सात कविताएँ / मनजीत मानवी


इस बार रोहतक में रहनेवाली मनजीत मानवी की कविताएँ। प्रखर सामाजिक-राजनीतिक चेतना से संपन्न, स्त्रीवादी कार्यकर्ता मनजीत रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं। अनेक कविता-संग्रह प्रकाशित।

अफ़साना निगारी

माफ़ करना मेरे प्रिय लेखक मंटो
बँटवारे के बेरहम काल की तरह
आज फिर मज़हब की संक्रामक जड़ें

दिल की नरम ज़मीन से निकल कर
दिमाग़ की विषाक्त दीवारों पर
फैल रही हैं नागफनी के जाल की तरह

प्रेम का निर्भय उजला चेहरा
किसी मासूम बच्चे की निश्चल हँसी ओढ़े
स्मृति से अधिक झाँकता दिखता है

हक़ीक़त में प्रेमरूपी दरिया के
अग्निपथ से गुज़रने वाले योद्धा
नहीं रहे अब दंतकथाओं के नायक नायिका

एक वर्जित फल बन गया है प्रेम इन दिनों
गोया बेचैन रहती हैं जेल की सलाखें
एडम और ईव का लहू निचोड़ने के लिए

देख रहे हैं हम सब आहत मन से
हाँफती सिकुड़ती रक्तमय काया प्रेम की
पर बचते हैं सीधी सच्ची बात कहने से

तुमने तो खेल कर अपनी जान पर सदा
असहज समय में अँधेरे कोनों को चुना
लिखे बेबाकी से तमाम मैले-कुचैले अफ़साने

आज जब एक बार फिर सियासत
सिमट गई है अपनी टोपियों के इदारे में
ढूँढ रहे हैं प्रेम के अफ़साने एक और मंटो!

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कहो कि कहना है ज़रूरी

ज़र्द ख़ामोशी की सुरंगें तोड़ो और कहो
तुंद हवाओं को अपनी ओर मोड़ो और कहो
कब तक तंग राहों से बच कर चलेंगे हम
हर ज़ुल्म का हिसाब जोड़ो और कहो

ललकार से, तकरार से, इंकार से कहो
इकरार से, इसरार से, इख़्तियार से कहो
होश में, जोश में, रोष में कहो
सहमति में, विरोध में, प्रतिरोध में कहो

वह भी कहो जो सुनने में अटपटा लगे
वह भी कहो जो देखने में अधबुना लगे
जो सोचने को मजबूर कर दे वह भी कहो
जो हाकिम का दंभ चूर कर दे वह भी कहो

हर ज़बान हर रंग हर सूरत में कहो
आँखों मे आँखें डाल कर बगावत में कहो
कहो कि अब बिना कहे नहीं रहेंगे हम
अनकहा अनसुना है जो, सब कहेंगे हम

कहो कि खोलने होंगे हर गाँठ के धागे
कहो कि हर आह इक सुलगता हुआ अंगारा है
कहो कि नकारते हैं हम हर दासता का रंग
कहो कि हम जानते हैं धरती आकाश हमारा है

कहो, बार बार कहो, कहते रहो मुसलसल
जब तक हमारा अटूट नाद तोड़ ना डाले
हुक्मरान के हर दुर्ग के प्रचंड दरवाज़े
हिरासत की हर ज़ंजीर के चुभते हुए ताले! !
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वैकल्पिक दुनिया संभव है

कभी सुदूर किसी घाटी की हलचल से
कभी नज़दीक किसी खलिहान की फ़सल से
कभी सम्राट से भिड़ती युवा टोली की पहल से
आ रहा है झौंका परिवर्तन की गर्म हवाओं का

जो ख़ामोश थे कल तक, आवाज़ उठा रहे हैं
हुकूमत से लड़ने वाले सब साथ आ रहे हैं
उभर रही है निरंतर तस्वीर ऐसी दुनिया की
जो इंसाफ़ से रोशन अंतिम जन की दुनिया होगी

मन की चौखट पर पड़ रही है सुनाई
उसके नन्हे धमकते पैरों की उजली आहट
आँख की कोर से झाँकने लगता है चेहरा भी
लेकिन फ़िर यकायक कहीं हो जाता है गायब

कहीं कुचल दिया जाता है तोपों के नीचे
कहीं मसल दिया जाता है सलाखों के पीछे
कभी गटक लिया जाता है व्यवस्था की दुनाली में
कभी फेंक दिया जाता है जुर्म की नाली में

पर एक बीज कुचलते ही दूसरा उग आता है
एक गीत मसलते ही कई सितार बज उठते हैं
जुड़ता चला जाता है जन गीतों का सिलसिला
बढ़ता चला जाता है रणबाँकुरों का कारवाँ

जिस अंजाम को मिटाने पर साम्राज्य है आमादा
जन शिराओं में पल रहा है बीज उस उनवान का
जो बार बार पस्त हो फ़िर खड़ा हो जाता है
न ख़ामोश ही रहता है, न मरने से डरता है

ये हाकिम की हार है या विश्वास आम जन का
कि टूटा हुआ पत्ता भी दरख्त से भिड़ जाता है
वे यही हुंकार भरते हैं दमन ही हक़ीक़त है
मन बार बार कहता है वैकल्पिक दुनिया संभव है!
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चिरैया

बेखौफ़ उड़ती चिरैया को
झपट कर क़ातिल ने

पटक दिया पिंजरे में
सोचा सख्त पहरे की घुटन

घायल कर देगी स्वयं ही
चिरैया के इरादों की उड़न

मगर सीखचों के भीतर भी
चिरैया नहीं घबराती है

हँसती है गाती है
सब का मन बहलाती है

उगते सूरज की पहली किरण
चिरैया को सहलाती है

दूर शाख पे बैठी कोयल
अपना गीत सुनाती है

रोज़ शाम को ढलता सूरज
सरगोशी से बतियाता है

बिन देखे इक कोने में
फूल कोई खिल जाता है

कीट पतंगे झींगुर जुगनू
आसपास मँडराते हैं

रात को मिल कर चाँद सितारे
हाल पूछने आते हैं

कुदरत के हँसी रंग में जैसे
सलाखें भी रंग जाती हैं
पिंजरे के भीतर भी चिरैया
आज़ाद तराना गाती है!
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एक मेहनतकश स्त्री

एक मेहनतकश स्त्री जिस अनुर्वर पथ पर
चलती रहती है जीवन भर
किसी साधक की तरह

वहाँ न केवल धूप नहीं खिलती
अपितु अक्सर वह रास्ता किसी
अंधी खोह में जा कर मिल जाता है

एक मेहनतकश स्त्री के पाँव के छाले
इस निष्ठुर सत्य से अनभिज्ञ नहीं है
फिर भी उसे अपने चलते रहने पर यकीन है!
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शिनाख्त

बलात्कारी के सर पर सींग नहीं होते
न ही चेहरे पर कोई शैतानी भाव
आचार व्यवहार मे जाना पहचाना सा,
वह हँसता बोलता गाता गुनगुनाता
काम पर आता जाता है भले आदमी की तरह

कुछ नहीं बताती वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी
प्रतिष्ठित पदों पर रहता है विराजमान
और वर्ष दर वर्ष तरक्की करता जाता है
सभाओं समारोहों में महिलाओं के हितों का
पक्का पक्षधर भी नज़र आता है

हमारे सजे सँवरे घरों मे, यहाँ तक कि दिलों मे
क़ाबिज़ रहता है अपने पूरे मुलम्मे के साथ
वही पुरानी खिसयानी हँसी ओढ़े
छिपा कर रखता है बस आखेट से पहले
अपने नुकीले दाँत अपने खूँखार पंजे

हमें ही करनी है शिनाख्त इस बलात्कारी की
जो एकछत्र अधिकार लिए बाघ सा विचरता है
भला सा दिखता है, संवेदना का दम भरता है
मगर झाड़ी की ओट में जाने कब से
स्त्री-देह के गुदगुदे गोश्त पर पलता है

हमें ही करना है इसके गुनाह का पर्दाफाश
जिसे वह चतुराई से किसी शतुरमुर्ग की तरह
दबा कर रखता है अपनी लंबी गर्दन के नीचे
हर उस रिश्ते की बुनावट को उधेड़ना है
जिसे हम अपना मान कर चलते हैं आँख मीचे

परिचित और प्रतिष्ठित लोगों के झुंड में
गौर से करना है उस नज़र को चिन्हित
जो शराफत के लिबास में इधर उधर भटकती
गड़ जाती है गिद्ध की हुकनुमा चोंच सी अंततः
स्त्री देह के उथले मांस की परतों पर!
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गतिहीनता

यह क्या हुआ कि ज़िंदगी
एक मुर्दा अबाबील की तरह
बिजली के नग्न तारों पर

अटक गई है जैसे
न आगे बढ़ने का संकल्प है
न पीछे हटने का विकल्प
दिन का धुआँ
शाम में मिल जाता है
शाम की स्याही रात में

और रात है कि
एक इंच भी आगे
सरकती ही नहीं!

manjeetrathee@gmail.com

 


1 thought on “सात कविताएँ / मनजीत मानवी”

  1. वारिस शाह और अमृता प्रीतम की याद दिलाती मनजीत मानवी की कविताएँ सरोकार और संवेदना का विस्तार करती हैं।
    ‘शिनाख़्त’ जैसी कविताओं की आज बहुत ज़रूरत है।
    नया पथ को धन्यवाद कि ऐसी रचनाकार से रूबरू होने का मौक़ा दिया।

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