पाँच ग़ज़लें / लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता


‘वहाँ से भागकर पछता रहे हैं/ जहाँ सब कुछ लुटाना चाहिए था’–लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लें आसान भाषा में गहरा असर पैदा करती हैं। उनके कई शे’र अनायास ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं। वैसे तो ग़ज़लगो होना अपने-आप में मुकम्मल परिचय है, पर अतिरिक्त जानकारी यह कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर भी हैं और जलेस इलाहाबाद से सम्बद्ध हैं।

फीचर्ड इमेज के रूप में दी गयी पेंटिंग मनोज कुलकर्णी की है।

(1)

ताक रहे हैं हम ऐसी दीवारों को,
जिन पर लटका रक्खा है फ़नकारों को

सच जिनका उन्वान नहीं बन पाता हो,
आग लगा दो उन सारे अख़बारों को

आग हवा की सूरत फैली जाती है,
बढ़ने दो ज़ंजीरों की झंकारों को

क़तरा क़तरा ख़ून हमारा टपकेगा,
लम्हा-लम्हा तोड़ेगा दीवारों को

सारे जंग कलम के हिस्से मत छोड़ो,
थोड़ी सान धरा दो अब औज़ारों को

जिन सपनों का सीना छलनी होता है,
डर उनसे ही ज़्यादा है, सरकारों को

वक़्त सभी को गिनकर अवसर देता है,
यूँ बेचारा मत समझो, बेचारों को

होने को तो हम सबकुछ हो जायें पर,
ताक पे रक्खा है हमने दरकारों को

(2)

पानी पर तस्वीर बनाई पानी की
आदम ने ज़ंजीर बनाई पानी की

सूना अंबर, सूखा दरिया कहता है,
कैसी ये तक़दीर बनाई पानी की

लड़ना तो मजबूरी है उसकी देखो,
पानी ने शमशीर बनाई पानी की

हाल किसी का कौन भला पढ़ सकता था,
पढ़ने को तहरीर बनाई पानी की

उसकी ख़ूबी उसको कैसे बतलाऊँ,
अक्स लिया तस्वीर बनाई पानी की

(3)

यहाँ हर मोड़ पर इक रहनुमा बैठा मिलेगा,
मुसाफ़िर को कहाँ फिर भी सही रस्ता मिलेगा

जहाँ बादल का सौदा जिस्म की ख़ातिर हुआ हो,
वहाँ हर ओर दरिया प्यास का मारा मिलेगा

तरक़्की तो वसूलेगी यूँ क़ीमत आदमी से,
वो हिस्सा भीड़ का होगा मगर तन्हा मिलेगा

किसी का चाँद बादल का निवाला हो चलेगा,
किसी के हिस्से का सूरज यहाँ डूबा मिलेगा

सुकूँ की खोज में भटका करेंगे दर बदर हम,
मगर ये सोचते हैं बाद इसके क्या मिलेगा

(4)

तुम्हें गर मुस्कुराना चाहिए था,
कोई दरिया बचाना चाहिए था

किसी भी दास्ताँ में हम नहीं थे,
हमें भी आज़माना चाहिए था

किसी की आब से चमका किये हम,
हमें बस टूट जाना चाहिए था

क़फ़स से दिल लगाने की वजह थी,
तड़पने को ठिकाना चाहिए था

वहाँ से भागकर पछता रहे हैं,
जहाँ सबकुछ लुटाना चाहिए था

नदी से वह लिपटकर रो रहा है,
उसे तो डूब जाना चाहिए था

(5).

बनाकर फिर मिटाया जा रहा है
मेरा चेहरा गिराया जा रहा है

असर कुछ तो पड़ा है भेड़ियों पर,
सभी भेड़ों को लाया जा रहा है

मिरे अहबाब सारे मर चुके हैं,
मुझे फिर क्यों बचाया जा रहा है

ज़ुबाँ कैंची की सूरत चल गई है,
नया फंदा बनाया जा रहा है

ये किसकी बात हमने मान ली है,
हमें मक़तल बुलाया जा रहा है

सदी का गीत किसने गुनगुनाया,
सभी को बाँध लाया जा रहा है

चमन के फूल सारे झड़ रहे हैं,
कवच-कुंडल सजाया जा रहा है

ज़रा सी रात बाकी है, सुनो अब;
क़फ़स से सिर भिड़ाया जा रहा है

संपर्क : एफ – 403, सनशाइन रॉयल रेसिडेंसी,
प्रीतम नगर, धूमनगंज, प्रयागराज, उ.प्र.
211011
मो: 6306659027
ई-मेल : lakshman.ahasas@gmail.com


4 thoughts on “पाँच ग़ज़लें / लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता”

  1. सदी का गीत किसने गुनगुनाया

    बहुत सुन्दर।मारक गजलें।

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  2. अच्छी ग़ज़लें!
    अपने समय से वाबस्ता कठिन सवालों से टकरातीं और ज़रूरी दायित्वों की याद दिलातीं। पानी केंद्रित ग़ज़ल विशेष रूप से अच्छी लगी।

    भाई लक्ष्मण जी को बहुत बधाई!

    Reply
  3. ग़ज़लें अच्छी हैं। समकालीन हिंदी ग़ज़ल में उनका स्वर अलग है। शिल्प को भी बख़ूबी निभाया है।
    मिरे अहबाब सारे मर चुके हैं
    मुझे फिर क्यों बचाया जा रहा है

    वहां से भागकर पछता रहे हैं
    जहां सब कुछ लुटाना चाहिए था

    क़तरा क़तरा ख़ून हमारा टपकेगा,
    लम्हा-लम्हा तोड़ेगा दीवारों को

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