बंद कमरे में एक सदी का क़िस्सा है ‘आफ़ताब हाउस’ / समीना ख़ान


“हालाँकि फिल्म पकिस्तान की सरज़मीं पर लिखी और फिल्मायी गयी है मगर इसकी गिरफ़्त में दोनों मुल्कों के बँटवारे और उनकी अवाम की आज तक बदहाली की झलक लगातार दो जिस्म एक जान होने का एहसास दिलाती रहती है।”–पाकिस्तानी शॉर्ट फ़िल्म ‘आफ़ताब हाउस’ पर समीना ख़ान :

आख़िरकार भारतीय क्रिकेट टीम की सूनी जर्सी को नया स्पॉन्सर मिल गया। टीम इंडिया के स्पॉन्सर के लिए लगी बोली में अपोलो टायर्स ने बाज़ी मारी और रिपोर्ट्स के अनुसार, अब अपोलो टायर्स बीसीसीआई को प्रत्येक द्विपक्षीय मुक़ाबले के लिए 4.5 करोड़ रुपये का भुगतान करेगा। अभी तक खेले गये मैच में ड्रीम 11 क्रिकेट बोर्ड को 4 करोड़ रुपए का भुगतान करता था। ओपोलो टायर्स का करार 28 मार्च 2028 तक के लिए किया गया है। दोनों के मध्य हुए इस करार में 121 द्विपक्षीय मैच और 21 आईसीसी मैच शामिल हैं। इस अवधि के दौरान कुल मिलाकर 130 मैच खेले जायेंगे। यह रक़म 579 करोड़ रुपये बनती है, जो ड्रीम 11 टीम द्वारा भुगतान की गयी पिछली 358 करोड़ रूपये की राशि से 221 करोड़ ज़्यादा है।

इस क्रिकेट मैच के साथ एक और न नज़र आने वाला मैच भी जारी रहा और यह था देशभक्ति बनाम भारत-पकिस्तान के बीच होने वाला क्रिकेट। जीत यहाँ बाज़ार की हुई मगर एक स्क्रिप्टनुमा मैच ने दुबई में खेले गये फ़ाइनल में मुद्दा कुछ इस तरह बदला कि क्रिकेट ग्राउंड का नाता ऑपरेशन सिन्दूर से जुड़ गया। हार जीत के फ़ैसले तक मैच किस भावना से खेला गया, नहीं मालूम, मगर नतीजा आते ही यह पारम्परिक युद्ध के मैदान में बदल गया। … भारतीय टीम ने दुश्मन देश के हाथों एशिया कप ट्रॉफी लेने से इंकार कर दिया। इतना कहना बनता है कि ‘स्क्रिप्ट अच्छी है।’

मगर हम यहाँ एक ऐसी स्क्रिप्ट का किस्सा जानेंगे जो बहुत किफ़ायती होने के साथ बड़ी ही सादा भी है। इस स्क्रिप्ट में सरहद है, अदाकार हैं, हिदायतकार हैं, बस नहीं है तो बाज़ार और हार-जीत। बिना हार-जीत वाले इस खेल का नाम है आफ़ताब हाउस। सरहद पार बनी इस शार्ट फिल्म के लेखक हैं, अनवर मक़सूद।

अनवर मक़सूद मशहूर पाकिस्तानी कवि, व्यंग्यकार, स्क्रिप्ट लेखक और टीवी होस्ट हैं। बँटवारे के बाद अनवर मक़सूद के कुनबे ने जब 1948 में पकिस्तान के लिए कूच किया होगा तो उनकी उम्र नौ बरस रही होगी। कराची पहुँचने पर मासूम बचपन का एक ऐसा दौर हिन्दुस्तान में छूट गया होगा जिसे उन्होंने विरासत की तरह सहेजा होगा। सरहद ने इस विरासत को और भी नायाब बना दिया होगा। दूरी और पाबंदियों ने उसे दिल के ख़ज़ाने में शुमार किया होगा और गुज़रते वक़्त ने हिजरत से पहले की इन यादों को बेशक़ीमती बना दिया होगा। ये वही यादे हैं जो ताउम्र उनके ज़ेहन में गर्दिश करती रही होंगी और इन्हीं यादों के एक गोशे को जब अनवर मक़सूद ने अपनी क़लम की बदौलत दुनिया के सामने लाने की कोशिश की तो उनकी खलिश और टीस भी ज़ाहिर हो गयी। अनवर मक़सूद की इस स्क्रिप्ट को डायरेक्शन का साथ मिला है डॉयरेक्टर, प्रोड्यूसर और एक्टर एहसान तालिश का। दोनों ने साबित किया है कि स्क्रिप्ट और डायरेक्शन ऐसे टूल है जो अकूत दौलत के मोहताज नहीं होते बल्कि एक छोटा सा बजट भी इसे दिल की गहराइयों में उतारने की सलाहियत रखता है। शार्ट फिल्म ‘आफ़ताब हाउस’ के बहाने अनवर मक़सूद ने अपने जिन जज़्बात की अक्कासी की है, उसे कोई पत्थर दिल भी महसूस कर सकता है।

कमाल की स्क्रिप्ट, कमाल की अदाकारी और कमाल का पिक्चराइज़ेशन, भारी भरकम लागत का नहीं फ़न का कमाल होता है। शार्ट फिल्म ‘आफ़ताब हाउस’ इसकी मिसाल है।

पचपन मिनट की इस फिल्म के बहाने अनवर मक़सूद इस कमाल को सामने लाते हैं, जिसमें बदर खलील, समीना अहमद, महमूद अख्तर और साकिब शेख अपनी कलाकारी के दम पर एक झिलमिलाती दुनिया से परे धुँधले कमरे की दास्तान को धड़कन और साँसें देने में कामयाब होते हैं।

वक़्त के एतबार से यह ड्रामा तीन जनरेशन की दास्तान है जो चौथी जनरेशन को पाँचवीं से कुछ ज़्यादा समझ आयेगा। या यूँ कहिए कि अनवर मक़सूद ने अपनी क़लम से एक सदी का क़िस्सा एक कमरे में सिमट कर बयान कर दिया और तारीफ़ इस बात की है कि आज के प्रोडक्शन को देखते हुए इसकी लागत सिफर आँकी जायेगी और पेशकश सौ फ़ीसद कामयाब।

शार्ट फिल्म ‘आफ़ताब हाउस’ उन दो बुज़ुर्ग महिलाओं की कहानी है जो बटवारे के बाद अपने रजवाड़े दौर की यादों के साथ तहज़ीब, ज़बान, ज़ायक़े और पहनावे को आज भी अपनी ज़ात का हिस्सा बनाए हैं। बी अम्मा (बदर खलील), फूफी (समीना अहमद) से पांच बरस बड़ी हैं। बी अम्मा ने शाही दौर देखा है मगर अपने बुढ़ापे में अपने भतीजे (महमूद अख्तर ) के साथ रह रही हैं। घर की मालकिन होने के बावजूद वह इस घर में एक सहमी हुई ज़िंदगी गुज़ार रही हैं। जबकि फूफी का किरदार बेहद खुशमिज़ाज, हाज़िरजवाब, ज़िंदगी से भरपूर और हक़ पाने के लिए शातिर तरकीब की मदद लेता नज़र आता है।

बज़ाहिर चुलबुली, तुनक मिज़ाज और हाज़िर जवाब फूफी अम्मा का किरादर अपने आप में एक बेमिसाल किरदार है। अंधेरे और बंद कमरे में उनकी मौजूदगी किसी उजाला फैलाते रोशनदान की तरह है। बी अम्मा के डायलॉग किसी रूम फ्रेशनर की तरह इस बंद कमरे की फ़िज़ा को खुशगवार बनाते हैं और उनकी चुहलबाजियां किसी एक्ज़ॉस्ट फैन की तरह से कमरे की उमसभरी घुटन को बाहर फेंक देती है। जिस सस्पेंस के साथ कहानी अपने अंजाम तक पहुंचती है, उसके लिए फिल्म का देखा जाना ज़रूरी है।

फूफी का चालाक भतीजा अपनी दूसरी और नखरीली बेगम से मजबूर है तो इन सबके बीच की कड़ी बनकर मुलाज़िम (साकिब शेख) इस दास्तान को रवानी देता है। हर किरदार के पास उसके ग़म और उन्हें साबित करने वाली दलीलें है। ये दलीलें एक किरदार के बहाने मुल्क की मुफलिसी और बदहाली के किस्से भी बयान करती जाती है। राजवाड़ा बचपन गुजारने के बाद बुढ़ापे में छोटे होते दिलों, सिकुड़ गए बजट के साथ कमरे के अंदर से बाहरी दुनिया की महंगाई का नज़ारा कराता एक मंज़र कुछ इस तरह है-

मुलाज़िम- ‘पराठा दे देना, कहना बहुत आसान है। उसकी तश्कील (बनाने) पे चीखें निकल जाएंगी।’
बी अम्मा- ‘क्यों?’
मुलाज़िम- ‘आटे के सरकारी गोदामों पे ताले पड़ गए हैं। तो सोचें बावर्चीखाने में जहां आटा रखा है, उस पर क्या लगा होगा? एक रोटी आठ रुपये की पड़ रही है। अब तुम दोनों पराठे की क़ीमत का अंदाजा लगाओ।’

आज़ादी से पहले की द साइलेंट जेनेरेशन के हवाले से फूफी अम्मा अपने दौर को याद करते हुए कहती हैं- ‘पुराने ज़माने की क्या बात थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि हमारे अब्बा बादामों के चावल का पुलाव खाते थे और बावर्ची बादाम बिलकुल चावलों की तरह बारीक-बारीक काटता था।’

अपने 46वें मिनट पर फिल्म उस वक़्त दिल मोह लेती है जब इस बहस में बदली तहज़ीब का हवाला पुलाव और बिरयानी के फ़र्क़ के साथ सामने आता है। खामोश और सब्र करने वाली बी अम्मा को यहां पर मुलाज़िम पुलाव बताता है क्योंकि बी अम्मा में लताफ़त (पाकीज़ा और बेहतरीन), नफासत और सफाई की खूबियां हैं। जबकि फूफी को बिरयानी का तमग़ा उनके अंदर मौजूद हर क़िस्म की खूबियों के हवाले से दिया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे बिरयानी में हर किस्म के मसाले भरे जाते हैं।

यक़ीनन इस मंज़र के ज़रिए किए जाने वाले तंज़ का मतलब और सबसे ज़्यादा लुत्फ़ वह दर्शक ले सकेंगे, जो पुलाव और बिरयानी के फ़र्क़ की बारीकी को जानते हैं। अनवर मक़सूद ज़ायक़े के बहाने वह शोशा छोड़ देते हैं जो आज भी जेनेरेशन गैप की सूरत में बदलती तहज़ीब की बदौलत हर घर की बहस है।

सेट का जायज़ा लें तो एक कमरे में दो पुरखिनों के अलावा इनका हमउम्र ग्रामोफोन, एक तख़्त एक मसहरी और कुछ फर्नीचर मौजूद है।

हालाँकि फिल्म पकिस्तान की सरज़मीं पर लिखी और फिल्मायी गयी है मगर इसकी गिरफ़्त में दोनों मुल्कों के बँटवारे और उनकी अवाम की आज तक बदहाली की झलक लगातार दो जिस्म एक जान होने का एहसास दिलाती रहती है। फिल्म में बुज़ुर्ग स्त्री विमर्श को भी बखूबी पेश किया गया है।

दोनों देशों के बीच बनी जिस सरहद और सियासत ने इंसानों को भरपूर दूरी और कड़ुवाहट बख्शी है, वहीं दोनों जगह के कलाकारों की कोशिशें हमेशा इस दूरी को ख़त्म करने में कामयाब हुई हैं। पिछले एक दशक में यह खाई और भी ज़्यादा पटी है। हिंदी सिनेमा हमेशा से पाकिस्तानियों की पहली पसंद रहा है तो पाकिस्तानी ड्रामे भी यहां घर-घर में अपनी पहुंच बना चुके हैं। कह सकते हैं कि फनकार और फन के क़द्रदानों ने उस रिश्ते को बचा लिया है जो राज कपूर, दिलीप कुमार और इन जैसे बेशुमार कलाकारों के बाद शायद नफरत की आग में झुलसने से बच गए।

ये ऐसी कहानियां है जो अपने ऊंचे मूल्यों और बेहद कम लागत के सहारे अभी भी हमारे साझा ग़मों और हमारे एक ही जड़ से पनपने के इतिहास को बार-बार दोहरा जाती हैं। ये दास्ताने कितने ही दिलों में यह अरमान जगा देती हैं कि टाइम ट्रैवल मशीन होती तो उस ज़माने का नज़ारा कर आते। यही वह फुहार है जो सियासत या खेल के मैदानों से निकलती चिंगारी को बुझा देने का कारनामा करती रही है और आइंदा भी करती रहेगी। आज भी बाज़ार और बाज़ार की गोद में खेलता क्रिकेट जिस वक़्त इन मुल्कों को एक दूसरे के मुक़ाबले खड़ा करता है, वहीं दोनों मुल्कों के ऐसे शाहकार उस असर को कहीं न कहीं बेअसर करने की तासीर भी रखते हैं।

जिस दौर में पांच सौ या हज़ार करोड़ की फ़िल्में बनाए जाने का चलन हो और जहां एक एक्टर की फीस किसी मुल्क के सारे मज़दूरों की दिहाड़ी के बराबर नज़र आए, वहां आफताब हॉउस एक मिसाल है जो हरफन मौला अनवर मक़सूद के साथ उनकी टीम के फन को उरूज पर पहुंचाता है। और यह सन्देश भी देता है कि कला में दम हो तो कलाकार को उसे बेमिसाल बनाने से कोई नहीं रोक सकता।

saminasayeed@gmail.com

 


4 thoughts on “बंद कमरे में एक सदी का क़िस्सा है ‘आफ़ताब हाउस’ / समीना ख़ान”

  1. I have seen this beautiful short film,full of true range of emotions as per the turn of events going on
    Amazing comments on all the occasions, characters,their joys, pains ,memories,occasional fights and hopelessness with hopes buried in that has been described by sameena
    Wonderful
    Sorry i couldn’t put it in hindi my loss

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  2. बहुत ही शानदार लिखा है। अनवर मकसूद की कहानी है फिल्म भी शानदार होगी। इस जानकारी को बताने का शुक्रिया

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  3. I will must see this film to appreciate the impact of Anwar Maqsood’s writing. Your writing, your summary, and your choice of words are also excellent.I read the entire article. Please keep reviewing like this.

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