व्यक्ति का मन और सरंचनाओं का यथार्थ / नरेश गोस्वामी


‘व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के तमाम दावों के बावजूद अधिकांश लोग अपनी मानवीय संभावनाओं और क्षमताओं से कमतर जीवन ही जी पाते हैं। उनका जीवन व्यवस्था द्वारा स्थापित रूढि़यों, भय और बाज़ार द्वारा प्रायोजित इच्छाओं, नस्ल, जेंडर, पितृसत्ता की प्रत्यक्ष और दूरस्थ संरचनाओं , प्रेम और सहानुभूति के अभाव, अपनी बात न कह पाने की विवशता तथा असुरक्षा आदि जैसे असंख्य निषेधों और दबावों के बीच पलता-पनपता है।’– नरेश गोस्वामी का सुचिन्तित लेख। नरेश अच्छे पढ़ाकू ही नहीं, पढ़ी हुई चीज़ों को आपस में जोड़कर विचार करनेवाले अच्छे चिंतक भी हैं। इसीलिए उनके किसी लेख से गुज़रने का मतलब कई किताबों का अर्क पा लेना भर नहीं है, उन पर सोचने की उत्तेजना पाना भी है। 

अमेरिकी मनोविद रॉबर्ट ए. जॉनसन (1921-2018) की किताब— लिविंग युअर अनलिव्ड लाइफ़, इनर वर्क, ऐंड ऑनिंग युअर ऑन शैडो  तक मैं यह समझने के लिए पहुँचा था कि जीवन का सबसे सक्रिय हिस्सा गुज़र जाने के बाद, एक तरह से कहें तो अपने करियर और सांसारिक दायित्वों को पूरा करने के बाद, व्यक्ति के भीतर वैकल्पिक जीवन की कौन-सी कल्पनाऍं उभरती हैं? वह किन रास्तों और विकल्पों के बारे में सोचता है जो मौजूदा जीवन जीने के दबावों में उससे छूट गये थे? इस जीवन में वह क्या है जो अनजिया रह गया है और जो उसे जब तब व्यथित करता रहता है?

जॉनसन अपनी किताब में इस अनजिये जीवन, उससे पैदा हुए तनाव और व्यथा को खोलते हैं। उन तरीक़ों और विधियों के बारे में बताते हैं जिनके ज़रिये छूट गये जीवन के पश्चाताप से उबरा जा सकता है या उसे कम किया जा सकता है। इस किताब को पढ़ने के पीछे मेरा मंतव्य तो यह समझना था कि एक मनोविद व्यक्ति के जीवन की नि:शेष हो चुकी संभावनाओं को किस तरह देखता और विवेचित करता है। लेकिन इसके तीन-चार अध्यायों से ही यह स्पष्ट होने लगा था कि जॉनसन का व्यक्ति के आंतरिक या मानसिक दुखों के समाधान से ज़्यादा सरोकार है। निश्चय ही जॉनसन साधारण लोगों के अंधविश्वासों और उनकी समस्याओं का दोहन करने वाले लोगों में नहीं थे। उन्होंने युंग के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों और व्यावहारिक उपक्रमों का विधिवत अध्ययन किया था। लेकिन अंत में उन्होंने व्यावहारिक मनोविज्ञान का वह रास्ता चुना जो व्यक्ति की निजी समस्याओं के समाधान पर जाकर केंद्रित हो जाता है। वे व्यक्ति-मन के प्रतीकों, मिथकीय और आध्यात्मिक आयामों का संधान करते हुए व्यथित व्यक्ति को यह बताते हैं कि उसका जीवन अस्तित्व की संपूर्णता से कहाँ और कैसे छिटक गया है। इस तरह, उनकी मूल दृष्टि जीवन में आये असंतु‍लन को दुरुस्त करने पर रहती है। एक तरह से कहा जाये तो पद्धति के तौर पर उनका ज़ोर मुख्यत: इस बात पर रहता है कि व्यक्ति उस ‘अनजिये’ जीवन का ध्यान से अवलोकन करे— उसे जाने और समझे जो जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गया था। संक्षेप में, जॉनसन व्यक्ति के अभ्यंतर पर ध्यान देते हैं।

एक समय के बाद जॉनसन को पढ़ते हुए मुझे लगा कि उनके विश्लेषण में समाज, संस्कृति तथा जीवन-यापन की वह बाहरी संरचना मौजूद ही नहीं है जिसमें व्यक्ति पैदा होता है और पलता-पनपता है। आख़िर अगर व्यक्ति एक भौतिक-सामाजिक परिवेश में पैदा होता है तो ऐसा कैसे संभव है कि उसकी अंदरूनी समस्याओं का बाहरी संरचनाओं-संदर्भों से कोई संबंध ही न हो? यहाँ यह सवाल भी उठता है : क्या किसी मानसिक कष्ट या समस्या से ग्रस्त व्यक्ति उन समस्याओं का ख़ुद चुनाव करता है ? क्या उसका संत्रास, अकेलापन, संकोच, अंतर्विरोध और उसे सामान्य जीवन की गति से बहिष्कृत कर देने वाली परिस्थितियाँ उसकी अपनी निर्मिति होती हैं?

यानी क्या ऐसे में, मनुष्य के मानसिक दुखों को आर्थिक-सामाजिक वंचनाओं, हिकारत, अपमान, घृणा, बहिष्कार आदि से मिलकर बने यथार्थ से अलग करके देखना कारगर हो सकता है?

इस प्रसंग में, अर्नेस्ट बेकर अपनी किताब द डिनायल ऑफ़ डेथ  में एक ऐसे तथ्य की ओर ध्यान खींचते हैं जो आमतौर पर अलक्षित रह जाता है। बेकर कहते हैं कि मृत्यु मनुष्य के सामने एक अटल और बुनियादी सवाल है। पूरे जीव-जगत में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस बात को जानता है कि एक दिन उसकी मौत हो जाएगी। यह एहसास उसके भीतर एक चुप्पे आतंक की तरह हमेशा मौजूद रहता है। ग़ौर से देखें तो मनुष्य की समग्र संस्कृति, मनोविज्ञान और उसका व्यवहार इस सत्य को झुठलाना चाहता है, उसे दूर रखना चाहता है या उसके साथ समायोजन के तौर-तरीक़े ढूँढ़ता रहता है। इसके लिए वह धर्म, राष्ट्र, कला जैसी प्रतीकात्मक व्यवस्थाएँ गढ़ कर ख़ुद को इस आश्वस्ति से ढाँप लेना चाहता है कि उसके जीवन की नश्वरता असल में एक वृहत्तर और ज़्यादा स्थायी अस्तित्व का अंग है। बेकर का मानना है कि इन प्रयत्नों के ज़रिये मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करके अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करना चाहता है। इस तरह, बेकर तो इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि मनुष्य के मानसिक कष्ट वस्तुत: इसलिए पैदा होते हैं कि वह जीवन की नश्वरता के बोध का सजगतापूर्वक या ठीक से प्रबंधन नहीं कर पाता।

जॉनसन की तुलना में बेकर का नज़रिया इसलिए ज़्यादा आंगिक और स्वाभाविक लगता है कि वह हमारे मन, उसकी चिंताओं, भय और अंतर्विरोधों को दुरुस्‍त करने के बजाये सीधे अस्तित्व की कारक-शक्तियों और गुत्थियों की व्याख्या करता है।

असल में, जॉनसन मनुष्य के जिस छूट गये या अनजिये जीवन की व्याख्या करते हैं, उसमें यह ‘अनजिया’ केवल मनोवैज्ञानिक या मानसिक दायरे में सिमट कर रह जाता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया था, उनके यहाँ ‘छूटा हुआ जीवन’ व्यक्ति की स्थगित, दमित या अशेष संभावनाओं की व्यथा को प्रबंधित करने का मसला बनकर रह जाता है। मसलन, थोड़ा सरलीकरण का जोख़िम उठाकर कहा जाये तो उनके यहाँ मूल मुद्दा कुछ इस तरह का है कि एक व्यक्ति चित्रकार बनना चाहता था परंतु पारिवारिक दबावों के कारण वह जीवन भर व्यवसाय करता रहा और एक समय के बाद उसका यह छूटा हुआ आत्म उसे व्यथित करने लगा; एक स्त्री अपने पति की मूर्खताओं और ज़ोर-ज़बरदस्ती का विरोध करना चाहती थी लेकिन दांपत्य संबंधों को बचाने के लिए वह हमेशा पीछे हटती रही परंतु एक समय के बाद उसका यह दमित आत्म बग़ावत करने लगता है।

ऐसा नहीं है कि जीवन का यह पक्ष महत्त्वपूर्ण नहीं है, लेकिन इसका ज़्यादा निर्णायक पक्ष मन के बजाय ‘बाहर’ स्थित है। आसपास के जीवन और लोगों की नियति को देखें तो साफ़ समझ में आता है कि ज़्यादातर मामलों में व्यक्तिगत विफलताएँ सामाजिक, भौतिक और ऐतिहासिक शक्ति-संरचनाओं से निर्धारित होती हैं। लेकिन जॉनसन व्यक्ति के अस्तित्व की समस्याओं को जीवन के वृहत्तर संदर्भों से काटकर उसे व्यक्ति की केवल निजी समस्या बना देते हैं। वे व्यक्ति के संकटों को कुछ इस तरह पेश करते हैं मानो अपने जीवन का पुनरावलोकन करके या अपनी आत्मा की आवाज़ सुन पाने की सहूलियत हर आदमी के पास होती है।

इस संबंध में एंटी-साइकॉलॉजी के एक महत्त्वपूर्ण पैरोकार आर.डी. लैंग ने शायद सामाजिक सत्ता की मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियों को देखते हुए निराशा के किसी क्षण में कहा होगा कि मनुष्य का पूरा जीवन ही एक यौन-जनित बीमारी है। दरअसल, इस वक्तव्य के पीछे एक गहरी विडंबना का बोध था। शायद यह जीवन की परिस्थितियों, जैविक नियतिवाद से मोहभंग का उच्छवास था। इसके पीछे एक स्याह तंज़ काम कर रहा था। असल में, लैंग को लगता था कि एक तथाकथित पागल व्यक्ति का प्रलाप वास्तव में एक विक्षिप्त हो चुकी दुनिया के ख़िलाफ़ एक प्रकार का प्रतिरोध है। उनका मानना था कि व्यक्ति का अलगाव उसका निजी या आंतरिक मामला न होकर परिवार, संस्थाओं और समाज के दबावों और बाध्यताओं की देन भी हो सकता है। उल्लेखनीय है कि लैंग अपने चिंतन में जब व्यक्ति की भावनात्मक असुरक्षा या विभाजित आत्म की बात करते हैं तो व्यक्ति को किसी स्वप्नों के विश्लेषण, एक्टिव इमैजिनेशन जैसी प्रतीकात्मक विधियों से स्वस्थ कर देने का दावा नहीं करते, बल्कि इस तथ्य से आगाह करने की कोशिश करते हैं कि व्यक्ति पर कैसे एक असमान व्यवस्‍था के प्रति आज्ञाकारी होने का दबाव डाला जाता है या उससे इसी व्यवस्था में सफल होने और शालीन व्यवहार करने का तकाज़ा किया जाता है। सच तो यह है कि लैंग का हस्तक्षेप समाज और परिवार की शक्तियों के मल्टीप्लेक्स में चीख़ की तरह उभरता है।

जन-जीवन का औसत सच यह है कि व्यक्ति क्या बनना चाहता है और क्या बन जाता है— यह मसला वर्ग, जाति, नस्ल, जेंडर, परिवार का माहौल, आर्थिक स्थितियाँ, सांस्कृतिक बंदिशों और इतिहास की आकस्मिकताओं जैसे कारकों से तय होता है।

इसलिए, ‘अनजिया’ जीवन केवल व्यक्ति के मन की भीतरी तहों का मामला नहीं है, वह मूलत: एक सामाजिक-ऐतिहासिक प्रश्न है। व्यक्ति जिस तरह के जीवन की इच्छा करता है, वह अक्सर पारिवारिक-सामाजिक कर्तव्यों, जीवनयापन के दबावों, सामाजिक अनुकूलन और समाज की निर्मम संरचनाओं के बोझ तले दब जाता है।

ऐसे में, अनजिया जीवन केवल एक आर्कटाइप नहीं हो सकता। वह अक्सर एक ऐसा जीवन होता है जिसे इतनी न्यूनतम सुविधाएँ और साधन भी नहीं मिल पाते कि व्यक्ति अपने बारे में अलग हटकर सोच सके।

 

व्यक्ति के मानसिक कष्ट किस सीमा तक उसका निजी मसला हैं, इस पर बहुत-से विद्वानों ने विचार किया है। उदाहरण के लिए, फ्रांज फ़ानो व्यक्ति-मन को वृहत्तर राजनीतिक-सामाजिक संरचनाओं के बीच रखकर देखने पर ज़ोर देते हैं। उनका कहना था कि आततायी व्यवस्था में व्यक्ति की इच्छाएँ और उसका आंतरिक जीवन बाहर से थोपी गयी अधीनस्थता से तय होने लगता है। यानी फ़ानो के नज़रिये से देखें तो व्यक्ति का ‘अनजिया’ जीवन इस बात का सूचक होता है कि उसकी मनुष्यता का अपहरण कर लिया गया है।

इस सिलसिले में एक समय तक युंग की मनोवैज्ञानिक प्रविधियों के पैरोकार रहे जेम्स हिलमैन का प्रतिवाद भी ग़ौरतलब है। हिलमैन का मानना है कि व्यक्ति के आत्म को पूरी तरह अभ्यंतरित नहीं किया जा सकता। इसलिए, उनका कहना है कि मनोविज्ञान को आंतरिकता के इस अतिरिक्त आग्रह से मुक्त होकर इस दुनिया का एक ऐसा मनोविज्ञान विकसित करना चाहिए जो केवल व्यक्ति की निजी मानसिक समस्याओं तक सीमित न रहे, बल्कि व्यक्तिगत समस्याओं के लक्षणों को सामूहिक परिस्थितियों के रूपकों की तरह दर्ज करे। मन और आत्म के एकांतिक संधान से खफ़ा हो चुके हिलमैन ने एक बार कहा था कि मनोचिकित्सा को रोग के निदान की विधि के तौर पर स्थापित हुए एक शताब्दी बीत चुकी है परंतु दुनिया बद से बदतर होती गयी है।

इसी तरह, वर्ग, अभिरुचि और सत्ता की अंतर्ग्रथित तहों के समाजशास्त्री पियरे बोर्द्यू के चिंतन की रोशनी में देखें तो व्यक्ति के जीवन की संभावनाएँ उसकी वर्गीय स्थिति और सांस्कृतिक पूँजी से इस हद तक तय होती हैं कि वह इच्छा करने के लिए भी स्वतंत्र नहीं हो पाता। बाहर की व्यवस्था उसकी आकांक्षाओं को इतने बुनियादी स्तर पर निर्धारित कर देती है कि वह समाज के पदानुक्रम में अपने नियत स्थान से आगे की नहीं सोच पाता।

इस कोण से देखने पर व्यक्ति का छूटा हुआ, दमित या अप्रकट रह गया जीवन केवल इस बात का परिणाम प्रतीत नहीं होता कि उसकी संभावनाओं का रास्ता बंद कर दिया गया था, बल्कि यह लगता है कि व्यवस्थागत कारकों और परिस्थितियों के चलते उसके लिए किसी अन्य प्रकार के जीवन की कल्पना करना भी लगभग असंभव था।

इस क्रम में, व्यक्ति के अवसाद, चिंताओं और जीवन के रीत जाने जैसी भावनाओं को पूँजीवाद के मौजूदा स्वरूप से जोड़कर मार्क फिशर कहते हैं कि एक स्तर पर ऐसी तमाम मानसिक दिक़्क़तें इस तथ्य की ओर इंगित करती हैं कि पूँजी का प्रकट-अप्रकट तंत्र जीवन की किसी वैकल्पिक कल्पना को पनपने का अवसर नहीं देता। इस तरह, अनजिया जीवन केवल त्रासदी की ओर इंगित नहीं करता बल्कि वह एक ऐसा जीवन होता है जिसे पहले ही रद्द कर दिया जाता है— जो अनूकूल परिवेश के अभाव, साधनों की किल्लत आदि के कारण पहले ही समाप्त हो जाता है। सिमोन वील के नज़रिये से देखें तो व्यक्ति का अनजिया जीवन उसकी विफलता नहीं बल्कि मनुष्य से उसकी गरिमा छीन लेने वाली परिस्थितियों— युद्ध, श्रम और विस्थापन से उपजी विसंगतियों का परिणाम होता है।

 

कुल मिलाकर, इस विवेचन से एक औसत तस्वीर यह उभरती है कि व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के तमाम दावों के बावजूद अधिकांश लोग अपनी मानवीय संभावनाओं और क्षमताओं से कमतर जीवन ही जी पाते हैं। उनका जीवन व्यवस्था द्वारा स्थापित रूढि़यों, भय और बाज़ार द्वारा प्रायोजित इच्छाओं, नस्ल, जेंडर, पितृसत्ता की प्रत्यक्ष और दूरस्थ संरचनाओं , प्रेम और सहानुभूति के अभाव, अपनी बात न कह पाने की विवशता तथा असुरक्षा आदि जैसे असंख्य निषेधों और दबावों के बीच पलता-पनपता है।

ज़ाहिर है कि व्यवस्था द्वारा निर्मित इतनी बाधाओं और चुनौतियों से थक कर आये आदमी के मन को केवल कुछ विधियों पर आधारित मानसिक प्रोद्यौगिकी के सहारे चंगा नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि व्यक्ति की उदासी, वितृष्णा और उसके मानसिक निर्वासन को संस्कृति के वृहत्तर संदर्भों के बग़ैर नहीं समझा जा सकता।

naresh.goswami@gmail.com

 


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