विष्णु नागर की यह छोटी-सी कहानी हमारे समय पर एक गहरी टिप्पणी है। वे ब्योरों के नहीं, निचोड़ के उस्ताद हैं। सीधे घटना बयान करते हैं और जितने विवरणों से एक सटीक बात कहानी में उतर सकती है, उतने तक ही अपने को समेट कर रखते हैं। यह आँखों में आँखें डालकर बात करने की कला है जिसमें न कहानीकार अपने बचने का कोई रास्ता तैयार रखता है, न पाठक को मुहैया कराता है।
उन्होंने हमारे घर की घंटी बजायी। हमने दरवाज़ा खोला तो झुककर प्रणाम किया। मुस्कुराकर पूछा- ‘आप कैसे हैं?’ हमने कहा- ‘हम ठीक हैं मगर माफ कीजिये, हमने आपको पहचाना नहीं?’
‘हाँ ठीक कहते हैं, हम मिले नहीं पहले कभी एक-दूसरे से। हम सामाजिक कामों से जुड़े हैं। आपके पाँच मिनट लेंगे, ज़्यादा नहीं।’
वे भले-से आदमी लगे। हमने कहा- ‘आइये,अंदर आइये।आये हैं तो पाँच क्या, दस मिनट लीजिये।’
वे इधर-उधर कुछ बातें करते रहे।हम, हमारे बच्चों, हमारे कामकाज आदि के बारे में पूछते रहे। सुनकर कहा- ‘चलो अच्छा है। आप पर माँ लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा है। हम तो चाहते हैं कि यह कृपा और आप पर बरसे।’ फिर कहा- ‘क्या हमें एक-एक कप चाय मिल सकती है?’ हमने कहा- ‘क्यों नहीं? सुबह का वक़्त है, चाय क्या नाश्ता भी कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा- ‘नहीं, दिक्कत होगी आप लोगों को।’ हमने कहा- ‘दिक्कत क्या होगी? आप मेहमान हैं, आपने बताया समाजसेवी हैं। नाश्ता हम करेंगे तो आप भी कर लीजियेगा।’
‘आप तो एकदम ईश्वर-स्वरूप हैं। जैसा सुना था, वैसा ही पाया। आप चाहेंगे तो वैसे हम आपके यहाँँ भोजन भी कर सकते हैं। आप जैसे उदार हृदय अब कहाँ मिलते हैं? समाज सेवा का काम बहुत कठिन है।लोगों के दिल आजकल छोटे से छोटे होते जा रहे हैं। अपने स्वार्थ के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता।’
खाना खाने के बाद उन्होंने कहा- ’ अच्छा हम अब चलते हैं, आपका बहुत -बहुत धन्यवाद।आपने बहुत सौजन्य दिखाया।अगर तकलीफ़ न हो तो यहाँँ अपना सामान रख जायें? कहीं कोने में पड़ा रहेगा। शाम को जाते समय ले जायेंगे।’
हमने कहा- ‘अवश्य-अवश्य। इसेआप अपना ही घर समझिये।’
फिर शाम को आकर कहा- ‘आज तो जाने का सिलसिला बन नहीं रहा। आपकी अनुमति हो तो बाहर के कमरे में मतलब आपके ड्राइंग रूम में आज रात भर सो जायें?’ संकोच तो होता है, चिंता भी होती है कि जान-न पहचान…’
बीवी से पूछा तो उन्होंने कहा कि- ‘ये क्या? ये ठीक आदमी नहीं लगते। रवाना करो इन्हें फ़ौरन यहाँ से।’ मगर मुझे उनका सज्जनों जैसा व्यवहार आश्वस्त कर रहा था। कहा- ‘नहीं, कुछ नहीं होगा। तुम्हें आदमी की पहचान नहीं।बिस्तर करो उनका और अपनी ये बकवास छोड़ो।’
सुबह निकलकर शाम को वे फिर आ जाते हैं। कहते हैं – ‘अगर आपको परेशानी न हो तो एक और रात की बात है। हम बहुत थके हुए हैं और कल भी हमारी नींद ठीक से पूरी नहीं हो पायी। आप अनुमति दें तो आज रात हम आपके बेडरूम में सो जायें? एक ही रात की तो बात है।’ बीवी आँखें तरेरकर मुझे देखती हैं।
घर का मालिक तो मैं हूँ, बकवास बंद।उनसे कहता हूँ- ‘ठीक है, लेकिन आज के बाद नहीं।’
‘नहीं, अगर परेशानी हो तो अभी चले जाते हैं। दिक्कत तो होगी रात को किसी और के घर शरण माँगने में, फिर भी…’
अगली शाम वे फिर आते हैं। कहते हैं – ’अच्छा, अब चलते हैं। कब तक आपको तकलीफ़ दें? हम तो फँस गये यहाँ आकर। हमारा काम आज भी खत्म नहीं हुआ। उधर ऊपर से आदेश है कि सब ठीक करके ही आना है, मगर चलते हैं। कितनी तकलीफ़ दें आपको।वैसे एक दिन और चला सकते हों तो चला लीजिये वरना कुछ और उपाय करेंगे। कुछ नहीं हुआ तो सड़क पर पड़े रहेंगे। समाज सेवा के कामों में ऐसी कठिनाइयाँ आती रहती हैं।’
बीवी किचन में बरतन इधर-उधर पटककर जाहिर कर देती है कि अब और नहीं चलेगा, लेकिन इस घर का मालिक तो मैं हूँ। कहता हूँ- ‘ठीक है। बस आज ही। सुबह आप सामान समेत यहाँ नहीं होंगे।’ ‘बहुत कृपा आपकी।ईश्वर आपकी हर कामना पूरी करे। वैसे आज भी हम क्या आपके बेडरूम में सो सकते हैं?’
मुझे उनकी नीयत पर शक तो होता है लेकिन उनके करुण चेहरे देखकर सोचता हूँ, चलो यह भी सही। फिर अपने मिशन, मार्ग की बाधाओं और न जाने क्या-क्या बातें करके मेरा मन मोह लेते हैं। उसी क्रम में यह कहने की हद तक बढ़ जाते हैं कि शरीर की भी एक प्यास होती है मगर समाज सेवा के लिए उसे भी दबाते हैं। यह भी समाज सेवा है। वैसे आपको दिक्कत हो रही हो तो आपकी अनुमति से आपकी बीवी या आपकी प्यारी-प्यारी बिटिया में से किसी को अपने कमरे में सुला भी सकते हैं।बस सोना है उन्हें और कुछ नहीं करना है, बस सोना है, सोना है बस। जगह की दिक्कत भी आपको नहीं होगी।’
मैं चीखकर उन पर हमला करने को होता हूँ।घबराकर बीवी और बेटी भी वहीं आ जाती है। पूछती हैं, क्या हुआ? मैं उन्हें जवाब देने की बजाय इनसे कहता हूँ, फौरन निकलो यहाँ से। हम सब धक्का देकर उन्हें निकालनेवाले होते हैं कि वे ‘भारत माता की जय’ इतनी जोर से बोलने लगते हैं कि उसमें हमारी आवाज़ दब जाती है। हमारी चीख-पुकार और उनकी ‘भारत माता की जय’ सुनकर आस-पड़ोस के लोग आ जाते हैं। वे उनसे भी कहते हैं- ‘बोलो सब मिलकर भारत माता की जय और जोर से बोलो- भारत माता की जय। भारत माता आज संकट में है, दोस्तो। हम यहाँ देशभक्ति का पाठ पढ़ाने आये हैं, भारत माता की जय कहने आये हैं और देखिये हमारे साथ क्या हो रहा है यह? इस देश में अब भारत माता की जय कहना भी गुनाह हो गया है? और जोर से बोलो- भारत माता की जय।’
इस निनाद में हमारी बात किसी के कान में नहीं पड़ती।बड़ी देर तक ‘भारत माता की जय’ चलता रहता है। थोड़ी देर में सब ‘जय- जय’ करते हुए सबकुछ ठीक मानकर चले जाते हैं। कुछ को शंका होती है, मगर कहते हैं, ‘भारत माता की जय’ का मामला है, बीच में कौन पड़े?
उनके जाने के बाद वह दरिंदा भी हमारे घर से चला जाता है मगर कहकर जाता है कि ‘हम फिर आयेंगे। इस बार हम भारत माता की ऐसी जय करायेंगे कि या तो तुम्हें पाकिस्तान जाना होगा या बांग्लादेश और हम तो भाई यहीं के हैं और कहाँँ जाएँँगे? भारत माता की संतान हैं, उसकी जय करते हुए यहीं इस घर में रहेंगे और यहीं मरेंगे। वैसे इसके लिए भी हम तुम्हारा धन्यवाद करते हुए ही इस घर मेंं आयेंगे।’
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वर्तमान परिस्थितियों का यथार्थ वर्णन है इस कहानी में,”जय माता” और “जय श्री राम” के नारे की आड़ में अच्छा ख़ासा शोषण और मनमानी हो रही है। शर्म नहीं आती मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और भारत माता को इस प्रोपेगंडा और झूठ लूट खसोट शोषण तंत्र में घसीटा जा रहा है। लोगों की भावनाओं का नाजायज़ फायदा उठाकर उन्हें बुद्धु और विवेकहीन बनाया जा रहा है।
लेखक ने बहुत नपे-तुले शब्दों में यथार्थ पृष्ठभूमि पर सटी अभिव्यक्ति दर्ज की है।
ये ही सत्य है…
बेड़ा गर्क
बहुत खूब
क्या शानदार चित्र खींचा है तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का।