मार्क्सवादी अन्तश्चेतना की आत्मिक अभिव्‍यक्ति : कविवर रामेश्वर प्रशांत के गीत, ग़ज़ल एवं मुक्तक / प्रो. राजेन्‍द्र साह


‘रामेश्वर प्रशांत की कविताओं में प्रकृति की कठोरता चित्रित है तो प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से दुराचारियों-अत्याचारियों की करतूतों का भी यथार्थ अंकन है। जातीय अथवा साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले, दंगा फैलाने वाले स्वार्थांध दरिंदों का दुष्कृत्य चित्रित है तो इसके माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव एवं सामाजिक समरसता की आकांक्षा भी अभिव्यक्त है।’–रामेश्वर प्रशांत की कविताओं पर आलोचक प्रो. राजेन्द्र साह का आलेख:

कविवर रामेश्वर प्रशांत मानवीय मूल्यों से अनुप्राणित जनपक्षधरता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे सदियों से शोषित, पददलित एवं उत्पीड़‍ित सामान्य जन की आवाज़ हैं। उन्होंने सामाजिक विकृतियों, दुरवस्थाओं तथा राजनीतिक दुरभिसंधियों के विरूद्ध क्रांतिकारी स्वर मुखरित किया है तथा अन्याय, अत्याचार एवं अनाचार के ख़िलाफ़ अपनी विद्रोही चेतना को ओजस्वी वाणी दी है। कवि की गहरी प्रतिबद्धता वंचित समाज के प्रति है, जिनके एकजुट होने का ज़ोरदार आह्वान उनकी कविता में मिलता है। कवि की स्पष्ट उक्ति है कि हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो मानवीय रिश्ते को तार-तार कर दे।

कवि का विद्रोही तेवर अकारण नहीं है। प्रशांत ने वैयक्तिक उपेक्षाओं, संघर्षों एवं गहरी अनुभूतियों को प्रतीकात्मक रूप में साझा किया है। जीवन में घटित घटनाएँ कवि के हृदय को मथती हैं, झकझोरती हैं। यही कारण है कि प्रशांत की कविताएँ मार्मिक ही नहीं, हृदय को दहलाने वाली हैं। कवि की वामपंथी विचारधाराएँ उनके जीवन की घनीभूत संवेदनाओं से अनुस्यूत हैं। उन्होंने वामपंथी विचारों को जीया है। यही वजह है कि उनमें दमनकारी शक्तियों से जूझने, संघर्ष करने की अदम्य तेजस्विता निहित है। सही मायने में वे जनवादी कवि हैं।

रामेश्वर प्रशांत की कविताओं में प्रकृति की कठोरता चित्रित है तो प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से दुराचारियों-अत्याचारियों की करतूतों का भी यथार्थ अंकन है। जातीय अथवा साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले, दंगा फैलाने वाले स्वार्थांध दरिंदों का दुष्कृत्य चित्रित है तो इसके माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव एवं सामाजिक समरसता की आकांक्षा भी अभिव्यक्त है।

प्रशांत की रचनात्मक प्रासंगिकता इतनी जबरदस्त है कि लगता है, यह रचना अभी-अभी की है। इनकी रचनाएँ सामाजिक सोच, संरचना एवं व्यवस्था पर करारा प्रहार करती हैं तथा बारम्बार सोचने, विचारने एवं चिंतन करने के लिए उत्प्रेरित एवं बाध्‍य करती हैं। विविध ज्‍वलंत विषयों को समेटे ‘सदी का सूर्यास्त’(1) का प्रकाशन बहुत पहले होना चाहिए था। वस्तुतः रामेश्वर प्रशांत उच्च कोटि के कवि हैं। भाषिक स्पष्टता, सहजता, प्रवाह तथा विषय एवं संदर्भ के अनुरूप शब्दों का कुशल एवं सार्थक संयोजन इनके काव्य की अप्रतिम विशेषता है, जहाँ संप्रेषण की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।

साहित्य व्यक्ति एवं समाज की मन:स्थिति, सोच एवं दृष्टि तथा उसकी समग्र स्थितियों एवं परिस्थितियों को जीवंत आकार देता है। ‘सदी का सूर्यास्त’ में गीत, गजल तथा मुक्तक के लिए ‘पाया है गीत नया’ शीर्षक दिया गया है, जिसमें 10 गीत, 13 गजलें तथा 17 मुक्तक हैं। इन तीनों काव्यरुपों में कविवर प्रशांत ने अपनी आनुभूतिक सच्चाई को पूरी सहजता एवं आत्मीयता के साथ उभारा है।

‘गीत’ काव्य की अत्यंत लोकप्रिय विधा है। काव्य का वह रूप जो गेय है, ‘गीत’ नाम से अभिहित है। साम-संहिता-भाष्य के अनुसार आभ्यांतर प्रयत्न से स्वर-ग्राम की अभिव्यक्ति गीत है।(2) पाठ्य की अपेक्षा गेय-रूप अधिक श्रवणप्रिय एवं प्रभावी होता है। यही कारण है कि आरंभिक काल से अबतक विभिन्न रुपों में गीतों के सृजन की प्रतिष्ठित परम्‍परा है। आलोच्य पुस्तक के ‘गीत’ खंड के अधिकांश गीत जाड़ा, बरसात तथा वसंत आदि ऋतुओं तथा सावन महीने से सम्बद्ध हैं। ‘गीत’ खंड का आरंभ नववर्ष की मंगलकामना से होता है। कवि समस्त मानव के कल्याण के लिए, उसके सुखमय जीवन के लिए आशान्वित है। दुःख एवं निराशा, भय एवं अनिश्चय तथा संशय एवं आशंकाओं के अंत के साथ सर्वत्र विश्वास का वातावरण सृजित हो। लोग हर क्षण निर्भयता के साथ सुख-चैन से तथा हर्षित एवं प्रफुल्लित होकर जीवन जी सकें। समग्र जीवन रस से आपूरित हो। दुखों के लिए ‘कैक्टस जंगल’ (कटें दुखों के कैक्टस जंगल(3)), विश्वास के उद्भव के लिए दीपक का जलना (जले दीप विश्वास हृदय में(4)) अत्यंत सारगर्भित, प्रासंगिक एवं आत्मिक प्रयोग है, जहाँ कवि की संवेदनशीलता जीवन को, समाज को तथा समस्त संसार को निकट से देखने तथा आनुभूतिक सत्यों को नये बिम्बों तथा प्रतीकों के माध्यम से पूरी सार्थकता के साथ उद्‌घाटित करने में समर्थ है।

‘बदलाव’ शीर्षक गीत में स्वातंत्र्योत्तर भारत में दीनों की अपरिवर्तित दशा का अत्यंत मार्मिक चित्र आँका गया है। कवि की संवेदनशीलता ने पूरे परिवेश को, समूची आर्थिक परिस्थितियों को जीवंतता प्रदान की है। कवि की दृष्टि साफ एवं खुली है। वह जिन्दगी के वास्तविक स्वरूप को निकट से अनुभूत करता है। कहने के लिए बदलाव हुआ है, किन्तु सच्चाई यह है कि कुछ भी बदला नहीं है। लोगों के दिमाग में वही सड़ाँध है, आँखों पर वही पुरातन पट्टी है जो न जाने कितनी विसंगतियों, भेद-भावों तथा शोषण-दमन एवं अत्याचार तथा कुदृष्टि को हजम किए हुई है। आजादी के पूर्व शोषक बन बैठे स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् भी उसी प्रकार शोषण के बल पर अपनी नीचता का परिचय देते हुए चाँदी काट रहे हैं। उधर शोषितों की हालत इतनी बदतर है कि सूखी हुई अंतड़ियाँ और अधिक सूख गयी हैं। लगता है, आजादी के बाद शोषण की जड़ें और अधिक गहरी हो गयी हैं। कवि का प्रश्न कितना बेधक है कि क्या घास-पात खाने से भूख मिट सकती है? गरीबी और बदहाली अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर शरीर को बेचने के लिए विवश हैं। यह किसी भी सभ्य, सम्पन्न, स्वाधीन एवं बौद्धिक समाज के लिए अत्यंत शर्मनाक स्थिति है। कवि ने सहजता के साथ प्राकृतिक प्रतीकों का प्रयोग जीवन की विद्रूप स्थितियों के लिए किया है–

“कुएँ-नद-नदियों में

वही जल गंदला

क्या कुछ भी बदला?”(5)

वही भ्रष्टाचार, वही विकृत मानसिकता, शोषण की वही पराकाष्ठा! फिर बदलाव कहाँ और कैसा बदलाव?

शब्दों का चयन एवं संयोजन इतनी कुशलता से किया गया है कि लोगों की कैसी दृष्टि, सोच एवं मनोवैज्ञानिकता है, यह पूरी शक्ति के साथ उद्‌घाटित है–

“माथे में सड़ता है वही-वही घाव

आँखों में भरी वही कीच-पीच!”(6)

‘आओ चलें धारा से जुड़ जायँ’ शीर्षक गीत-। सम्यक् चेतना को उद्बुद्ध करनेवाला सशक्त प्रयाण गीत है। इसीलिए कवि आरंभ में ही आह्वान करता है कि ‘यहाँ नहीं, वहाँ नहीं, सही दिशा मुड़ जायँ’। कवि ने इस गीत में प्रतिकार करने की प्रबल सामर्थ्य को आत्मसात् करने पर बल दिया है, जहाँ बिखरी हुई शक्ति को संगठित करने, एक-एक को जोड़ने, साथ लेकर चलने तथा समग्र चेतना को विकसित कर फौलादी बनने का आह्वान है।

कवि उस विषम परिस्थिति को भी उद्धाटित करता है कि संगठन के मार्ग में किस प्रकार की अनेक बाधाएँ हैं, जहाँ पग-पग पर अंधकारों के डेरे हैं। कवि ने प्रतीकात्मक रूप से उन विघ्‍नों को प्रत्यक्ष किया है, जहाँ गिद्ध-बाजों के वास हैं और लुटेरों की स्वेच्छाचारिता व्याप्‍त है। एक-एक क्षण बंधनों से घिरा है। ऐसी विषम स्थिति में कवि सावधान करता है कि वक्त को टटोलने की सख्त जरूरत है ताकि संगठन की तेज धारा में ये सारी अवरोधक प्रतिगामी शक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो जायँ।

कवि की चेतना-शक्ति इतनी अडिग एवं प्रबल है कि वह घोर प्रतिरोधी शक्तियों का दमन करते हुए, रौंदते हुए पूरी शक्ति एवं सख्ती के साथ अग्रसर होने का दृढ़-संकल्पित आह्वान करता है–

“तिक्त जहर अमृत-सा पीयें,

भयंकर तूफानों-सा जीयें

क्रोध-ज्वार अंतर में मचले

फन काढ़े नागों को कुचलें

दिशाभ्रम टूटे सब

अग्नि-लपट बन जायँ।”(7)

गीत- 2 अत्‍यंत मार्मिक है, जहाँ बेबस, लाचार जिन्दगी का वास्तविक स्वरूप व्यंजित है। युग बदलने के साथ भावबोध बदल गये, किन्तु प्रश्न है कि क्या वास्‍तव में भावबोध बदले? वही संवेदनहीनता, अविश्वास, लूट-खसोट की मानसिकता। लगता है, ये सारी विकृतियाँ कमने के बजाय और अधिक बढ़ गयी हैं। कितना सघन बिम्ब प्रस्तुत है– “घर से आया है तार, बीबी-बच्चे बीमार”(8)। सारी रात ऊँगलियों पर हिसाब जोड़ते बीतती है। सुबह से पहले ही महाजनों से मुँह चुराकर भागना पड़ता है और पूरे दिन सूदखोरों से भागते-छिपते काटने पड़ते हैं। अभावग्रस्तता इतनी अधिक है कि मूलधन तो दूर, सूद तक चुकाया जाना नामुमकिन हो जाता है। गरीबी की मार ने गरीबों को और अधिक गरीब बना दिया है।

‘जाड़े के दिन’ गीत में जाड़े की प्रकृति, स्वभाव एवं लक्षण को तथा उससे प्रभावित लोकजीवन की विषम स्थितियों को, प्रकृति के सारे जड़-चेतन पर उसके पड़ने वाले समग्र प्रभावों को अत्यंत प्रभावी ढंग से उभारा गया है। जाड़े की धूप कैसे अस्थिर होती है, यह धूप कैसे प्रकट होती है और कैसे शीघ्र ही विलुप्त हो जाती है, इसके लिए बड़ा ही सटीक विशेषण प्रयुक्त है ‘ऊँघना’-‘ऊँघती रहती धूप, ठहरती कम’। बर्फीली हवा ऐसी चलती है जैसे वह बर्फ में नहायी हुई है और लोग ठिठक कर-सिहरकर जाड़े के दिन और रातें बिताते हैं। इस ऋतु में तन मन का बुझना प्रतीक है- प्रकृति से हारी हुई मानव की सक्रियता का और चाहकर भी कुछ न कर पा सकने की असमर्थता का। कुहरे की व्याप्ति के साथ ठंड से बेचैन, घबराये हुए बेहाल लोगों का घर में दुबके रहना-प्रकृति के भीषण प्रहारों से त्रस्‍त सामान्य जनजीवन की विषम स्थितियाँ चित्रित हैं। कोई हलचल नहीं, कोई शोरगुल नहीं, जैसे सन्नाटे का साम्राज्य हो। शोर का लिहाफों में दुबकना ‘विशेषण-विपर्यय’ का बड़ा ही खूबसूरत प्रयोग है। इसी प्रकार ‘घोंसले’ के लिए ‘खोता’ शब्द का लोकजीवन से गृहीत साभिप्राय प्रयोग है, जिससे रहने का अत्‍यंत छोटा ठिकाना व्‍यंजित होता है।

ग्रीष्‍म की भयावहता की तरह कड़ाके की ठंड की भी भीषणता होती है। ग्रीष्म के उत्ताप से जैसे चेहरे पर काले धब्‍बे आ जाते हैं, उसी तरह घोर ठंड में भी मानव विवर्ण हो जाता है, चेहरे की सूरत बदरंग हो जाती है। सुबह, दोपहर तथा शाम में कोई फर्क नहीं रह जाता। बिना धूप के प्रत्येक सुबह, दोपहर तथा शाम दुखिया स्त्री के मलि‍न मुख की तरह कांतिहीन लगते हैं–

“धूप बिना हर सुबह-दोपहर-शाम

लगती दुखिया औरत-सी मुख-म्‍लान।”(9)

जाड़े के दिनों में जब धूप खिलती है तो किस प्रकार मानव ही नहीं, मानवेतर प्राणियों में भी प्राण का संचार होने लगता है, इसका बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण है। चारों ओर खुशी एवं उल्लास का वातावरण खिल जाता है। बाग-बगीचों में चिड़ियों का फुदकना उनके हर्षित होने के मनोभावों को प्रकट करता है।

किन्तु शाम होते ही शरीर थर-थर काँपने लगता है। रात्रि में हाड़ कँपानेवाली शीतलहर चलने लगती है। वस्तुतः इसका अनुभव हर किसी को नहीं हो सकता। प्रकृति की मार विपन्न लोगों पर ही पड़ने लगती है। वह दीन-हीनों को ही ज्यादा सताने लगती है।

कवि इस गीत में दूसरी ओर इसका भी यथातथ्य मार्मिक अंकन करता है कि जाड़े की ऋतु दीन-हीन बच्चों के लि‍ए संताप बन जाती है। ठिठुरन-भरी रातें गुजारनी पड़ती हैं। वृद्धाएँ रात-भर अग्नि-सेवन से पृथक् नहीं होतीं तो वृद्धजनों को जगकर रातें काटनी पड़ती हैं। सुध-बुध जैसे खो गयी है। सब मृतप्राय- से हो गये हैं। होठों की हँसी न जाने कहाँ गायब हो गयी है। जीवन जैसे प्राणरहित हो गये हैं, साँसों की गति जैसे ठहर-सी गयी है। प्रतिदिन लोग कलपते हैं। इस ‘कलपने’ शब्द में भारी व्यंजना है। ठेठ एवं आंचलिक शब्द के प्रयोग द्वारा संदर्भ को अत्यंत मार्मिक बनाया गया है। ऐसी विवशता एवं लाचारी जिसका कोई निदान एवं उपचार संभव न हो, उस संकट से मुक्ति दिलाने वाला कोई न हो, देखनेवाला भी कोई न हो। ऐसी कड़ाके की ठंड के दिनों से और कितने दिन जूझने पड़ेंगे, इसे लोग ऊँगलियों पर गिनने लगे हैं। ऐसे संकटापन्‍न दिनों से संघर्ष करते-करते कवि का मन निराशा-जन्य आह से भर उठता है। वह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि ऐसे उत्पीड़क दिन कब बीतेंगे, कब सुखद-सुहाने दिन आ पायेंगे।

उत्प्रेक्षाओं द्वारा कवि ने जाड़े के दिनों में जन-जीवन की बदहाली को पूरे हृदयस्पर्शी ढंग से व्यक्त कर अपनी रचनात्मक सजगता एवं प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। इस गीत के माध्यम से कवि ने इस चिरंतन सत्य को भी उद्घाटित किया है कि नियति प्रबल है। नियति के साथ खेलवाड़ करना, यानी स्‍वयं को नियंता समझ लेना प्रकृति की प्रबलता को ही प्रकारांतर से चुनौती देना है, प्रतिरोध करना है।

‘जाड़े की शाम’ गीत की बड़ी खासियत है कि यहाँ प्रकृति का मानवीकरण नहीं किया गया है, बल्कि मानव की वैषम्यपूर्ण स्थितियों को, उसकी दयनीय अवस्था को प्रकृति में आरोपित कर सादृश्य स्थापित किया गया है। जाड़े की शाम में प्रकृति के विभिन्न उपादानों पर पड़नेवाले प्रभावों के कारण उसकी भी दीन-हीन अवस्था का यथातथ्य मार्मिक चित्रण है।

जाड़े की शाम पेड़ों की डालों पर ऐसी छाप छोड़ती है, जैसे रक्त-रंजित हाथों की छाप किसी दीवार पर पड़ी हो। प्रभाविहीन, निस्‍तेज सूर्य थके-मादे पथिक के सदृश उपमित है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति विवशतावश सोचने, चिंता करने की मुद्रा में अपने दोनों हाथों को अपनी गालों पर रख लेता है, उसी प्रकार सूर्य का ठहर जाना, उसका तेजहीन होना ऐसा प्रतीत होता है मानो वह थक-हार कर बैठ गया हो। यहाँ भी लोकजीवन की स्थितियों का प्राकृतिक उपादानों के साथ तदाकार कर अत्‍यंत सहज एवं स्वाभाविक स्वरूप अंकित किया गया है।

जाड़े की शाम में दिशाओं के रंग कैसे बदलते हैं, इसे व्यंग्यात्मक रूप में जीवन की गहरी सच्चाई के साथ प्रकट किया गया है कि जैसे साहित्यकारों-कलाकारों के रंग बदलते हैं। ग्रामीण जीवन के यथार्थ का, गरीबों की बदतर स्थिति का कितना जीवंत चित्रण है कि जाड़े का सूर्य ऐसे डूबता है, जैसे गाँव का गरीब डूब रहा हो–

“डूबता है सूर्य देखो

गाँव के गरीब-सा।”(10)

जिन्‍दगी की परिपूर्णता दु:ख और सुख दोनों की विद्यमानता में है। कवि ने दु:ख की वैषम्‍यपूर्ण स्थितियों का प्रत्‍यक्षीकरण किया है तो सुख एवं आनंद को भी वाणी दी है, जब शिशिर ऋतु की ठंड से त्राण मिलता है। ‘वसंत गीत’ पूर्णत: गेय है, जहाँ कवि प्रेम के गीत को साथ-साथ गाने का आह्वान करता है। वसंत के दिन बहार के होते हैं। कोकिला की कूक प्रात: काल से ही मधुर श्रवण कराती है। ‘डाल-डाल डोल-डोल’ का प्रयोग अत्‍यंत रमणीय है, जहाँ एक डाल से दूसरी डाल पर शीघ्रता से उछल-कूद करना कोकिला की चंचलता का ही नहीं, उसके उल्‍लास का प्रकटीकरण है। शर्बत-सी उसकी मीठी बोली मन को मुग्‍ध एवं आह्लादित करती है।

वसंत ऋतु में वृक्षों की प्रत्‍येक डाली में नये-नये लाल-लाल पत्तों के निकलने के लिए एक साथ दो-दो उपमानों को गढ़ा गया है, जैसे श्रमबाला के शरीर का गेहुँआ रंग हो और जैसे चाँदनी (इजोरिया) रात हो। उन्‍मुक्‍त वातावरण स्‍वच्‍छंद गान की सृष्टि कर रहा है।

कविवर प्रशांत ने जीवन के अन्‍य दु:खों के साथ प्रेम-जन्‍य विरह-वेदना को भी अनुभूत किया है। सावन माह से सम्‍बद्ध दो गीत हैं। पहले गीत में सावन के रिमझिम में, पूरबा बयार में मीत द्वारा प्रिया को पास बुलाने का आमंत्रण है, जहाँ उसके आगमन से उसका जीवन फूल-सदृश खिल उठे। संयोग की आकांक्षा इसलिए कि सावन की शीतलता उसे ग्रीष्‍म की उष्‍णता में परिवर्तित कर दे, विरह-रूपी उसके वैशाख मन में सरसता का संचार हो जाय। उस प्रिया के वियोग में जीवन राहगीर की तरह चलता रहा, चैत की धूप के उत्ताप को सहता रहा। उसकी कामना है कि छायातरु बनकर उसकी उपस्थिति हो जाय, कुछ पल बिरम जाय, ठहर जाय।

सावन के दूसरे गीत में मिलन की जो आशा-आकांक्षा थी,  उस पर जैसे पानी फिर गया। सावन पुन: बीत गया। आशा-रूपी कलश सूख गया। बादल घिरकर बरस गये, बिजलियाँ भी कौंध गयीं। प्रतीक्षा में आंखों के कोर-कोर भींग गये, किन्तु यह सावन फिर बीत गया, निस्‍सार रह गया।

बरसात की रातें भले ही सरस हों, किन्‍तु इसकी तीक्ष्‍ण बूँदें कैसे चुभती हैं, यह ‘है सरस बरसात की यह रात’ शीर्षक गीत के माध्‍यम से ध्‍वनित है। संयोग के क्षण में जो प्राकृतिक उपादान अत्‍यधिक आनंददायक होते हैं, वे ही विरह एवं दु:ख के क्षण में और अधिक कष्‍टदायक सिद्ध होने लगते हैं। बादलों के मध्‍य बिजली के कौंधने की बिम्‍ब योजना बड़ी ही मनोहारी है जहाँ बादलों के बाहु-बंधन से मुक्‍त होने के लिए बिजलियाँ छिटकती हैं और बादलों का बरसना मानो उसका अधीर होना है और यह दृश्‍य विरह-जन्‍य अवसाद को आमंत्रित कर देता है।

सारी रात सघन अंधकार के बाहु-पाश में जैसे जकड़ी हुई है। निकट में संयोग की प्रतीकें-चूड़‍ियों की खनखनाहट, आंगिक चेष्‍टाओं की आहट तथा प्रेम-भरी मधुर बातों की भनक-काम-क्रीडा की समग्र मादक स्थितियाँ कवि के उन्‍माद को बढ़ा देती हैं। संयोग के पश्‍चात् आरंभिक विरह में मिलन की स्‍मृतियाँ मंद थीं, किन्‍तु संयोग-सुख प्राप्‍त करती आस-पास की स्थितियों ने उसके विरह के घाव को हरा कर दिया है, उसे उद्विग्‍न करके रख दिया है।

 

ग़ज़लें

ग़ज़ल आज अत्यंत लोकप्रिय विधा हो गयी है। भले ही इसका प्रारंभिक स्वर प्रेम एवं शृंगार से सम्बद्ध रहा है, किन्तु आज इसकी विषयगत परिधि काफी व्यापक हो गयी है। देश, समाज एवं सामान्य जन की आवाज को, उसकी विभिन्न समस्याओं को तथा जीवन के विविध पहलुओं को इसने आत्मसात् कर लिया है। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल का मानना पूर्णतः समीचीन है कि गजल को हिन्दी वालों ने आदमी के दुख-दर्द से परिचित कराया। समाज हो या राजनीति, व्यक्ति हो या समूह, गाँव हो या महानगर-कोई भी विषय गजल की पहुँच से बाहर नहीं रहा। हिन्दी की गजल खुले वातावरण में साँस से रही है।(11) समीक्ष्य पुस्तक में गजलें कई प्रकार की हैं तथा कई विषयों से सम्‍बद्ध हैं। पहली गजल में संसार की नश्‍वरता एवं अस्थिरता की ओर संकेत है। साथ ही इस सत्‍य का भी उद्घाटन है कि जब तक जीवन है तब तक सुख और दु:ख है। इस गजल में कवि आशान्वित भी है कि शोषण-मुक्‍त जीवन होगा, लोग कमजोर नहीं होंगे, छल-प्रपंच से रहित समाज होगा तथा गरीबी एवं बदहाली से जीवन निष्‍प्राण नहीं होंगे।

दूसरी गजल में कवि की आनुभूतिक अभिव्‍यक्ति है कि प्रेम-संबंध के कारण सामाजिक प्रतिरोध, गतिरोध, प्रताड़ना एवं दु:ख ने जीवन को नैराश्‍यांधकार में ढकेल दिया है। जिन्‍दगी के मुरझाने के लिए कृषि के उपादानों से सम्‍बद्ध उपमानों का सार्थक प्रयोग है- ‘जिन्‍दगी मुरझा रही ज्‍यों झुलसती फसलें’। कवि इस सत्‍य का भी उद्घाटन करता है कि उसका अस्तित्‍व प्रेम-संबंध के कारण ही है, अन्‍यथा उसका जीवन ही नहीं होता। एक पक्ष की आसक्ति के साथ दूसरे पक्ष की सघन आसक्ति के कारण भी प्रेम अधिक प्रगाढ़ होता है- ‘कमल- से उनके नयन गर नम नहीं होते’। फिर कवि की सहज आत्‍माभिव्‍यक्ति सामने आती है कि दु:ख की स्थिति सदा बनी नहीं रहती है। मिथ्‍या जहर घोलने वालों की आत्मिक शक्ति मजबूत नहीं होती, उसमें स्‍थायित्‍व नहीं होता।

तीसरी गजल में स्‍वातंत्र्योत्तर भारत की बदहाल छवि को उकेरा गया है, जहाँ लोग जीवन से परेशान होकर, टूटकर, ऊबकर खुदकशी करने के लिए विवश हैं और जहाँ रक्षक ही भक्षक हो गये हैं, शासक ही जुल्मियों के संरक्षक हो गये हैं। लोग यह सोचने के लिए विवश हैं कि इससे बेहतर तो फिरंगी थे। साम्‍प्रदायिकता एवं जातिवाद के शिकार लोग आपसी संबंधों को दर-किनार कर लड़ते हैं। आस्‍थाएँ खंडित हो रही हैं तथा सभी एक-दूसरे के अविश्‍वासी हो गये हैं।(12)

वर्तमान की तुलना में अतीत के अधिक सुखद होने की अभिव्‍यक्ति चौथी गजल में है। आज जिन्दगी वीरान-सी हो गयी है, शहर की हो या गाँव की-जिन्दगी अब उजड़े बाग तथा झड़े हुए फूल की तरह हो गयी है। जिन्दगी ऐसी पीड़ादायक हो गयी है, जैसे किसी ने सूई चुभो दी है। छठी गजल में शायरों की उस चुनौती की ओर संकेत है, जहाँ वह अपनी विषम स्थिति के बावजूद समाज के परिष्‍कार के प्रति सदा सन्नद्ध रहता है।

क्रांतिकारी एवं विद्रोही तेवर अपनाने का आह्वान सातवीं गजल में है। वर्तमान परिस्थितियों को बदलने के प्रति शायर के विचार काफी आक्रामक हैं। आँसू बहाने तथा अपने भाग्‍य को कोसने से परिस्थितियों को नहीं बदला जा सकता है। इसके लिए उबाल पैदा करना होगा। जबतक स्‍वयं को तपाया नहीं जायेगा तब तक स्थितियाँ बदल नहीं सकतीं। जमाने को बदलने के लिए आग के बीच चलने, आँधियों में उत्साहपूर्वक अग्रसर होने तथा कष्‍टों की चिन्ता किए बगैर अपने को प्रदीप्‍त किए रहने का आह्वान है।

आठवीं गजल जीवन की सच्चाई की सहज अभिव्यक्ति करती है। जिन्दगी में गम कम नहीं है। दुनिया में नाम तो बड़ा है, किन्तु गुण एवं कर्म तुच्‍छ हैं। सारे लोग किसी-न-किसी रूप में परेशान हैं। मानवीय गुणों के अनुरूप आचरण एवं व्यवहार करने की ओर स्पष्ट संकेत है कि ऊँच-नीच के भेद-भाव से परे मन के मैल को दूर करने तथा स्वहित एवं अहंकार को त्यागने की जरूरत है।

गरीबी, भूखमरी और अत्‍याचार के कारण समय से पूर्व बुढ़ापे का आगमन  नहीं, आक्रमण हो जाता है, कमर समय से पहले झुकने लगती है, किन्तु हृदयहीन, बेशर्म समाज उसपर किस तरह व्‍यंग्‍य करता है, फब्तियाँ कसता है, इसका बेबाक चित्रण नौवीं गजल में है। इसलिए कवि इसके सख्त प्रतिरोध के लिए सशस्त्र क्रांति का आह्वान करता है। शोषण, दमन, अत्याचार एवं अनाचार के विरुद्ध कथित कमजोरों का भी व्यक्तित्व सहनशीलता की हदें पारकर एक दिन विस्फोटक बन जाता है। समाज में जो व्याप्त अत्याचार है, शोषण है, उसका अंत अवश्य होगा, ऐसी आशा कवि की है। समय आ गया है। लोग सजग हो रहे हैं। खुशी लौटकर आयेगी ऐसा कवि का विश्वास है। (10वीं गजल)

11 वीं गजल में कविवर आरसी प्रसाद सिंह के समग्र व्यक्तित्‍व को उकेरा गया है। संत-सदृश जीवन, 73 वर्षों की उम्र के बावजूद वसंत की तरह ताजगी लिए उनकी जिन्दगी, प्रेम-गीतों का सृजनकर्ता, ‘सुकंत’ की तरह सुशोभित होनेवाले, कभी न झुकने वाले, स्वाभिमानी व्यक्तित्व के धनी, अनंत की तरह हृदय का विस्तार रखनेवाले, विरोध के बावजूद अपनी राह पर अडिग होकर चलने वाले, निर्भीक पथिक आरसी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व को मात्र दस पंक्तियों में समाहित कर जीवंत चित्रांकन किया गया है।

मरण जीवन का सच है, किन्तु उसकी महत्ता लक्ष्य एवं उद्देश्य पर अवलंबित है। उद्देश्य जितना बड़ा होगा, मरण की महानता उतनी ही बड़ी होगी- चाहे उसे शहीदी कहें या बलिदानी, आत्माहुति कहें या न्योछावर। वही महामरण है, जब व्यक्ति की जिन्दगी संपूर्णत: देश के उद्धार, कल्याण एवं उसकी मुक्ति से सम्बद्ध हो। वह मरकर भी अमर होता है, आनेवाली पीढ़ियाँ ऐसे ही सपूतों को निरंतर स्मरण करती हैं। यह 12वीं गजल वस्तुत: देश के वीर सपूतों के त्याग एवं बलिदान की भावना को उद्दीप्‍त करती है। त्याग, बलिदान एवं समर्पण के बल पर ही किसी देश अथवा जाति का भविष्य नवनिर्मित होता है, नयी पौध विकसित होती है। कवि की यह अभिव्‍यक्ति दक्षिण अफ्रीकी कवि बेंजामिन मुलाइसे की स्‍मृति में है, जिसने राष्‍ट्र की स्‍वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति फाँसी के फंदे को चूम कर दी।(13)

तेरहवीं गजल मुंगेर शहर का पर्याय शायर शमशाद की स्मृति में लिखित है। ‘शमशाद’ का प्रयोग श्‍लेष रूप में हुआ है, जिसका एक अर्थ सुंदर होता है और दूसरा व्यक्ति-विशेष का नाम। यानी उस शमशाद के होने तक वह मुंगेर शहर सुंदर था और उस शमशाद के खोने से वह सुंदर शहर कैसे कंकाल हो गया। शोषितों, अत्याचार से पीड़ितों का उद्धारक, चाँद-सा चमकता हुआ उसका चेहरा, पूर्णिमा- सी उसकी हँसी, जिसकी उपस्थिति-मात्र से रौनक छा जाती थी ! कई सपने सँजोये, जुल्म मिटाने को उद्धत, जज्बात लिए, दमदार, दिलदार, चमकते हीरे शमशाद को उस शहर ने खो दिया, जिसने जमाने के जहर को आत्‍मसात् कर लिया था।

मुक्‍तक

‘मुक्‍तक’ शब्‍द में कन् प्रत्यय के योग से मुक्‍तक शब्‍द बनता है, जिसका अर्थ अपने-आप में संपूर्ण या अन्यनिरपेक्ष वस्‍तु होता है।(14) वस्तुतः मुक्‍तक वह काव्यरूप है, जिसमें कथात्मकता नहीं होती, सभी पद्य स्वतंत्र होते हैं, एक ही भाव एवं विचार होता है तथा पूर्वापर संबंध नहीं होता। इसे अनिबद्ध या निर्बंध‍ काव्‍य की भी संज्ञा दी गयी है। सामान्यतया प्रबंधविहीन स्फुट पद्यबद्ध सभी रचनाएँ मुक्‍तक काव्य की सीमा में आ जाती हैं।

रामेश्वर प्रशांत के मुक्तक में ओजस्विता है, तेज है, ललकार है। अपने अस्तित्‍व एवं अधिकार को समझने का साहस एवं उत्साह से भरपूर प्रेरणा-पुंज है। कवि की दृष्टि साम्यवादी विचारधारा से ओत-प्रोत है। शोषण, दमन एवं अत्याचार के दमन की ज्‍वाला चारों दिशाओं में धधक रही है, जिसमें सारे जुल्म जलकर भस्‍म हो जायेंगे। अब लोग जाग चुके हैं, भय समाप्त हो चुका है। कापुरुषों को जैसे प्रकारांतर से उत्‍प्रेरित एवं उद्वेलित करते हुए कवि कहता है–

“कापुरुष बैठे रहो देखो तमाशा

आँधियों में आदमी चलने लगा है।”(15)

अबतक जो शांत एवं स्थिर थे, उनमें उबाल आने लगा है। जो हाथ दबे हुए थे, वे अब ऊपर निकलने लगे हैं।

कवि की स्पष्ट अवधारणा है कि देश की मिश्रित संस्‍कृति तथा सर्वधर्मसमभाव ही इसकी खुशबू है, इसका सौन्दर्य है। विभिन्न जातियों एवं धर्मों की एकता एवं अपनत्व ही देश की शक्ति है। किन्तु, कुछ लोग साम्प्रदायिक सौहार्द के वातावरण को खंडित कर धर्मांध होकर धार्मिक कट्टरता का परिचय देते हुए देश की पहचान को ही मिटाने पर तुले हुए हैं। वे लोग वस्तुत: देश ही नहीं, इस धरती के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो सच्चाई के बदले झूठ का मुलम्मा चढ़ाते हैं। कवि ऐसे इरादों को निष्फल कर देने के लिए कटिबद्ध है।

कवि सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए युद्ध का भी आह्वान करने के लिए तैयार है। उसमें अपराजेय एवं अपरिमित शक्ति है, सामर्थ्‍य है तथा दृढ़ आत्‍मविश्‍वास है, किन्‍तु कुछ लोगों में वाग्‍जाल के सिवा कोई सक्रियता दिखाई नहीं पड़ती है। कवि की मारक व्‍यंग्‍योक्ति है कि ऐसे लोग फूँक से पहाड़ को उड़ाने चले हैं तो सिंह को सियार से लड़ाने चले हैं और जो हवा के हल्‍के झोंके से ही हवा हो जाते हैं। कवि ने चाटुकारों पर भी भारी व्‍यंग्‍य किया है कि जिनका कोई स्‍वाभिमान नहीं, जिनमें विपरीत परिस्थिति‍यों का सामना करने का न धैर्य है और न साहस।

वर्तमान स्थिति कितनी भयानक होती जा रही है कि नफरत के खौफ से लोग सिहरे हुए हैं, स्वयं से डरे हुए हैं। कवि की उक्ति कितनी यथार्थपूर्ण है कि नफरत फैलाने वाले खुद नफरत के शिकार हो जाते हैं।

‘मुक्तक’ में सिर्फ क्रांति, जोश, उत्साह एवं आक्रोश ही नहीं है, अपितु 14 वें तथा 15 वें मुक्तक में प्रकृति के मानवीकरण की सहज-स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। शाम ढलते ही सड़कें सूनी पड़ जाती हैं। लोग खिड़की-दरवाजे बंद कर घरों में कैद हो जाते हैं। शाम होते ही उजली बर्फ के सदृश कुहासा छा जाता है। जाड़े की शाम प्रिय की याद में अटपटी-सी लगने लगती है।

इसी प्रकार विपरीत प्राकृतिक समय में अँधेरी रात और काली घटा के बीच प्रिय की स्मृति तन्हाई में मिलन की व्यग्रता को बढ़ा देती है। विरह की व्‍यथा प्रकृति के विविध उपादानों से अभिव्‍यंजित है। उद्दीपन विभाव का बड़ा ही सजीव चित्रण मुक्तक की आखिरी पंक्तियों में है-

“ऐसे में झूम जाती यादें तुम्हारी

मन छटपटाता ज्यों पाखी परकटा है।”(16)

रामेश्वर प्रशांत की रचनाओं में यथार्थ की संवेदनशील अभिव्यक्ति है, जनसरोकार की पक्षधरता की जोरदार आवाज है तथा मानवीय मूल्यों की प्रगाढ़ता अत्यंत प्रबल है। वैचारिकी, दर्शन तथा विभिन्न परिस्थितियों एवं मनोभावों की यथार्थपूर्ण अभिव्यक्ति की दृष्टि से यह पुस्तक सिर्फ आलोच्य नहीं, अपितु पूरी व्यापकता के साथ गहन शोध की संभावना तलाशती है। इसमें विचार ही विचार, भावनाएँ ही भावनाएँ हैं। कम में इतना व्यापक आयाम लिए हुए है कि यह गागर में सागर भरने के सदृश है। इसमें निहित तथ्यों का गहनता से अवलोकन कर ही इसकी सही मीमांसा की जा सकती है, इसमें अवगाहन कर ही इस कृति के साथ सम्यक् न्याय संभव है। यह रचना अपने-आप में ऐतिहासिक दस्तावेज से कम नहीं है, क्योंकि जिन परिस्थितियों में इसकी रचना हुई है वे उस समय के इतिहास को संरक्षित एवं जीवंत आकार प्रदान करती हैं।

संपर्क: 9430414508

संदर्भ–

1.          सदी का सूर्यास्‍त : रामेश्‍वर प्रशांत, २०१७, शब्‍दालोक, सी-३/५९, नागार्जुन नगर, सादतपुर विस्‍तार, दिल्‍ली- 110090

2.         हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग-१, प्रधान संपादक- धीरेन्‍द्र वर्मा, १९८५, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी,    पृ.- 223

3.         सदी का सूर्यास्‍त, पृ.- 95

4.         वही, पृ.- 95

5.         वही, पृ.- 97

6.         वही, पृ.- 96

7.         वही, पृ.- 102

8.         वही, पृ.- 102

9.         वही, पृ.- 96

10.        वही, पृ.- 101

  1.  हिन्‍दी गजल यात्रा : संपादक– गिरिजा शरण अग्रवाल, 1996, हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन, बिजनौर, पृ.- 6–7

12.        सदी का सूर्यास्‍त, पृ.- 104

13.        वही, पृ.- 108

14.       ‘मुक्‍तकमन्‍येनानिमितं तस्‍य संज्ञायां कन्’– ध्‍वन्‍यालोक लोचन टीका- 3, 7, उद्धृत- हिन्‍दी साहित्‍य कोश, भाग- 2, पृ.- 502

15.        सदी का सूर्यास्‍त, पृ.- 109

16.        वही, पृ.- 112


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