“स्योहारवी ने रूढ़िवादी माने जाने वाले संस्थान से होकर भी आधुनिकता के साथ संवाद स्थापित किया और पाकिस्तान आंदोलन की धार्मिक एवं नैतिक आलोचना के साथ-साथ एक सुदृढ़ आर्थिक आलोचना भी प्रदान की।”–इतिहास के पन्नों में दबी रह गयी एक सशक्त आलोचना से हमारा परिचय करा रहे हैं, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के शोधार्थी, भावुक.
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भारत की स्वतंत्रता के साथ-साथ देश का विभाजन भी हुआ था जिसने मानव इतिहास के सबसे विध्वंसक घटनाक्रम को जन्म दिया। विभाजन को लेकर दो बातें शुरू में ही कह देना बेहतर है। पहली यह कि विभाजन प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता (competitive communalism) का परिणाम था और दूसरी यह कि विभाजन केवल अंग्रेजों की उपस्थिति में ही संभव था।
हम यहाँ विभाजन के संदर्भ में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करेंगे, मगर एक दूसरे कारण से। पाकिस्तान बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले इस पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही पाकिस्तान आंदोलन की सबसे मुखर आलोचना भी निकली। पाकिस्तान की माँग के सबसे बड़े आलोचक थे – तुफ़ैल अहमद मंगलौरी (1868-1946), मौलाना हुसैन अहमद मदनी (1879-1959) और मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी (1900-1962)। इन तीनों ने ही पहले आलेखों की शक्ल में और फिर किताब के रूप में पाकिस्तान की परिकल्पना पर बहुत गहरी चोट की और इस माँग के पूरे विचार को ही छिन्न – भिन्न कर के रख दिया। एक दिलचस्प बात यह है कि न तो आज़ादी से पहले और न ही आज़ादी के बाद काफ़ी वक़्त तक इनके विचारों को लोगों तक पहुँचाने की कोई कोशिश की गयी। किसी के भी ज़ेहन में आ सकता है कि ऐसा क्या कारण है कि इतनी शानदार आलोचना और इतने स्पष्ट विचार लोगों तक नहीं पहुँचे (या नहीं पहुँचने दिये गये)?
अब हम आते हैं पाकिस्तान आंदोलन की आलोचना पर। यूँ तो पाकिस्तान आंदोलन की आलोचना करने वाली पुस्तकें निम्न हैं – हुसैन अहमद मदनी की पुस्तिकाएं पाकिस्तान क्या है?(दो भागों में, 1946), मिस्टर जिन्ना का पुर असरार मुअम्मा और उसका हल, तुफ़ैल अहमद मंगलौरी की मुसलमानों का रौशन मुस्तक़बिल (1938), रूह-ए-रौशन मुस्तक़बिल (1946), और हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी की तहरीक़-ए-पाकिस्तान पर एक नज़र (1946)। मगर इस लेख में हमारा ध्यान हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी की किताब पर रहेगा। इसका कारण यह भी है कि जहाँ तुफ़ैल अहमद मंगलौरी और हुसैन अहमद मदनी ने पाकिस्तान का विरोध धार्मिक और राजनीतिक तर्कों के आधार पर अधिक किया है, वहीं हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी ने आर्थिक और राजनीतिक दोनों तत्वों को मिला कर एक बेजोड़ आलोचना पेश की है।
हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी का एक परिचय
मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी का जन्म 1901 में बिजनौर के स्योहारा में एक बड़े ज़मींदार घराने में हुआ। उनके पिता शमसुद्दीन असिस्टेंट इंजीनियर के तौर पर पहले भोपाल और फिर बीकानेर राज्य में कार्यरत रहे(1)। अपनी ही तरह शमसुद्दीन ने अपने दोनों बड़े बेटों को तो अंग्रेज़ी शिक्षा दिलायी, मगर तीसरे बेटे को धर्म-विज्ञान की तालीम दिलाई। शुरुआती शिक्षा स्योहारा और मुरादाबाद में होने के बाद वे देवबंद चले गये। वहां उन्होंने अनवर शाह कश्मीरी और शब्बीर अहमद उस्मानी जैसे दिग्गजों से शिक्षा ली और हदीस में निपुण हुए। फिर शिक्षा देने के लिए उन्हें एक आलिम के तौर पर मद्रास भेजा गया जहाँ वे साल भर रहे और इसी दौरान दो पुस्तिकाएं भी लिखीं – मालाबार में इस्लाम और हिफ़्ज़ुर रहमान ला मजहब अल नौमान। इसके बाद वो हज पर चले गये और वहां से 1927 में लौट कर दो साल डभोल में तबलीग़ का काम किया।

1930 में वह सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े, मगर आंदोलन ख़त्म होने के बाद अंजुमन तबलीग़ अल इस्लाम नामक इदारे में चले गये जिसकी अध्यक्षता उस वक़्त मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कर रहे थे। स्योहारवी के क़द का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग के बेहतर प्रदर्शन के लिए जिन 17 मौलानाओं को जिन्ना द्वारा मुस्लिम लीग पार्लियामेंट्री बोर्ड में शामिल किया गया, उनमें से एक मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी भी थे (2)। 1938 में वह दिल्ली आ गये। दिल्ली आने के बाद स्योहारवी ने नदवात उल मुसन्निफ़ीन की स्थापना की जो दर्शन (फ़लसफे), साहित्य और शायरी पर उर्दू में शानदार किताबें प्रकाशित करता था। बिजनौर में हुए बाय-इलेक्शन (उप चुनाव) में उनके रिश्तेदार हाफ़िज़ मोहम्मद इब्राहिम से जुड़ाव के कारण वे कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हुए (3)। स्योहारवी द्वारा पाकिस्तान की आलोचना पहले आलेखों की शक्ल में बिजनौर के प्रसिद्ध समाचार पत्र मदीना में छपी थी। इस आलोचना को 1946 के चुनाव में इस्तेमाल करने के लिए एक पुस्तिका की शक्ल में लाया गया जिसे चुनाव के वक़्त कांग्रेस और आज़ाद मुस्लिम पार्लियामेंट्री बोर्ड द्वारा खूब वितरित किया गया। हम इसी पुस्तिका के कथ्य पर बात करेंगे।
तहरीक़-ए पाकिस्तान पर एक नज़र और पाकिस्तान का विरोध
स्योहारवी का कहना था कि हिन्दू और मुसलमानों के रिश्ते के मुद्दे पर जो एक क़ानूनी और संवैधानिक मामला है, उसमें पाकिस्तान के समर्थक हिन्दू संकीर्णता और सांप्रदायिक नज़रिये की आड़ में छुपते नज़र आते हैं। इसी की वजह से इस मुद्दे पर साफ़गोई से कोई राय नहीं बन पाती (4)। वे कहते हैं कि अगर हिन्दू पक्ष की तरफ़ से कट्टरता देखने को मिलती भी है तो इसका जवाब पाकिस्तान बिल्कुल भी नहीं हो सकता। इसके समाधान के लिए नये तरीक़े खोजने चाहिए। ऐसा एक रास्ता खोजने की कोशिश आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और जमीअत-ए-उलेमा-ए हिन्द ने की थी। हम दोनों संस्थाओं ने मिल कर जो रास्ता सुझाया था, उसके समक्ष पाकिस्तान योजना को रख कर विचार-विमर्श करने और मिल कर एक रास्ता खोजने के लिए हमने मुस्लिम लीग को निमंत्रण दिया था, लेकिन लीग की तरफ़ से कोई जवाब ही नहीं आया (5)। जोशीले और भावनात्मक वेग में बह जाने वाले युवाओं को लीग द्वारा सुझाया रास्ता बहुत अच्छा ज़रूर लग सकता है, मगर पाकिस्तान योजना पर बिना किसी चर्चा और बहस-मुबाहिसे के सच्चा इस्लामी रास्ता तलाश करना और इस योजना की जाँच करना मुमकिन नहीं है।
जब भी पूछा जाता है कि लीग पाकिस्तान क्यों चाहती है तो उसका जवाब होता है कि मुसलमान अपने आप में एक आज़ाद और खुदमुख्तार देश हैं और वे किसी भी ऐसे देश में नहीं रह सकते जहां कई संप्रदाय रहते हों और उनमें से कोई एक हमेशा बहुमत में रहे (6)। अपने-आपमें एक मुक़म्मल मुल्क होने के नाते मुसलमान किसी देश में अल्पसंख्यक की हैसियत से नहीं रह सकते। इसी कारण वे उन इलाक़ों को अलग करके एक मुल्क बनाना चाहते हैं जहाँ मुसलमान आबादी बहुसंख्यक है। मिस्टर जिन्ना का कहना है कि द्विराष्ट्रीय सिद्धांत को मानते हुए भारत के ¼ भू-भाग को मुस्लिम लीग को सौंप दिया जाये जो वहां ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अधीन दो सत्ता केंद्र स्थापित करेगी। एक उत्तर में और दूसरा पूर्व में (7)।
इसके बाद स्योहारवी “पाकिस्तान की हक़ीक़त” नामक अंश में लिखते हैं कि जिन्ना का कहना है कि वो हज़रत मुहम्मद और हदीस के रिवाज़ का पालन करते हुए एक इस्लामी मुल्क स्थापित करना चाहते हैं। जिन्ना साहब खुद कई बार दावे के साथ कह चुके हैं कि सरकार में ग़ैर-मुसलमानों को भी शामिल किया जायेगा। एक इस्लामी मुल्क में तो ग़ैर-मुस्लिम केवल ज़िम्मी (प्रजा या रियाया) के तौर पर ही रह सकते हैं। सरकारी काम-काज में तो उनका कोई दख़ल हो ही नहीं सकता। तब जिन्ना साहब ये बतायें कि पाकिस्तान किस तरह एक इस्लामी मुल्क हो सकता है (8)? साथ ही, आबादी की अदला-बदली से इनकार करके जिन्ना साहब एक और बेवकूफ़ी कर रहे हैं क्योंकि ऐसा करने पर मुस्लिम अल्पसंख्यक राज्यों के मुसलमान एक नाज़ुक हालत का शिकार होंगे जबकि यही मुसलमान मुस्लिम संस्कृति और तहज़ीब के झंडा-बरदार हैं। इन्हीं राज्यों में मुसलमानों के धार्मिक स्थल उन सभी राज्यों के धार्मिक स्थल मिला लेने के बाद भी ज़्यादा बैठते हैं जिनमें पाकिस्तान की स्थापना की जायेगी (9)।
इसके बाद स्योहारवी ने आबादी पर बात करते हुए यह दर्शाया है कि भविष्य के पाकिस्तान में 5 करोड़ 91 लाख 1 हज़ार 297 मुसलमान होंगे जबकि ग़ैर-मुस्लिम आबादी 4 करोड़ 79 लाख 3 हज़ार 86 होगी। ऐसे में मुसलमानों की आबादी ग़ैर-मुसलमानों के मुक़ाबले केवल एक करोड़ 11 लाख 97 हज़ार ही ज़्यादा होगी (10)। स्योहारवी इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि पाकिस्तान की स्थापना का सच कितना भयावह होगा कि एक साथ रह रहे 10 करोड़ मुसलमान दो टुकड़ों में बट जायेंगे और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पाकिस्तान की स्थापना की जा रही है, वह भी पूरा नहीं होगा। जज़्बात में आकर मुस्लिम लीग के समर्थक यह दावा करते हैं कि एक बार पाकिस्तान में वह हुकूमत क़ायम कर लें, फिर उसके बाद वह भारतीय सरकार पर यह दबाव बनवायेंगे कि वह भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के सभी बुनियादी हक़ उन्हें प्रदान करे। स्योहारवी का मानना है कि यह बेहद अहमकाना बातें हैं और ऐसी बातें करने वाला ज़रूर किसी ख्वाबों की दुनिया में जी रहा है वरना बंगाल या पंजाब के हिंदू और सिखों को मार कर उत्तर प्रदेश या बिहार के मासूम मुसलमानों पर होने वाली ज़्यादती का बदला कैसे मुमकिन है और क्यों लिया जाये? क्या ऐसा करना धार्मिक, नैतिक और संवैधानिक रूप से संभव है? और यदि है भी तो क्या यह मुमकिन है (11)?
मुस्लिम लीग पर व्यंग्य करते हुए स्योहारवी पूछते हैं कि पाकिस्तान के पास ऐसी कौन-सी हुई शक्तियां हैं जो अभी तो हिंदू बहुसंख्यक आबादी के डर से छिपी हुई हैं, लेकिन खुद उनके बहुसंख्यक होते ही (यानी पाकिस्तान की मांग पूरी होते ही) ऐसी ज्वाला बनकर उभरेंगी कि वह न सिर्फ़ पाकिस्तान की अपनी स्वायत्तता बचा लेंगे बल्कि भारत के मुसलमान अल्पसंख्यकों की भी सुरक्षा करेंगे (12)। जब कांग्रेस ने गठबंधन की सरकार बनाने के आश्वासन की वादा – ख़िलाफ़ी की, तब मुस्लिम लीग ने कुछ भी नहीं किया। इसका कारण स्पष्ट था कि मुस्लिम लीग जहां संभव हो वहां सत्ता हथियाना चाहती थी, जैसे कि कांग्रेस के राज में भी नवाब इस्माइल ख़ान और नवाब अहमद सईद ख़ान को ग्राम सुधार कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने अपने नेतृत्व को मज़बूत बनाने के लिए ही 1916 में कांग्रेस के साथ समझौता करके बंगाल और पंजाब में मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी होने के कारण होने वाला लाभ गँवा दिया और उसके नुकसान इस कदर गंभीर थे कि अंग्रेज़ों के भरसक प्रयास के बावजूद 1932 में भी बंगाली और पंजाबी मुसलमानों को उनकी बहुसंख्यक आबादी का लाभ नहीं मिल सका (13)।
अक्सर पाकिस्तान को एक दैवीय इल्हाम के रूप में पेश किया जाता है, मगर यह इल्हाम बकिंघम पैलेस से आया हुआ है (14)। इक़बाल ने भी इसके बारे में बात तभी की थी जब वह लंदन से ताज़ा-ताज़ा लौटे थे। इसी तरह के इल्हाम की बात इस वक़्त की जा रही है जब मुस्लिम लीग के एक महत्वपूर्ण सदस्य चौधरी ख़लीक़ुज़्ज़मान (1889-1973) लंदन और मिस्र की तीर्थ यात्रा से लौटे हैं। जैसे ही वह वापस बंबई (अब मुंबई) पहुंचे, उन्होंने अपने पहले ही साक्षात्कार में यह स्पष्ट रूप से कह दिया कि पाकिस्तान तो बनकर ही रहेगा क्योंकि वह हर मुसलमान के दिल की आवाज़ है, मगर बेचारे मुस्लिम लीगी यह नहीं जानते हैं कि पाकिस्तान सिर्फ़ इसलिए बन कर रहेगा क्योंकि यह अंग्रेजों का हुक्म है (15)।
अब हम उस बात की तरफ़ आते हैं जो हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी की आलोचना को सबसे अलग और असरदार बनाती है।
पाकिस्तान का आर्थिक मूल्यांकन
स्योहारवी कहते हैं कि यह बात जानना बहुत ज़रूरी है कि किसी भी देश की श्रेष्ठता और लाभदायक स्थिति उसकी आर्थिक मज़बूती पर निर्भर करती है। आर्थिक बेहतरी या मज़बूती प्राकृतिक संसाधनों, खदानों (mines) और इस तरह की दूसरी दौलतों में ही सबसे बेहतर ढंग से देखी जा सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दूसरी तरह की दौलतों और आय के स्रोतों की तुलना में वह खदानें और संसाधन ही हैं जो व्यापार और शासन दोनों को सशक्त करते हैं (16)। यह बात भी बहुत साफ़ तौर पर जानने की ज़रूरत है कि उन इलाक़ों में जहां पाकिस्तान बनना है वहां बहुत कम खुली खदानें हैं जिन पर काम किया जा सकता है। पंजाब में नमक और लोहे की केवल एक-एक खदान है और बंगाल में एक खदान लोहे की और चंद-एक खदानें कोयले की हैं (17)।
सोने, चांदी, एल्युमिनियम, कीमती रत्नों और पेट्रोल की ज़्यादातर सभी बड़ी खदानें हिंदुस्तान में मौजूद हैं जिनमें से अधिकतर बिहार, मद्रास और सी. पी. (आज का मध्यप्रदेश) में हैं। अगर सांप्रदायिक और धार्मिक भिन्नताओं और नफ़रत की बुनियाद पर पाकिस्तान उस तरह वजूद में आता है जैसा कि मुस्लिम लीग और उसके क़ायद-ए-आज़म बयान करते हैं, तो हिन्दू हिंदुस्तान जहाँ बहुत से पूंजीवादी पहले से मौजूद हैं, इस क़दर उन्नति करेगा कि पाकिस्तान के लिए एक बड़ा ख़तरा बन जायेगा। व्यापार और प्रशासनिक विभागों में जितनी तरक़्की उन्हें हासिल होगी, उसे हासिल करने से अगर पहले ही पूँजी के अभाव में चल रहे मुस्लिम अल्पसंख्यक इलाक़ों को किसी क़ानून द्वारा रोक दिया जाये तो कौन सी ताक़त उन्हें ऐसा करने से रोक लेगी (18)?
अगर पाकिस्तानी हुकूमत अपने छिपे हुए संसाधनों की प्राप्ति के लिए खदानें खुदवाने का काम भी करेगी तो इस काम के लिए जो करोड़ों रुपए लगते हैं, वो कहां से लाएंगे? यह सवाल इसलिए है कि उस मुस्लिम हुकूमत को अपने चलाने के लिए ही रुपए के लाले पड़े होंगे (19)। आज सिंध और सरहदी सूबों को चलाने के लिए वहां की हुकूमतें खुद केंद्र सरकार पर निर्भर हैं और बलूचिस्तान का भी कमोबेश यही हाल है, लिहाज़ा इन तीनों का बोझ पंजाब पर ही पड़ेगा। ठीक इसी तरह आसाम के इलाकों का बोझ बंगाल पर पड़ेगा जहां आमदनी के ज़रिये कम और ख़र्च के ज़रिये ज़्यादा हैं (20)। स्योहारवी लिखते हैं कि इसके लिए जो हल लीग के एक “काबिल” सदस्य ने दिया है, वो बहुत अजीब है क्योंकि वो फ़रमाते हैं कि हिंदुस्तान की तरह हम (पाकिस्तान) भी अपनी सरकार के ख़र्चे कम करके उससे बचने वाली रकम को विकास कार्यों में लगायेंगे और साथ ही हिंदुस्तान के हिंदू पूंजीवादियों से कहेंगे कि वो हमारे यहाँ कंपनियाँ खोलें और मुनाफ़ा कमायें जिससे सरकार को भी फ़ायदा पहुंचेगा। ऐसे पैसे को पाकिस्तान की तरक्क़ी के लिए इस्तेमाल किया जायेगा। सरकारी ख़र्च कम करने की बात पूरी कैसे की जायेगी, ये समझ नहीं आता क्योंकि यदि फ़ौज पर होने वाला ख़र्चा कम हुआ तो फिर सीमाओं की सुरक्षा का क्या होगा? यदि इसके बावजूद कुछ पैसा बच भी जायेगा तो वह एक खदान तक पर काम करने के लिए भी पूरा न पड़ेगा (21)।
जितनी देर में पाकिस्तान अपने यहां ऐसी खदानों की खोज करेगा जिन पर काम करने के बाद भारी मुनाफ़ा मिल सके, उतने में हिंदुस्तान अपनी तयशुदा खदानों पर काम करके काफी आगे जा चुका होगा। ऐसी सूरत में दोनों देशों में कौन सा मुक़ाबला हो सकेगा? रही बात हिन्दू पूंजीपतियों या उनके मना कर देने पर (जो कि ज़्यादा संभव लगता है) अंग्रेज़ पूंजीपतियों को आमंत्रित करके कंपनियां लगवाने की, तो किसी भी देश को अपाहिज बनाने का सबसे आसान रास्ता है विदेशी पूंजी का वहां निवेश (22)। यही वो बात है जो स्योहारवी की आलोचना को सबसे अलग और सशक्त बनाती है क्योंकि उनकी आलोचना में नव-साम्राज्यवाद और फाइनेंस कैपिटलिज़्म दोनों ही के साथ संवाद दिखायी देता है। यह इल्म होना कि विदेशी पूंजी एक नये प्रकार की ग़ुलामी को जन्म देगी, उस वक़्त के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी इस बात तो इतने साफ़ तौर पर नहीं कह पा रहे थे।
निष्कर्ष
इस तरह स्योहारवी ने रूढ़िवादी माने जाने वाले संस्थान से होकर भी आधुनिकता के साथ संवाद स्थापित किया और पाकिस्तान आंदोलन की धार्मिक एवं नैतिक आलोचना के साथ-साथ एक सुदृढ़ आर्थिक आलोचना भी प्रदान की। यह आलोचना बार-बार पढ़ने लायक है क्योंकि यह अत्यंत विचारोत्तेजक है। मगर सवाल यह उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि न आज़ादी से पहले और न आज़ादी के बाद यह आलोचना लोगों तक पहुंची। जिन तीन लोगों ने पाकिस्तान आंदोलन की सबसे ज़्यादा निंदा की, उनमें से केवल तुफ़ैल अहमद मंगलौरी की किताब मुसलमानों का रौशन मुस्तक़बिल (1938) ही अंग्रेज़ी में अनुवादित हुई और वह भी अशरफ़ अली द्वारा 1994 में। इन आलोचनाओं को लोगों तक न पहुंचने दिये जाने से किसको लाभ था? क्या बहुत से लोग यह बात नहीं समझ रहे थे कि इन किताबों के आम लोगों के बीच न पहुंचने से इस आख्यान को और मज़बूती मिलेगी कि मुसलमानों ने विभाजन का विरोध नहीं किया? निश्चित ही इसमें एक अहम किरदार आज़ादी से पहले और बाद दोनों ही दौर के आख्यान निर्माता मुस्लिम अभिजात वर्ग का भी है।
संपर्क : 7060241863
संदर्भ
1. Dhulipala, Venkat, Creating A New Medina: State Power, Islam and the Quest for Pakistan in Late Colonial North India, Cambridge University Press, 2015, पृ.301
2. वही, पृ.302
3. कांग्रेस सरकार में शामिल दो मुसलमान मंत्रियों में से एक हाफ़िज़ मोहम्मद इब्राहिम थे।
4. हिफ़ज़ुर्रहमान स्योहारवी, तहरीक़ – ए पाकिस्तान पर एक नज़र, जमीअत – ए उलेमा- ए हिंद, दिल्ली, 1946, पृ.4
5. वही, पृ.5
6. वही, पृ. 6
7. वही, पृ. 6
8. वही, पृ. 7
9. वही, पृ. 8
10. वही, पृ.11
11. वही, पृ.12-13
12. वही, पृ.14
13. वही, पृ.16
14. वही, पृ.17
15. वही, पृ.18
16. वही, पृ.19
17. वही, पृ.20
18. वही, पृ.20
19. वही, पृ.21
20. वही, पृ.21
21. वही, पृ.22-23
22. वही, पृ.24






