‘ ‘द कॉन्ट्रैक्ट्स ऑफ फ़िक्शन’ हमें याद दिलाती है कि साहित्य एक गहरा अभ्यास है जिसके सहारे हम अपने नैतिक संकाय को दुरुस्त कर सकते हैं तथा सामाजिक-संज्ञानात्मक बोध को पुष्ट। यह केवल पाठ का आनंद नहीं है बल्कि समाज के भीतर रहने की एक नैतिक तैयारी है।’–एलन स्पॉल्स्की की किताब पर महेश मिश्र की टिप्पणी:
एलन स्पॉल्स्की (Ellen Spolsky) की पुस्तक The Contracts of Fiction (2015) को समकालीन साहित्यिक विमर्श में एक महत्त्वपूर्ण योग के रूप में देखा जाता है। पुस्तक साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय आयामों पर कम बात करती है। वह खुद को इस बात पर केन्द्रित करती है कि साहित्य कैसे मनुष्य की चेतना, सामाजिक अनुबंध और नैतिक संरचना के निर्माण में भागीदार होता है।
इस छोटे से आलेख में पुस्तक में आये विचार-सूत्रों और संज्ञानात्मक अंतर्दृष्टियों को समझने की कोशिश की गयी है। कोशिश इस बात की भी की गयी है कि इस बहाने साहित्य के सांस्कृतिक महत्त्व पर भी सम्यक विचार किया जा सके। स्पॉल्स्की के विचारों को पारंपरिक विमर्श और अधुनातन शोधों से जोड़ते हुए यह समझना रोचक है कि फ़िक्शन कैसे मानवीय अस्तित्त्व की जटिलता को व्यक्त करने के साथ-साथ उसे पुन: पुन: मानवीय बनाने का उद्यम रचता रहता है।
फ़िक्शन कल्पना की उड़ान या मनोरंजन-मात्र नहीं है। वह सामाजिक अभ्यास और बर्ताव की तरह देखे जाने की अपेक्षा रखता है। स्पॉल्स्की इस बात को अपील की शैली में नहीं कहती हैं बल्कि मनोविज्ञान के क्षेत्र में हो रही अद्यतन खोजों, साहित्यिक और दार्शनिक परिप्रेक्ष्यों से उसे एक सुसंगत आधार देती हैं।
आज के दौर में जब सूचनाओं की गति परमाणविक हो चुकी है, एल्गॉरिद्म्स हमारी प्राथमिकताएँ तय कर रहे हैं और इन सबसे बन रहा हमारा अस्थिर मानस हर विमर्श को सतही बना रहा है और साहित्य को उथला, तो ऐसे में द कॉन्ट्रैक्ट्स ऑफ फ़िक्शन हमें याद दिलाती है कि साहित्य एक गहरा अभ्यास है जिसके सहारे हम अपने नैतिक संकाय को दुरुस्त कर सकते हैं तथा सामाजिक-संज्ञानात्मक बोध को पुष्ट। यह केवल पाठ का आनंद नहीं है बल्कि समाज के भीतर रहने की एक नैतिक तैयारी है।
पुस्तक एक मूलभूत प्रश्न उठाती है कि मनुष्य इतिहास के हर कालखंड में, हर भूगोल में, इतनी विशाल मानसिक, सांस्कृतिक ऊर्जा और आर्थिक संसाधन किस्से-कहानियों में क्यों ख़र्च करता है?
स्पॉल्स्की का तर्क है कि फ़िक्शन को सामाजिक अनुबंध की तरह देखा जाना चाहिए। मुद्रा, रिश्ते, न्याय-व्यवस्था, भाषा की तरह साहित्य भी एक सचेत लेन-देन की व्यवस्था है जो समाज के भीतर अर्थ, मूल्य और पहचान के नियम गढ़ता है। यह अनुबंध हमें वह सलीका देता है जिससे हम यह आभ्यंतरीकृत कर पाते हैं कि समाज किस तरह वस्तु और मूल्य के बीच, स्थूल और अमूर्त के बीच एक जटिल संतुलन बनाये रखता है। साहित्य कोई निष्क्रिय बौद्धिक उपक्रम नहीं है जिसका होना या न होना अधिक मायने नहीं रखता है, बल्कि यह तो चेतना, ज्ञान और सामाजिक संस्थाओं की निर्मिति में बहुत गहरी भूमिका रखता है।
फ़िक्शन संतुलन की कला है तो संतुलन के विस्थापन की भी कला है। यह उस विघटन को भी स्वर देता है जब पुराने मूल्य असंगत हो चले हैं और नये नैतिक ढाँचों को जन्म लेना है। कविता, नाटक, उपन्यास, कॉर्टून, ट्रैजेडी, कॉमेडी—ये सब हमारे यथार्थ-बोध की सीमाओं को लाँघने वाले उपकरण हैं जिनके माध्यम से मनुष्य अपनी अनुभूतियोँ, असहमतियों और आकांक्षाओं को स्वर देता है और संचित करता है।
स्पॉल्स्की कहती हैं कि कथा दरअसल मानव मस्तिष्क की एक ऐसी प्रयोगशाला है जहाँ ‘सामूहिक संज्ञान (Distributed Cognition)‘ और ‘पर-चेतना बोध (theory of mind)‘ जैसी संज्ञानात्मक क्षमताएँ अपनी पूर्णता को प्राप्त करती हैं। इन शब्द-बंधों को हम ऐसे समझ सकते हैं। समुद्री यात्रा में कैप्टन केवल अपने दिमाग़ से निर्णय नहीं लेता बल्कि नक्शे को देखता है, कंपास देखता है, हवा की दिशा की तरफ ध्यान देता है, साथी क्रू से पूछता है तथा अपने पूर्व-अनुभव के आधार पर निर्णय लेता है। यह प्रणाली वितरित (सामूहिक) संज्ञान का एक उदाहरण है। वहीं, थियरी ऑफ माइंड वह संज्ञानात्मक क्षमता है जिससे हम दूसरे लोगों के विश्वास, इच्छा, विचार, भावनाएँ और ज्ञान को समझते हैं जो हमारी मानसिक अवस्था से भिन्न हो सकते हैं। यह हमें सहानुभूति, धोखा समझने, झूठ पकड़ने, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने और सामाजिक व्यवहार में कुशल बनाता है।
इस तरह फ़िक्शन हमें केवल एक कहानी नहीं देता, वह हमें यह सिखाता है कि दूसरों की चेतना को किस तरह समझा जाए, उनके अनुभवों को कैसे महसूस किया जाए, और उनके साथ नैतिक संबंध किस तरह निर्मित किये जायें।
इस सन्दर्भ में, इसी पुस्तक में उद्धृत द वांडरर कविता पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। यह एक विस्थापित, शोक-संतप्त मनुष्य की कविता है जो पुराने शब्दों में नयी पीड़ा को व्यक्त करने की कोशिश करती है। वह अपने पूर्वजों की सीखों में सांत्वना खोजता है, पर पाता है कि वे शब्द तो अब अपर्याप्त हो गये हैं। यह कविता बताती है कि कैसे भाषा, स्मृति, और संवेदना का अनुशासन एक नये नैतिक अनुबंध को स्वयं ही जन्म देने लगता है—जब अनिर्वचनीय तनाव हमारे भीतर नई नैतिकता की संभावना रचने की ओर अग्रसर हो जाता है।
स्पॉल्स्की की यह पुस्तक बार-बार इस बात पर बल देती है कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है—यह एक धीमा, सामाजिक-बोध का व्यवस्थित ढाँचा है। यह उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें समाज अपनी ही संस्थाओं, आस्थाओं और आकांक्षाओं की पुनर्रचना करता है। यह पुनर्रचना अक्सर पीड़ा से, विघटन से, और असमर्थताओं से उपजती है, परंतु वहीं से नये बोध की शुरुआत भी होती है।
पुस्तक में स्पॉल्स्की कुछ धारदार अवधारणाओं के माध्यम से इस विमर्श को और गहराई देती हैं—विशेष रूप से इस बात पर कि साहित्य किस तरह से मानव समाज के भीतर संभावनात्मक नैतिक ढाँचों की रचना करता है।
लेखिका का एक महत्त्वपूर्ण तर्क है कि फ़िक्शन ग़लतफ़हमी को न केवल बर्दाश्त करता है, बल्कि वह उसे आवश्यक बनाता है। जब पात्रों के बीच संप्रेषण विफल होता है, जब संवाद अधूरा रह जाता है, तब पाठक एक तीसरे स्थान में खड़ा होता है—जहाँ वह न केवल इस विफलता को देख रहा होता है, बल्कि उसमें अंतर्निहित मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक तनावों की गूंज भी महसूस कर रहा होता है। इस प्रक्रिया को स्पॉल्स्की डिस्ट्रीब्यूटेड मिस-अंडरस्टैंडिंग कहती हैं, जहाँ कथा एक मंच बन जाती है—संवेगात्मक प्रयोगशाला की तरह—जिसमें हम परस्पर-विरोधी दृष्टिकोणों और अपूर्ण जानकारी के बीच अर्थ-निर्माण की कोशिश करते हैं।
अर्थ-निर्माण अर्थात् भाव और चेतना निर्माण!
और यह अभ्यास केवल साहित्यिक नहीं रह जाता बल्कि संज्ञानात्मक और नैतिक दायरों तक पहुँच जाता है।
स्पॉल्स्की यह तर्क भी प्रस्तुत करती हैं कि साहित्य किसी स्थायी या अंतिम सत्य का प्रस्ताव नहीं देता, बल्कि वह हमें सिखाता है कि नैतिक अनिश्चितता के बीच कैसे जिया जाए।
इसका स्पष्ट राजनीतिक निहितार्थ भी है: जब आधुनिक समाज स्थिर, सर्वमान्य ‘सत्य‘ की तलाश में हिंसक हो उठता है, तब साहित्य हमें यह याद दिलाता है कि असहमति, भिन्नता और संशय भी मानवीय अनुबंध का हिस्सा हैं।
सामान्य बोध के इतर फ़िक्शन एक पूरी तरह सुरक्षित क्षेत्र नहीं है—बल्कि एक जोखिम-भरा, नैतिक रूप से आवेशित क्षेत्र है, जहाँ समाज अपने समन्वय की लगातार परीक्षा लेता रहता है।
इस पुस्तक का संक्षेप में निष्कर्ष यही है कि साहित्य न केवल स्मृति और संवेदना की संरचना करता है, बल्कि वह भविष्य की नैतिक कल्पनाओं की भी नींव रखता है। यह मानव-समाज के लिए एक आवश्यक संज्ञानात्मक उपकरण (cognitive tool) है—एक ऐसी मानसिक और सांस्कृतिक व्यवस्था जो हमें अराजकता में भी समझदारी की गुंजाइश देता है।
द कॉन्ट्रैक्ट्स ऑफ फ़िक्शन एक ऐसी पुस्तक है जो पाठक को गहराई से सोचने के लिए बाध्य करती है। वह साहित्य को महज़ सौंदर्य या आत्म-रति के क्षेत्र से बाहर निकालकर उसे समाज, संज्ञान और नैतिकता के बड़े विमर्शों से जोड़ देती है।
फ़िक्शन की यह भूमिका विशेष रूप से लोकतांत्रिक समाजों में महत्वपूर्ण हो जाती है, जहाँ बहुलता, असहमति और विचारों की विविधता को नैतिकता का हिस्सा माना जाता है।
स्पॉल्स्की की यह पुस्तक हमें एक चेतावनी भी देती है—कि यदि हम कथा की शक्ति को केवल सौंदर्य या भावुकता तक सीमित करते हैं, तो हम उसकी बौद्धिक और सामाजिक क्षमता से वंचित ही रह जायेंगे। साहित्य की सबसे गहरी उपलब्धि यही है कि वह व्यक्ति को समाज से जोड़े, और समाज को उसकी नैतिक ज़िम्मेदारियों की याद दिलाये—वे ज़िम्मेदारियाँ भी जो भविष्योन्मुख हैं।







पठनीय और विचारणीय।
मूल्यवान प्रस्तुति के लिए आभार।