विभिन्न माध्यमों में लगातार प्रकाशित होनेवाले कवि प्रदीप मिश्र परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केंद्र, इंदौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। कविता संग्रह फिर कभी एवं उम्मीद, वैज्ञानिक उपन्यास अंतरिक्ष नगर, बाल उपन्यास मुट्ठी में किस्मत प्रकाशित। कविता संग्रह धूप की अलगनी तथा तर्क में सुबह प्रकाशन प्रक्रिया में।

अपनी अकर्मण्य दुनिया में
हफ़्ता देने के लिए पैसे नहीं हैं
पिट रहा है ठेलेवाला
अंदर तक तमतमा गया मैं
पुलिसवाले का कॉलर पकड़कर
उसी के डंडे से पीटते हुए
उसे मन ही मन वर्दी की जिम्मेदारी समझाई
इस कल्पना से बाहर आते ही
पुलिसवाले से नज़र चुराते हुए
निकल गया चुपचाप
फिर कोसता रहा अपने आपको
क्यों नहीं बदल पाया
अपनी कल्पना को यथार्थ में
बस में खड़ी लड़की को बार-बार धकियाते और
उसके अंगों पर हाथ फेरनेवाले गुंडे को
लगाना चाहता था एक झन्नाटेदार झापड़
कसमसाता रहा मन ही मन
बहुत हिम्मत जुटाकर सिर्फ इतना कह पाया
भाई साहब ठीक से खड़े रहिए
आग बरसाती आँखें गड़ाकर मुझ पर
गालियों की झड़ी लगा दी उसने
लड़की और भी सहम गयी
अपनी इस कमजोरी पर तरस खाते हुए
करवटें बदलता रहा
रात भर
कानफाड़ू शोर की तरह गाना बजाते हुए
लहराती हुई गाड़ियों पर सवार बदमाशों का झुंड
गुज़र रहा है पास से
रोककर उनसे कहना चाहता हूँ
जिन पैसों पर ऐश कर रहे हो तुम
उनमें तुम्हारे पसीने की गंध नहीं है
तुम्हारी आँखों में उतरा हुआ लाल नशा
मौत का नशा है
हाथ उठाता हूँ उनको रोकने के लिए
और टाटा कर देता हूँ
उनका शोर गूँजता रहता है कानों में
बेचैन होकर टहलता हूँ कुछ देर तक
और घर आकर सो जाता हूँ
दोनों कानों पर हाथ रखकर
अच्छे दिनों की घोषणा करनेवालों के माइक को पकड़ कर
जोर से चिल्लाना चाहता हूँ
देशवासियों यह हमारे समय का सबसे बड़ा झूठ है
स्वांग की तरह लगती है
मेरी यह उत्तेजना
मन ही मन स्वीकार कर लेता हूँ
इस माइक को पकड़ने का अधिकार
मुझे नहीं
चैनल बदलकर देखने लग जाता हूँ
कमेडी शो
एक भयानक अट्टहास
मेरा मजाक उड़ाता रहता है निरंतर
जिसको टाल कर
शुतुरमुर्ग की तरह दौड़ता रहता हूँ
अपनी अकर्मण्य दुनिया में
जहाँ खून का लोहा पानी में बदल रहा है।
गाँव, पगडंडी और सड़क
(एक)
यहाँ एक पगडंडी थी
जो किसी गाँव में जाती
या फिर खेत पर
पगडंडी की मखमली सतह पर
हम घूमते-फिरते थे बिना चप्पल
नहीं छिलते थे तलुए
साइकिलें – बैलगाड़ियाँ
फर्राटे भरती रहतीं थीं
कभी-कभार कोई कार आ जाती
तो फंस जाती थी पगडंडी के
किसी न किसी गड्ढे में
ग़ज़ब का तालमेल था
हमारे जीवन और
पगडंडी की गति में
एक दिन पगडंडी को लील गयी सड़क
गाँव के लोग हुए बहुत खुश
सड़क ने दिया उनके सपनों को नया आकाश
गाँव के सपनों में बसा हुआ था नगर
इस सड़क पर चलता हुआ गाँव
नगर में पहुँच गया
लोगों को याद ही नहीं
यह जो विदुर नगर है
वह कभी सुखनिवास गाँव था।
(दो)
पगडंडी जो खेत पर जाती थी
उसपर चलते किसान
अन्नदाता कहलाते
उनके पसीने से न केवल खेत लहलहाते
बल्कि पगडंडी भी बनी रहती थी
मुलायम और लहरदार
एक दिन पगडंडी को लील गई सड़क
सड़क भी पहुँच गयी खेतों में
खेत और सड़क की गति में
ज़मीन-आसमान का फर्क
खेत पिछड़ते चले गए
सड़क मकड़-जाल की तरह
पसरती गयी खेतों में
देश के विकास में
सबसे महत्वपूर्ण है
गति का तालमेल
राजा और उसके मंत्रियों ने किया मशविरा
पिछड़ते हुए खेतों की गति
बढ़ाने का हुआ उपाय
गति बढ़ते ही
खेत उद्योगों में बदल गए
अब वे ज़्यादा उत्पादन करते हैं
सड़क भी खुश
राजा भी खुश
मंत्रियों की तो चाँदी
इस पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में
हो रहा है करोड़ों-अरबों का उत्पादन
आप अभी भी अटके हैं
कुछ कुंतल अन्न उपजानेवाले खेतों औऱ
अनपढ़ अन्नदाताओं के फेर में
इनके चक्कर में कहीं आपका
चंद्रयान न छूट जाए ।
(तीन)
सड़क जिसने लील लिया था
पगडंडी और गाँव को
जिसने खेतों को बदल दिया था
उद्योगों में
जिसपर अब फर्राटे से दौड़ रहीं हैं गाड़ियाँ
वह देश के तीसरे नम्बर का हाईवे है
अब ये नगर से नहीं जुड़ती
सीधा महानगर से है इसका रिश्ता
गति इतनी ज्यादा
साइकिल तो छोड़िए
मोटर साइकिल भी
दौड़ नहीं सकती इस पर
सिर्फ गति के फर्राटे हैं और
मृत्यु का आतंक
ऐसी सड़क पर
साइकिल चला रहा हूँ
और रट रहा हूँ
इमरजेंसी एम्बुलेंस का नम्बर
एक सौ आठ….एक सौ आठ ।
धर्म की गुफा
कवि ज्योतिषी होते हैं
खंगालते रहते हैं भूत-भविष्य-वर्तमान
अभिनेता चमत्कार करते हैं
हर बार बदल जाता है उनका चरित्र
कथाकार जादूगर होते हैं
क्षणभर में बदल देते हैं दुनिया का आस्वाद
बुद्धीजीवी समय होते
टिक्-टिकाते रहते हैं घड़ियों के साथ
भूत,भविष्य,वर्तमान को खंगालते हुए
कवि बन जाते हैं आमजन के आदर्श
अभिनेताओं के चमत्कारों के आगे तो
सब नतमस्तक् होते हैं
कथाकारों के जादू में बिकते हैं
आमजन के स्वप्न
बुद्दिजीवियों के काँख में दबा
समय देखकर अचकचा जाते हैं, आमजन
याद आता वेद वाक्य – मैं समय हूँ
आरती करने लगते हैं उनका
कला के सफ़ेद समुद्र में ढूंढ़ते हुए अपने जीवन के रंग
रंगहीन हो जाते हैं आमजन
इन रंगहीन लोगों के प्रेम का व्यापार होता है
इनका आत्मसम्मान
संभ्रांत लोगों के घरों में सजावट के काम आता है
ठेकेदारों की चाकरी से चलता उनका जीवन
आमजन
घूमती हुई पृथ्वी पर चकराते रहते हैं
और एकदिन लापता हो जाते
धर्म की गुफा में ।
गुटखा
गुटखा खाकर थूकता रहता हूँ इधर-उधर
और अपमानित होता हूँ
गुटखा खाना या
थूकना या
थूकने से पड़नेवाला निशान
क्या है जो पसंद नहीं है सभ्य समाज को
कभी समझ में नहीं आया
अपमान और दबाव से आजीज़ आकर
मैंने गुटखा खाना छोड़ दिया
गुटखा छोड़ने के बाद
बिगड़ गया है मेरा हाजमा
कुछ भी पचा नहीं पाता
सबकुछ थूक की शक्ल में निकल आता है बाहर
टीवी पर देश के जनसेवकों को
सेल्समैन की तरह भाषण देते हुए देखता हूँ
मुँह भर जाता है थूक से
सड़क पर पिटती हुई स्त्री के तमाशबीनों को देखकर
थूक देता हूँ उन पर
अख़बार में छपे दुष्कर्मों की ख़बर से
इतनी थूक पैदा होती है कि
देश के सारे वाशबेसिन छोटे पड़ जाएं
मजदूर नशे में चूर गालियाँ बक रहा था सेठ को
जिसने उसकी दिहाड़ी मार ली थी
फिर थूक ने उत्पात मचा दी
उसे पड़ना है उस सेठ पर
घोटालों का अतिक्रमण
बाज़ार की सुंदरता
किसान की विवशता
न जाने कितनी चीजों को देखते-सुनते हुए
दिनभर भरा रहता है मेरा मुँह थूक से
थूकता फिरता हूँ इधर-उधर
हर बार मेरी थूक से असुविधा होती है
सभ्य समाज को
और अपमानित करते रहते हैं मुझे
गुटखा और थूक में कोई सम्बन्ध नहीं
जिस कड़वाहट से जनमता है थूक
वह तम्बाकू का नहीं
हमारे समय की कड़वाहट है ।
थूकना
यहाँ-वहाँ
थूकना मना है
सभ्य समाज में
अगर थूकना ही है
तो आपको तलाशनी होगी वाशबेसिन
जिसमें चुपके से थूककर बहा दें उसे नाली में
थूक से संक्रमण होने की संभावना होती है
संक्रमण से सरकार और सभ्य समाज भयभीत रहते हैं।
लड़की प्रेम और कम्प्यूटर
(एक)
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर उदास बैठी
उस लड़की के बदसूरत चेहरे को
माउस और कीबोर्ड ने
सुंदर और मासूम बना दिया
लड़की पूरे आत्मविश्वास से उठी और
मॉडल की तरह कैटवॉक करती हुई
वास्तविक दुनिया में चली गई
जहाँ प्रेम की नदी उफन रही थी
उसने नहीं सीखे थे तैरने के दाँव-पेंच
नदी में डूबकर मर गई
नदी की सतह पर एक चिट्ठी तैर रही थी
जिस पर लिखा था
नींद खुलते ही
सपने मर जाते हैं
सपनों में रची गयी दुनिया
सिर्फ कम्प्यूटर के स्क्रीन पर दिखाई देती है
(दो)
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर प्रेम का बाज़ार लगा था
जिसमें बोली लग रही थी
कोई अपनी आँखों की एवज़ में
कोई चेहरे के एवज़ में
कोई शरीर की एवज़ में
कोई विदेशी गाड़ी और बंगले की एवज़ में
प्रेम की बोली लगा रहा था
लड़की को समझ में नहीं आई
बाज़ार की तासीर
वह दिल के एवज़ में लगा बैठी बोली
उसके दिल में एक भयानक विस्फोट हुआ
चिंदी-चिंदी हो गया उसका जीवन
कम्प्यूटर कुछ देर हैंग रहा
फिर रीबूट हुआ
इस बार उसकी स्क्रीन पर नई लड़की का चेहरा है ।
क्लिक
एक क्लिक होता है
सूखा पड़ जाता है
महामारी फैल जाती है
सत्ता बदल जाती है
ऊसर हो जाते हैं हरे-भरे खेत
धरती और चपटी हो जाती है
सूर्य बर्फ का गोला बन जाता है
मुर्दे बाज़ार में निकल पड़ते हैं खरीददारी करने
श्मशान स्मार्ट सीटी में बदल जाता है
जीवन बेतहाशा भागता फिरता है
आत्महत्या की तलाश में
एक क्लिक होता है
अच्छा-भला खेल का मैदान
युद्ध के रुदन से भर जाता है
एक क्लिक होता है
बाज़ार मुँह के बल गिर जाता है
रुपए का खून हो जाता है
एक क्लिक होता है
चारों तरफ़ कैमरे चमकने लगते हैं
पूरी धरती कम्प्यूटरों से भर जाती है
मनुष्य लुप्त हो जाते हैं
पेड़ प्लास्टिक में बदल जाते हैं
और सचमुच का शेर
बैठक में सजावट की वस्तु बन जाता है।
लोहा, मशीन और मनुष्य
लोहे से बनती है मशीन
और मनुष्य भी
नसों का जटिल तंत्र
जुड़ता है दिल से
जिसके धड़कने से बहता है
नसों में लोहा
रक्तकर्णिकाओं पर सवार लोहा
मनुष्य के पूरे शरीर में दौड़ता रहता है
जब तक दौड़ता रहता है लोहा
चलता रहता है मनुष्य मशीन की तरह
मनुष्य मशीन की तरह
ठोस और कठोर नहीं होता कभी भी
मशीन की तरह चलते हुए मनुष्य में
प्रेम की भट्टी जलती रहती है
जो लोहे को बदलती रहती द्रव्य में
जिस दिन बुझ जाती यह भट्टी
मनुष्य मशीन में बदल जाता है
ठोस और कठोर ।
दूसरे ग्रहों पर जीवन
(एक)
सड़क की गति में बाधक था
जरूरी था
पेड़ का कटना
माल से लदे ट्रक
चढ़ नहीं पाते थे घाट
पहाड़ को तो कटना ही था
मनुष्य जंगल से बाहर निकलकर
सभ्य हो चुका था
फिर जंगल का क्या काम
अन्न की जगह ले चुका था रुपया
खेतों को कॉलोनियों में बदल दिया गया था
तकनीक के पटाखे
लोगों के पीछे बाँधकर
उसमें आग लगा दी गई थी
लोग भाग रहे थे बेतहाशा
और विकास आकाश में खड़ा मुस्करा रहा था
मनुष्यों की जगह
आभासी मनुष्यों ने जन्म ले लिया था
धातु युग में लौटते हुए समाज में
खड़खड़ाती ध्वनियाँ अट्टहास कर रहीं थीं और
हम दूसरे ग्रहों पर जीवन तलाश रहे थे
विकासशील अब विकसित हो चुके थे।
(दो)
एक दिन हम तलाश लेंगे दूसरे ग्रहों पर जीवन
हमारे जीवन में बहुत सारी धरती होगी
हर ग्रह पर अलग-अलग
प्रकृति-जीव-जंतु
हम अलग-अलग ग्रहों के लोग
साझा करेंगे अपने जीवनानुभवों को
बहुत चमकदार और स्वप्निल हो जाएगा
हमारा जीवन
जीवन के इस चमकदार और स्वप्निल भविष्य में
चौंधिया गया है वर्तमान
भूत दुबक गया है चमक के पार्श्व में
सिर्फ भविष्य है हमारे स्वप्न में
चमचमाता हुआ
भूत और वर्तमान मुक्त
इस भविष्य में कहीं गुम जाएंगे हम सब
फिर कैसे कोई ढूँढ़ेगा हमें
देश-समाज-संस्कृति-भाषा तो
दुबक कर बैठे होंगे भूत की गोद में
चौंधियाए वर्तमान के दर्पण में
नहीं पहचान पाएंगे हम
अपना ही चेहरा ।
संपर्क – प्रदीप मिश्र, दिव्याँश 72 ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, डाक : सुदामा नगर, इंदौर-452009, म.प्र. मो.न. : +919425314126, ईमेल – mishra508@gmail.com.






