जोंक / गोविंद निषाद


स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता का संबंध इतना असंभव-सा क्यों है?–कोई 70-75 साल पहले इस समस्या को केंद्र में रखकर मुक्तिबोध ने कहानी लिखी थी , ‘मित्रता की चाह’। यही समस्या गोविंद निषाद की इस कहानी की भी है। अलबत्ता, समस्या की इस समानता से आगे दोनों कहानियों में कुछ भी समान नहीं है। 
गोविंद कहानी कहना जानते हैं। ‘जोंक’ के अंत पर पहुँचकर आपको भले ही ऐसा लगे कि सामाजिक संदेश या जीवन-संदेश के नाम पर कोई सूत्र हाथ नहीं लगा, और इसीलिए कहानी लगभग बेमानी है, पर बयान की ताज़गी और सधाव से आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। लिहाज़ा, इसे गंतव्य की नहीं, यात्रा की कहानी की तरह पढ़ा जाना चाहिए। तब शायद आपको यह भी लगे संदेश-वंदेश से परे यह आज के युवा की एक प्रामाणिक तस्वीर है। इस तस्वीर को ज़रूरी या ग़ैर-ज़रूरी मानना इस पर निर्भर करता है कि आप अपने समय को कितना जानना चाहते हैं।

 

वह : “तुम्हें जो कहना है, टेक्स्ट कर दो।”

मैं : “क्या ही कहूँ मैं तुमसे, मैं बस माफ़ी ही माँग सकता हूँ। मुझे माफ़ कर दो।”

मैं छत पर टहलते हुए इन संदेशों को टाइप कर रहा था। नीचे सड़क पर एक मोटरसाइकिल गुज़र गयी। एक कुत्ता और गाय वहाँ फेंके गये कचरे में कुछ निवाला ढूँढ रहे थे। ‌इस संदेश को भेजने के बाद मैंने अपना मोबाइल वहीं छत पर रख दिया। मेरे हाथ काँप रहे थे। मोबाइल पर उसके आने वाले संदेश को मैं देखना नहीं चाहता था। मैं चाहता था कि उसके आये संदेश को जब तक हो सके न देखूँ। मैं छत पर ही चक्कर लगाने लगा। दूसरे चक्कर के बाद जब सड़क की तरफ़ नज़र गयी तो कुत्ता ग़ायब हो गया था और गाय अभी भी कुछ पा जाने की आशा में कचरे में कुछ ढूँढ रही थी। मैं मुड़ा। दूर कहीं बारात जा रही थी। उसके गाने-बजाने की स्पष्ट आवाज़ सुनायी दे रही थी। एक भोजपुरी गाना बज रहा था, “छने-छने बदले तोहरो मिजाज रजउ…” मैं छत का तीसरा चक्कर लगा रहा था। नीचे अमरूद पर चमगादड़ उड़ते हुए आते और कहीं जाकर लटक जाते। डीजे में लगे लेजर का प्रकाश बीच-बीच में आ जाता। आसमान में तारे तो थे लेकिन पिछली दिनों आयी आँधियों ने कुम्भ मेले की पसरी धूल को खुले आकाश में बिखेर दिया था। इसके कारण अँधेरा होने के बावजूद वह बहुत ध्यान से देखने पर धुँधले-से दिखायी पड़ रहे थे। मैं फिर घूमता हुआ सड़क की तरफ़ आ गया। इस बार वहाँ न कुत्ता था, न गाय; बल्कि एक आदमी अपने कुत्ते को चराते हुए उधर से गुज़र रहा था। बीच-बीच में मोटरसाइकिल सवार और पैदल यात्री भी निकल जाते।

मोबाइल पर उसके संदेशों के आने की आहट में मैंने आकाश की तरफ़ देखा जैसे उसका सन्देश तारों ने भेजा हो। आकाश में फैली हुई धूल आँखों के सामने उसके प्रति एक धुँधलका पैदा कर रही थी। मैंने आसमान में उस तारे की तरफ़ देखा जो पश्चिम में दूर झिलमिला रहा था। मुझे यक़ीन था, वह ज़रूर उस तारे को देख रही होगी। मैं इंतज़ार में था उस पल के जब हम दोनों की आँखे एक साथ उस तारे पर पड़ती। फिर कोई-न-कोई चमत्कार ज़रूर होता, जहाँ हम बिना किसी माध्यम के अपनी बातें एक-दूसरे को समझा पाते। मैं आसमान की तरफ़ देखता और सोचता कि उसने क्यों कहा कि संदेश में ही बात करो, जबकि मैंने उससे कहा था कि वह मुझसे एक बार कॉल पर बात कर ले। ‌उसने सीधा मना कर दिया।

क्यों कर दिया उसने मना! इसकी शुरुआत हुई थी एक कविता पाठ से, जो एक अप्रैल को हो रहा था। यानी उस दिन जिस दिन लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता था। उस दिन मैं एक कविता पाठ में बैठा हुआ था। कवि अपनी कविताएँ पढ़ रहे थे। एक कवि ने अपनी प्रेम कविताएँ पढ़ीं तो अचानक ही मेरे ज़ेहन में आया कि चलो उसे अप्रैल फूल बनाते हैं। मैंने उसे लिखा कि, ‘मैं एक कविता पाठ में बैठा हूँ और मुझे तुम्हारी याद आ रही है।‘ इसे मैंने बेहिचक उसको भेज दिया। दरअसल यह एक बहाना था। इस बहाने से मैं उससे अपनी दोस्ती को और मज़बूत करना चाहता था। इसके इतर मेरे दिमाग़ में कुछ नहीं था। मैंने सोचा कि वह इस पर प्रति-उत्तर कुछ भी दे, मैं उसे बोलूँगा कि तुम्हें अप्रैल फूल बनाया। उसने लव वाला इमोजी प्रति-उत्तर में भेज दिया। उसके आगे उसने कुछ नहीं बोला। यहाँ तक न मुझे कोई दिक़्क़त थी, न उसे।

मैं जब कविता पाठ से बाहर निकला तो देखा कि दो जोड़ें आपस में बातें कर रहे थे। आपको लग रहा होगा कि यह तो एक सामान्य-सी बात है। इसमें ऐसा क्या है! मेरे लिए उस दिन यह सामान्य बात नहीं थी। मेरे दिल के किसी कोने से एक आह-सी उठी थी उन्हें देखकर। जब मैं बाहर मेडिकल चौराहे की तरफ़ जाने वाली सड़क पर आया तो महसूस हुआ कि मुझे तेज़ प्यास लगी है और मेरी साँसें बढ़ती जा रही हैं। मैं पास ही चाय की दुकान पर गया। चाय पी और बड़े दिनों के बाद मुझे सिगरेट पीने की तलब लगी थी। आख़िरी कश लेते हुए जब मैंने बट्स को फेंका तो लगा कि सिगरेट के धुएँ का एक गोला भीतर से भीतर ही छूट गया है। मैं उठा। पार्वती अस्पताल से चुंगी के लिए ऑटो ली। वहाँ से गंगा को पार करते हुए झूँसी आया।

धीरे-धीरे मैंने देखा कि धुआँ बढ़ता हुआ चुप्पियों का एक छल्ला मेरे भीतर बना रहा था। मैं अवाक्, कि यह क्या हो रहा है भाई मेरे साथ! धीरे-धीरे धुआँ बढ़ता ही गया। इतना कि लगा मेरे मुँह में भर गया है। मैं चिल्लाना चाहता था लेकिन आवाज़ गले में अटक जा रही थी। यह चुप्पियाँ उसकी यादों का सहउत्पाद थीं। उसकी याद उन यादों जैसी नहीं थी जहाँ आशिक़ ख़ुद को भीतर समेट लेते हैं। लोगों और जगहों से ख़ुद को विस्थापित कर लेते हैं। उनकी ज़िंदगी में मुहब्बत की वीरानगी छाने लगती है। वे सिगरेट पीते हुए अपनी सुबहें और शराब पीते हुए रातें गुज़ार देते हैं। मैंने कुछ भी समेटा नहीं था। न धुआँ उड़ाया और न पानी बहाया। मेरी सुबहें किताबों से और शामें दोस्तों के साथ गपशप से ख़त्म होती। मुझे पता नहीं चल रहा था कि मेरे भीतर चुप्पियों का एक संसार बनने लगा था और वह  बढ़ता जा रहा था। इसका आभास मुझे उस दिन हुआ जब अली की चाय की दुकान पर चाय पीते हुए मैं उन बातों पर न हँस पा रहा था, न बोल पा रहा था जिन बातों पर कभी हँसते-हँसते मेरा पेट फूल जाता या मैं खूब ठहाके लगाते हुए बकैती करता। अब मैं ख़ुद के साथ ज़बरदस्ती हँसते हुए इन्हें दबाने की कोशिश करता। कभी इन चुप्पियों को इलाहाबादी बकैती से हराना चाहता। इसका कुछ भी असर उन पर नहीं पड़ रहा था। अब यह धीरे-धीरे मेरे भीतर एक जगह बनाने लगीं थीं। क्रमश: यह बढ़ती गयीं। आगे जाकर इन चुप्पियों ने एक समुच्चय बनाया और एक साथ मेरे ऊपर एक ज़ोरदार हमला कर दिया। हमला इतना ख़तरनाक था कि मेरे जीवन के कुछ महीने यूँ ही बर्बाद हो गये। जैसे ही मैं बाहर आता, वे पागल कुत्तों की तरह मुझ पर टूट पड़तीं। एक अरसा लगा था इन्हें अपने भीतर से नष्ट करने में। अब मैं नहीं चाहता था ये चुप्पियाँ फिर से मेरे जीवन में कोलाहल मचा दें।

उस दिन के बाद जो चुप्पी मेरे भीतर आविर्भूत हुई थी, उसका कोई तोड़ अभी तक मैं नहीं निकाल पाया था। वह मेरे भीतर छिपकर ऐसे बैठी हुई थी जैसे भैंस के शरीर पर चिपकी जोंक। जोंक से मुझे याद आया कि यह चुप्पी जोंक में कायांतरित हो रही थी। एक दिन जब मैं सुबह-सुबह पोहा बना रहा था तो देखा कि मेरे तलवे लाल हैं। पहले तो मुझे यह सामान्य-सा लगा, लेकिन दो घंटे बाद देखा तो हाथ सफ़ेद-से पड़ गये थे। पोहा में नमक था और मैं उसे हाथ से मिला रहा था। उसी से नमक मेरे तलुए से लग गया। फिर वह चटक लाल हो गया। तब मैं समझ नहीं पाया कि चुप्पियों का कायांतरण  जोंक में हो रहा है। उसी शाम अचानक रात के ग्यारह बजे मुझे शिवम का कॉल आया कि छतनाग घाट चलते हैं। शिवम पास में ही रहता है। वह कविताएँ लिखता है। उससे दोस्ती ज़्यादा पुरानी नहीं, लेकिन मैं उससे वह सारी बातें साझा कर लेता हूँ जिसे किसी और से साझा करने में मुझे कोफ़्त-सी होती हैं। गंगा के किनारे छतनाग घाट जब हम पहुँचे तो रात के बारह बज रहे थे। हम वहाँ एकाध घंटे रहे। साहित्यिक दुनिया की बातें हम एक सीमा तक ही करते थे। तब तक चुप्पियों से कायांतरित जोंकों ने मेरा खून चूसना शुरू कर दिया था। वह मुझे अन्दर से खा रही थी। मुझे पता तब चला जब एक रंगीन शाम में मैं अपने दोस्तों के साथ मय में सराबोर था। तभी किसी ने कहा कि चखने में नमक कम है, नमक लाओ। मैं किचेन से डब्बे से नमक निकालकर तलुए पर रखकर लाया। एक मिनट बाद देखा कि मेरे तलुओं से खून टपक रहा है। एक जोंक मेरे तलवे पर पतली हुई पड़ी है। इन्हें देखकर तो मेरे होश उड़ गये। मुझे पता था, अगर मैंने किसी तरह से इन जोंकों को दिल से बाहर नहीं निकाला तो ये मेरे पूरे शरीर में फैल सकती हैं। मुझे याद था कि बचपन में जब मैं अपनी भैसों को पोखर से नहलाकर घर लाता तब तक उसके  शरीर में चिपकी जोंक उसका इतना खून पी चुकी होती कि मोटी-सी होकर लटक जाती। मैं उसके शरीर से जोंक निकालता। वह इतनी मज़बूती से चिपकी होतीं कि उन्हें छुड़ाना मुश्किल हो जाता। अंत में किसी तरह उसे निकाल ही देता। निकालने के बाद मैं उसे एक दर्दनाक सज़ा देता। उसके शरीर पर नमक भुरभुरा देता। नमक के गिरते ही वह खून उगलने लगती और वह पिचककर धागे जैसी पतली हो जाती।

इसके बाद मैंने कई बार सोचा कि अपने भीतर खून चूस रहीं जोंको को नमक मिला पानी पीकर मार दूँ, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं होने वाला था। गाँव की मेरी दादी कहती थीं कि जोंक को कितना भी मार दो, वह जैसे ही नमी पाती हैं, ज़िंदा हो जाती हैं। मेरे भीतर तो स्मृतियों की नमी ही नमी थी। अब मैं बस किसी ऐसे शख्स का इंतज़ार कर रहा था जो मेरे हलक में हाथ डालकर उन्हें बाहर निकाल दे। मैंने सोचा कि शिवम से कोशिश करते हैं। वह जोंकों को मारने में मेरी मदद कर सकता है। मैंने उससे कहा कि यार, एक लड़की है जो मुझे बार-बार याद आ रही है जबकि मुझे उससे सिर्फ़ दोस्ती है, वो भी बहुत कम समय वाली। ऐसा भी नहीं है कि वह मेरी क्लास में रही हो कभी। बस कुछ दिन की बात-मुलाक़ात है जबकि अगर पूछो तो इस समय मुझे अपनी प्रेमिका की याद आनी चाहिए। वह भी तो दिल्ली में मुझसे दूर है। फिर मुझे उस लड़की की याद क्यों आ रही है। मैं उससे प्रेम भी तो नहीं करता। बस हल्की-फुल्की दोस्ती है। शिवम ने कहा कि देखिये, ऐसा होता है। कभी-कभी हमें दूर बैठा कोई शख्स अपने बहुत क़रीब महसूस होने लगता है। अनुभूतियों का एक संसार बनने लगता है जिसमें स्मृतियाँ हमारे आसपास चक्कर काटने लगतीं हैं। ऐसा तब होता है जब हमारे आसपास की ज़िंदगी में एक अदृश्य ख़ालीपन सृजित होने लगता है  और हम उसे देख नहीं पाते हैं। ऐसा निश्चित है कि एक ख़ालीपन आपने अपने आसपास सृजित किया है। तभी कोई दूर बैठा शख्स आपको इतना याद आ रहा है। यह ख़ालीपन क्या है? और क्यों है? यह आपको भलीभाँति पता होगा। आप उस ख़ालीपन को भर नहीं पा रहे हैं अपने आसपास के जीवन से। तभी आप इतनी दूर भाग रहे हैं। वैसे भी यादों के पंखों से तेज़ शायद ही किसी चिड़िया के पंख हों! आप तो वैसे भी नदी पुत्र हैं। मैंने हँस दिया और कहा कि नदी में मैं बस तैर सकता हूँ, तुम नहीं; इतना-सा ही अंतर है हमारे और तुम्हारे बीच। तो हाँ, तुम क्या कह रहे थे। उसने कहा कि यादों को नदी के पानी की तरह बहने दीजिये। अगर आप उन्हें रोकेंगे तो वे तोड़कर निकल जाएँगी। आप जो भी महसूस कर रहे हैं, अभी उसे नदी का पानी समझिये। फिर उसने मज़ा लेकर हँसते हुए कहा कि अंशिका दी को पता चलेगा तो आप पीटे जाएँगे। मैंने कहा कि ऐसा नहीं है। मैंने उसके‌ बारे में बता रखा है। वह कुछ भी ग़लत नहीं सोचेगी। इसके बात हमारी बातें गंगा के बारे में होने लगीं। मैं खुश हुआ कि चलो उसको लेकर जो चुप्पी मेरे मन में चल रही थी, वह तो टूट गयी।

‌हम वापस लौटे। मैं बिस्तर पर लेटा हुआ था। वो मेरे दिमाग में अभी तारी थी। ऐसा लग रहा था कि चुप्पियों का टूटना उसके प्रभाव को और मारक बना रहा था। मुझे लगने लगा कि मेरे शरीर में जोंके बढ़ती जा रही हैं। वे मेरे शरीर में धीरे-धीरे फैल रही हैं और मेरा ख़ून पीने पर आमादा हैं। मैं सोचता हूँ कि जब मुझे इसका निराकरण पता है तो मैं इन्हें मारता क्यों नहीं। सिर्फ़ नमक में पानी ही डालकर तो पीना है। कुछ दिन तो आराम से रहूँगा। फिर देखा जायेगा। अगर वह सिर्फ़ मुझसे बात कर ले तो वैसे भी यह जोंकें मर जाएँगी। फिर मैं बार-बार सोचता कि उससे बात करने के लिए क्यों मरा जा रहा हूँ। इससे अच्छा है कि मैं जोंको को अपना ख़ून ही पीने दूँ। यह सोचकर मेरा मन करता कि अपना सिर किसी दीवाल में भिड़ा दूँ। मैंने अपने हाथों को दीवाल पर दे मारा। ज़्यादा तेज़ी से मार दिया क्या? मैं तिलमिला गया। जोंकों द्वारा मेरी नसों से ख़ून चूसे जाने के कारण मेरी नसें ढीली पड़ने लगी थीं। ऐसा लगता कि अभी चलते हुए मैं गिर जाऊँगा। इससे बचने के लिए मैं तेज़ी से भागता तो डर के मारे जोंकें दुबक जाती थीं। फिर मुझे थोड़ा आराम मिल जाया करता। दौड़ने के बाद मेरी तनी हुई नसें और ढीली हो गयीं। मैं बिस्तर पर गिरा और सो गया, लेकिन दर्द के मारे नींद नहीं आ रही थी।

मेरी स्मृतियों का तोता पूर्व दिशा में उड़ान भर रहा था। मैंने उसे बहुत रोका, लेकिन वह था कि उड़े चला जा रहा था। उड़ता हुआ वह दूर उड़ीसा के जंगलों के बीच घिरे एक छोटे-से शहर में उगे गुलमोहर की डाल पर बैठ गया, जहाँ मैं कभी गया ही नहीं था। उसने देखा कि वह खाना बनाने जा रही है। उसके कान में इयरबड्स लगे हुए हैं। वह कुछ भुनभुना रही है। वह किसी से बात कर रही या गाने के गीत गुनगुना रही है, तोते को नहीं पता। मैंने उसे उसकी मुंडेर पर जाने को कहा तो आनाकानी करने लगा। किसी तरह मैंने उसे फुसलाकर उसकी मुंडेर पर भेजा तो उसने बताया कि वह पता नहीं किस भाषा में कुछ तो बोल रही है। तोता यह कहकर उड़कर चला गया कहीं आराम करने कि तुममें हिम्मत हो तो तुम कह दो न कि मुझे तुम्हारी याद आ रही है। मैं कोई लोककथाओं का हिरामन तोता तो हूँ नहीं कि मनुष्यों की आवाज़ में बोलते हुए उसे बता सकूँ कि गोविन्द तुम्हें याद कर रहा है। हाँ, तो उसकी याद तो आ रही थी मुझे, लेकिन मैं उसे कैसे बताऊँ कि मुझे तुम्हारी याद आ रही है। सीधे सन्देश भेजने में मेरे हाथ काँप रहे थे। मैंने उसका भी उपाय ढूँढ़ लिया। स्टेटस पर सबको छुपाकर सिर्फ़ उसके लिए स्टेटस डाल दिया। एक वीडियो जो अभी ही मैंने गंगा नदी पर बनाया था। वीडियो के पार्श्व में हेमन्त कुमार का गाना “गंगा आए कहाँ से” बज रहा था। वीडियो के साथ कैप्शन लिखा कि- “मैं गंगा के किनारे हूँ। मुझे तुम्हारी याद आ रही है।” इसके बाद जोंकों से सिकुड़ रही मेरी नसों में कुछ जान आ गयी।

इसके बाद भी मैं बस ये देखता रहा कि उसने स्टेटस देखा या नहीं। मुझे ऐसा लगने लगा कि रात में दिन का स्वप्न देख रहा हूँ। मैंने एक सारगर्भित और स्मृतिमूलक गद्य लिखा जिसमें उसकी एक-एक ख़ूबी की तारीफ़ लिखी थी जो उसमें थी भी नहीं। उसकी तारीफ़ों के मैंने इतने लंबे पुल बाँधे जितने में एक कहानी लिखी जा सकती थी। हाँ, साथ में मैंने उलाहना भी दिया कि प्रधानमंत्री के बाद इस दुनिया में अगर कोई सबसे व्यस्त प्राणी है तो वह तुम हो। बहुत लंबा-सा संदेश था। उसे पढ़ने में चार घंटे से कम नहीं लगते। इसलिए कि उसे हिन्दी आती तो थी लेकिन धीरे-धीरे पढ़ती थी। मैंने उसे भेजकर तुरंत अपनी मोबाइल बंद की और सो गया।

सुबह जगा तो दिन के नौ बज रहे थे‌। उसने संदेश को देख तो लिया था लेकिन पढ़ा नहीं था। मुझे लगा कि यार ग़ज़ब बेइज्ज़ती है। रात का भेजा संदेश अभी तक वैसे ही पड़ा है। कोई प्रति-उत्तर नहीं। यह तो तौहीन है मेरी, उससे ज़्यादा मेरे द्वारा लिखे गये शब्दों की। यह मुझे मेरे आत्म को धक्के की तरह लगा। मैंने तुरन्त ही संदेश डिलीट कर दिया।

दोपहर में उसका कॉल आया तो मैं खाना खाने ही बैठा था। इसलिए बाद में कॉल करने की बात कहकर मैंने फ़ोन रख दिया। जैसे ही खाना ख़त्म किया, एक वेब पत्रिका के संपादक का कॉल आया कि आपने लेख में कुछ संशोधित कर दिया है; कृपया सही से मूल लेख में जोड़कर भेजें। मैंने उसे संदेश भेजा कि मुझे कुछ ज़रूरी काम आ गया है, इसलिए शाम को कॉल करता हूँ। उसने उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने रात आठ बजे उसे दो बार कॉल किया। उसने कॉल स्वीकार नहीं किया। मैं ग्यारह बजे तक इंतज़ार करता रहा कि अब कॉल आयेगी कि तब। इन्तज़ार की घड़ियाँ लंबी होती जा रही थीं। अब मेरा पारा गर्म हो गया। मुझे अपने ऊपर फिर ग़ुस्सा आ गया कि मैं कर क्या रहा हूँ। मैं उसका इंतज़ार कर रहा हूँ जिसको मेरी ख़बर तक शायद नहीं है। मैं सोचा कि जब उसकी तारीफ़ में इतने शब्दों को ज़ाया कर सकता हूँ तो उसकी खिंचाई करने के लिए तो थोड़े शब्द बनते हैं। मैंने उसे संदेश भेजा। संदेश कुछ इस प्रकार था-

“मैं बकलोल कुछ बकलोली करना चाहता हूँ। यार, अब मैं बार-बार उस दिन को कोसता हूँ जब तुम मेरे बगल आकर खड़ी हो गई थी कार्यशाला में। उससे पहले मैं नादान, एक कोने में अपने में मस्त रोता गाता लड़का हुआ करता था। संयोग ही था, नहीं तो कोई लड़का ही वहाँ आकर खड़ा हो जाता तो कितना अच्छा होता। फिर पता नहीं क्यों तुम्हारे होने ने मुझे साहस दे दिया जिसका असर मुझपर आज तक है। ऐसा लगता है कि तुम्हारा कोई साया मेरा पीछा कर रहा है। मैं उस साये को पकड़ने की कोशिश करता हूँ फिर डर जाता हूँ। मैं आज भी तुम्हें फ़ोन लगाता हूँ तो मेरी अंगुलियाँ काँपती हैं। हलक़ सूख जाता है मेरा। ‌बस इस कारण कि मैं तुम्हें किस हैसियत से कॉल कर रहा हूँ। दोस्त तो हम बस कहने के रहे हैं। यहीं आकर मैं अटक-सा जाता हूँ। फिर कोई चीज़ मुझे पीछे की तरफ़ धकेलती है। मैं पीछे तो हट जाता हूँ लेकिन मेरा मन‌… मैं इस मन का क्या करूँ। क्यों तुम्हारा चेहरा मेरी आँखों के सामने लाकर खड़ा कर देता है। कल का मैसेज मैंने तुम्हें ही किया था। मगर पता नहीं क्यों, मैं डरता हूँ सही बात कहने में। [दरअसल मैंने उससे झूठ बोला था कि कल का सन्देश किसी और को भेज रहा था गलती से तुम्हें भेज दिया। इसलिए बाद में डिलीट कर दिया।] ऊपर से तुमने कोई उस पर रिस्पोंस नहीं किया, इसलिए भी मैंने डिलीट कर दिया।

मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए था सिवाय उस आवाज़ के जिसने मुझे जीवन का पहला अहसास कराया था कि मेरे भीतर भी आत्मविश्वास है। मैं कुछ कर सकता हूँ। देखो न, उसके बाद मैंने बहुत कुछ जीवन में पाया। यह कहानी भी उसी आत्मविश्वास की परिणिति है। शायद तुम डरती होगी मुझे तुमसे प्यार हो जाएगा। या यह सब पढ़कर लग रहा होगा कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है। लेकिन सौ फीसदी ऐसा नहीं है। मैं जो महसूस कर रहा हूँ उसके लिए शायद शब्द नहीं अभी मेरे पास‌। मुझे पता है कि प्यार क्या चीज़ होती है और दोस्ती क्या। दोनों के बीच एक बारीक-सा धागा होता है जो अलग करता है। मैं उस धागे को जानता हूँ, पहचानता हूँ। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कहीं तुम्हें कुछ गलतफ़हमी न हो जाए‌।

मैं बस तुम्हारी दोस्ती चाहता था। शायद अब नहीं। अब मन नहीं करता है। लड़कियों से दोस्ती यूटोपिया लगती है जो हो नहीं सकती है। अब मैं इस बात को मान गया हूँ। मुझे पिछले महीनों से बहुत मानसिक दिक्कत आ रही है। मैं उससे लड़ रहा हूँ। उसके कारणों में तुम दूर-दूर तक नहीं हो। लेकिन इधर कुछ दिनों से लगने लगा कि इसमें तुम भी आ रही हो। तुमसे दोस्ती का ही हाथ माँगा था। लेकिन जैसे पता नहीं क्यूँ , तुमको ऐसा लगता है कि जीवन में तुम बहुत व्यस्त हो। माना कि व्यस्त हो, लेकिन ये न हो कि जीवन की व्यस्तता में मानवीय मूल्यों को भूल जायें। तुम्हें आज मैसेज करो, तुम्हारा रिप्लाई घंटों बाद आता है या एक दिन बाद। व्यस्त हो, हो सकता है कि समय न हो। लेकिन किसी चीज़ का जवाब देने में चंद सेकेंड ही तो लगते हैं।

रोना जैसा मुँह हो जाता है मेरा। मैं समझ नहीं पाता कि ऐसा क्या मैंने तुममें देख लिया कि तुम्हारी दोस्ती के लिए मरा जा रहा हूँ ! और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत (दोस्ती) के सिवा। यह सोचकर बहुत कोफ़्त होती है। आज मुझे यह सब लिखते हुए बहुत ग्लानि का अनुभव हो रहा है। शरम आ रही है मुझे ख़ुद पर। मन कर रहा है कि ख़ूब रोऊँ बैठकर कि तुम्हारी दोस्ती को भूल जाऊँ। मन कर रहा है कि तुम्हें हर जगह से ब्लॉक कर दूँ। इसलिए नहीं मैं तुमसे किसी तरह की घृणा करता हूँ , इसलिए कि मैं तुम्हें देखूँ न। क्योंकि दिखायी पड़ते ही सब याद आ जाता है। फिर वही सब ड्रामा।

मैं भूलने के जतन तो अभी नहीं कर पा रहा हूँ लेकिन आज से कोशिश करूँगा। आज तक मैंने जो भी कोशिश की है, सफल रहा हूँ। इसमें भी हो जाऊँगा। मैं ठीक हूँ। आराम से हूँ। आराम से रहूँगा। बस, यह कसक रहेगी जीवन में। गुड नाइट, दोस्त। हाँ, यह मत समझना कि मैं लेखक जैसा कुछ हूँ, इसलिए लिख देता हूँ। मैं कोई लेखक नहीं हूँ, इसे मैंने लिखा है। तुम्हें जीवन में सबसे अच्छे दोस्त मिलें। ख़ूब आगे जाओ। मस्त रहो।”

यह सन्देश लिखने के बाद लगा कि जोंकें मेरे सिर से चिपक गयी हैं। मैं तुरंत सड़क पर तेज़ी से दौड़ा, लेकिन आज मुझे कोई आराम नहीं मिल रहा था। बाद में मैंने नमक का डिब्बा उठाया जो भरा हुआ था। दो लीटर पानी के बोतल में दो मुट्ठी नमक मिलाया। फिर उसका घोल बनाया और एक साँस में ही उन्हें पी गया। पीते ही मुझे लगा कि मेरी नसें ढीली हो गयी हैं और शरीर लाल। पहले मुझे आराम मिल जाया करता था इतने से ही, लेकिन आज तो लग रहा था उसका भी कोई असर नहीं पड़ रहा है। मैं अभी सशंकित था और पहचान नहीं पा रहा था कि आख़िर क्या है जो मुझे अन्दर से खाये जा रहा है। जोंकों को अभी तो मैंने मार ही दिया हैं, फिर अभी क्या बचा हुआ है जो कचोट रहा है। फिर मैं बिस्तर पर गिरा और सो गया।

पूरे दो दिन मैं सोया रहा। फ़ोन बंद था। किसी ने जहमत भी नहीं उठायी कि चलकर देख आये, मैं जिन्दा भी हूँ या मर गया। इसमें उनका कोई दोष नहीं था। दरअसल, मैंने ह्वाट्सअप पर स्टेटस लगाया था कि दो दिन तक मुझे कोई कॉल या मैसेज करके परेशान न करे। दो दिन बाद जब मैं सोकर उठा तो भूल गया कि कभी मेरे साथ कुछ बुरा हुआ था या किसी ने किया था। मैं सुबह जब जगा तो जोंके मेरे मस्तिष्क से कोसों दूर थी। आज सब कुछ बदला हुआ था। मैं जहाँ रहता हूँ, उसके सामने ही छोटे बच्चों का स्कूल है। आज बहुत दिन बाद लगा कि मुझे उनकी किलकिलाहट सुनाई दे रही थी। बुलबुल अमरुद के पेड़ों पर बैठी कलरव कर रही थी। मैंने उठते ही इन दृश्यों को मन भर देखा। अमरुद की नयी आ रही कोपलों और फूलों को छुआ। बड़ी देर अपने गमले में लगे पौधों को देखता रहा। मैं यादों के कुँए से बाहर आ चुका था। उसके बाद मोबाइल को एयरप्लेन मोड से हटाया। हटाते ही उसके कॉल्स आने शरू हो गये। ये कॉल्स मुझे ऐसे लगे जैसे कोई अजनबी सुबह रास्ते में मिल गया हो और कहा हो कि मैं आपको पहचानता हूँ और मैं मुँह दूसरी तरफ़ करके निकल गया होऊँ। अबकी बार मैं उस कुँए में उतरना नहीं चाहता था। मेरा अपना आत्म मैं कितना गिरवी रख सकता हूँ। मैंने कम से कम प्रति-उत्तर तो दे दिया कि यार, मुझे बात नहीं करनी है तुमसे। कॉल मत करो।

सही बताऊँ तो मैं सब कुछ भूल गया था और अब मैं उसे पुनर्सृजित नहीं करना चाहता था। उसके कॉल्स आने के थोड़ी देर बाद मैं सोया हुआ था कि अचानक लगा कि मेरे चारों ओर चुप्पियों से कायांतरित जोंकों ने फिर अपना घर बनाना शुरू कर दिया है। ऐसा लग रहा था कि उसका कोई अंश मेरे भीतर बाक़ी रह गया था जो एक बार फिर अपना कुनबा बढ़ाने में लगा हुआ था। अब फिर से उन्हें मारने के लिए वही प्रक्रिया अपनाने का मतलब था जान से हाथ धोना। अब मैं नि:सहाय था। मैंने अपने शस्त्र रख दिये थे। मैं कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। वे मुझे चारों ओर से बिंध रही थीं। बार-बार आँखों के सामने उसकी तस्वीर आ जाती। मैंने उसका अंतिम तोड़ निकाला। कल ही विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ ख़रीद कर लाया था। सिरहाने ही पड़ी हुई थी। उसे उठाया और पढ़ने लगा। अब मन का भटकाव हाथी पर सवार होकर खिड़की के उस पार चला गया। मुंडेर पर दो बुलबुलें आकर एक-दूसरे पर स्नेह बरसा रही थीं। मैंने तड़ाक से एक फोटो खींची। जब बाहर निकला तो देखा कि दोनों गमले पर बैठी हुई हैं। मुझे लगा कि पानी की खोज में होंगी दोनों। ‌ मैं नये लाये हुए प्लास्टिक के कटोरे में पानी रखकर वापस खिड़की से आ गया।

तभी प्रज्ज्वल का कॉल आया। भैया! कब आ रहे हैं कटरा? अरे! आ रहा हूँ मैं अभी। मेरे जवाब में एक बेरुख़ी थी जो वह नहीं भाँप पाया। खिड़की से हाथी अंदर आता, इससे पहले ही मैं निकल गया कटरा। वहाँ वह अपनी अप्रकाशित कविता की पांडुलिपि लेकर बैठा था। उसने मुझे दिखाया तो मैंने बेमन से उसे ऊपर-नीचे करके देखा। फिर वहीं लुढ़क गया। हमारी दोस्त मण्डली का एक सदस्य अनूप तख्ते पर बैठा था। मैंने उससे कहा कि कल एक लड़की ने मुझे बहुत डाँटा। मुझे बहुत ख़राब लगा। इलाहाबाद के इतने साल के जीवन में किसी लड़की ने मुझे ऐसे नहीं डाँटा था। वह भी मेरी भावनाओं की वजह से कोई मुझे डाँट देगा, इसका मुझे अंदेशा नहीं था। इस उम्र में आकर मैं अब यह सब क्या बकलोली कर रहा हूँ। मेरा तो दिमाग़ ख़राब हो गया है। मुझे कल से अच्छा नहीं लग रहा है। तभी हमारी दोस्त मण्डली का एक और सदस्य रत्नेश भी आ गया। मैंने उससे भी कहा कि यार, दो दिन से कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मेरे कहते ही उसने अपना दुखड़ा रोना शुरू कर दिया। कहा कि हाँ, मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। ‌ऐसा लग रहा है कि ज़िंदगी बेरंग हो गयी है। ज़िंदगी का कोई मक़सद नहीं बचा है। ऐसा लग रहा है कि बेवजह जिये जा रहे हैं। क्यों जी रहे हैं, इसका कुछ भी पता नहीं है। तभी प्रज्ज्वल टपक पड़ा और बोला कि भैया! देखिए न मुझे कल असाइनमेंट जमा करना है। फलाना काम करना है। ये करना है, वह करना है। मैंने उसे डपटते हुए कहा कि अरे यार, तुम अभी बच्चे हो, तुम क्या जानो इस उम्र की तासीर कैसी होती है। असाइमेंट जमा करना कौन-सा बोझ है, बे! यह तो होता रहता है। हम लोग जिस रंग की बात कर रहे हैं, वह तुम नहीं समझ पाओगे। जीवन का असली रंग चला गया हमारे जीवन‌ से। जिस उम्र में हैं हम, यहाँ हमें बेरोज़गार नहीं रहना था। पीएचडी भी कोई काम है! काम ऐसा हो कि जैसे दुनिया में और क्या हो रहा है, इससे हमें कोई मतलब ही न हो। क्या समझे? ऊपर से इतना अतिसंवेदनशील जीवन क्रूर होती दुनिया में लेकर कहाँ जाएँ। कहीं कोई मज़दूरी का भी काम कर रहे होते तो कम-से-कम खुश तो रहते। जीवन इतना खलिहर है कि बदरंग हो गया है।

वहाँ से हम विदा हुए। मैं चुंगी होते हुए झूँसी आया। मेरे दिमाग़ में बस एक ही बात चल रही थी कि सच में ज़िंदगी बदरंग और बेरंग हो गयी है। कहीं कोई रंग नहीं। उत्साह नहीं। आधी से थोड़ी ही कम की उम्र तक आते-आते लगने लगा है कि जीवन पूरा हो गया। मैं पुलिस चौकी उतरा। आज रविवार था। यातायात की बत्तियाँ आज पीली ही रहती हैं। मैं यही सोचते हुए बेधड़क सड़क पर निकल गया। सोचा भी नहीं कि कोई गाड़ी आकर मुझे उड़ा देगी ओर मेरे चीथड़े हो सकते हैं। ऐसी बेरंग ज़िन्दगी का क्या मोल! पार होकर कमरे पर आया। दोस्त जीवन की सबसे अनमोल धरोहर हैं। उनसे बस मिलकर आया और मेरे विचार उसको लेकर बदल गये। उसने एक फोटो व्हाट्सएप स्टेटस पर डाली थी। मैंने उस पर प्रति-उत्तर देते हुए उसके टेबल की एक तस्वीर माँगी। उसने मुझे भेज दी। मैंने उसे बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल की पंक्तियों के साथ शेयर कर दिया-

दिल उस को‌ आप दिया आप ही पशेमां हूँ

कि सच है अपनी नदामत कहूँ तो किससे कहूँ

मैं खाना खाया और छत पर खड़े आधे घंटे तक टहलता रहा। इस दौरान मैंने अरिजीत सिंह के शोक से ओतप्रोत गानों की सूची लगा दी। इधर-उधर टहलता और सोचता रहा कि मैं तो मुहब्बत में इतना कभी बेचैन नहीं हुआ। न आहें भरीं, न आसमान की तरफ़ देखा। फिर इस दोस्ती के लिए मेरा दिल क्यों तड़प रहा है? ऐसा क्या है इस दोस्ती में कि मैं इसमें पिसा जा रहा हूँ? सोचते-सोचते मैंने मोबाइल उठायी तो उसमें उसका संदेश तैर रहा था, “इट्स ओके।” मेरे क्षमा माँगने  के बदले में आया उसका प्रति-उत्तर था। बस, इतना ही। और कुछ भी नहीं कि मैं तुम्हें कॉल करती हूँ या कोई बात नहीं। इस बार मैंने बिना डरे बेहिचक उसे कॉल लगायी। इस बार न मेरे हाथ काँपे न अंगुलियाँ। कॉल व्यस्त बता रहा था। अब बस पूरी हो गयी दोस्ती की नौटंकी। अब इसका पटाक्षेप करते हैं। यह कहते हुए मैं वापस कमरे में आया। इस बार मैं अलविदा संदेश लिख रहा था। मैंने इसे अंग्रेज़ी में लिखना बेहतर समझा ताकि उसे साफ़-साफ़ समझ आ जाए।

सन्देश भेजने के बाद मैं उसे ब्लाक करने ही जा रहा था कि मोबाइल की घंटी बजी। उसी का कॉल था। एक बार फिर मेरे हाथ काँपने लगे। कॉल उठाने से पहले ही मेरा गला सूख गया। मैं उठा। पहले पानी पिया। कमरे से बाहर निकला। कॉल उठायी-

मैं : “हाँ, हैलो।”

वह :  “हैलो।”

मै : “हैलो।”

वह : “आवाज़ नहीं आ रही है क्या?”

मैं : “आ रही है।”

वह : “फिर बोल क्यों नहीं रहे हो, बोलो?”

कुछ सेकेंड का सन्नाटा पसरा रहा।

वह : “हाँ बोलो। कैसे हो?”

मैं : “ठीक हूँ।”

वह : “हाँ, अब बताओ क्या बात है?”

मैं : “कोई बात नहीं है।”

वह : “फिर वह मैसेज क्या है जो तुमने भेजा है।”

फिर एक सन्नाटा पसर गया। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि बताओ न, वह संदेश क्यों भेजा तुमने।

मैं : “क्या बताऊँ?”

वह : ”बताओ न। ऐसे संदेश मुझे क्यों भेज रहे हो। मैं बहुत व्यस्त रहती हूँ। तुम्हारे लिए फ्री नहीं बैठी हूँ कि जैसे ही संदेश भेजा और प्रति-उत्तर आ गया। मैं कोई गुलाम थोड़े न हूँ तुम्हारी कि तुमने संदेश भेजा और हमने तुरंत प्रति-उत्तर दे दिया। जब मेरा मन होगा, प्रति-उत्तर दूँगी; नहीं तो नहीं दूँगी। इसमें तुम मुझे क्यों निर्देशित करोगे कि मेरे संदेश का प्रतिउत्तर तुमने क्यों नहीं दिया। नहीं दूँगी मैं। और ये क्या, ज़्यादा पज़ेसिव हो रहे हो! माना कि मैं तुम्हारी दोस्त हूँ तो इसका क्या मतलब कि मैं रोज़ तुमसे बातें करूँ। चैट करूँ। मेरी ज़िन्दगी में क्या कम भूचाल हैं जो अब तुम आ गये हो! जब भी बात की, कभी मेरे बारे में पूछा। हमेशा अपना रोना तो रोते रहते हो। कभी मुझे भी सुने हो कि मेरे जीवन में क्या चल रहा है? और तुम मुझे नहीं सिखाओगे कि मैं कैसे रहूँगी। तुम होते कौन हो मुझे कहने वाले कि तुमने मेरे सन्देश का प्रति-उत्तर नहीं दिया।“

मुझे लगा कि उसका गुस्सा ठंडा हो गया होगा। लेकिन यह क्या, उसके भीतर तो अंगारे जल रहे थे। मुझे लगा कि यह सही समय है कि मैं अपने भीतर पनप आयी जोंकों को इन अंगारों में झोंक दूँ, लेकिन इसमें एक ख़तरा भी था ख़ुद को जला लेने का। मैं यह ख़तरा उठाने के लिए  तैयार था। ‌कुछ पल फिर सन्नाटा छा गया। मेरा गला सूख गया। ऐसा लगा कि मेरे गले में जोंके भर गयी हैं।  मेरे हलक़ से आवाज़ निकल ही नहीं रही थी। कुछ सेकंड मैंने बस गहरी साँस ली। फिर पता नहीं कहाँ से मेरे दिमाग़ में आया कि उस तरह तो बड़बड़ाते रहते हो। अब सामने कोई आ गया तो बोलती बंद। मुझमें हिम्मत आ गयी। मैंने अपना हाथ अपने हलक़ में डाला और गले में फँसी जोंकों को निकालकर बाहर फेंक दिया। अब समय था उसका प्रति-उत्तर देने का। हाँ, मैं इस बात का दोषी ज़रूर हूँ कि मैंने तुमसे अपने भावनाएँ ज़्यादा ज़ाहिर कर दी, तो क्या तुम्हारे लिए भावनाओं का कोई मतलब नहीं है? मैंने कहना शुरू किया कि यार, जानता था कि तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी व्यस्त हैं। मैंने पिछले दो सालों में कभी तुम्हें परेशान किया? किसी भी तरह? पता नहीं क्यों, मुझे बार-बार लगता था कि मैं तुमसे दोस्ती एकतरफ़ा तो नहीं थोप रहा हूँ। इसलिए कि तुम मेरे संदेशों का जवाब नहीं देती हो। जवाब देती भी हो कभी घंटों तो कभी-कभी एक दिन बाद। ऊपर से कॉल करो तो उठता नहीं। फिर तुम कॉल बैक भी नहीं करती। कल जब मैंने तुम्हें दो बार लगातार कॉल किया तो तुमने कोई जवाब नहीं दिया। मुझे बहुत बुरा लगा तब जब बारह बजे तक तुम्हारा न कोई संदेश आया न कॉल। इसलिए मैंने भावनाओं में आकर तुम्हें वह संदेश भेज दिया। अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा करना। मैं बहुत संवेदनशील हूँ। मुझे थोड़ी-सी बात भी अन्दर से भेद देती हैं। कल मेरे आत्म को झटका लगा कि तुम्हारे सामने मेरी क्या औक़ात है! कुछ भी तो नहीं! मेरे सामने यह सवाल साये की तरह खड़ा रहता है कि मैं ही दोस्ती का भ्रम पाले बैठा हूँ क्या? ऐसा लगता है मैं जेम्स स्काट की ‘हिडेन रेसिस्टेंस’ का वह दमित और शोषित हूँ, जिसको प्रतिरोध भी मूक या अदृश्य रूप से ही करना पड़ता है।

उसने मुझे ध्यान से सुना। फिर उसकी बातों में एक बेरुखी उतर आयी। उसने फिर उन्हीं बातो को दोहराया कि देखो मैं तुम्हारे लिए फ्री नहीं हूँ कि जब तुम सन्देश भेजो तो मैं तुरंत प्रति-उत्तर दूँ। प्रति-उत्तर देने में मुझे समय लगता है और तुम्हारे चाहने से मैं कभी भी नहीं प्रतिउत्तर दूँगी। तुम ज़्यादा ही अपेक्षा कर रहे हो मुझसे। यह बात ठीक नहीं है। मैं रोज़-रोज़ तुमसे बात नहीं कर पाऊँगी। तुमने लिखा था न कि ब्लॉक कर दूँगा। कर दो ब्लॉक, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम मेरी प्राथमिकता में दूर-दूर तक नहीं हो। क्या समझे? कुछ समझ आया?

जोंकें मेरे शरीर के सभी अंगो में फैल चुकी थीं। अब मैं रोने या चिल्लाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था। मैंने रोना चुना। चिल्लाने से कालोनी के और लोगों के आ जाने का ख़तरा था। मैंने कहा कि कब मैंने तुमसे रोज़-रोज़ बात की है। दो साल में पाँच बार हमने बातें की हैं। तुम न दो प्रति-उत्तर, भाई। उसके लिए मैं तुम्हें क्यों आदेशित करूँगा। इस बार मेरे गले में थूक भी शेष नहीं रह गयी थी। मेरी आवाज़ भर्रा आयी थीं। मैंने आज तक किसी लड़की से ऐसे बात नहीं की थी। दो साल हो गये हमें एक दूसरे को जाने। मैंने उससे कहा कि तुम बताओ मैंने कितनी बार तुम्हें कॉल किया। चार-पाँच बार, बस। अब इसको तुम कह रही हो मैं तुमसे ज़्यादा अपेक्षाएँ रख रहा हूँ। हाँ, हो सकता है कि पिछले कुछ दिनों से ऐसा लगा हो तुम्हें, लेकिन क्या एक दोस्त की हैसियत से तुम किसी का दुःख-दर्द नहीं समझ सकतीं हो! या अपना ही दुःख कह नहीं सकती! अगर यह भी नहीं करना है तो फिर काहे के दोस्त। ऊपर से मैं ख़ुद तुम्हें कॉल करने या संदेश भेजने से डरता हूँ कि कहीं तुम्हें बुरा न लगे। हमारी दोस्ती तो अभी ठीक से अंकुरित भी नहीं हुई है। मैं इसलिए हमेशा ख़ुद से कोशिश करता हूँ कि अपनी तरफ़ से कोई ग़लती न करूँ।

लेकिन पिछले दिनों जब तुम किसी से कॉल पर बात कर रही थी, मैंने तुम्हें कॉल किया। कॉल वेंटिंग में था। दो बार किया। दोनों बार कॉल वेटिंग में था। मैंने सोचा कि चलो फ्री होकर हो सकता है तुम कॉल करो। मगर कोई कॉल नहीं आयी मुझे, न कोई संदेश। फिर काहे की दोस्ती भाई! उस दिन‌ मुझे लगा कि मैं एक खाई में उतर तो नहीं रहा जहाँ सिर्फ़ अँधेरा है? जहाँ तक रही दुःख दर्द बाँटने की बात तो जब तुम मुझसे कभी बात करोगी तब न मैं तुम्हारे भी दुःख दर्द पूछूँगा! मैं अपने दुःख तुम्हें इसलिए बताता था कि मुझे लगता था कि तुम मेरी बातें समझोगी। अब मैं कॉल करता हूँ तो उठाते नहीं हो। फिर कॉल बैक भी नहीं करती हो। चलो कॉल बैक नहीं किया तो कम से कम कोई संदेश तो भेज ही सकते हो कि इस अमुक कारण से बात नहीं हो पायी। मैं इसे किस तरह की दोस्ती मानूँ?

हाँ, माना कि मैं आवारा फिरता हूँ। पीएचडी करना आवारगी ही तो है। चौबीस घंटे में सोलह घंटे उपलब्ध हूँ मैं। अगर कोई दोस्त मेरा रात के बारह बजे भी मुझे कॉल करेगा तो कॉल उठाऊँगा। अगर उसने कह दिया कि अभी तुम आओ तो चला भी जाऊँगा। लेकिन तुम्हारी दोस्ती में दोस्ती कम, शर्त ज़्यादा है। भावनाओं का दूर-दूर तक कोई नामो-निशान नहीं है। भाड़ में जाये ऐसी दोस्ती-यारी। जो आपका कॉल अपने हिसाब से उठाये, वह क्या ख़ाक दोस्त हुआ! वह मुझ पर चिल्लायी कि तुम भाड़ में जाओ। आज के बाद मुझसे सम्पर्क करने की कोशिश भी मत करना, जाहिल इन्सान। मैंने एक लम्बी और गहरी साँस ली। कॉल कट कर दिया। उसे हर उस जगह से ब्लॉक कर दिया जहाँ से किया जा सकता था। जैसे ही मैंने उसे ब्लॉक किया, लगा कि चमत्कार हो गया। मेरे शरीर में सबकुछ ठीक था। कही कुछ भी नहीं था सिवाय मेरे। जोंकों को मैंने ब्लॉक के नमक में डूबो दिया। ब्लॉक के डिब्बे में बस जोंक ही जोंक थीं जो अभी तक मेरी नसों में दौड़ रहीं थीं। मैंने उसे उठाकर गंगा में फेंक दिया। 000

 

मुझे उसे ब्लाक किये साल भर बीत गये। मतलब जोंकों को मरे भी साल भर से ज़्यादा हो गया था। जैसे दिन बीते वैसे ही उसकी याद कम होते-होते दिल के पटल से मिट गयी। वह कोई मेरी महबूबा तो थी नहीं कि मैं उसे मरते दम तक याद करने वाला था। मेरा शोधकार्य अच्छा चल रहा था। मुझे ऐतिहासिक दस्तावेज़ और किताबे पढ़नेऔर संग्रहण के लिए दिल्ली जाना था। शरद धीरे-धीरे ख़त्म होकर बसंत को भी पार कर गयी थी। इलाहाबाद में उससे पहले कुम्भ मेला लगा हुआ था। ऐसे में उस समय कही भी यात्रा करना नामुमकिन-सा था। मैंने अपने शोध निर्देशक से अभिलेखागार में बैठने की अनुमति पहले ले ली थी। मैं जब दिल्ली के लिए निकला तो इलाहाबाद में इतनी गर्मी हो चुकी थी कि इलाहाबादियों को अभी से हीटबेव का एहसास होने लगा था। मुझे अभिलेखागार में काम करते हुए पाँच दिन हो चुके थे। मुझे मेरे काम से सबंधित काग़ज़ात एवं किताबें अभी कम मात्रा में मिल पायी थीं। मेरे पास अभी दो दिन का समय और था।

आज जब मैंने पुस्तकालय सहायक से पूछा कि मुझे सेटलमेंट से सबंधित इंडेक्स बता दीजिये तो वह मेरे ऊपर भड़क गया। कहने लगा कि आप अपने सुपरवाइज़र से पूछ लीजिये। उन्होंने आपको नहीं बताया कि इंडेक्स कैसे देखते हैं? उसने रौबीले अंदाज में पूछा कि कौन हैं आपके सुपरवाइजर? फिर पूछा किस यूनिवर्सिटी से आये हो? मैंने कहा कि सर, पन्त संस्थान से। आपको वहाँ नहीं सिखाया गया कि इंडेक्स कैसे देखते हैं। मैंने मन ही मन कहा कि भो..डी वाले बताना हो तो बताओ, ज़्यादा ज्ञान न दो। यह कहकर (मन ही मन) मैं निकल ही रहा था कि एक विदेशी शोधकर्ता उसके पास गयी। उसने उसके सम्मान में अपना सर तक झुका दिया। आइये मैम… उसके लिए तुरंत चाय का आर्डर चपरासी को देते हुए उससे पूछा कि यस मैडम, कैन आई हेल्प यू? उसने वही कहा जो बात थोड़ी देर पहले मैंने कही थी। कैन यू टेल मी एबाउट द इंडेक्स। यस यस मैडम, लेट मी शो यू द इंडेक्स। वह सीढ़ियों से होता हुआ उन्हें ऊपर ले गया और लगा इंडेक्स दिखाने। मुझे यह देखकर फिर हीनताबोध का वही एहसास हुआ जिसे मैं अपने सिर पर ढोता रहता हूँ।

मैंने अपना अवलोकन वाला दिमाग लगाया कि यह कार्यालय वाले कार्य कैसे करते हैं। भारतीयों को आप कही भी ले जाकर बसा दीजिये, वे वहाँ एक श्रेणीक्रम का सृजन कर ही देते हैं। यहाँ भी उन्होंने यही श्रेणीक्रम बना रखा है। अगर आप हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से आ रहे हैं, तब तो अधिकारी आपके क़दमों में गिर जायेंगे कि महाराज अपने हमारे यहाँ आकर हमारा उद्धार कर दिया। आप फ़ाइल संख्या का नाम लेंगे और वह चंद सेकंड में आपके क़दमों में होगी। अगर आप जेएनयू, दिल्ली या जामिया जैसे भारत के प्रतिष्ठित संस्थान से आ रहे हैं तो आपको विदेशियों वाली सुविधा तो नहीं मिलेगी लेकिन सम्मान पूरा मिलेगा। अधिकारी आपकी बातें सुनेंगे। फ़ाइल भी समय पर आपको मिल जायेगी। वहीं अगर आप किसी इलाहाबाद, जौनपुर, कानपुर जैसे युनिवर्सिटी से आये हुए हैं तो आपकी स्थिति कुत्तों जैसी होगी। कोई भी आपको दुर-दुराकर चला जायेगा। मुझे उसने दुर-दुराकर भगा दिया था।

मैं उसे गालियाँ देता हुआ इंडिया गेट की तरफ़ बढ़ा जहाँ सैलानियों की भीड़ लगी हुई थी। मैं उसकी नर्म मुलायम घास पर लेटना चाहता था ताकि मेरे अंतर्मन को कुछ संतोष हो। आज फिर एहसास हुआ था कि कहाँ पीएचडी के पचड़े में फँस गया। आँखें फिर से भींग गयीं मेरी।

मैं लॉन में पेड़ों के नीचे सो गया। इतने कोलाहल के बीच अचानक से मुझे एक लड़की की आवाज़ सुनायी दी। मेरा दिल ज़ोर से धड़का। मैं उठकर खड़ा हो गया और उस आवाज़ का पीछा करने लगा। आवाज़ कर्तव्य पथ के किनारे पर बनी नहरों को पार करने के लिए बने छोटे से पुल से आ रही थी। मैं आगे बढ़ा। दृश्य देखकर अवाक् रह गया। यह तो वही है! यहाँ कैसे आ गयी? मेरे मन में हज़ारों सवाल एक साथ कौंधे। उसने मुझे नहीं देखा था। मैं धर्म संकट में फँस गया। अब मेरे सामने दो रास्ते थे जिनमें से एक तुरंत चुनना था। पहला कि मैं उसके सामने जाऊँ और दूसरा कि न जाऊँ। मेरी रागनियों ने मेरी पुरानी तरंगे छेड़ दीं। ऐसा लग रहा था कि कोई मुझे उसकी तरफ़ धकेल रहा है। मैं खिंचा चला जा रहा हूँ उसकी तरफ़। बस कुछ ही दूरी थी, उसने मुझे देखा तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया। हम थोड़ी देर के लिए ठहर से गये। हमारे साथ लगा कि दुनिया भी कुछ पल के लिए ठहर गयी है। हमने अपनी-अपनी चुप्पियाँ तोड़ते हुए एक साथ कहा कि तुम यहाँ कैसे? मैंने बताया कि मैं आर्काइव में आया हूँ, और तुम? उसने कहा कि मैं तो आजकल यहीं रहती हूँ। हम दोनों के बीच एक तीसरा आदमी भी था। आदमी नहीं, लड़की थी। तो मिलिए मेरी सबसे अच्छी दोस्त मनीषा से। मैंने कहा कि आपकी काफी तारीफ़ें सुन चुका हूँ। वह अचरज में पड़ गयी कि मैं उसके बारे मैं कैसे जानता हूँ। उसने पूछा। मैंने कहा कि इसने ही तो बताया था जब हम दोनों दोस्त हुआ करते थे किसी ज़माने में। अच्छा, तो तुम वही लड़के हो जिसको गाली दिये बिना महारानी का पेट नहीं भरता।

तीन सालों बाद मैंने पहली बार उसकी आँखों में देखा। क्या बला की खूबसूरत लग रही थी। आँखों को देखकर मन किया कि उन्हें आँखों में भर लूँ। आज बहुत दिन बाद उसे देखा था। ऐसा लगा कि उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग गये हैं। मेरी नज़रें तो बस उसकी आँखों पर टिक गयीं। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसकी आँखों की तारीफ़ एक शेर के साथ की, लेकिन कोई प्रति-उत्तर नहीं दिया उसने। मुझे पीछे तीन साल पहले देखीं उसकी आँखें याद आ गयीं। जब हम झील के किनारे खड़े होते तो उसकी आँखें पहाड़ पर चमकता हुआ अंतिम बिन्दु लगतीं जिसमें सब कुछ समाया हुआ हो। ठीक उसके ऊपर का चन्द्रमा उसकी ललाट बन जाता।

मुझे महसूस हुआ कि मेरे होने से उसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा है। वह व्यस्त होने का नाटक कर रही है। उसे देखकर मुझे याद आया कि वह अभी भी नहीं बदली है। कौन है दुनिया में जो इतना व्यस्त हो कि उसे काम ज़्यादा ज़रूरी लगे बजाय किसी के होने के। मैं अपने आपको गाली देने लगा कि पता नहीं किस ख़याल में इधर आ गया। इससे पहले जैसे मुझे कुछ भी याद नहीं था। जब तक मैंने इसे देखा नहीं था। इंस्टाग्राम पर भी उसकी तस्वीरें गाहे-बगाहे देख ही लेता लेकिन कुछ महसूस नहीं होता मुझे। मैं भूल गया था सब।

आज वह हु-ब-हू उसी परिधान में थी जो उसने समर स्कूल के अंतिम दिन पहनी थी। मुझे पता चल गया कि वह घूमने आयी है। उससे निगाहें मिलने पर मुझे लगा कि वह ठीक उसी तरह मुझे देख रही थी जैसे उसने उस दिन सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए देखा था। हमारी नज़रें अप्रत्याशित रूप से टकरा गयी थीं। मैं शरम से लाल हो गया था। मुझे तो उम्मीद भी नहीं थी उस अजनबी होते चेहरे को फिर देख पाऊँगा। मेरी नाउम्मीद निगाह ने जैसे ही उसे देखा, सब कुछ आँखों के सामने तैर गया। ऐसा लगा कि भूला हुआ कुछ भी नहीं था। सब कुछ दिमाग़ में सुषुप्तावस्था में पड़ा था। जैसे ही आँखों के कोटर में उसकी छवि बनी, वैसे ही सब आँखों में तैर गया।

एक बार लगा कि अरे, यह तो चमत्कार हो गया! लेकिन कैसे? समझ नहीं आया। उसकी आँखें पहले से ज़्यादा सुंदर लग रहीं थीं मुझे। पता नहीं क्यों? क्या इसलिए कि उसे बहुत दिनों बाद देख रहा था? या वाकई उसकी आँखें सुंदर हो गयी थीं? याद आया कि उसकी आँखों की सुंदरता उसकी व्यस्तता में छिपी है। कितना ही तो व्यस्त रहती है। मोबाइल की कुरूपता से लिथड़ी किरणें उसकी आँखों को कहाँ भेदने का समय पाती होंगी! ऐसे में आँखों का सुंदर हो जाना किसी फूल के पूरे शबाब पर खिल जाने जैसा लगा। शायद ऐसी ही आँखों को देखकर कभी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी प्रसिद्ध नज़्म की सबसे दिलकश पंक्ति “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है” लिखी होगी। ऐसी आँखों में डूबना कहाँ सबको नसीब! लेकिन हाँ, उसे देखा तो जा ही सकता है। ख़ूब तो देखा था मैंने उसकी आँखों को। तभी न बनी उसकी तस्वीर जो दिमाग़ में दर्ज हो गयी।

मैं चाहता था कि उससे बातें करूँ। ढेर सारी बातें। इसके लिए कितने ही जतन फिर मैंने किये। यहाँ तक कहा कि तुम्हारी याद आती रही बीते दिनों में, लेकिन वह लड़की पिघली नहीं। अंत में जब उसने कहा कि उसे काम की व्यस्तता है तो मैंने मन मसोसकर कह दिया, “जाओ अपना काम करो।“ कर भी क्या सकता था।

वह बड़ी बेरुखी से यह कहकर चली गयी कि उसे ज़रूरी काम हैं। बाद में कॉल करेगी। तब तक मैं उसका इंतजार करूँ। अब मैं क्या करूँ, यह मुझे समझ नहीं आ रहा था। फिर मैंने तय किया कि इंतज़ार करूँगा उसके‌ कॉल का, जैसे दादुर और किसान सावन का करते हैं। मैंने सावन की लिजलिजाती और पसीने से तर-बतर देह को सावनीय पदचाप की आहट में लगाया। तभी अचानक मेरे हृदय रूपी आकाश में स्मृतियों के बादल उमड़ने लगे। मैं संभाल पाता तब तक उन्होंने मेरे हृदय को घेर लिया। वे ऐसे बरसने लगे जैसे हथिया नक्षत्र हो। सब तरफ पानी ही पानी। पानी को पाते ही जोंकों ने फिर से जीवन का आकार लेना शुरू किया जिन्हें मैंने सालभर पहले ही मार डाला था। उनके जीवित होने के आभास मात्र से मैं भीतर से सिहर उठा। फिर सोचा कि क्यों न कॉल कर ही लिया जाय, हो सकता है कि इंतज़ार की घड़ियाँ कम हो जाएँ। उधर मोबाइल की घंटी बजी। कॉल उठ तो गया लेकिन अवरोध कहाँ पीछा छोड़ते हैं। आवाज़ कट रही थी। मैंने कॉल इस उम्मीद में काट दी कि… कि अभी उधर से तो कॉल आयेगी ही आयेगी, लेकिन नहीं आयी। मुझे अपने मन की चंचलता को बस में करना मुश्किल हो गया। मन ने आवाज़ लगायी कि अरे भाई, व्हाटसअप पर एक सन्देश ही भेज दे। मैंने सन्देश भेज दिया, लेकिन इंतज़ार में कुछ नहीं मिला सिवाय इंतज़ार के।

उसकी कल्पनातीत आँखें बहुत दूर चली गयी थीं। मुझे लगा कि अच्छा-ख़ासा जीवन चल रहा था, फिर क्यों मैं यहाँ आ गया। मैं आज दुखों के सागर में गोते लगा रहा था। नदी होती तो तैरकर बाहर आ जाता लेकिन समुद्र से कैसे निकलें। जोंकों का संसार फिर से मेरे भीतर पनप आया था। मैंने तुरंत ही अपने पर काबू पाते हुए उनके रक्तबीज को ख़त्म कर दिया। मैंने अपने मन से कहा कि क्या यार, ऐसा क्या रखा है उन आँखों में जो तुझे देखना ही है। और ऐसा क्या है उसकी बातों में जो तुझे उससे बात करनी है। मन को बड़ा समझाते हुए चार दिनों की पूर्वस्थिति में ले जाना टेढ़ी खीर हो रहा था मेरे लिए। रह-रहकर वे आँखें मेरी आँखों में तैर जातीं। फिर उसकी विस्मृति के लिए मैंने अपना सबसे बढ़िया जुगाड़ भिड़ाया कि मन को यह समझाया जाय कि भाई, वह तुमसे डरती है। तुम्हें इस लायक भी नहीं समझती और तुम हो कि मरे जा रहे हो। देखा नहीं, उसकी आँखें कितनी क्रूर हैं! उसकी आवाज़ में तुम्हारे लिए कितनी बेरुखी है। तुम्हें दिखायी और सुनायी क्यों नहीं देता? तुम क्यों उन्हें देखना और सुनना चाहते हो? इससे तुम्हें क्या ही मिल जाएगा सिवाय फिर से एक आह के? फिर भी मन समझ ही नहीं रहा था कि वे आँखें देखने में सुंदर नहीं हैं, उसमें क्रूरता का एक समंदर बहता है। उसकी बोली में एक कर्कशता है। न जाने क्यों, मन यह बात मानने को तैयार ही नहीं हुआ। वह बार-बार कहता कि नहीं, वे आँखें दुनिया की अब तक मेरी देखी आँखों में सबसे सुंदर हैं। बातों में देहाती रसगुल्ला का मीठापन हैं। बात रिस-रिस कर उसके दिल तक पहुँच गयी। दिल तो और भी नहीं तैयार यह मानने को वे आँखें किसी भी तरह क्रूर हैं। बात तो सही थी, अब तक देखकर तो पता चल ही गया था कि वे आँखें दुनिया की सुंदर आँखों में से हैं। उसकी बोली किसी कोयल से कम नहीं। अब मन-मस्तिष्क की लड़ाई समाप्त हो गयी। दोनों ने मान लिया कि उसकी आँखें मीनाक्षी की तरह हैं। दोस्ती के लिए भी इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं, आज पता चल गया था।

एक सवाल मुझे हमेशा खाये रहता कि दोस्त है वह मेरी, लेकिन कितनी गहरी ये तो मैं नहीं जानता था। ज़्यादा गहरी दोस्ती तो नहीं ही थी। गहरी दोस्तियाँ ठीक उतना ही याद आती हैं जैसे कि कोई प्रेमी। यह दोस्ती शुरू में तो ऐसी ही लगी थी, लेकिन गुजरते हुए वक़्त में कहाँ ही वक़्त रह जाता है! आज के ज़माने में जिसे वाइब कहते हैं, उसका मिलना दोस्ती में बहुत ज़रूरी है। कोई वाइब भी तो नहीं मिलती है दोनों की, तभी तो उसे कभी कुछ याद भी नहीं आया। नहीं तो दोस्तियाँ खीचती हैं दो लोगों को एक-दूसरे की तरफ़। मेरी जिस तरह की वाइब है, उसका किसी और से समान होना तो‌ मुश्किल है। मैं शांत, चुप, गंभीर, बकलोल, हमेशा ज्ञान की बातें करने वाला, किसी ख़राब चीज़ को‌ बर्दाश्त नहीं करने वाला, अति संवेदनशील, हीनताबोध से ग्रस्त मनुष्य हूँ। आजकल के ज़माने में तो ऐसे लोगों को संग्रहालय में रखा जाना चाहिए और दिखाया जाना चाहिए कि देखो कुछ साल पहले मनुष्य इस तरह का हुआ करता था। अब कहाँ मिलती मेरी किसी से वाइब!

मैं नहीं कह रहा कि उसकी वाइब अच्छी नहीं है। है, बहुत अच्छी है, लेकिन मैच नहीं करती शायद। तभी तो इतनी तेज़ी से बढ़ी दोस्ती में ब्रेक भी उतनी ही तेज़ी से लग गया। पिछले दिनों जब उसने व्यस्तता की चुनरी ओढ़ी, तब एक बहाना मिला उसकी दोस्ती से निकलने का कि “अरे जब उसके पास समय नहीं है तो तुम क्यों इतना परेशान हो, भाई!” मान लिया और भूल गया। भूल गया ऐसे कि जैसे बादल गुज़र जाते हैं और बिना यह चिंता किये कि बादल गुजर गया, हम दूसरा बादल देखने लगते हैं। इस बादल को ओझल हुए सालों गुज़र गये थे, फिर अचानक सामने आने पर उसका बरस जाना अचंभित कर गया। मै बैठा-बैठा सोचता रहा। क्या करूँ। समझ नहीं आ रहा था। मन सोचने लगा कि हो सकता है कि उसने शुरुआत में अच्छा एहसास कराने के लिए बात कर ली हो। इसलिए मुझे इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए था और भूल जाना चाहिए था। मैं था कि उससे दोस्ती करने के पीछे ही पड़ गया। ये भी न सोचा कि वह मुझे दोस्त मानती भी है या यूँ ही मैं पागल हुए जा रहा हूँ। हाँ, याद आया कि उसने अपनी तरफ़ से कभी भी मुझसे कुछ न कहा। बस मेरी बातों पर एक शब्द का प्रति-उत्तर मुझे उसकी दोस्ती की आभासी दुनिया में पटक देता। इसी को मैं दोस्ती समझ बैठा था।

फिर मुझे याद आया कि उसने पहली बार जब बातें की थी तो अपनी बातों का सिलसिला इस बात के साथ ही शुरू हुआ था कि उसका कोई बहुत क़रीबी दोस्त है और दोनों प्यार करते हैं। फिर अचानक से उसके बीच बातचीत बंद हो गयी। इसमें मेरा भी किया-धरा शामिल था। एक शाम दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्पस में मैं अपनी दोस्त के साथ बैठा हुआ था। मैंने देखा कि सामने उसका दोस्त बैठा है। मैंने चुपके से फोटो क्लिक की और उसे भेज दिया। उसने अपने मित्र को भेज दी। वह गुस्सा हो गया कि तुम मेरी जासूसी करा रही हो। फिर क्या उसे बहाने पर बहाने मिलने लगे। कभी उसने मेरे और उसके बीच होने वाले व्हाट्सएप चैट को भी देखा था। हम अक्सर प्रति-उत्तर में लव के इमोजीज़ भेजते थे। उसे वह भी ख़राब लगा। मेरा विपरीत विचारों के साथ होना भी उसे ख़राब लगा कि वह क्यों ऐसे लोगों के साथ रहती है। मतलब उसे बहाने चाहिए थे तो मिल गये। उसने एक से एक लांछन उस पर लगाये और उसे सब जगहों से ब्लॉक कर दिया। एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि उसने अम्बेडकरवादी, नारीवादी और सामाजिक न्याय के समर्पित इन्सान के रूप में अपनी छवि बनाकर अच्छी शोहरत और ढेरों मुकाम हासिल किये थे।

एक दिन यूँ ही अचानक उसका संदेश मोबाइल पर फ़्लैश हुआ। मैंने पूछा कि ठीक है सब? उसने कहा कि हाँ, सब ठीक-ठाक है। मुझे लगा कि उससे बात करनी चाहिए। मैंने कहा कि कॉल करूँ तुम्हें। उसने हाँ कहा। मैंने जब कॉल लगायी तो वह पहले तो सामान्य बातें करती रही। ‌फिर मैंने पूछा कि उसका व्यक्तिगत जीवन कैसा चल रहा है? वह फफक-फफक कर रो पड़ी। मैं उसका रोना सुनता रहा। ‌मुझे कोई अनुभव नहीं था कि ऐसे मामलों में क्या करते हैं। फिर मैंने उसे सांत्वना दी कि मैं तुम्हारे साथ हूँ किसी भी स्थिति में। जो तुम बता रही हो, उस हिसाब से उस आदमी को तुम बेहतर जानती हो। तुम मुझसे ज़्यादा समझदार हो। फ़ैसला तुम्हें करना है। फिर मैंने कुछ सलाह वग़ैरह दी जो उसके मानसिक सुकून के लिए ज़रूरी थी। मैंने कहा कि उसे जब ज़रूरत हो, याद कर सकती है। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ। मैं दोनों के व्यक्तिगत रिश्तों पर टिप्पणी करने से बचता रहा। इसलिए कि कहीं वह ग़लतफ़हमी न पाल ले कि मैंने उसे उकसाया है। उसके बाद उसका जीवन पटरी पर लौट आया। धीरे-धीरे वह सामान्य होती गयी। इस बीच मेरी कोई बात नहीं हुई उससे।

महीने बीत गये। मुझे मानसिक परेशानियों के बादलों ने फिर से घेरना शुरू कर दिया। इस बार जोंकों ने सीधे मेरे सिर पर हमला किया था। मेरा दिमाग़ अब उनका घर था। जब तक मैं समझ पाता, उन्होंने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया। इस बीच में मैंने उससे एक बार घंटे भर बातें की। मैंने अपनी परेशानियों का ज़िक्र उससे किया तो उसने मुझे कहा कि उसे ऐसा कोई अनुभव नहीं है, सो वह कोई सलाह तो नहीं दे सकती है। तुम किसी डॉक्टर को दिखा लो, उसने कहा। मैं उसे एक ऐसा दोस्त मानकर बात कर रहा था जो मेरी बातों को संवेदनशीलता से समझे, लेकिन लग रहा था जैसे वह मुझसे दूर भागना चाहती है। मैं उससे वैसे भी हल माँगने नहीं गया था। बस मैं चाहता था कि इन जोंकों के कारण मेरे शरीर में हो रही छटपटाहट से थोड़ी तो शांति मिलेगी। अगर उसने मेरी दोस्ती का हाथ ही थोड़े समय के लिए पकड़ लिया होता तो मैं शरीर में फैल रही जोंकों को मार सकता था। इसके बाद मेरी मानसिक परेशानियाँ बढ़ती गयीं। मैं पागलों-सा भटकता रहता। ऐसा लगता कि कोई मिले जिससे मैं सब बातें कह डालूँ। किससे कहूँ? यह यक्ष प्रश्न था मेरे लिए। अपनी प्रेमिका, दोस्त या आसपास के लोगों से कहने से मैं डर रहा था। इसलिए मेरी निगाह उसकी तरफ़ गयी कि उससे अगर मैं कुछ कहता भी हूँ और वह मुझे जज भी करेगी तो कोई बात नहीं। यहाँ से शुरू हुईं वे चीज़ें जो मैंने कहानी की शुरुआत में कही हैं। मैं बस उसका सहारा ढूँढ़ रहा था। ‌कुछ ही समय के लिए। लेकिन मैं लड़का था, लड़की होता तो सैकड़ों बाँह फैलाये खड़े मिलते। मैं उसे इस स्तर का दोस्त मानने लगा था कि उसे मैं अपने मन की बातें कह सकता हूँ। फिर शुरू हुआ मेरी उससे बातें करने की कोशिश का सिलसिला। वह स्वार्थी नहीं थी। समय की पाबंद भी नहीं थी। बात बस इतनी-सी है कि किसी के जीवन में आप कहाँ प्राथमिकता पाते हैं। फिर सारी व्यस्तता एक तरफ़ हो जाती है। मैं उसकी प्राथमिकता में दूर-दूर तक नहीं था। इसलिए उसके पास मेरे लिए समय सारिणी थी, जो उसने मुझे थमा दी थी। 000

 

मैं कर्तव्य पथ पर चलते हुए सोचने लगा कि उसको कैसा लगेगा यह सब जानकर, मुझे नहीं पता। लेकिन लगा कि कह देनी चाहिए वे बातें जो अभी महसूस हो रही हैं। मेरी बातें सुनकर उसे ग़ुस्सा आयेगा कि सब लड़के एक जैसे ही होते हैं। लेकिन मैं कैसे समझाऊँ कि मैं कम से कम बुरा लड़का तो नहीं ही हूँ। वह मानेगी भी? यह सोचकर मन बैठ जाता। डर लगता था कि कहीं दोस्ती भी न टूट जाए। अभी भी किस दोस्ती को मैं बचाना चाहता था। सच बताऊँ तो मैं ख़ुद भी नहीं समझ पा रहा था। सड़क पर चलते मेरे पैर में पत्थर टकराया तो मैं गिरते-गिरते बचा और फिर उसे एक मैसेज लिख मारा जिसके अंत में लिखा कि चलो भाई, अब गुस्सा भी हो जाओ तो क्या करूँ। जो मन में चल रहा था, बता दिया। डर लग रहा कि कहीं दोस्ती न तोड़ दो। कोई नहीं, अगर तोड़ दिया भी तो कोई ग़म नहीं। कम से कम तुमसे विश्वास करके मैं यह बात तुमसे कह पाया, यही मेरे लिए बहुत है। क्षमा करना,‌ दोस्त। मैंने एक यूटोपिया का सपना देखा था। सपने टूट ही जाते हैं। फिर आप उन्हें किसी तरह या किसी समय देखें। मेरा यूटोपिया शीशे का गिलास था। गिरा और टूट गया, आवाज भी नहीं हुई।

आज की शाम को मेरी ट्रेन थी इलाहाबाद की। मैं इलाहाबाद आ गया। मेरे शरीर में जोंकें भर चुकी थीं। या कहें कि शरीर ही जोंकों का हो गया था। मुझे बार-बार लगता कि मैं एक भैंस में बदल गया हूँ जिसके शरीर पर बस जोंक ही जोंक लटक रही हैं। मैंने कई बार तो मारा उन्हें नमक के घोल को पी-पीकर, जैसे भैंसों से चिपकी जोंकों को मारता था बचपन में। अब तक किसी तरह तो बचता रहा था। इस बार का मुझे नहीं पता था। इस बार इतनी तेज़ी से ये बढ़ जाएँगी, मैंने सोचा भी न था। ऐसा लग रहा था कि उसका कोई अंश मेरी पलकों पर बैठा उस पल का इंतजार कर रहा था जब मेरी आँखे उसकी आँखों से मिलनी थी। जैसे ही मैंने उसे देखा था, मेरी आँखे भर आयी थीं। सुषुप्त जोंक का अंश उसी पल के इंतजार में था। उसकी आँखों में बसी कड़वाहटों ने उन्हें दोगुनी शक्ति दे दी थी। मेरे पास ज़िंदा रहने का केवल और केवल एक ही रास्ता था कि मैं नमक का एक पूरा पैकेट लूँ। उसे एक बार में ही पानी में मिलाकर पी जाऊँ।

सुबह का समय था। बुलबुल मुंडेर पर आकर जा चुकी थी। स्कूली बच्चों की चहचहाहट शांत हो गयी थी। बगल के किराना स्टोर से मैंने एक किलो पैकेट का नमक ख़रीदा। दुकानदार ने हँसते हुए कहा कि क्या भैया, बड़े दिन बाद दिख रहे हैं। मैंने हँसते हुए कहा कि हाँ भैया, बाहर था कुछ दिन। मैंने पूरे नमक को पानी में मिलाकर एक घोल बनाया। मेरी साँसें थमी हुई थीं। मुझे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। धड़कनें एकदम स्थिर थीं। अगर ऐसा कुछ भी उल्टा होता तो मेरे ज़िंदा  रहने की आख़िरी उम्मीद भी चली जाती। मुझे पूरा घोल एक साँस में ही पीना था। मैंने बोतल को मुँह से लगाया और पीता ही गया। पीते ही लगा कि मेरे शरीर की नसें फट रही हैं। मेरा सिर सबसे पहले फटा क्योंकि जोंकें यही भरी हुई थीं। धीरे-धीरे आँख, कान, मुँह और नाक से वे बाहर आने लगीं। साथ में बाहर आता खून उस दृश्य को और दयनीय बना रहा था। घंटो बीत गये। जब मैंने अंतिम बार देखा तो मेरा कमरा मुझे जोंकों से भरा हुआ मिला जो खून में डूबा हुआ था। उसी खून में मैंने अपनी अंगुली डुबोयी और दीवार पर लिखा कि तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो और रहोगी। तभी एक जोंक मेरे आँख से बाहर निकलने लगी। उसके बाद एक अँधेरा-सा छा गया मेरे चारों ओर। इसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ नहीं पता।

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1 thought on “जोंक / गोविंद निषाद”

  1. भावनाएं, अनुभव और लेखन में उसका विस्तार।
    कमाल है।

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