विरासत महत्त्वपूर्ण है लेकिन आधुनिकीकरण की ज़रूरत कहीं ज़्यादा है – ख़ालिद अशरफ़
जनवादी लेखक संघ, दिल्ली ने बीते 24 अगस्त को हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में ‘विमर्श एवं विरासत’ विषय पर विचार-गोष्ठी का आयोजन किया। गोष्ठी की अध्यक्षता जलेस(दिल्ली) के अध्यक्ष ख़ालिद अशरफ़ ने की। स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रेम तिवारी ने कहा कि आज के समय में ऐसी बहसों में युवाओं का हस्तक्षेप जरूरी है। वक्त के दरवाजे पर वक्त की नई दस्तक के लिए हम सब इकट्ठा हुए हैं।
गोष्ठी में बतौर वक्ता स्नेहलता नेगी ने आदिवासी अस्मिता को उसके अतीत के साथ जोड़ते हुए कहा कि आदिवासी समाज हमेशा से स्वाधीन समुदाय के रूप में रहा है। 1857 की क्रांति से स्वाधीनता आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है लेकिन आदिवासी आंदोलनों का इतिहास देखें तो पता चलता है इसकी शुरुआत आदिवासी समाज ने बहुत पहले ही कर दी थी। हम हूल विद्रोह, मुंडा विद्रोह के आगे नहीं जा पाते हैं। आदिवासी विरासत का इतिहास लोक स्मृतियों के माध्यम से आया है। लोक अपने इतिहास को बुनता है। संथालों के यहाँ संथाल विद्रोह तथा सिद्धू-कान्हू को लेकर लोक गीत उपलब्ध हैं। आदिवासी समाज अपनी विरासत को सहेज कर रखता है। आदिवासी आंदोलन और संघर्ष के हवाले देकर उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के अंदर तमाम आंदोलन अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए हुए। जल-जंगल-जमीन जो उनकी अस्मिता है, जो उन्हें विरासत में मिला है, उसे बचाए रखने के लिए वे संघर्षरत हैं। उनका कहना है कि जो उनके पास है उसे छीना न जाए। उन्हें अलग से कुछ नहीं चाहिए। हमें ऐसे अधिकार नहीं चाहिए जिसे हमारे पुरखो ने न दिया हो। नागालैंड में रानी गाइदिल्यू को स्वाधीन भारत में संघर्ष करना पड़ा और उन्हें नजरबंद रहना पड़ा।
विरासत के माध्यम से विमर्श खड़ा होता है। अपने को बचाए रखने के लिए, अपनी अस्मिता, जल-जंगल-जमीन, भाषा, संस्कृति को बचाए रखने के लिए अतीत में किए गए तमाम आंदोलन विमर्श ही थे। जिस रूप में उन्हें आता था (तीर-कमान, लड़ाई-झगड़े आदि) उस रूप में उन्होंने विमर्श किया। वही विमर्श लोक स्मृतियों के माध्यम से साहित्य में आता है। उसे पुरखा साहित्य के रूप में देखा जाना जाता है।
आदिवासी आंदोलन की मांग को लेकर स्नेहलता जी ने कहा कि तेजिन्दर के उपन्यास ‘काला पादरी’ में दिखाया गया है कि आदिवासियों को उत्तर-पूर्व तथा अन्य क्षेत्रों में क्रिश्चियन बनाया गया या अन्य धर्मों में कंवर्ट कर दिया गया। आदिवासी आंदोलन उन्हें पुनः अपनी संस्कृति और अपने समाज की ओर लौटाने की प्रक्रिया है।
पारंपरिक न्याय व्यवस्था को लेकर डॉ. नेगी ने कहा कि यह अस्मिता को बनाए रखने का काम करती है। इस पारंपरिक न्याय व्यवस्था के कारण स्त्रियां जितनी सशक्त आदिवासी समाजों में मिलती हैं उतनी अन्य समाजों में नहीं मिलती। आदिवासी समाज की स्त्रियां जितनी चेतना संपन्न हैं उतनी आज की एडवांस स्त्रियां भी नहीं है। बहू को ससुराल पक्ष जमीन देता है ताकि वे वैवाहिक संबंध टूट जाने की स्थिति में अपना भरण-पोषण कर सकें। उराँव स्त्रियां 14वीं शताब्दी में मुगलों को तीन बार परास्त करती हैं। और ऐसे कई आंदोलनों का नेतृत्व स्त्रियों ने किया। स्त्रियों को लीडरशिप का अधिकार परंपरा से मिला है।
आदिवासी जीवन शैली की विशेषता पर बात करते हुए स्नेहलता जी ने कहा कि सामूहिकता आदिवासी समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। आदिवासी समाज एक दूसरे को समर्पित समाज है। प्रकृति के करीब रहने से यह समाज कलाओं में भी निपुण है। आज आदिवासी पेंटिंग्स अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण पर बहसें होती आ रही हैं लेकिन आदिवासी समाज इसे आत्मसात किए हुए है। मुख्य धारा में आने से प्रत्येक आदिवासी समुदाय ने कुछ न कुछ खोया है। कई समुदायों की पूरी आईडेंटिटी खत्म हो गई है। इसलिए समुदायों के संरक्षण हेतु स्वैच्छिक अलगाव जरूरी है। मातृभाषा से किसी समाज का पुरखा साहित्य और ज्ञान परंपरा बचती है। उस भाषा में काम करने की जरूरत है। अस्मिता विमर्श के आने से आदिवासी गौरव के साथ अपना परिचय देते हैं। उन्हें अपनी विरासत और संस्कृति को जानने का मौका मिला है। विमर्श के माध्यम से संवाद का पुल बनता है। जरूरी है कि हम आदिवासी समाज की विरासत को समझें। यह विमर्श से ही संभव है।
इसी कड़ी में कवि-कथाकार टेकचंद ने संघर्ष, विमर्श और जन आंदोलन को केंद्र में रखकर कहा कि संघर्षों से विमर्श पैदा होता है और जन आंदोलनों से आगे बढ़ता है। साहित्य उसमें अपना काम करता है। शिक्षित बनों, संगठित रहो तथा संघर्ष करो को आज की परिस्थिति में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि संघर्ष ना करें इसलिए संगठित मत होने दो, शिक्षित मत होने दो। लगातार शिक्षा का बजट काटा जा रहा है। सरकार के कुछ खास संगठनों के कोर्स करने पर नौकरी मिल रही है। यह सब शिक्षित न होने देने के प्रयास हैं। जन आंदोलनों को दबाने के लिए बुद्धिजीवियों पर मुकदमें चलाए जा रहें, उन्हे जेल में बंद किया जा रहा है। आये दिन नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों को मारा जा रहा है। ऐसा माहौल बना दिया गया है कि केरला स्टोरी, कश्मीर फाइल्स, बस्तर को लेकर बनी आदि फिल्में प्रशंसा बटोर रही हैं।
दलित-आदिवासी समुदाय का शोषण हो रहा है। अगर उन्हें कोई ठाकुर साहब न्याय दिला रहे हैं तो उनकी जय-जयकार करते हुए फिल्म बन सकती है परंतु वास्तविक घटना पर नहीं। ठाकुरों ने मिलकर किसी दलित को घोड़ी से उतार दिया। यह फिल्म स्क्रिप्ट के लिए स्वीकार नहीं है। जो सिस्टम के पक्ष में है उन्हें प्रमोट किया जा रहा है। लेकिन शोषण के विरुद्ध आँख में आँख डालकर बात करने वाला बर्दाश्त नहीं। कांशीराम ने जिसे चमचा युग कहा था वो सही मायनों में अब फलीभूत हुआ हैं।
अगली वक्ता रजनी दिसोदिया ने गढ़ी हुई विरासत पर आक्षेप करते हुए कहा कि दलितों और आदिवासियों की पहचान पहले से ही गढ़ दी गई है, जो हमारे दिमाग में बैठी हुई है। ये गढ़ी हुई छवि विरासत में ही मिल गई थी तो सवाल यह है कि विरासत को कैसे देखे? दलित को जो विरासत में मिला है वह उसके लिए झन्नाटेदार थप्प्ड़ भी है। शिक्षित होने के बाद भी गढ़ी हुई अस्मिता साथ रहती है कि ये लोग गंदे रहते हैं, ये लोग गंदा पेशा करते हैं, काम चोर हैं आदि। शिक्षित होने, बड़े अथवा सामान्य पदों पर आने तथा पेशा, गाँव, घर छोड़ने के बाद भी वही स्थिति है। यह पूर्वाग्रह सभी के दिमागों में बैठा हुआ है।
इस पूर्वाग्रह के असर से दलित अपनी विरासत को नकारात्मकता से देख रहा है। उसके सामने यह संकट है कि अपनी विरासत को कैसे देखे? उसका विरासत के साथ संबंध ऐसा है जो न छोड़ते बनता है न लेते बनना है। सरनेम का प्रश्न पीछा नहीं छोड़ता। उसे लगाने के भी खतरें है और नहीं लगाने के भी। इसी कड़ी में उन्होंने रजत रानी मीनू की कहानी ‘हम कौन हैं’ तथा अपनी कविता ‘हम और वे’ का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि दलितों के सामने यह प्रश्न भी है कि कोई अपनी विरासत के बिना जी सकता है? क्या बिना विरासत के कोई भी समाज तरक्की कर सकता है? क्या अपने इतिहास और अपनी विरासत की जरूरत नहीं है? अपने लोगों की जरूरत नहीं है? क्या उस गौरवमयी परंपरा की जरूरत नहीं है जो उनमें ऊर्जा भरे?
दलित लेखक संघ के अध्यक्ष हिरालाल राजस्थानी ने टिप्पणी कर हंस में प्रकाशित कहानी ‘माइंडसेट’ का जिक्र करते हुए माइंडसेट तोड़ने की जरूरत बताया। उन्होंने कहा कि समाज में अविश्वास बढ़ा है। सकारात्मक सोचने और लिखने की जरूरत है।
बतौर वक्ता बलवंत कौर ने कहा कि विरासत के आलोक में विमर्श को देखना या विमर्श के साथ विरासत का क्या संबंध है? उसको आज देखना बहुत जरूरी है। विरासत अपने आप में ही विमर्श है उस पर भी चर्चा होनी चाहिए। विरासत बनने में सांस्कृतिक परंपराएं, ऐतिहासिक क्षण, स्थानीय परंपराएं आदि शामिल रहते हैं। विरासत और विमर्श का द्वंद्वात्मक संबंध है। विमर्श सबसे पहले परंपरागत विरासतों पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा फिर अपनी विरासत बनाएगा। यह देखने की जरूरत है कि लोग आपकी विरासत को कैसे गढ़ रहे हैं।
शब्द और अर्थ की राजनीति भी विमर्श और विरासत के साथ टकराती है और उसे नए संदर्भ में देखती है। बलात्कार शब्द के जगह आज हिंसा अथवा यौन हिंसा शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसके लिए लंबी ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी गई है। बलात्कार से स्त्री को संपत्ति के साथ, उसकी पवित्रता के साथ जोड़ा गया। जिसके नीचे वैवाहिक संबंध, युद्ध आदि में होने वाले यौन शोषण दब गया। ताकत विरासत को गढ़ने में सबसे अधिक मदद करती हैं। सत्ताएं बहुत सारी काल्पनिक विरासत गढ़कर थोप देती हैं। गढ़ने के पीछे कुछ उद्देश्य होता है।
इसी बीच गोष्ठी में शामिल विभासचंद वर्मा ने टिप्पणी करते हुए कहा कि विमर्श हमेशा विरासत गढ़ते रहता है। हम नयी विरासत गढ़ेंगे क्योंकि हर विरासत गढ़ी हुई विरासत है। राम के द्वारा शंबूक को मारा जाना ठीक नहीं था। अगर भगवान गलत कर सकता है तब तो ठीक है। लेकिन अगर भगवान को गलत नहीं करना चाहिए था तो उसका कर्म ठीक नहीं था। आज निर्मल वर्मा के रामायण की काल्पनिकता को लेकर उठाई गई बहस का उत्तर मिल जाता।
गोष्ठी का संचालन कर रहे बजरंग बिहारी ने कहा कि विषय बहुत समय से परेशान कर रहा था। तेजिन्दर अपने उपन्यास ‘काला पादरी’ में दर्शाते हैं कि कन्वर्ट होने के बाद आदिवासियों को अपने रीति-रिवाज, अपनी मान्यताएं, पारंपरिक जीवन मूल्यों को भूलना पड़ता है। इन सबके प्रति हीनता भाव पनपाया जाता है। आदिवासी आत्मविस्मृति के शिकार होते हैं। इस सब सवालों को उठाने वाली ‘काला पादरी’ महत्त्वपूर्ण कृति है। इसी तरह रजनी दिसोदिया की ‘चारपाई’ कहानी भी विरासत का सवाल उठाती है। शंकरराव खरात की आत्मकथा ‘तराल अंतराल’ भी इस मुद्दे से टकराती है। सवाल है कि किसको विरासत मानें और किसे रूढ़ि? अतीत का क्या स्वीकार करें और क्या भूल जाएँ? क्या कोई और अस्मिताओं के लिए यह सवाल हल करे या अंदरूनी बहसों से समाधान निकाला जाए? जो भी आंदोलन हुए हैं उसको अपनी विरासत मानें? जो परंपराएं हमारे परिवार वाले मानते आए हैं, उससे संबंध टूट गया है उसका क्या करें? जो भाषा, शब्दावली, बोध परंपरा से प्राप्त है उसका क्या करें? हाथरस दुर्घटना हुई और भयानक तरीके से सवा सौ लोग मर गए या मारे गए। घायलों का कुछ अता-पता नहीं है। हम लोग चुप हैं। क्या भक्ति परंपरा की यही परिणिति होनी थी। प्रबोधन या एनलाइटेनमेंट की जो विरासत मिली थी, उसका क्या करें? विरासत को विकृत करने वाली ताकतों के साथ कैसे निपटें?
अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए बजरंग बिहारी ने सुझाव दिया कि अस्मिताओं को आंदोलनों के इतिहास और वर्तमान से अपना संबंध जोड़ना चाहिए। यही इनकी विरासत है। जो जड़ता को तोड़े और विवेक पैदा करे उसी को संजोने, उसी को बनाए रखने की ज़रूरत है। बौद्धमत का आंदोलन, संतमत का आंदोलन और फुले-आंबेडकर के साथ पैंथर आंदोलन दलित विमर्श की विरासत है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में ख़ालिद अशरफ़ ने कहा कि आदिवासी संस्कृति, भाषा तथा जीवन शैली को रोमांटिसाइज करने की जरूरत नहीं है। सरकार ने हिमाचल प्रदेश को हिंदी भाषी क्षेत्र घोषित किया हुआ है। छोटी बोलियों के स्पीकर कम हैं, यानि वोटर कम हैं इसलिए उन छोटी-छोटी परंपराएं और संस्कृतियों को नजर अंदाज करने की राजनीति चल रही है। संस्कृति और परंपरा स्थिर नहीं है, उनमें बदलाव होता है। ऐसे में पश्चिमी संस्कृति के सकारात्मक पहलुओं को अपनाते हुए आधुनिकता की ओर बढ़ने की जरूरत है। अस्मिता ही एकमात्र श्रेणी नहीं है, वर्ग भी बहुत महत्त्वपूर्ण कैटेगरी है, तमाम कैटेगराइज़ेशन का आधार है। जो मींस ऑफ प्रोडक्शन यूएसए में थे, ब्रिटेन में थे, जर्मनी में थे जिसे हम कैपीटलिस्टिक कहते रहे वही मींस ऑफ प्रोडक्शन सोवियत संघ में भी थे। उसे ही आज चीन अपना रहा है। झगड़ा डिस्ट्रीब्यूशन का है। यह डिस्ट्रीब्यूशन आदिवासी समाज, दलित समाज तथा अल्पसंख्यक समाज के लिए हो सकता है। देखें कि और कितने लोगों को वेलफेयर प्रोवाइड किया जा सकता हैं। वेस्टर्न टेकनोलॉजी और साइंस को छोड़ा नहीं जा सकता है। दो रास्ते हैं। हम इसे न अपनाकर पहले जैसी स्थिति में रहें या आधुनिक, वैज्ञानिक तथा बराबरी का समाज बनाने की कोशिश करें।
अध्यक्षीय वक्तव्य से असहमति जताते हुए स्नेहलता नेगी ने कहा कि आदिवासी समाज को रोमांटिसाइज करने की जरूरत नहीं है। जिस तरीके से आदिवासी समाज को रोमांटिसाइज करके देखा जा रहा है, वह वैसा बिलकुल नहीं है। हिमाचल प्रदेश को राजनीति के तहत हिंदी भाषी बनाया गया है, वह हिंदी भाषी है नहीं। जो माइंडसेट बनाया गया है, हम उसी के जरिये आदिवासी समाज को देखने की आदी हैं। हमें इसे तोड़ने की जरूरत है, और उसे नजदीक से समझने की जरूरत है।
जलेस, दिल्ली के सचिव प्रेम तिवारी ने औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन कर विचार-गोष्ठी का समापन किया।
शानदार विमर्श
आदिवासियों की विरासत जल,जमीन और जंगल तक सीमित नहीं है. इनके -खान- पान,रहन -सहन,आचार -विचार में सामूहिकता दिखाई देती है जो इनकी विरासत को विस्तार दे रही है . सरहुल और कर्मा जैसे पर्व – त्योहार में भी प्रकृति उपासना के अलावा पर्यावरण को संरक्षित करने का संदेश निहित है .इनकी यही परंपरा विरासत के रूप में सामने आती है।
जरूरी विषय पर बहस हुई साथ ही ऐसी बातें होती रहनी चाहिए जो जलेस दिल्ली हमेशा करता रहता है ,सफल कार्यक्रम के लिए साधुवाद
कार्यक्रम की बहुत अच्छी रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है। बधाई।
राजस्थान में भी 1857 से आदिवासी समुदाय का स्वतन्त्रता आंदोलन हुआ था ऐसा हरिराम मीना जी ने अपने उपन्यास ‘धूनी तपे तीर ‘ में लिखा है.