मुख्य रूप से वैचारिक लेखन करनेवाली कनक लता की कविताएँ गहरी पीड़ा से निकली हुई सहज-सरल किन्तु असरदार अभिव्यक्ति का उदाहरण हैं। वे सावित्री बाई फुले की एक जीवनी लिख चुकी हैं जो वाम प्रकाशन से प्रकाशित है। ‘समयांतर’ और ‘आलोचना’ जैसी पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहे हैं।

गाज़ा में बच्चे
बस अभी कुछ महीनों पहले की ही तो बात है
वे हँसते थे, खेलते थे, स्कूल जाते थे
भाई-बहनों के हाथों में हाथ डाले
अपने नन्हे दोस्तों के साथ
बड़े निश्चिन्त, माँ-बाप की छाँव में…
उछलते-कूदते रहते थे पूरे दिन पिंगपोंग गेंद की तरह
अपनी कक्षाओं में, स्कूल के गलियारों में
गुलज़ार थे उनके घर, बगीचे, गलियाँ, सड़कें
स्कूलों में खिलखिलाती रौनक भी
लेकिन अब वे रहते हैं वहाँ जहाँ बमों की गेंदे फेंक रहा है कोई
दूर सुरक्षित महल में बैठा खिलाड़ी, शातिर-शिकारी
कहता हुआ— आओ खेलो मेरे साथ ‘गेंद-गेंद’
या दे दो हमें अपने सारे खेल-खिलौने—
बाग़-बगीचे, सड़कें, स्कूल, घर और पूरा देश भी
जहाँ खेलूँ मैं जी भरकर…
उसके गेंदों के क्रीड़ा-स्थल पर छायी रहती है एक मनहूसियत
क्योंकि वहाँ के बच्चों को नहीं पसंद वह खेल
टीवी के न्यूज़ चैनलों ने दिखाया कभी-कभार भूले-भटके
आक़ा की चरण-वंदना के बाद बचे समय में…
बड़े-से भगोने में भात के बचे-खुचे दाने चुनते
कई दिनों के भूखे बच्चों को
जिनकी बारी आने के पहले ही ख़त्म हो गया था भात
पतीला ख़ाली था जिसमें बचे थे कुछ दाने चिपके हुए तली में
बच्चों के पेट ख़ाली थे, पतीलों की तरह
लेकिन उनमें कोई दाना नहीं था चिपका हुआ
जो दे सके सांत्वना भूखे पेट को
गाज़ा में भूख नाच रही है बड़ी ही निर्मम होकर
कौन जाने एक दिन नाचते-नाचते वह भी थक जाए
और बच्चे सो जाएँ गहरी नींद, ख़ुदा के घर जाकर
खिलाड़ी की शिक़ायत करने के लिए…!
लेकिन शातिर खिलाड़ी को कोई दिलचस्पी नहीं
न वह नृत्य देखने में, न अपने ख़िलाफ़ होनेवाली उस शिक़ायत में…
(25 जुलाई 2025)
मिट्टी की रोटियाँ
क्या कभी मिट्टी की रोटियाँ खायी हैं?
कैसी लगती हैं वे रोटियाँ स्वाद में?
क्या भूख मिट जाती है उनसे?
उन आदिवासियों का दावा तो यही है…!
रिसर्च में भी साबित हो गया—
‘भूख मिटाने में सक्षम हैं
वे रोटियाँ मिट्टी वाली
सभी आवश्यक पोषक तत्व भी
देती हैं शरीर को ये रोटियाँ;
यदि रोज़ खायी जाएँ…!’
क्या उन रोटियों को रोज़ खाकर देखा है
उन शोधकर्ताओं ने?
क्या पोषक तत्व मिले थे उनके शरीर को?
क्या कभी वे रोटियाँ खिलायी हैं अपने बच्चों को भी?
कैसी लगी थीं उनके बच्चों को वे रोटियाँ मिट्टी वाली?
क्या उनके बच्चों ने ख़ुशी-ख़ुशी खायी थीं वे रोटियाँ?
क्या उनके माता-पिता ने खायी वे रोटियाँ?
खाते हुए क्या आँसू थे उनकी आँखों में
कल्पना करते हुए अपनी संतानों का भविष्य?
जिसमें थीं उनके नसीब में केवल
मिट्टी और कीचड़ से बनी रोटियाँ…!
ग़रीबी और बेबसी की रोटियाँ…!
आधुनिक सभ्य-समाज की दी हुई वे रोटियाँ…!
धन-कुबेरों की कृपा का फ़ल, वे रोटियाँ…!
अनदेखे ‘ईश्वर’ के रचे दुर्भाग्य की वे रोटियाँ…!
(24/5/2019)
(कैरेबियन द्वीप में हैती के आदिवासियों को मिट्टी और कीचड़ को रोटी के आकार में सुखाकर उसे खाते हुए देखने के बाद)
सोमवार का मध्याह्न भोजन
ये भूखे बच्चे हैं, साहब
ये क्या जाने चॉकलेट और मिठाइयाँ, केक और टॉफियाँ…!
शनिवार को ही खाया था इन बच्चों ने
पिछली बार का खाना, स्कूल के मध्याह्न भोजन में |
…और आज सोमवार है…
…और अभी स्कूल में मध्याह्न भोजन नहीं बना है
लंच-ब्रेक में अभी समय है…
आप न पूछो साहब इन बच्चों से कि इनको क्या खाना पसंद है
ये भी उलाहना न दो मैडम,
कि ये जाहिल दाल-भात के अलावा…
मिठाइयाँ और चॉकलेट्स, केक और टॉफियाँ क्यों नहीं पसंद करते…
दो दिन के भूखे बच्चे हैं ये
नहीं जानना चाहते चॉकलेट और मिठाइयों का स्वाद
नहीं करते केक और टॉफियों की जिद…!
उनको इंतज़ार है उस निम्न दर्ज़े के मध्याह्न भोजन का
जो पक रहा है अभी विद्यालय में…
आप इनका शोरगुल नहीं देखते क्या…?
ये शोरगुल इनका नहीं, इनके ख़ाली पेट का है…!
इन बच्चों को हम नहीं संभाल पाते सोमवार को…!
इस दिन लंच के पहले इनको कुछ भी पढ़ाना संभव नहीं हो पाता है…!
त्योहारों की छुट्टी के बाद तो हम इनके शोर के आगे बेबस हो जाते हैं…!
…और गर्मी या सर्दी की छुट्टियों के बाद
इनमें से कई वापस नहीं आएँगे स्कूल में शोर मचाने
वे तब तक चौंसठ पकवानों का भोग लगाने
ईश्वर के घर जा चुके होंगे…!
(31/3/2019)
(उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में एक सरकारी विद्यालय की प्रधानाध्यापिका से सुनी गयी, उनके विद्यालय में घटी सत्य-घटना पर आधारित। इस कविता में ‘वाचक’ वही प्रधानाध्यापिका हैं।)
भीख माँगते बच्चे आज बहुत ख़ुश थे
देख रहे थे आज वे प्रसन्नचित्त
पहली बार स्वयं खड़े एक सुरक्षित ठौर पर..
जब एक दयावन्त उन्हें ले गयी थीं
एक शानदार रेस्टोरेंट में
उनको एक बेहतर पार्टी देने के लिए
जिसमें वे खा रहे थे पित्ज़ा, चाउमीन
और भी न जाने कितनी चीज़ें,
जिनको वे सपने में भी नहीं खा सकते थे अपने बूते…!
तभी शुरू हुई बारिश में वह सपनीला भोजन छोड़
भागे खिड़कियों की तरफ़ न जाने कौन-सी अद्भुत चीज़ देखने…
देखा दयावंती शिक्षिका ने उनकी नज़रों का पीछा करते हुए
बाहर सड़क पर भागते इधर-उधर
बारिश में भीगते लोगों को
बचने की कोशिश में
छिपने के लिए ढूँढते हुए
कोई ठिकाना, कोई छत
किसी के घर की दीवार
किसी छत की मुंडेर…!
वे भी तो जब कभी बारिश से
भीगते ठिठुरते ढूँढ़ते हैं
ऐसे ही कोई आसरा
तब भगा दिये जाते हैं दुत्कार कर
भिखारी बच्चे
अछूत
गंदे
अभागे…!
आज यह सोचकर प्रसन्न हैं…
कि समझेंगे अब ये भी
ठंड की बारिश में भीगने की तकलीफ़…
(24 मार्च 2022)
lata.kanaklata@gmail.com







झकझोरने वाली कविताएँ।