चार कविताएँ / डॉ. पल्लवी


‘व्याकुल मन को जीतकर/ इच्छाशक्ति से नव निर्माण के लिए/ सब तोड़ती हुई स्त्री के पास मेरा/ सर्वकालिक ठिकाना है’–इस बार पढ़िए डॉ. पल्लवी की चार कविताएँ। वे पूर्वांचल विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए., पीएच.डी हैं और दोहरीघाट, ज़िला मऊ (उत्तर प्रदेश, पिन कोड-275303) में रहती हैं। 

 

मेरा पता

मुझसे मिलने के लिए
कभी फ़ोन नहीं करना
मैं जहाँ से गुज़री
वापस लौटी ही नहीं
इसलिए साथी, राह नहीं देखना
चिट्ठी-पत्री सब बेकार क्योंकि
मेरा ऐसा कोई पता नहीं

मुझे देखना
सुनना
या मिलना हो
तो किसी संघर्षरत स्त्री के
आत्म-सीकरों में
सहज मिल जाऊँगी
महसूस करती उसके
दोहरे संघर्ष को

मेरा पता किसी किशोरी के
प्रेम-पत्र लिखते हुए
प्रेमी के प्रति
कोमलतम भाव में है

पुरुष-प्रेम से बहुत पहले
कर गयी हूँ कूच
क्योंकि दावेदारी पसंद हूँ
अतिक्रमण-वादी नही
इसलिए तुमको
पत्र-प्राप्तकर्ता के पास न मिलूँगी

प्रेमी से हुई प्रेमिका की उम्मीदों में
मैं पालथी मारे बैठी हूँ

प्रेमी की अरुचि और पति की वितृष्णा से
चोट खायी हर स्त्री के
व्यर्थता-बोध से भरे मन में
मैं उदास मिल जाऊँगी

व्याकुल मन को जीतकर
इच्छाशक्ति से नव निर्माण के लिए
सब तोड़ती हुई स्त्री के पास मेरा
सर्वकालिक ठिकाना है

क्योंकि मुझे प्रेम लोक में
रहने की आदत है
प्रेम निर्माण है
सबसे बड़ी क्रान्ति है
हर क्रान्ति, सृजन
ध्वंस से ही करती है

पहले वो तोड़ता है
सामाजिक–व्यवस्था को
शास्त्रानुमोदन को
अपने निज चयन का
ऐलान किया करता है

इसलिए दुनिया के ऐलानियों में
मुझे, मेरा आत्म-संगीत मिलता है

क्योंकि चुनाव ही
जीवन का भाष्य कर
नये अर्थ देता है
अतः मुझसे मिलने
ऐसे भावों में
ऐसी ही जगहों में आना

000

अपलक प्रतीक्षा

तुम्हें तो फिर भी आना चाहिए था
नदी को पूरी तरह
कोई भी बांध
रोक ही नहीं सकता

भला बरसात
किसी के रोके रुकती है?
हज़ारों रास्ते होते हैं
प्रकाश के आने के लिए
भाव चाहकर
भंगिमाएँ रोक नहीं पाते

फिर तुमको झिझक कैसी
जबकि पता है, तुम बच्चे की
बहु-प्रतीक्षित रेलगाड़ी हो

कितनी दस्तकें होती हैं
मेरे दरवाज़े पर
फोन भी कई बार बजता है
देखती हूँ, बात करती हूँ
लौट आती हूँ
वापस

सोचती हूँ –
छापेखाने में
कितनी किताबें छपती होंगी
कितनी कविताएँ लिखी जाती हैं
दुनिया भर में
मेरी दुनिया भी
पूरी सृजनात्मक है
लेकिन अभिव्यक्ति रुकी है
तुम्हारी प्रतीक्षा में

आओ दक्ष के यहाँ
शिव की तरह
नदी, कविता, किताब
या किसी बच्चे की कल्पना बनकर
सब नियमों को ध्वस्त करते हुए
सृजन की नयी परिभाषा लिखो
तुम्हारे आने की
अपलक प्रतीक्षा है

000

यथा–रूप

सबको याद हैं प्रेम कविताएँ
प्रेम पर आधारित उपन्यास
संभवतः सबसे ज़्यादा पढ़े गए
आजकल फ़िल्मों में
प्रेम का बड़ा चलन है

धर्म बेचना हो किसी पंडे को
या फिर करवाना हो
विज्ञापन किसी उत्पाद का
सब कामों में प्रेम का
सहारा लिया जाता है

बहुत ख़र्च होता है प्रेम
इस महँगाई में

इसीलिए सबके दिल रीते हुए हैं
रिश्तों से ग़ायब हो गया
बाजारीकरण होने से

मुक्ति फिर भी संभव है
हम जा सकते हैं
इस बाज़ार से दूर
कहीं किसी पर्वत या नदी के पास
जहाँ फल, फूल, पत्ते मिलें
समुद्र खुद दे दे मछलियाँ
बिना मोल के

लेकिन हमारी पूरी ताक़त
पड़ी बेड़ियों की सुरक्षा में व्यय हो रही है

तभी कहीं सरगम नहीं
कोई काव्य जीवंत नहीं
सब चित्र यांत्रिक और
सब आशिक स्मृति में खोये हैं

स्मृति बन जाना प्रेम की
नियति होती जा रही है

जो प्रकृति को स्वीकार नहीं
उसे यह चक्र
स्वतः बाहर फेंक देता है
विलुप्त हो गये
जिनकी उपस्थिति यहाँ
प्रासंगिक नहीं

जो कुछ अवांछनीय है
टिक ही नहीं सकता यहाँ

यदि संशोधन इतना अनिवार्य होता
अब तक लागू हो चुका होता
तुम पर
अनुकूलन का सिद्धांत

तुम्हें तुम्हारी
खुदरंगी निखार रही है
इसका सीधा मतलब है
प्रकृति ने तुम्हें सहर्ष स्वीकारा है
पूरी जीवंतता से

तुम्हें तलाश करनी चाहिए उसकी
जो तुम्हें स्वीकार करे
प्रकृति की तरह
तुम्हारी संपूर्णता में

यथावत,
यथारूप,
प्रकृति-स्वरूप

तुम स्वागत करना उसका
जो तुम्हारे जीवन में
बारिश कर दे प्रेम की
व्यापार, बाज़ार, प्रचार से परे

000

गाली

जब–जब बौखलायेगा अहंकार
वर्गीय चेतना विवश होगी
तानाशाही को
अंकुश मान
सत्ता को चुनौती और
मिथ्या अक्षुण्णता को
भंगुरता के बोध से
कस दिया जायेगा
तब-तब उछाली जाएँगी गालियाँ

दरअसल गाली;
कुंठा, अक्खड़ता, मूर्खता
और परंपरा की लाश से भरा हुआ
पान का बीड़ा है
सच कहा था किसी ने
गाली शब्दहीन होने की पीड़ा है

गाली कभी-कभी
अस्मिता का संघर्ष है
विद्रोही गुलामों के मालिक का
डूबता हुआ दर्प है

मैं काव्य का नहीं
गाली का सृजन करना चाहती हूँ
जब मनुष्य से कम चिन्हित होना
अपमान लगे
उस गाली का
मैं भजन करना चाहती हूँ
मैं प्रतीक्षा में हूँ उस दिन के
जब हिन्दू,
मुस्लिम,
सिख,
नाम से हुआ संबोधन गाली लगे
सबका अपमान हो
ब्राह्मण, क्षत्रिय, मौलवी या खान के
संबोधन से
सब भेद ध्वस्त हों
बने गाली के नव-संशोधित संस्करण
उस गाली से आसक्ति
और
थोपी मर्यादा से विरक्ति चाहती हूँ
मैं गाली को
गाली बनाना चाहती हूँ

000

drpallavi.dohrighat@gmail.com


9 thoughts on “चार कविताएँ / डॉ. पल्लवी”

  1. संवेदनायें बाजारीकरण का सस्ता साधन बनती जा रही हैं , प्रेम जैसा सार्वकालिक गहन संवेदनात्मक भाव व्यापार का विषय (साध्य और साधन दोनों रूपों में ) बनता जा रहा है , शब्द अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे हैं – ये सभी चिंतन विन्दु नवोदित कवयित्री पल्लवी की इन कविताओं में बखूबी व्यंजित हुए हैं । कवयित्री को साधुवाद और कविताओं का हार्दिक स्वागत है ।

    Reply
    • धन्यवाद सर। आपकी यह टिप्पणी मेरे लिए बहुत प्रेरक और आगे के लिए साहस देने वाली है ।

      Reply

Leave a Comment