीखने की अपनी इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना में इतने साल बिता कर भी वह आश्वस्त नहीं हो पातीं। वह कहती हैं कि कैसे कुछ क़दम भर लेने में लगभग आधी ज़िंदगी खत्म-सी हो गयी और इसके बावजूद वो बस इतनी ही दूर आ सकी हैं, क्योंकि भाषा एक अथाह समुद्र है जिसे तैर कर पार करना असंभव है। इसीलिए वह किनारे पर, किसी हाशिये पर रहकर ही भाषा के अगाध सागर की थाह को बस महसूसना चाहती हैं। यह स्पष्टीकरण हमें साहित्य के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण विचार की तरफ़ भी ले जाता है कि कैसे भाषा और साहित्य की असंभाव्यता की समझ ही अंततः रचनात्मक आवेग या कह लें सृजनात्मक ललक का केंद्र निर्मित करती है। जो वस्तुएँ दुर्लभ हैं, सहज प्राप्ति की सीमा से परे है, उन तक किसी दूरस्थ भविष्य में पहुँचने की उम्मीद ही वर्तमान में हमारे प्रयत्नों को इतना मानीखेज बनाती है। लाहिरी लिखती हैं:
In the face of everything that seems to me unattainable, I marvel, without a sense of marvel at things, without wonder, one can’t create anything.
और सृजन के प्रति इस उत्कंठा को ही संभवतः समग्र जीवन से भी जोड़ कर देखा जा सकता है क्योंकि बतौर लाहिरी अगर हर चीज़ हमारे लिए संभव हो ही जाए तो फिर जीवन का अर्थ या उस जीवन का तुक ही क्या होगा? यह संस्मरण एक सूक्ष्म स्तर पर एक रचनाकार के सबसे आवश्यक अस्त्र- उसकी भाषा- के साथ उसके घात-प्रतिघात से परे जाकर वस्तुतः रचनाकार की अपनी अस्मिता के साथ संगति बिठाने की एक सुदीर्घ यात्रा है। लाहिरी अपने मानस में उस चिर निर्वासित व्यक्ति की तरह हैं जिसकी जड़ों की खोज अंततः उसे अपनी पहचान से और दूर ही कर देती है। इसीलिए वे एकदम सही कहती हैं कि “जो व्यक्ति किसी एक विशिष्ट जगह से सम्बद्ध नहीं होते वस्तुतः कहीं वापस नहीं लौट पाते”। और निर्वासित होने की पीड़ा और फिर कहीं वापस लौट कर आने की अनुभूति एक अर्थ में अंततः उस वतन की तलाश को ही मायना देती है जो व्यक्ति की पहचान का, उसकी संबद्धता का केंद्र होता है। लाहिरी स्वीकार करती हैं कि कैसे एक वास्तविक वतन और एक निश्चित मातृभाषा के अभाव में वह पूरी दुनिया भटकती हैं। यह अनुभूति निर्वासित होने की भाव दशा से भी एक प्रकार का निर्वासन है क्योंकि निर्वासितों के पास एक खोया हुआ वतन होता है, जहाँ से उन्हें देश निकाला किया गया था, पर लाहिरी के पास वह वतन भी नहीं है जहाँ वह घर लौटने जैसा महसूस कर सकें।
इटालियन सीखने और अंग्रेजी के परित्याग के इस पूरे संक्रमण से निर्मित लेखिका का यह व्यक्तित्व, वस्तुतः कायांतरण की वह यातनादायी प्रक्रिया है जिससे गुजरने का उद्देश्य अपने लिए एक नई पहचान की निर्मिति करने जैसा था। इसीलिए इटालियन सीखने की यह क़वायद एक तरह से पलायन है। पलायन अपने आप को और स्वतंत्र महसूस करने के लिए, एक लेखक के रूप में एक नया जन्म पाने के लिए। पर यहाँ सवाल यह उठता है कि लेखिका को आख़िर इस कायांतरण की, इस नये जन्म की, यूँ पलायन करने की ज़रूरत क्या थी? आख़िर वे क्या पूर्वनिर्धारित स्थितियाँ थीं जो लेखिका को सीमित कर रही थीं? तो उसके मूल में भी भाषा का ही प्रश्न अंतर्निहित है। अंग्रेजी से पलायन एक वैचारिक ज़रूरत भी थी और इसके साथ ही अंग्रेजी उनके लिए महज़ एक भाषा न होकर कई अन्य अनुभवों का भी प्रतीक थी। वे लिखती हैं:
For practically my whole life English has represented a consuming struggle, a wrenching, conflict, a continuous sense of failure, that is the source of almost all my anxiety. It has represented a culture that had to be mastered, interpreted. English denotes a heavy, burdensome aspect of my past.
इस बिन्दु पर यह रचना एक सशक्त उत्तर-औपनिवेशिक पाठ की तरह भी समझी जा सकती है। यह अमेरिकी संस्कृति और औपनिवेशिक अंग्रेज़ी भाषा के सांस्कृतिक आधिपत्य (हेजेमनी) को सिरे से नकारने का एक विधान रचती है। अंग्रेजी जो शक्ति और वर्चस्व की भाषा के रूप में पूरी दुनिया पर काबिज़ है, उससे अपनी पहचान को ख़त्म करने का पूरा जतन एक सशक्त साम्राज्यवाद विरोधी स्टेटमेंट है। इसके बर-अक्स एक ऐसी भाषा का चुनाव करना जिसके प्रयोगकर्ता बस उस देश के लोग हैं और इस अर्थ में वह एक स्थानीय बोली अधिक है, लेखिका के साहित्यिक भविष्य के तमाम ख़तरों के बावजूद उसे एक अलग पहचान देने का आश्वासन देती है। अंग्रेजी के बरअक्स इटालियन उन्हें एकदम अलग साहित्यिक रास्ता मुहैया कराती है। इटालियन में, लाहिरी एक निहायत प्रसिद्ध लेखक के तौर पर अपनी एक प्रचलित-रूढ़ छवि को, लिखने की शैली को, अपने अब तक के लेखन को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर सकती हैं और अपना एक नया निर्माण कर सकती हैं।
इटालियन में असफल प्रयोगों से मिलने वाली हताशा उस त्रास की तुलना में सदैव कम होगी जब अंग्रेजी भाषा में बेहतरीन न होने पर उन्हें उस पूरे अमेरिकन परिवेश के लिए ही अयोग्य समझा जाता होगा। और इन सूक्ष्म अकथनीय यातनाओं से निर्मित व्यक्तित्व के भीतर इसीलिए हमेशा एक अंतर्धारा बहती रही जो अपने विषय में हमेशा यह कहती रही कि “मेरे भीतर एक वह स्त्री थी, जो हमेशा कोई और व्यक्ति बनना चाहती थी”। ताउम्र लाहिरी अपने उद्गम के शून्य से पलायन करने के लिए अभिशप्त रहीं। अपनी पहचान के एक जैविक-तार्किक क्रम में यह एक ऐसा रिक्त स्थान था, जिसे न भर पाने की वेदना उनके लिए असहनीय थी। इसीलिए वे स्वीकार करती हैं कि वे कभी भी स्वयं से प्रसन्न नहीं रह सकीं और इसीलिए एक दूसरे व्यक्ति, एक दूसरी भाषा, एक दूसरे परिवेश में कायांतरण उनके लिए एक अनिवार्य आवश्यकता थी। यह कायांतरण शुरू होता है पहले तो साहित्य लेखन की तरफ़ उन्मुख होने से और फिर अंततः एक नयी भाषा की खाल से स्वयं को पुनर्निर्मित करने में।
यह संस्मरण, जो एक डायरी की शक्ल में इटालियन सीखते वक़्त लेखिका ने अपने मन में चलने वाले संवादों के रफ़ नोट्स की तरह लिखे थे, वस्तुतः अपने भीतर लेखन और भाषा के कुछ गूढ़ सवालों से जूझता है। यहाँ लेखक सिर्फ़ अपने मानस के साथ संवाद की प्रक्रिया में लीन है। अपने चयन के प्रति वह हमें आश्वस्त नहीं दिखतीं बल्कि अपनी दुविधाओं और कमज़ोरियों के साथ वह सबसे अधिक वल्नरेबल रूप में हमारे सामने आती हैं। क्या नयी भाषा के माध्यम से नयी पहचान बनाने का श्रमसाध्य कर्म सफल होगा? क्या जिस पाठक वर्ग के लिए वे लिख रही हैं, वह उन्हें – एक गैर इटालियन लेखिका – को अपना सकेगा, क्योंकि वह इटालियन में लेखन भले ही करेंगी पर कभी भी ‘इटालियन लेखक’ होने की पहचान उनके साथ नहीं जुड़ेगी। हमेशा उनके लेखन पर प्रामाणिकता सिद्ध करने का दबाव रहेगा। प्रायः ही उन लेखकों से उनके लेखन की तुलना की जायेगी जो इटालियन भाषा के स्थानीय प्रयोगकर्ता हैं। इसके अतिरिक्त भाषा पर लेखिका का यह सीमित अधिकार उन्हें साहित्यिक रूप से कितना सीमित करेगा, यह सब कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनसे फिलहाल इस पुस्तक की रचना तक लेखिका जूझना नहीं चाहती हैं। इटालियन के नये प्रयोगकर्ता के रूप में उनकी पहली उपलब्धि पुस्तकाकार रूप में कुछ प्रकाशित होना है जो मुख्य रूप से उनके इटालियन पाठकों के लिए हैं और जिसे एक विस्तृत पाठक वर्ग तक अनुवाद के सहारे ही पहुँचाया जा सकेगा। यह उन्हें वर्तमान के लिए अवश्य आश्वस्त करता है और परिधि पर रहकर, फ्रेम के बाहर रहकर भी वह इस नयी भाषा की अपनी पहली रचना के लिए उम्मीदों से भरी हुई हैं। हालाँकि आज, जब इस पुस्तक के प्रकाशन और अंग्रेजी अनुवाद की सफलता के भी तेरह साल हो चुके हैं, झुंपा लाहिरी ने इटालियन में और भी किताबें लिखीं हैं, स्वयं कई अनुवाद किये हैं। पर इटालियन भाषा के साथ उनके प्रेम संबंध की यह अनूठी दास्तान साहित्य की दृष्टि से भी एक अनोखी किताब समझी जायेगी जो स्वयं किसी भाषा को सीखने के लिए एक पाठ्यपुस्तक सिद्ध हो सकती है।
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समग्रता में आपका आलेख झुंपा लाहिड़ी के इटैलियन में लिखने के प्रेम या निश्चय से उपजे अनुभव की कथा मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। अंग्रेज़ी में लिखना छोड़ना ही अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। पर लेखन के लिए पूरी तरह और पूरी तरह इटैलियन में शिफ्ट हो जाना, बड़ी बात है। लेकिन वह भाषा आपका साथ कभी नहीं छोड़ती जिसके संपर्क में पहले कभी बने रहें हों। । वह मन की गहराइयों में बनी रहती है। परोक्ष में वह लिखने में आपकी मदद ही करती हैं। झुंपा लाहिड़ी के साथ क्या होता है, उनके इस विरल अनुभव को समझने में आपका यह आलेख
मददगार लगता है।