आभा खरे स्वतंत्र लेखन करती हैं। न्यूयॉर्क में स्थित भारतीय कौंसलवास से निकलने वाली वैश्विक हिन्दी पत्रिका ‘अनन्य’ में संपादन सहयोग करने के अलावा अनेक साझा संकलनों और वेब पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हैं।

1)
ज़िद है क्या चराग़ों की आँधियों से सुन लेना
साथ जल रहीं जो उन बत्तियों से सुन लेना
दहशतें ज़माने में किस तरह हुईं क़ाबिज़
माँ-पिता हैं सहमे क्यों बेटियों से सुन लेना
रोशनी पहन के जब शह्र जगमगाता तब
बेहिसी अँधेरों की बस्तियों से सुन लेना
रब किसे मिला है कब ख़ुद जिये मरे हैं ख़ुद
जंग ज़िन्दगी की इन हड्डियों से सुन लेना
अपनी कोख में जिसने मोतियों को पाला है
दर्द अनकहा उसका सीपियों से सुन लेना
मौज के, रवानी के, लहरों संग लड़ने के
और भँवर के किस्से भी कश्तियों से सुन लेना
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2)
फ़ितरती लोगों की ये बस साधना है
किस तरह अपनों को छलना, लूटना है
मन की बातें कह के साहिब चल दिये, पर
बात मतलब की है कितनी देखना है
तोड़ता जो मुफ़लिसों को और ज़ियादा
उसके घर में गर्दिशों का झाँकना है
करके मेहनत पालता है घर जो अपना
रोज़ करता मुश्किलों से सामना है
बीच दरिया में भी प्यासा ही रहा जो
नाम उसका मछलियों से पूछना है
पंख थे आकाश था और हौसले थे
क़ैद हमने फिर चुनी क्यों सोचना है
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3)
ये वक़्त तमाशाई हर सिम्त तमाशा है
इक हम ही नहीं कहते, वाक़िफ़ ये ज़माना है
बातें जो कहे मन की लफ़्फ़ाजी फ़क़त होती
यूँ जान गयी दुनिया बड़बोला ये राजा है
रोटी के लिये दिन भर, जो तोड़ रही पत्थर
कैसे वो कहे उसका क्या छालों से नाता है ?
लिक्खा जो किताबों में पढ़ लेते यक़ीनन सब
पर दिल के वरक़ अक्सर पढ़ कोई न पाता है
चीनी के पराठों की कर बैठा है फ़रमाइश
रह-रह के मचलता जो दिल मेरा तो बच्चा है
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4)
ये पत्थर नींव के बस नाम के हैं
यहाँ चर्चे तो गुम्बद के हुए हैं
जो पूछी वजह उनसे धांधली की
न सूझा कुछ तो हकलाने लगे हैं
जिन्होंने ज़ुल्म की हद पार कर दी
वे ही इस शह्र के अब पहरुए हैं
बदल सकती सवालों से हक़ीकत
तो आख़िर आप चुप क्यों, किसलिये हैं
हुई गुम रीढ़ की हड्डी यूँ उनकी
झुके इतना कि पैरों पे पड़े हैं
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5)
ज़रा अहमक़ हो थोड़े बावले हो
मगर क्या ख़ूब जुमले मारते हो
ये जनता है, ये सब-कुछ जानती है
दुकन-दारी चलाये जो पड़े हो
जवाबों से न अब मुमकिन है बचना
सवालों के भँवर में आ खड़े हो
यूँ बगले झाँकने से क्या मिलेगा
कहो खुल कर जो कहना चाहते हो
बहुत चर्चे सुने हमने तुम्हारे
मगर तुम चाय कम पानी लगे हो
रहे जंगल भी जंगल से नहीं जब
बशर तुम जंगली फिर क्यों हुए हो?
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6)
ज़िन्दगी से हो गयी है इस क़दर यारी मियाँ
दर्द देती है मगर हमको लगे प्यारी मियाँ
हर बदलते दृश्य में देते बदल किरदार भी
भा रही है हमको तो उनकी अदाकारी मियाँ
थे मुख़ालिफ़ कल तलक़ जिसके हरिक अंदाज़ से
आज करते फिर रहे उसकी तरफ़-दारी मियाँ
सच के रैपर में जो बेचे जा रहे हो झूठ यूँ
सब समझते हैं तुम्हारी ये कलाकारी मियाँ
भूख लाचारी गरीबी, छूटे मुद्दे और भी
गर्ज़ किसको, कौन सोचे, सब हैं दरबारी मियाँ
रह सकेंगे अब भला महफूज़ कैसे बाग़ जब
हो गए हैं बाग़बाँ के हाथ ही आरी मियाँ
जब उतरता है सड़क पर हक़ की ख़ातिर आदमी
तब निज़ामों की धरी रहती है हुशियारी मियाँ
बोलने वाले बहुत हैं पर न सुनता है कोई
भीड़ में वैचारिकी की जंग है जारी मियाँ







अच्छी गजलों के लिए आभा जी को साधुवाद, इन गजलों ने समाज के उसे घाव पर उंगली रखा है जिसके इलाज में कोताही बरती जा रही है, यह उंगली रखना ही हमारी प्रतिरोध की ताकत है
सुंदर, सरल और दिल को छूने वाली ग़ज़लें।
बढ़िया ग़ज़लें हैं।