“सोफ़ोक्लीज़ की कृति यह बताने नहीं आती कि शोकांतिका केवल भाग्य का खेल है; वह हमें यह दिखाती है कि मनुष्य जब अपने विवेक और करुणा के साथ खड़ा होता है, तब सत्ता के सबसे कठोर आदेश भी उसके भीतर की स्वतंत्रता को हिला नहीं पाते।”–ढाई हज़ार साल पुरानी अथेनियन त्रासदी पर महेश मिश्र:

सोफ़ोक्लीज़ का एंटीगॉन हेगेल के लिए ‘परिवार और राज्य के बीच संघर्ष’ का दार्शनिक प्रतीक था जबकि जीन अनुइल की 1942 की फ्रेंच प्रस्तुति में यह ‘नाज़ी शासन की आलोचना’ में तब्दील हो गया।
शायद किसी रचना को क्लासिक का दर्जा मिलता ही इसलिए है कि वह मनुष्य के अनुभव-संसार के एक या अनेक मर्म-बिंदुओं का स्पर्श करती है और अपनी अर्थ-बहुलता से देश-काल से निरपेक्ष होकर मानवीय अस्तित्त्व को अर्थ देती है। वह उन अर्थों को खोलती है जो समीचीन हैं और ये अर्थ मनुष्य को अपनी निहित सामर्थ्य से प्रभावित और निर्देशित कर सकते हैं।
एंटीगॉन सोफ़ोक्लीज़ का एक ऐसा ही नाटक था जिसने काल और स्थान, दोनों विमाओं का उल्लंघन किया और अपने लिखे जाने के हज़ारों साल बाद भी अपनी प्रभविष्णुता बनाए हुए है। यह कृति मानव स्वभाव, सत्ता और न्याय के मूलभूत प्रश्नों पर विचार करने के लिए लगातार प्रेरित करती आई है। इस नाटक की दुखान्त नायिका ईडिपस की बेटी एंटीगॉन है। नाटक हमें उन नैतिक दुविधाओं के समक्ष ला खड़ा करता है जहाँ व्यक्तिगत कर्तव्य और राज्य के क़ानून एक-दूसरे के आमने-सामने आ जाते हैं, और जहाँ आत्मा की पुकार सत्ता के फ़रमानों से टकरा जाती है।
इस नाटक का हृदय-विदारक केंद्रीय संघर्ष ईडिपस के पुत्रों, एटिओक्लेस और पॉलीनीसेस, की मृत्यु के बाद आकार लेता है। एटिओक्लेस का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया जाता है, जबकि पॉलीनीसेस, जिस पर राजद्रोह का आरोप था, के शव को राजा क्रेओन की आज्ञा से खुले में छोड़ दिया जाता है।
यह राजाज्ञा, जो मानवीय गरिमा और तत्कालीन धार्मिक संस्कारों का घोर उल्लंघन थी, एंटीगॉन के अंतर्मन में एक तीव्र और असहनीय द्वंद्व पैदा कर देती है। वह अपने भाई के प्रति अपने कर्तव्य और देवताओं के अलिखित, शाश्वत क़ानूनों को सर्वोपरि मानती है। इसी अडिग विश्वास के साथ वह राजाज्ञा का उल्लंघन करते हुए अपने भाई पॉलीनीसेस का अंतिम संस्कार करने का साहस करती है।
यह संघर्ष प्राचीन यूनान के उन दिनों में उतना ही जीवंत था, जितना आज के युग में है। आज भले वह बदले हुए स्वरूप में दिखता है। आज भी शासकों की सत्ता और नागरिकों के नैतिक अधिकार के बीच ऐसे ही सवाल उठते रहते हैं।
नैतिक बेचैनी के सवालों का सामना करके ही नायिका एंटीगॉन अपनी राह चुनती है। वह क्रेओन की इस हठधर्मी का विरोध करती है, जो सोचता है कि राज्य का क़ानून ही सर्वोच्च है और कोई भी विरोध राजद्रोह है। क्रेओन के एकतरफ़ा निर्णय का विरोध करती हुई नायिका भविष्य के लिए नई इबारत लिख रही होती है।

यह जानना न सिर्फ़ रोचक होगा बल्कि सबक भरा भी कि सोफ़ोक्लीज़ सुकरात के पूर्ववर्ती हैं और उनसे उम्र में 26 साल बड़े थे। एण्टीगॉन 441 ईसा पूर्व लिखा गया था और यह माना जा सकता है कि तब सुकरात अपनी समझ के शुरुआती दिनों में रहे होंगे। सोफ़ोक्लीज़ के नाटक, विशेषकर ईडिपस रेक्स में आत्म-खोज और सत्य के लिए मानव संघर्ष की जो थीम्स हैं, उन्होंने सुकरात और उसके बाद की दार्शनिक परंपरा पर गहरा प्रभाव डाला था। सुकरात ने अपनी दार्शनिक जिज्ञासाओं में इन विषयों से मुठभेड़ की और मानव तर्क तथा “परीक्षित जीवन” (examined life) के महत्व को समझने के लिए इन्हें आधार बनाया। यद्यपि उनका तर्कशील दृष्टिकोण सोफ़ोक्लीज़ की त्रासदीपूर्ण, देव-केन्द्रित दृष्टि से भिन्न था।
फिर भी आप एंटीगॉन जैसी नायिका को जानें, जो राज्य की आज्ञा को सर्वोपरि मूल्य न मानती हो और अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार हो जाती हो, तो आप प्रभावित हुए बिना कैसे रह पाएँगे। ख़ासकर जब आपको यह भी पता हो कि कालान्तर में सुकरात अपने जीवन का बलिदान मिलते-जुलते मूल्य के लिए कर ही देते हैं।
इस बात की तरफ़ आपका ध्यान गया ही होगा कि एंटीगॉन एक फ़िक्शनल चरित्र है और सुकरात एक ऐतिहासिक हाड़-माँस के व्यक्ति। इस प्रसंग में यह बात कहने से रोकना उचित नहीं होगा कि साहित्य और कला अपने इन्हीं मायनों की वजह से महत्त्वपूर्ण होते हैं।
सोफ़ोक्लीज़ की कृति यह बताने नहीं आती कि शोकांतिका केवल भाग्य का खेल है; वह हमें यह दिखाती है कि मनुष्य जब अपने विवेक और करुणा के साथ खड़ा होता है, तब सत्ता के सबसे कठोर आदेश भी उसके भीतर की स्वतंत्रता को हिला नहीं पाते। यह नाटक बार-बार हमें याद दिलाता है कि सत्य और न्याय केवल क़ानून की पंक्तियों में नहीं रहते, वे मनुष्य की आत्मा और उसकी अंतःकरण की गहराइयों में जन्म लेते हैं।
राजा क्रेओन का अहंकार और एंटीगॉन का साहस इस नाटक के दो ध्रुव हैं। एक ओर राजा है, जो मानता है कि नगर की सत्ता उसी की इच्छाओं से संचालित होती है; दूसरी ओर एक युवती है, जो कहती है—
मेरा जन्म प्रेम में जुड़ने के लिए हुआ था, न कि नफ़रत में। (I was born to join in love, not hate – that is my nature.)
यह वाक्य समूचे लोकतांत्रिक भावबोध की नींव बनने लायक़ है—कि समाज की आत्मा प्रतिशोध और भय में नहीं, बल्कि प्रेम और न्याय में जीवित रहती है।
नाटक में क्रेओन का अहंकार ही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी साबित होता है। उसका बेटा हेमन, उसे समझदारी की बात बताता है: “जो नगर केवल एक ही व्यक्ति का हो, वह सच्चा नगर नहीं हो सकता” (No city is property of a single man) — यह संवाद सिर्फ एक पिता-पुत्र की बहस नहीं है, बल्कि यह सत्ता के केंद्रीकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच का शाश्वत संघर्ष है। हेमन का तर्क है कि एक सच्चा शासन वही है जहाँ जनता की आवाज़ का महत्व हो, न कि सिर्फ राजा की मनमानी का। क्रेओन का हठ उसे अंधा कर देता है, और वह यह महत्वपूर्ण सीख भूल जाता है कि शासन का वास्तविक आधार जनता की सहमति में निहित है। यही अहंकार उसे ज्ञान और समझ से वंचित कर देता है।
उस दौर के ग्रीक नगर-राज्य में, जहाँ महिलाओं को नागरिकता और क़ानूनों से दूर रखा जाता था, एंटीगॉन का यह विद्रोह एक साहसिक नैतिक विद्रोह था। वह उस सामाजिक व्यवस्था में भी अपनी वैचारिक स्वतंत्रता का दावा करती है जहाँ उसे कोई अधिकार नहीं दिए गए थे। वह कहती है:
मैं सत्य के साथ ही मरना चाहती हूँ। (I would rather die with the truth.)
एंटीगॉन की यह प्रतिरोधी चेतना हमें सिखाती है कि व्यक्तिगत सम्मान और स्वतंत्र चेतना मनुष्य के अस्तित्व का केंद्र हैं। व्यक्ति की अस्मिता को अहमियत देने वाला सूत्र सम्पूर्ण लोकतांत्रिक चेतना संघनित रखता है। नगर तभी नगर है जब उसमें संवाद, असहमति और सहभागिता की गुंजाइश हो। एकल-स्वर से चलने वाला नगर दरअसल केवल सत्ता की छाया है, समाज नहीं।
कोरस में आई यह बात—“जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ सुख नहीं”—आज भी उतना ही सत्य है। लोकतंत्र में भी ज्ञान केवल आँकड़ों या बहुमत की संख्याओं का नाम नहीं है; वह आत्मालोचना, सुनने की क्षमता और सीखते रहने की विनम्रता है। जब कोई व्यवस्था अपनी जड़ता में कैद हो जाती है और ‘बड़े बोलों’ के मोह में डूब जाती है, तब इतिहास में विडम्बना के दौर आते हैं।
उसकी कहानी दिखाती है कि नैतिक रूप से वह विजयी होती है क्योंकि वह अपने सिद्धांतों पर अडिग रहती है। यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानी गरिमा जैसे कुछ सिद्धांत राज्य के किसी भी क़ानून से ऊपर होते हैं। यह विचार केवल एंटीगॉन की कहानी तक सीमित नहीं रही। इतिहास में बार-बार प्रकट होती रही। महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे नेताओं ने भी नागरिक अवज्ञा (Civil Disobedience) के सिद्धांत में यही नैतिक दृढ़ता और विश्वास दर्शाया। उनके लिए भी कुछ उच्च नैतिक सिद्धांत थे जो तत्कालीन क़ानूनों से अधिक महत्वपूर्ण थे।
नाटक का अंत एक शक्तिशाली चेतावनी है। जब क्रेओन आख़िरकार देवताओं की चेतावनी को समझता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वह अपने हठ के भयानक परिणामों का सामना करता है। उसका बेटा हेमन आत्महत्या कर लेता है, उसकी पत्नी भी मर जाती है, और वह सब कुछ खो देता है – केवल सत्ता का ख़ालीपन बचा रहता है। उसकी त्रासदी इस बात का प्रमाण है कि अभिमान का अंत विनाश में ही होता है।
इस प्रकार एंटीगॉन केवल प्राचीन यूनान की शोकांत-नाटिका नहीं है; यह हर युग के लिए एक दर्पण है। यह हमें बताता है कि लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा जब सत्ता अभिमान की जगह विनम्रता चुनेगी, जब क़ानून करुणा के साथ संतुलित होगा, और जब नागरिकों की स्वतंत्र चेतना को राज्य की आत्मा के रूप में पहचाना जाएगा। एंटीगॉन की मृत्यु हमें यह स्मरण कराती है कि मनुष्य का गौरव उसकी निष्ठा और उसके प्रतिरोध में है—और यही गौरव किसी भी जीवंत लोकतंत्र की आत्मा है।
अंत में, सोफ़ोक्लीज़ की एक सार्वभौमिक सीख याद रखें:
भविष्य उन्हीं के हाथों में है जो भविष्य की देखभाल करते हैं! (The future rests with the ones who tend the future!)







बहुत सारे सूत्र हैं।
मानवीय गरिमा, राजनीतिक सत्ता, लोकतंत्र, प्रतिरोध…
मैंने अपनी माधवी में लिखा है कि प्रतिरोध की भी परंपरा होती है। सुकरात और प्लेटो को वो परंपरा, पूर्ववर्ती दार्शनिकों और बौद्धिकों से मिली है।
बहुत शुक्रिया, रचना के बहुत सारे सूत्रों को खोलने के लिए 💜