“कोई भी पलटकर पूछ सकता है कि हम अभी तक कौन-से स्वर्ग में रह रहे थे जिसको बचाने की फ़िक्र करें! और उसका यह पूछना बेबुनियाद भी नहीं होगा। आख़िर यही भारत तो था जिसको तमाम प्रगतिशील-जनवादी कवियों-कथाकारों ने अपनी आलोचना का निशाना बनाया था! उस भारत की अपनी अच्छाइयाँ थीं, पर वह ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) और ‘पटकथा’ (धूमिल) का भारत भी था! ‘रागदरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल) और ‘महाभोज’ (मन्नू भंडारी) का भारत भी था! ‘हत्यारे’ (अमरकांत) और ‘पार्टिशन’ (स्वयं प्रकाश) का भारत भी था! ‘बदबू’ (शेखर जोशी) और ‘टेपचू’ (उदय प्रकाश) का भारत भी था! वही भारत तो था जिसे बदल डालने की बातें करते हम थकते नहीं थे!”

‘बुरी है आग पेट की बुरे हैं दिल के दाग़ ये / न दब सकेंगे एक दिन बनेंगे इनक़लाब ये / गिरेंगे जुल्म के महल बनेंगे फिर नवीन घर / अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ – शैलेन्द्र
‘देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल / नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनायेंगे’ – शील
शैलेन्द्र और शील जी की ये पंक्तियाँ उस वाम मिज़ाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जो कमोबेश पिछली सदी की नौवीं दहाई तक वुजूद में रहा। उस समय तक, या शायद थोड़ा बाद तक भी, वाम-विचार से प्रभावित लोग परिवर्तन और नवनिर्माण की बातें करते थे (क्रांति की भी करते थे, यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं)। उनकी भाषा में ‘बदलने’ और ‘बनाने’ का मुहावरा खूब दुहराया जाता था। धीरे-धीरे वह ‘बचाने’ के मुहावरे से प्रतिस्थापित होता चला गया। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बचाना, निजीकरण और व्यावसायीकरण और गैट (GATT) की शर्तों से शिक्षा को बचाना, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बचाना, खेती को नैगमीकरण से बचाना, श्रम क़ानूनों को बचाना, चली आती सेवा-शर्तों को बचाना, फेडेरलिज़म को बचाना, पाठ्यपुस्तकों को भगवाकरण से बचाना, दलितों-स्त्रियों-आदिवासियों को मिले हुए अधिकारों को बचाना, नागरिक आज़ादियों को बचाना, धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव को बचाना, गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाना, संविधान को बचाना, लोकतंत्र को बचाना… हमारे देश की तरक़्क़ीपसंद जमातों के लिए, बचायी जाने वाली चीज़ों की फेहरिस्त लंबी होती चली गयी। आज ऐसा लगता है कि ‘बदलने’ और ‘बनाने’ के मुहावरे को ‘बचाने’ के मुहावरे ने पूरी तरह से अपदस्थ कर दिया है।
कोई आश्चर्य नहीं कि विरोध/प्रोटेस्ट की जगह प्रतिरोध/रेज़िस्टेंस ने ले ली है। प्रतिरोध में बाहरी हमला एक अहम कारक होता है। उसी हमले के रू-ब-रू पूर्व स्थिति के संरक्षण के लिए किया जाने वाला प्रयास प्रतिरोध है। जिस फ़्रेंच रेज़िस्टेंस की तर्ज पर हमने ‘प्रतिरोध’ शब्द को प्रचलन में लाया, वह फ्रांस पर नात्सी क़ब्ज़े का जवाब था। चिकित्साविज्ञान में भी शरीर की प्रतिरोधक क्षमता की बात की जाती है तो उसका मतलब कीटाणुओं के हमले से खुद को बचाने की शरीर की क्षमता से होता है।
ग़रज़ कि एक अरसे से हम प्रतिरोध ही कर रहे हैं। हमारे पास हक़ीक़त और संभावना के रूप में जो कुछ सकारात्मक था, वह सब हमले की ज़द में है और हम उसे बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। कोई चाहे तो तंज़ कस सकता है कि कल के परिवर्तनकामी आज संरक्षणकामी किंवा यथास्थितिवादी हो चले हैं। यह तंज़ कसना आसान है और इस हक़ीक़त को समझना निस्बतन मुश्किल कि हम पिछले कई सालों से, अर्थशास्त्री और जन-बुद्धिजीवी प्रभात पटनायक के शब्दों में, ‘सामाजिक प्रतिक्रांति’ के बीच हैं, जहाँ बचाना किसी भी नवनिर्माण की लड़ाई की पहली शर्त है। हमारे समय का फ़ासीवादी उभार जिस आधुनिक भारत को ज़मींदोज़ करके उसके मलबे पर ‘नया भारत’ खड़ा करना चाहता है, उस आधुनिक भारत को उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष और सामाजिक मुक्ति संघर्ष ने मिलकर परिकल्पित किया था। भारत का संविधान उसी परिकल्पना की पैदाइश है। उस परिकल्पना का एक ऐतिहासिक शक्ति में रूपांतरण किसी क्रांति से कम नहीं था, क्योंकि उसने अब तक के भारतीय समाज की संरचनात्मक और सांस्थानीकृत ग़ैर-बराबरी को नकार दिया था, एक व्यक्ति-एक वोट के उसूल को मान्यता दी थी, राज्य और न्यायिक प्रणाली की नज़रों में जाति-लिंग-धर्म-क्षेत्र के विचार से परे सभी नागरिकों की पूर्ण समानता का संकल्प लिया था, और दलित-दमित सामाजिक समूहों को उठाने के लिए विशेष प्रावधानों पर बल दिया था। मौजूदा प्रतिक्रांति इन सबको ज़मींदोज़ करने का महा-अभियान है और बुलडोज़र उसका सबसे कारगर प्रतीक।
यहाँ पूछा जा सकता है कि अगर ‘बचाने’ का अभियान आधुनिक भारत के विचार को ज़मींदोज़ करने वाले महा-अभियान का ही उत्तर है, तो पीछे जो फ़ेहरिस्त दी गयी, उसका उत्तरार्द्ध भर वहाँ होना चाहिए था, पूर्वार्द्ध की क्या ज़रूरत? यानी दलितों-स्त्रियों-आदिवासियों के अधिकारों को बचाना, धर्मनिरपेक्षता को बचाना, संविधान को बचाना तो समझ में आता है, पब्लिक सेक्टर को बचाने, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बचाने का आह्वान इस फ़ेहरिस्त में क्यों है? क्या यह उन चीज़ों को बचाने का आह्वान नहीं है जिनकी जड़ें एलपीजी (उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण) के अमल के साथ स्ट्रक्चरल एडजस्ट्मेन्ट के नाम पर बहुत पहले खुदनी शुरू हो गयी थीं? निस्संदेह, ऐसा ही है, और इसीलिए ‘बचाने’ का मुहावरा वाम दायरों में पिछली सदी की दसवीं दहाई से ही व्यवहार में आने लगा था। यहाँ इस बात को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि एलपीजी के अमल में आने का गहरा संबंध सामाजिक प्रतिक्रांति की शक्तियों के मज़बूत होने के साथ है। हमारे देश में उदारीकरण के बाद आर्थिक ग़ैर-बराबरी की खाई का जो अभूतपूर्व विस्तार हुआ, वह पहले से ही चुनौतियाँ झेल रही सामाजिक क्रांति को और कमज़ोर करने वाला कारक साबित हुआ। एजाज़ अहमद, प्रभात पटनायक समेत अनेक जन-बुद्धिजीवियों ने इस पर किंचित विस्तार से लिखा है। निचोड़ यह है कि नव-उदारवादी नीतियों ने वह वातावरण बनाया जिसमें संकीर्ण राष्ट्रवादी हिन्दुत्व को उभरने का माकूल अवसर मिला। इसलिए बचाने की कार्यसूची में आयी दो अलहदा प्रकृति की प्रविष्टियों के बीच एक गहरा संबंध है। इनके संबंध को समझने और समझाने का श्रेय वामपंथी राजनीति और बुद्धिजीवियों को जाता है। उन्होंने ही इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर नव-उदारवादी हमले से इस देश की अर्थव्यवस्था को नहीं बचायेंगे तो संविधान को बचाने, लोकतंत्र को बचाने, मिली-जुली संस्कृति को बचाने—संक्षेप में, भारत की संकल्पना को बचाने—की बात भूल जाएँ। वामपंथी राजनीति और बुद्धिजीवियों को इसका भी श्रेय जाता है कि एलपीजी की शुरुआत से ही उन्होंने इसका विरोध किया और संरचनात्मक समायोजन के तहत जिन चीज़ों की जड़ें खोदी जा रही थीं, उन्हें बचाने का आह्वान किया। इस तरह ‘बदलने’ और ‘बनाने’ की जगह ‘बचाने’ का मुहावरा उनके यहाँ उदारपंथी बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों से पहले आ गया था जिन्होंने 2014 के बाद इसे दुहराना शुरू किया। यह बचाने की मुहिम ही थी जिसके तहत वामपंथियों ने यूपीए 1 सरकार को अपना समर्थन दिया था, लोककल्याणकारी राज्य की नीतियों के लिए संघर्ष किया था और कुछ हद तक सफलता भी पायी थी, और अंततः समर्थन वापस लिया था। यह दिलचस्प है कि न सिर्फ़ समर्थन का दिया जाना बल्कि उसका वापस लिया जाना भी बचाने की मुहिम का ही हिस्सा था। आज भारत की संकल्पना को बचाने में सन्नद्ध बहुतेरे लोग उन दिनों वामपंथियों को एक बाधा की तरह देखते थे और यह कहते पाये जाते थे कि मनमोहन सिंह को ये लोग कुछ करने दें तब न! ये न होते तो भारत कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता! उनका कहना बिल्कुल सही था। 2009 से 2014 तक यूपीए सरकार के रास्ते में कोई बाधा नहीं रही; नतीजे में हम देख ही रहे हैं, भारत कहाँ से कहाँ पहुँच गया!
लेकिन इस बात को समझने की ज़रूरत है कि बचाने की मुहिम जितनी भी सुचिन्तित हो, ‘बचाने’ का मुहावरा कई बार नव-उदारवाद और हिन्दुत्व द्वारा प्रयुक्त मुहावरों के मुक़ाबले विकर्षक ठहरता है। नव-उदारवाद ने हर क़दम पर ‘सुधार’/‘रिफॉर्म’ की बात की। हिन्दुत्व की ताक़तों ने ‘नया भारत’/‘न्यू इंडिया’ का नारा दिया। इन शब्दों का आम जन पर पहला प्रभाव सकारात्मक ही पड़ता होगा। वे प्रदत्त व्यवस्था की जिन कमियों के शिकार होंगे, उनसे छुटकारा पाने की उम्मीद जगाते होंगे ये शब्द। इनके मुक़ाबले, ‘बचाने’ की बात मन में कई तरह के संदेहों को जन्म देती होगी। लोग आम तौर पर अपने समय की प्रदत्त व्यवस्था को किसी नीर-क्षीर विवेक के साथ देखने के बजाये एक इकाई के तौर पर ही देखते हैं। उनके लिए बचाने का मतलब भी उस पूरे को बचाना होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस संपादकीय लेखक ने अपने विश्वविद्यालय में अक्सर ‘सुधार’ के प्रयासों के बरक्स ‘विश्वविद्यालय व्यवस्था को बचाने’ की बात किये जाने पर आम शिक्षकों की प्रतिक्रिया को बहुत उत्साहजनक नहीं पाया। उन्हें अवश्य लगता होगा कि विश्वविद्यालय में अधि-संरचना से लेकर नियुक्ति-प्रणाली तक, शिक्षण-अधिगम से लेकर शोध-सुविधाओं तक, ऐसा क्या है जिसे बचाने की ज़रूरत है! निश्चित रूप से, ‘सुधारों’ के लागू होने के कुछ ही समय बाद उन्हें समझ में आ गया होगा कि बचाने की बात का क्या महत्त्व था, और यह कि बचाने की बात करने का मतलब किसी व्यवस्था की कमियों को नज़रअंदाज़ करना नहीं होता है। लेकिन प्रस्तावित ‘सुधार’ (जिसके नतीजे भविष्य के गर्भ में होते हैं) के मुक़ाबले प्रदत्त व्यवस्था (जिसके नतीजे हम प्रत्यक्ष भुगत रहे होते हैं), सपनों के मुक़ाबले हक़ीक़त की तरह होती है—कमतर और आकर्षणविहीन। संभव है, ‘नया भारत’ भी बहुतों को एक आकर्षक पदबंध प्रतीत होता होगा और उसके मुक़ाबले आज़ादी के बाद बनाये गये भारत को बचाने के प्रस्ताव में एक झख की ध्वनि सुनायी पड़ती होगी। कोई भी पलटकर पूछ सकता है कि हम अभी तक कौन-से स्वर्ग में रह रहे थे जिसको बचाने की फ़िक्र करें! और उसका यह पूछना बेबुनियाद भी नहीं होगा। आख़िर यही भारत तो था जिसको तमाम प्रगतिशील-जनवादी कवियों-कथाकारों ने अपनी आलोचना का निशाना बनाया था! उस भारत की अपनी अच्छाइयाँ थीं, पर वह ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) और ‘पटकथा’ (धूमिल) का भारत भी था! ‘रागदरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल) और ‘महाभोज’ (मन्नू भंडारी) का भारत भी था! ‘हत्यारे’ (अमरकांत) और ‘पार्टिशन’ (स्वयं प्रकाश) का भारत भी था! ‘बदबू’ (शेखर जोशी) और ‘टेपचू’ (उदय प्रकाश) का भारत भी था! वही भारत तो था जिसे बदल डालने की बातें करते हम थकते नहीं थे!
आशय यह कि ‘बचाने’ का मुहावरा लोगों को अपनी उपादेयता का क़ायल बना सके, इसके लिए इसे नीर-क्षीर-विवेकी व्याख्याओं के साथ ही दुहराया जाना चाहिए। उनके बगैर यह मुहावरा यथास्थितिवादी लगता है और कई मामलों में प्रति-उत्पादक हो जाता है। दिक़्क़त यह है कि हर बार व्याख्याओं के साथ इसे दुहराना संभव नहीं है। नारा आख़िरकार नारा होता है, वह भाषण नहीं हो सकता।
तो क्या इस नारे को छोड़ ही देना एक बेहतर प्रस्ताव न होगा? यह यथास्थितिवाद के ठप्पे को खुरचकर हटाने के लिए भी ज़रूरी है और इसलिए भी ज़रूरी है कि अब ऐसा कुछ बचा हुआ है नहीं जिसे बचा रखने की बात की जाये। ज़्यादातर संरक्षणीय चीज़ों के ढाँचे भर बचे हैं जिन्हें या तो अंदर से ख़ाली किया जा चुका है या जिनके अंदर का माल बदल दिया गया है। ऐसे समय में क्यों न संरक्षण के बजाये परिवर्तन और नवनिर्माण के विचार को आगे बढ़ायें! क्यों न ‘बदलने’ और ‘बनाने’ के मुहावरे में बात की जाये! क्यों न ‘नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनायेंगे’ वाली भाषा और जज़्बे का पुनराह्वान किया जाये!
अगर ज़ुल्म के महल गिराने और नवीन घर बनाने का उत्साह शैलेन्द्र के समय संभव था तो आज भी है। अगर पेट की आग और दिल के दाग़ में इनक़लाब बनने की संभावना तब थी तो अब भी है।
यहाँ क्लारा ज़ेटकिन की याद आना अकारण नहीं है:
‘क्रांति कर पाने में हमारी नाकामी की सज़ा है फ़ासीवाद।’
(आलोचना 78 के संपादकीय का एक अंश)
sanjusanjeev67@gmail.com







बहुत ही महत्वपूर्ण संपादकीय आलेख। बधाई एवं शुभकामनाएं।
चंद्रेश्वर/लखनऊ
17-08-2025
आपके निष्कर्ष से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। ‘बदलने’ और ‘बनाने’ की समझ को ही आगे बढ़ाने की जरूरत है।
नवनिर्माण की भाषा समझ में आती है। बचाने के मुहावरे कमजोर होती ताकत और हिम्मत की पहचान।
आपने पूरी गंभीरता से तथ्यों को रखा है. यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती कि बदलने और बनाने की प्रक्रिया से हम अब बचाव की मुद्रा में आ गए हैं. यह चिंतनीय तो है ही लेकिन इस पर गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है.समय पर यह तल्ख़ टिप्पणी है.
अत्यंत प्रशंसनीय आलेख। हम ‘बचाने’ की आवृत्ति में खुद को गंवाते जा रहे हैं। इसलिए निष्कर्ष ‘बदलने’ और ‘बनाने’ जैसे मुहावरे अधिक प्रासंगिक हैं।
भारत को बचाने का असली अर्थ होगा भारत की गंगा जमुनी तहजीब ओ तमद्दुन को बचाना। भारत के किसान की परिश्रम की संस्कृति को बचाना। श्रमजीवियों के मानवीय हक़ को बचाना। बच्चों, महिलाओं और अन्य वंचित एवं दमित तबकों के हक में अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना, अल्पसंख्यक अधिकारों को सुनिश्चित करने वाली आवाज़ों के पीछे लामबंद होना।
यदि बचाना ही है तो जंगल, जल और ज़मीन के साथ उपरोक्त बातों को बचाया जाना चाहिए।
गहराई में जाकर विमर्श के लिए यह संपादकीय महत्वपूर्ण है। दरअसल बचाने की मुहिम में हम बचने की भाव में आ चुके हैं। यह अब आकर्षक भी तो नहीं है। लोग भी थक हार चुके हैं। फिर एकबार बदलने और बनाने की भावना को आगे लाएं। बेजोड़ संपादकीय। आपको बधाई