राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा और स्त्रियां / शुभा


आरएसएस की मूल अवधारणा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ एक ऐसी निरंकुश सामाजिक सत्ता की कल्पना है जो हर तरह की असमानता और भेदभाव को न केवल स्वाभाविक मानती है, बल्कि ‘हिंदू समाज’, ‘हिंदू संस्कृति’, ‘हिंदू राष्ट्रीयता’ की एक विशिष्टता मानती है और इसका महिमामंडन किया जाता है। इस भेदभाव के साथ ‘ऐक्य’ और ‘समरसता’ स्थापित करना ही ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ है। इसके लिए हिंसा और बल प्रयोग न केवल जायज़ है बल्कि अनिवार्य है इसीलिए गोलवल्कर नपुंसक ‘अहिंसा’ की आलोचना करते हैं और ‘पराक्रमकारी पुरुष बनो’ का आह्वान करते हैं। —नया पथ के जनवरी-मार्च 2020 अंक (आततायी सत्ता और प्रतिरोध – 2) में प्रकाशित शुभा का आलेख :

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक प्रतिगामी दक्षिणपंथी संगठन है जिसका जात-गोत, खाप, कुटुंब, क़बीला, धर्म-संप्रदाय के नाम पर सैकड़ों सालों से चली आ रही उन रूढ़िवादी और संकीर्ण सामाजिक वैचारिक संरचनाओं से नाभिनाल का रिश्ता है जो स्त्रियों और दलितों की शताब्दियों की गु़लामी पर खड़ी हैं। सच तो यह है कि यह मूलतः इनसे पैदा हुआ, इन्हीं से खु़राक़ पाने वाला संगठन है, जिसका आविष्कार इन्हीं दक़ियानूस निरंकुश संरचनाओं के मज़बूत रक्षा-कवच के रूप में किया गया था। अन्य अनेक ऐतिहासिक कारकों और परिस्थितियों से समर्थन लेकर यह खु़द को एक विस्तृत निरंकुश फ़ासीवादी संगठन के नमूने के तौर पर ढालने में कामयाब हुआ है।

ऐतिहासिक जड़ें

19वीं सदी की शुरुआत से आधुनिक शिक्षा और संचार की भूमिका बनने के साथ ही भारतीय नवजागरण के सूत्र दिखायी देने लगे थे। 19वीं सदी के प्रबोधन की धुरी मुख्य रूप से लैंगिक प्रश्न थे जिनका गहरा संबंध स्त्रियों की भूदास जैसी जीवनदशा से था। नये पढ़े-लिखे तबक़ों ने जब मध्यकालीन बर्बरताओं के खि़लाफ़ समाज-सुधार के प्रश्न उठाने शुरू किये तभी दक़ियानूसी ताक़तों ने उनका कड़ा विरोध किया। सती के नाम पर स्त्रियों की बर्बर हत्या हो या बाल विवाह, अनमेल विवाह और बहुविवाह जैसी भयानक अमानुषिकताएं, इनके खि़लाफ़ उठी हर आवाज़़़ को बंगाल, महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में प्रतिक्रियावादियों के प्रचंड विरोध का सामना करना पड़ा। इसी तरह स्त्री शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह के कार्यक्रमों पर आक्रामक और हिंसक प्रतिक्रिया दिखायी दी।

यहां कुछ बातें ग़ौरतलब हैं। समाज सुधार आंदोलन की नवजागरणकालीन आधुनिकता के अंकुरण में निर्णायक भूमिका सिद्ध हुई जिसने हमारी जनतांत्रिकता, ‘सेक्युलराइजे़शन’ और जातीय गठन की प्रक्रिया का रास्ता खोला और खुद इसकी नींव में मुख्यतः लैंगिक प्रश्न और उन पर हुआ कठिन और लंबा विचारधारात्मक संघर्ष था। स्त्री प्रश्नों पर हुए भीषण वैचारिक संघर्ष ने हमारी आधुनिक जनतांत्रिकता के निरूपण में निर्णायक भूमिका अदा की। दरअसल, कट्टरपंथियों के लिए विवाह और परिवार संस्था के जनतंत्रीकरण का प्रश्न जीवन मरण का प्रश्न है। वे जानते हैं कि स्त्रियों की व्यक्तिगत संपत्ति या भूदास जैसी हैसियत बनाये रखने के लिए और उनकी यौनिकता पर संपूर्ण नियंत्रण के लिए ‘स्त्रीत्व’ और ‘सतीत्व’ की पुरानी परिभाषाएं और विवाह संस्था या परिवार के ढांचों की क़िलेबंदी हर हाल में ज़रूरी है। इन रूढ़ सामाजिक ढांचों का जनतंत्रीकीकरण और स्त्री-शिक्षा, स्त्री को एक आधुनिक, स्वायत्त आत्मनिर्भर और संप्रभु व्यक्ति-नागरिक की पहचान देकर मुक्त कर सकते हैं जिससे पितृसत्तात्मक सामाजिक निरंकुशता और परजीविता को संचालित करने वाला पूरा क़िला ढह सकता है। ये प्रतिगामी ताक़तें शुरू से अच्छी तरह जानती थीं इसीलिए उन्होंने पूरे समाज सुधार आंदोलन के उदारवादी जनतांत्रिक सार पर हमला बोला और उसके अंदर व बाहर से प्रबल पुरुत्थानवादी दबाव बनाया यहां तक कि 1857 के बाद के दिनों में समाज सुधार आंदोलन काफ़ी हद तक इसी पुनरुत्थानवाद के क़ब्जे़ में चला गया1। इसकी एक वजह यह भी थी कि उपनिवेशवादी अब तक यह समझ चुके थे कि जाति-बिरादरी और धार्मिक समुदायों की रूढ़ संरचनाओं को छेड़े बिना, ऊंची जातियों और अभिजात तबक़ों को खु़श रखते हुए ही यहां पर टिके रहना ज़्यादा आसान होगा।

19वीं सदी के उत्तरार्ध में राष्ट्रीय चेतना के अंकुरण के दिनों में इन्हीं रूढ़िवादी ताक़तों ने अपने समाज-सुधार विरोधी अभियानों को उग्र सांप्रदायिक रूप दे दिया था, जिसने साम्राज्यवादविरोधी व्यापक एकता को तोड़ने में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की आखि़र तक खू़ब मदद की।

हम देखते हैं कि लैंगिक भेदभाव और जातिवादी विषमता पर खड़ी प्रतिगामी संरचनाएं धर्म, संस्कृति और परंपरा जैसे लबादे पहनकर सामने आती हैं और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रªवाद’ के छद्म में अपने को छिपाती हैं। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जो लोग स्मृति ग्रंथों और अन्य शास्त्र-पुराणों से उद्धरण निकाल-निकाल कर अपनी नृशंसताओं को सही ठहराते थे और सती, बाल विवाह, अनमेल विवाह और बहुविवाह के विरोध या विधवा विवाह जैसे सुधारों और स्त्री-शिक्षा को ‘पश्चिमपरस्ती’, ‘म्लेछों का प्रभाव’ या ‘ईसाईकरण’ की कोशिश के रूप में पेश करते थे वही लोग 19वीं सदी के उत्तरार्ध में, इस तथाकथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रªवाद’ का सहारा लेकर उदीयमान उपनिवेशवाद-विरोधी चेतना के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में तेज़ी से लग गये। यहां तक कि इस तरह की कोशिशें हिंसक रूप लेने लगीं2। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रªवाद’ अब खुलकर सांप्रदायिक राष्ट्रªवाद की शक्ल में आ गया। इतिहास गवाह है कि 19वीं सदी में जिन्होंने महाराष्ट्रª में बाल विवाह के समर्थन में उन्माद जगाया और ‘सोशल कॉन्फ्रेंस’ जैसी संस्थाओं पर हमले किये उन्होंने ही हिंसक, धार्मिक उन्माद जगाकर आज़ादी की लड़ाई को आगे तक सांप्रदायिक आधारों पर बांटने की नींव रक्खी। यह स्पष्ट है कि आरएसएस जैसे फ़ासीवादी नमूने के संगठनों की बुनियाद इसी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रªवाद’ (असल में सामाजिक प्रतिक्रियावाद और सांप्रदायिक राष्ट्रªवाद) पर रखी गयी। यह वर्चस्वशाली सामाजिक परजीवियों की विचारधारा है। स्त्री-द्वेष, दलित-द्रोह, ज़हरीली सांप्रदायिकता, आक्रामक अनुदारता, ज़हालत, अंधराष्ट्रªवाद और सैन्यवाद के मेल से बनी यह प्रतिक्रियावादी विचारधारा ‘भारतीयता’ का स्वांग तो खूब भरती है, लेकिन साम्राज्यवाद से इसका गहरा याराना छिपना कठिन है।

विचारधारा

आरएसएस की आधारभूत सैद्धांतिक पुस्तक इनके दूसरे सरसंघचालक मा. स. गोलवलकर की, विचार नवनीत को माना जाता है। यह पुस्तक पूरी तरह ‘हिंदू पुरुष’ को संबोधित है। स्त्रियों पर स्वतंत्र रूप से इसमें विचार नहीं किया गया है। अवांतर प्रसंगों में स्त्री का उल्लेख नकारात्मक तरीक़े से कहीं-कहीं हुआ है। यह पुस्तक आरएसएस की सुपरिचित पद्धति–पाखंडपूर्ण विस्तार और छलपूर्ण गोपनीयता का नमूना है। इसके मुताबिक़ ‘हिंदू’ और उसकी संस्कृति ‘सनातन’ है। वह ‘अनादि काल’ से ‘भारत पुत्र’ है और उसे ‘शाश्वत मूलों का सिंचन’ करना है3। आरएसएस की हिंदूवादी विचारधारा तमाम शास्त्रों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता और वेदों व उनसे जुड़ी कथाओं, उपकथाओं, अंतर्कथाओं और मिथकों तक फैली हुई है, जिनका प्रयोग गोलवलकर प्रमाणिक दस्तावेज़ों की तरह करते हैं। इस प्रकार वे पांच हज़ार साल की सभ्यता पर अपनी मनोगत धारणाओं को आरोपित करते हुए किसी भी मिथक या बिंब से जुड़ी कल्पना को अपनी विचारधारा को प्रतिष्ठित करने के काम में लाते हैं। तार्किक संगति से बेपरवाह और इतिहास मुक्त हो कर, शास्त्र-पुराण दंतकथाओं और मिथकों के निरंतर इस्तेमाल से यह विचारधारा एक अराजक घोल के रूप में सामने आती है जिसे चिन्हित करना ज़रूरी है। असल में यह मैक्यावेलियन कुटिल व्यवहारवाद और निरंकुशता की एक परिपूर्ण विचारधारा है। इसमें छल, कपट, अफ़वाह, तथ्यों की तोड़-मरोड़, भीतरघात, अंध उन्माद जगाना और बड़े पैमाने के हत्याकांडों को नियोजित करना सब कुछ जायज़ है, बशर्ते वह लक्ष्य ’के अनुरूप है और कारगर’ है।

आरएसएस की मूल अवधारणा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रªवाद’ एक ऐसी निरंकुश सामाजिक सत्ता की कल्पना है जो हर तरह की असमानता और भेदभाव को न केवल स्वाभाविक मानती है, बल्कि ‘हिंदू समाज’, ‘हिंदू संस्कृति’, ‘हिंदू राष्ट्रीयता’ की एक विशिष्टता मानती है और इसका महिमामंडन किया जाता है। इस भेदभाव के साथ ‘ऐक्य’ और ‘समरसता’ स्थापित करना ही ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ है। इसके लिए हिंसा और बल प्रयोग न केवल जायज़ है बल्कि अनिवार्य है इसीलिए गोलवल्कर नपुंसक ‘अहिंसा’ की आलोचना करते हैं और ‘पराक्रमकारी पुरुष बनो’ का आह्वान करते हैं। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का अर्थ यही है कि उत्पीड़ित तबके़ ‘एकल वैचारिक कोड’ में बंधे रहें। इसलिए वे वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं और वर्ण आधारित हिंदू समाज को ही ब्रह्म मानते हैं।4 और इस हिंदू समाज’ का ‘ईश्वरत्व’ किसमें निहित है समझ लीजिए यह ब्राह्मणवादी सवर्ण पुरुष है। इस परिप्रेक्ष्य में वे स्त्री को ‘मातृशक्ति’ के रूप में परिभाषित करते हैं। गोलवलकर ‘ऐहिक’ को एक ‘अलौकिकता’ प्रदान करने वाली संस्कृति की महानता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ‘हम प्रत्येक स्त्री चाहे वह छोटी बालिका ही क्यों न हो को मां कहकर पुकारते हैं’।5 बालिका को मातृरूप में देखने का अर्थ है उसके बचपन को बेदख़ल करना। ‘मातृशक्ति’ भी पितृसत्ता का ही परावर्तित बिंब है। यह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है जिसके संदर्भ में स्त्रियों को परिभाषित किया जा रहा है। इसका अर्थ यही है कि ‘ऐहिक’ स्त्री को तथाकथित अलौकिकता’ प्रदान करते हुए मां के प्रतीक में घटा दिया गया है जिसका संबंध स्त्री की जनन-क्षमता पर नियंत्रण से है। मातृशक्ति रूप में स्त्री को परिभाषित करने का मतलब उसकी स्वयंभू नागरिकता छीनना है। इसका यही अर्थ है कि स्त्री स्वतंत्र नहीं है, ‘पिता’ उसका कर्ता है और उसका एकमात्र संदर्भ है। पिता, पति और पुत्र के समानांतर मां, पत्नी और बहन की श्रेणियां हैं जो पुरुष के अधीन हैं। इस तरह मातृशक्ति सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों से संश्लिष्ट शब्द है, इसका साधारण मांओं की इच्छा, दुख-दर्द और क्षमता से कुछ भी लेना देना नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि सवर्णवादी पितृसत्ता के खूंटे से बंधी स्त्री का मातृत्व भी पितृसत्ता का बंधक होता है। एक क्रूर पितृसत्तात्मक ढांचे की ‘मर्यादा’, ‘आचरण संहिता’, कर्मकांड और तमाम अग्निपरीक्षाओं से गुज़रने पर ही उसे मातृपद ‘प्रदान’ किया जाता है। इस ‘मातृपद’ को छीना भी जा सकता है। इस मातृपद की मर्यादा के रक्षक पितृसत्ता के प्रतिनिधि पिता, पति और पुत्र ही नहीं पूरी बिरादरी और धर्म-संस्कृति के ठेकेदार हैं। ‘हिंदू राष्ट्रीयता’ को परिभाषित करते हुए वे इसमें स्त्रियों को शामिल नहीं करते। मातृभूमि के पुत्र हिंदू ही हैं और कोई नहीं (क्योंकि ‘हिंदू’ गर्भावस्था से ही संस्कारों से गुज़रता है) इन पुत्रों के बीच ‘सजातीय भ्रातृत्व’ ही राष्ट्रीयता है। इस तरह ब्राह्मणवादी, सवर्णवादी पितृसत्तात्मक रक्त संबंध की परिकल्पना हिंदू राष्ट्रª का गूढ़ आधार है।6 इसलिए आरएसएस सदस्य रक्षा बंधन को ‘महत्वपूर्ण पर्व’ मानते हैं और एक-दूसरे को राखी बांधते हैं, उनके लिए रक्षाबंधन सिर्फ़ भाई-बहन का त्योहार नहीं है। 

जाति और जैंडर संबंधी प्रश्न सघन अंतर्सूत्रों से जुड़े हैं। ऊंची जाति की स्त्रियों के लिए योनि शुचिता, पतिव्रत धर्म, सती, पर्दा, कर्मकांड और संस्कार हैं तो दलित स्त्री के लिए ‘सेवा धर्म’ है जिसके अंतर्गत उसे हर शोषण को ‘सेवा धर्म’ के अंतर्गत स्वीकार करना है। बलात्कार और यौन-शोषण इसका अपरिहार्य हिस्सा है। सौंदर्य प्रतियोगिताओं के एक उल्लेख में गोलवलकर ने सीता, सावित्री, पद्मिनी को भारतीय नारीत्व का आदर्श बताया है।7 इनमें सीता और सावित्री पतिव्रता स्त्री हैं तो पद्मिनी पतिव्रता के साथ-साथ ‘जौहर’ करने वाली क्षत्राणी है। हालांकि गोलवलकर अपनी पुस्तक में मनुस्मृति का प्रकट उल्लेख करने से बचते हैं लेकिन आरएसएस के विमर्श ‘हिंदू राष्ट्रª’ के लक्ष्य के साथ शास्त्र-पुराणों और ख़ासकर मनुस्मृति को कोई पुरानी बात नहीं रहने देते और उसे व्यवहार में उतारने की इच्छा के साथ पुनः स्थापित करते हैं। मनुस्मृति को तो ये लगभग अपना संविधान ही मानते हैं।

नारीत्व के आदर्श से गिरी हुई स्त्री बुरी स्त्री होती है जिसे हिंदुत्ववादी विचारधारा में ‘कुलटा’, ‘राक्षसी’, ‘डायन’ आदि बताते हैं। इस स्त्री पर हिंसा और इसके ‘वध’ को गोलवलकर ज़रूरी मानते हैं। ‘वास्तविक धर्म’ बताते हुए वे उदाहरण देते हैं: ‘हमारे एक सर्वोच्च आदर्श श्रीराम विजय के इस दर्शन के जीवित उदाहरण हैं। स्त्रियों का वध करना क्षात्र धर्म के विपरीत माना जाता है। उसमें शत्र के साथ खुले लड़ने का आदेश भी है। लेकिन श्रीराम ने ताड़का राक्षसी का वध किया और बाली के ऊपर उन्होंने पीछे से प्रहार किया। …एक निरपराध स्त्री का वध करना पापपूर्ण है परंतु यह सिद्धांत राक्षसी के लिए लागू नहीं किया जा सकता’।8 इस तरह गोलवलकर ‘धर्मराज्य की प्रस्थापना’ करने के लिए ‘परम कर्तव्य’ की तरह निरपराध ‘स्त्री’ के वध को उचित ठहराते हैं। ध्येयवादी मनुष्य के बारे में बताते हुए वे ‘स्त्री वध’ की एक कथा और सुनाते हैं : ‘एक युवक और युवती में बड़ा प्यार था। किंतु उस लड़की के माता-पिता उस युवक के साथ विवाह करने की अनुमति नहीं दे रहे थे। इसलिए वे एक बार दूर एकांत स्थान में मिले और वह युवक कविता में कहता है–मैंने उसका गला घोंट दिया और मार डाला किंतु उसे पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ।’ आगे वे कहते हैं, ‘यही वह कसौटी है जिसे हमें इस प्रकार के प्रत्येक अवसर पर अपने लिए लगाना चाहिए’।9 

मुसलमान और ईसाई को वे ‘आंतरिक संकट’ और ‘आक्रमणकारी’ नस्ल के तौर पर देखते हैं जिन्होंने भारत का गौरव नष्ट किया और इस तरह हिंदू की एक उत्पीड़ित छवि बनायी गयी है जिसे क्षात्र धर्म से ‘हौताम्य’ सीखना है, ‘विजयेष्णु’ और ‘पराक्रमवादी’ बनना है। इस उग्र असहिष्णु हिंदू को अपने ‘ध्येय’ के हिसाब से ईसाई और मुसलमान औरत के प्रति अपना व्यवहार तय करना है, जिसका प्रदर्शन 2002 गुजरात हत्याकांड में और खैरलांजी व ननों के साथ बलात्कार के प्रसंगों में हम देखते हैं। स्त्रियों के प्रति हिंसा और ‘अन्य’ स्त्री जिसे वे ‘राक्षसी’ कहते हैं या जो प्रेमिका है लेकिन ‘ध्येय’ के आड़े आती है उसका ‘वध’ वे आदर्श की तरह सामने रखते हैं।

ऐसा लगता है कि आरएसएस और गोलवलकर स्त्रियों को विचलनकारी, विनाशकारी शक्ति मानते हैं जिसे ‘मातृशक्ति’ के रूप में पितृसत्ता के खूंटे से बांधकर स्वस्थ बलशाली नस्ल पैदा करनी चाहिए अन्यथा यह पतन की ओर ले जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन आक्रमण के सामने फ्रांस की हार का कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘फ्रांस के आकस्मिक तथा पूर्ण पतन का कारण था वह स्त्रैण जीवन ही, जिसने फ्रांस के पराक्रमयुक्त पुरुषत्व की शक्ति को उखाड़ फेंका था।’ आगे वे लिखते हैं–‘हमारे देश में भी परिस्थिति भिन्न नहीं है। तरुण पुरुषों का आधुनिक फ़ैशन बना है–अधिकाधिक स्त्रैण रूप में दिखायी पड़ना। वेश में, स्वभाव में, साहित्य में और अपने दैनंदिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ‘आधुनिकता’ का अर्थ हो गया है स्त्रैणता’।10 वे युवकों को ‘इंद्रिय-विषयों तथा क्लीवता’ में लिप्त होने से बचाने के लिए स्त्रियों से दूर रखना ज़रूरी समझते हैं। वे लिंग पार्थक्य के समर्थक हैं और स्त्री-पुरुष को अपवर्जी (exclusive) श्रेणी की तरह परिभाषित करते हुए लिंग आधारित नस्लवाद को प्रतिष्ठित करते हैं। इन नस्लों के बीच समानता संभव नहीं क्योंकि पुरुष में ‘कर्तृत्व’ निहित है और स्त्री उससे वंचित है। स्त्री समानता के प्रश्न को वे एक वाक्य में ख़ारिज कर देते हैं। वे स्त्री-पुरुष के बीच असमानता को नहीं, उसके विरोध को विभाजनकारी मानते हैं। विचित्र विपर्यय पर आधारित समझ के साथ स्त्रियों के लिए किसी भी क़िस्म के आरक्षण पर तंज़ कसते हुए वे कहते हैं–‘इस समय स्त्रियों के समानाधिकारों और उन्हें पुरुष की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए भी एक कोलाहल है। भिन्न लिंग होने के आधार पर विभिन्न सत्ता केंद्रों में उनके लिए पृथक स्थानों के संरक्षण की मांग की जा रही है और इस प्रकार एक और नये वाद अर्थात ‘लिंगवाद’ को जन्म दिया जा रहा है जो जातिवाद, संप्रदायवाद, भाषावाद, समाजवाद आदि के ही समान है’।11 

विचार नवनीत में मातृभूमि के पुत्र ‘वीरव्रती निष्ठा’, ‘पौरुषयुक्त राष्ट्रªजीवन हेतु’, ‘विजय के उपासक’, ‘विजयेष्णु बनो’, ‘पुरुष बनें’ जैसी उग्र पुरुषवादी और पुरुष केंद्रित विचार और भाषा मौजूद है और स्त्रियों की पूरी अनुपस्थिति है।

स्त्रियों को ‘मातृशक्ति’ के रूप में परिभाषित करने का सीधा संबंध उनकी घरेलू भूमिका से है। बच्चों को जन्म देना, उनका पालन-पोषण, पति की सेवा और परिवार में भारतीय संस्कार और संस्कृति का निरंतर पुनरुत्पादन की ज़ि़म्मेदारी स्त्री की है। इस ज़ि़म्मेदारी में उसकी सामाजिक भूमिका का नकार छिपा हुआ है। सभी तत्ववादी विचारधाराओं की यह मान्यता रही है कि स्त्रियों का काम ‘श्रेष्ठ’ नस्लों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण मात्र है। ‘हिंदू’ राष्ट्र में भी महिलाओं को घर तक सीमित रखने की परिकल्पना मौजूद है। खु़द समय-समय पर अनेक सरसंघचालक इस तरह के बयान देते रहे हैं। इसी वज़ह से संघ परिवार के साक्षी महाराज, साध्वी प्राची, योगी आदित्यनाथ आदि ने हिंदू स्त्रियों द्वारा अधिक बच्चे पैदा करने संबंधी बयान दिये हैं। जहां जहां भाजपा सरकार होती है और वहां बाक़ायदा समाजशास्त्र की पाठ्य पुस्तकों में नौकरी-पेशा महिलाओं के ख़िलाफ़ पाठ शामिल किये गये हैं।12 

‘मातृशक्ति’ को वर्णव्यवस्था के अंदर रहकर ‘मातृ धर्म’ का पालन करना है यानी उच्चवर्ण महिलाएं ‘योनिशुचिता’ और ‘सती धर्म’ का पालन करते हुए संपत्ति के वारिस, ‘धर्म’ और ‘राष्ट्रª के रक्षक’ पैदा करें और दलित स्त्रियां ‘सेवा धर्म’ निभाने के लिए संतान पैदा करें। इस तरह विचार नवनीत में ‘राक्षसी’ और उसके ‘वध’ के प्रसंग के माध्यम से ‘कुलटा’ आदि सांस्कृतिक बिंबों को जगाने और स्त्रियों पर हिंसा करने का आधार प्रस्तुत किया गया है। प्रेमिका की हत्या के माध्यम से ‘लक्ष्य के लिए’ स्त्री को रास्ते से हटाने और ऑनर किलिंग’ का आधार रख दिया गया है। संभाजी के प्रधान के बेटे खंडो बल्लाल के प्रसंग को वे प्रेरक बताते हैं जो संभाजी द्वारा अपनी बहन पर बुरी नज़र डालने पर अपनी बहन को प्राणांत की ‘अनुमति’ दे देता है और संभाजी के प्रति समर्पित रहता है क्योंकि संभाजी उस समय अनेक व्यक्तिगत दुर्गुणों के होते हुए भी ‘पुनरुत्थानशील हिंदूस्वराज्य के एकीकरण का प्रतीक’ था।13 चार पुरुषार्थों–धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के माध्यम से स्थापित किया गया है कि कर्तृत्व पुरुषों में ही निहित है।14 मोक्ष या अध्यात्म को वे ‘हिंदू राष्ट्रª’ के ठोस प्रतीक के रूप में देखते हैं।15 स्त्री इन पुरुषार्थों और लक्ष्यों तक पहुंचने का साधन मात्र है उसमें कर्तृत्व नहीं है, वह पुरुष में ही निहित है। ये बातें छलपूर्ण और गोपनीय शैली का प्रयोग करते हुए विचार नवनीत के माध्यम से संप्रेषित की गयी हैं।

रणनीति और कार्य प्रणाली

महिला समानता का औचित्य जनतांत्रिक व्यवस्था में मान्य है और महिला आंदोलन की प्रतिष्ठा है; इसलिए आरएसएस महिलाओं के खि़लाफ़ कई तरह से काम करता है। महिलाओं की अधीनता स्थापित करने के लिए उसने खु़द महिलाओं के संगठन बनाये हैं, महिलाओं के विरुद्ध स्वतंत्र पुरुष संगठन बनाये हैं, स्त्री अधिकारों के खि़लाफ़ लगातार प्रचार अभियान द्वारा और लैंगिक प्रश्नों को अपनी संकीर्ण राजनीति का औजार बनाकर भी वह यह काम करता रहा है। इस काम में संघ के तमाम संगठन यानी पूरा संघपरिवार शामिल है।

राष्ट्रीय स्वयं सेविका संघ, आरएसएस का अनुषंग है। 1936 में बने इस संगठन के माध्यम से हिंदू प्रचारिकाएं निकाली जाती हैं। 1990 तक उसकी किसी सेविका को आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में भाग लेने की इजाज़त नहीं थी। बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय कार सेविका का मोबिलाइज़ेशन राष्ट्रीय सेविका संघ द्वारा किया गया। इन सेविकाओं को कार सेवकों के लिए पूड़ी-सब्ज़़ी बनाना, उनके पैर धोना, दंगों या ध्वंस के समय उन्हें प्रेरित करना जैसे काम करने होते हैं। परिवारों में त्योहार पर्व संस्कार व रीति रिवाज ठीक से चलते रहें, यह देखना भी उनका मुख्य काम है। आरएसएस द्वारा निर्धारित कामों में ये एक ऐसी निश्चित भूमिका अदा करती हैं जो अधीनस्थ सहायक की है। इसमें केवल मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियां ही होती हैं। दहेज, बलात्कार, घरेलू हिंसा, काम की जगह पर यौन उत्पीड़न आदि महिला मुद्दों पर ये कोई काम नहीं करतीं। भाजपा की एमपी इसकी सदस्य होती हैं। सती के पक्ष में कलश यात्रा जैसे काम भी यह संगठन करता है। इस संगठन का लक्ष्य महिलाओं को संगठित करना या महिला-मुद्दे उठाना नहीं है बल्कि हिंदुत्ववादी पितृसत्तात्मक विचार के लिए आरएसएस के निर्देशन में काम करना है। और उसकी प्रचारिकाएं तैयार करना है। अविवाहित महिला कुलवक़्ती प्रचारक होती हैं जो ‘साध्वी’ बनकर हिंदू भाइयों’ को संबोधित करती हैं। साध्वी ऋतंभरा और साध्वी प्राची का संबोधन पुरुषों के प्रति ही होता है। राष्ट्रीय सेविका संघ की संचालक को आरएसएस के सरसंघचालक नियुक्त करते हैं। 

हिंदू महासभा के संगठन, बजरंग दल की तरह ‘दुर्गावाहिनी’ हिंदू युवतियों का संगठन है जिसमें हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी दी जाती है और हिंदुत्ववादी विचार भी। स्त्री और पुरुष समान नहीं हैं और स्त्रियों को आत्मरक्षा करने के लिए हथियार चलाना भी आना चाहिए। यह आत्मरक्षा उसे मुसलमान’ से या जो भी अन्य’ हैं उनसे करनी है। इस तरह महिलाओं के बीच दक्षिणपंथी विचार और हिंसा की स्वीकार्यता व दंगों में सीमित ढंग की सक्रिय भागीदारी के लिए लड़कियों को तैयार किया जाता है। ये दक्षिणपंथी महिला संगठन एक तरह से महिला आंदोलन के बीच भीतरघात हैं।

‘सेव इंडियन फै़मिली’(एस आइ एफ़) एक अम्ब्रेला आरगेनाइजे़शन है जिसके तहत छोटे-बड़े 50 एनजीओ और संगठन काम करते हैं। राष्ट्रीय, प्रांतीय स्तर की वैबसाइट नेट पर मौजूद हैं। इसकी सदस्य संख्या एक करोड़ बतायी जाती है। इस संगठन ने लिंग समानता’ का हवाला देकर महिला आंदोलन द्वारा पिछले दशकों में बनवाये गये सभी क़ानूनों को ‘लिंग पूर्वाग्रह’ से ग्रस्त बताया है। घरेलू हिंसा, काम की जगह पर यौन उत्पीड़न, दहेज, रेप संबंधी सभी क़ानूनों के ‘इकतरफ़ा होने’ व उनके दुरुपयोग का मामला बनाते हुए उन्हें ज़मानती बनाने और रिव्यू करने का एजेंडा रखा जा रहा है। उत्पीड़ित पुरुषों के लिए सभी बड़े शहरों और क़स्बों में 50 से अधिक हैल्पलाइन सक्रिय हैं जिसमें एक दिन में ही हज़ारों शिकायतें आयी बताते हैं। घरेलू हिंसा से उत्पीड़ित पुरुषों की इन शिकायतों और केस दर्ज कराने के माध्यम से महिलाओं के खि़लाफ़ एक झूठा डाटा जैनरेट किया जा रहा है। हरियाणा में छेड़खानी का विरोध करने वाली लड़कियों के खि़लाफ चरित्रहनन के लिहाज से नेट पर जारी फ़िल्म को भी इसी संगठन ने स्पांसर किया था। इसने ‘पुरुष कमीशन’ बनाने की बात उठायी है। ‘भारतीय परिवार बचाने’ के नाम पर यह संगठन स्त्रियों के मुक़ाबले ‘वरिष्ठ नागरिकों’ और ‘अभिभावकों’ की दशा को इस तरह सामने रखता है जैसे महिलाओं की वजह से उन पर केस होते हैं या जेल होती हैं और जैसे महिलाएं ही अपराधी हैं।

महिला आंदोलन द्वारा महिलाओं की असुरक्षा, घर में हिंसा और उनके भेदभाव की जो सच्चाई समाज में स्थापित हुई है उसकी मान्यता को संदिग्ध बनाना, महिला आंदोलन और प्रतिरोध करने वाली औरत की छवि को विवादास्पद, संदिग्ध और कलुषित करना, झूठे आंकड़े जैनरेट करके उसकी साख को चोट पहुंचाना इसका उद्देश्य है। भाजपा प्रवक्ता राकेश सिन्हा राष्ट्रीय मीडिया पर इसी संगठन के प्रतिनिधि के तौर पर ‘दहेज विरोधी क़ानून’ को ज़मानती बनाने की वकालत कर चुके हैं।

लैंगिक प्रश्नों पर स्त्री द्वेषी राजनीति 

संघ परिवार स्त्री की नागरिक के रूप में संवैधानिक अवधारणा को अपदस्थ करके उसे ‘बहू-बेटी’ के रूप में अत्यंत संकीर्ण मध्ययुगीन पितृसत्तात्मक रक्त संबंध पर आधारित पारिवारिक छवि तक सीमित कर देता है। इस तरह सांप्रदायिक व जातिवादी ‘मर्दानगी’ को उकसाकर महिलाओं के खि़लाफ़ एक भावनात्मक उन्माद जगा दिया जाता है। उन्मादकारी भीड़ों को मोबिलाइज़ करने का यही तरीक़ा है। गुजरात में यह प्रचार लंबे समय तक किया गया कि ‘हिंदू औरतों’ को ‘मुसलमानों’ से ख़तरा है और इस तरह सांप्रदायिक रंग देते हुए औरतों के साथ वीभत्स हिंसा, यौन उत्पीड़न और बलात्कार किये गये। इसके लिए उन्होंने दलित और महिलाओं का भी सक्रिय समर्थन ले लिया। 2014 के चुनावों की तैयारी में मुज़फ्फ़रनगर में ‘बहू-बेटी सम्मान बचाओ’ सम्मेलन किया गया और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण  करते हुए खाप पंचायत, पितृसत्ता के उग्र मुखियाओं और सब तरह के लंपट व हिंसक तत्वों को अल्पसंख्यकों के खि़लाफ़ मोबिलाइज़ कर लिया गया; लेकिन यह सारा मोबिलाइजे़शन सभी तबक़ों की औरतों के खि़लाफ़ भी था; क्योंकि इससे सभी तबक़ों की पितृसत्ता और अन्य स्त्री विरोधी तत्वों और निरंकुश ‘मर्दानगी’ को एक बड़ा मंच मिल गया। वे सामाजिक नेतृत्व की तरह पुनः प्रतिष्ठित हुए। ये स्त्रीविरोधी शक्तियां ही महिलाओं के ‘सम्मान’ की कस्टोडियन बन गयीं। स्त्रियों की सुरक्षा का वास्तविक मुद्दा न केवल किनारे हो गया बल्कि उसके एक पुनरुत्थानवादी, विकृत, स्त्री द्रोही स्वरूप को व्यापक सामाजिक वैधता भी प्राप्त हो गयी। इसके साथ ही उन्होंने ‘लव जेहाद’ का मुहावरा गढ़ा और सांप्रदायिक माहौल बनाते हुए न केवल वोट बटोरा बल्कि प्रेम करने के अधिकार, इच्छा से विवाह करने के अधिकार को भी किनारे धकेल दिया और ‘ऑनर किलिंग’ की परिस्थिति को वैधता और बल प्रदान किया। उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के बाद लखनऊ भाजपा कार्यकारणी के उद्बोधन में पिता और भाइयों से अपील की गयी कि वे अपनी बेटी और बहन पर ‘निगाह’ रखें, यानी ‘वे क्या पहन रही हैं, कहां जा रहीं हैं, कब आ रही हैं, किससे मिलती हैं’ आदि पर।16 इस तरह महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा कोई समाज, प्रशासन, सरकार का नहीं ‘पिता’, ‘भाइयों’ और ‘बिरादरी’ की ज़िम्मेदारी हो गयी। यह स्त्रियों को ख़़ासकर युवा लड़कियों को कुएं में धकेलने के समान है।

‘लव जेहाद’ का मुहावरा और उसकी राजनीति, सांप्रदायिक मोबिलाइज़ेशन का फ़ौरी औजार ही नहीं, युवा लड़कियों के नागरिक अधिकारों को संदिग्ध बनाने के लिए ही नहीं, युवा तबक़ों से प्रेम का अधिकार छीनने के लिए भी है। ‘वैलेनटाइंस डे’ का विरोध, पार्कों में लड़के-लड़कियों पर हमले, हिंदू स्त्री के साथ मुसलमान सहकर्मी को रोकना-पीटना, लड़के-लड़कियां पार्कों आदि में न मिल सकें इसके लिए ‘निगरानी कमेटियां’ बनाना, हिंदू-मुस्लिम विवाहित जोड़ों को धमकियां देना और प्रताड़ित करना आदि से स्पष्ट है कि वे ‘प्रेम’ के विरोध में हैं क्योंकि हिंदुत्ववादी दहेज, असमानता पर आधारित परिवार और पितृसत्ता के पक्ष में हैं। वैसे भी ‘प्रेम’ एक ‘स्त्रैण’ भाव है फिर प्रेम के अधिकार में स्वतंत्र अभिरुचि, चुनाव, संवाद और असहमत होने व प्रतिरोध करने का भी अधिकार शामिल है। इन सभी अधिकारों से उच्छिन्न लड़के ‘हिंदू राष्ट्रª निर्माण’ में आसानी से लग सकते हैं और लड़कियां आसानी से ‘मातृशक्ति’ और ‘गृहलक्ष्मी’ बन सकती हैं। इसीलिए वे लिंग ‘पार्थक्य’ के समर्थक हैं। सहशिक्षा का विरोध उनका पुराना एजेंडा है। एक बार बाला साहब देवरस से दिल्ली के एक पत्रकार ने पूछा कि क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्य व सरसंघचालक कोई महिला बन सकती है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘नहीं–कोई महिला आरएसएस की सदस्य नहीं बन सकती। हम रोज़़़ शाखाएं लगाते हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक घंटे लड़के और लड़कियां एक साथ खेल रहे हैं, यह संभव नहीं है’।17

‘बलात्कार’, छेड़खानी, अपहरण और यौनहिंसा के लिए आरएसएस और हिंदुत्वादी ताक़तें स्त्रियों को ही ज़िम्मेदार मानती हैं। इस तरह वे अपराधियों को बचाती हैं और बलात्कार के पक्ष में हैं। मोहन भागवत का यह बयान कि रेप ‘इंडिया’ में होते हैं ‘भारत’ में नहीं, इसका स्पष्ट उदाहरण है। इंडिया का अर्थ हिंदुस्तान का वह हिस्सा है जहां स्त्रियां अपने नागरिक अधिकारों का प्रयोग करती हैं जिसे वे ‘पश्चिमीकरण’ कहकर ख़ारिज करते हैं। साक्षी महाराज द्वारा हिंदू युवावाहिनी सम्मेलन में ‘मुसलमान औरतों को क़ब्र से निकाल कर रेप करना चाहिए’, ऐसे भाषण दिये गये थे, उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी और अब कुछ दिन पहले ही मेरठ और गाज़ियाबाद के बीच तलहेटा गांव में 26 वर्षीय मुस्लिम युवती की क़ब्र खोदकर उसके साथ बलात्कार किया गया। पुलिस का कहना है कि ये सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए किया गया लगता है।18 पिछले कुछ ही दिनों में बैंगलौर में लेखिका तिर्थाहल्ली को रेप और मारने की धमकी दी गयी है क्योंकि वे ‘हिंदू रीति रिवाजों के खि़लाफ़’ लिखती हैं। उन्होंने इसके खि़लाफ़ एफ़आइआर दर्ज़ करायी है।

2014 लोकसभा चुनावों से पहले जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट को निशाना बनाना, रेप के खि़लाफ़ न बोलकर लड़कियों के कपड़ों पर टिप्पणियां करना आदि संघ परिवार के बलात्कार के पक्ष में होने के सबूत हैं।

खाप पंचायतों को लोकसभा चुनाव के समय और फिर हरियाणा विधानसभा चुनाव के समय जैसे महिलाओं के खि़लाफ़ मैदान में उतार दिया गया। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतों ने लड़कियों के जीन्स पहनने, मोबाइल रखने को रेप का कारण बताया। सोनीपत में खाप पंचायत में विचार व्यक्त किया गया कि बालविवाह करने से रेप नहीं होंगे। ऐसे प्रस्ताव भी चर्चा में आये कि लड़कियों को 10वीं के आगे नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। हरियाणा के मुख्यमंत्री (जो आरएसएस के घोषित प्रचारक रहे हैं) ने शपथ लेते ही बयान दिया कि ‘महिलाओं को अगर स्वतंत्रता चाहिए तो वे निर्वस्त्र क्यों नहीं घूमती हैं’? उन्होंने हरियाणा के एक प्राइवेट चैनल पर इंटरव्यू में खाप पंचायतों को ‘जल्दी न्याय देने वाली संस्था’ बताया। हिंदू महासभा और खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने टी.वी. पर लड़कियों के कपड़ों पर लंबी-लंबी बहसें की हैं जिनमें ऐसी बातें भी शामिल हैं कि ‘लड़कियां ऐसे कपड़े पहनती हैं जिसमें उनके आकार दीखते हैं।’ लड़कियों के खि़लाफ़ ऐसा वातावरण बना दिया गया जैसे वे अपराधी हैं। जस्टिस वर्मा कमेटी की सिर्फ़़ारिशें लागू नहीं हुईं; रेप के खि़लाफ़ वातावरण बनाने के एजेंडे को पलट दिया गया और लगभग ‘लड़कियों को सुधारने’ का एजेंडा रख दिया गया। इस समय बलात्कारियों और बदमाशों के हौसले बुलंद हैं और स्त्रियों के खि़लाफ़ अपराध बढ़ रहे हैं। जातिवादी रुख़ भी इन अपराधों में शामिल हैं, ख़ासकर पढ़ने वाली दलित लड़कियों को निशाना बनाया जा रहा है। इसी महीने यमुनानगर के एक स्कूल के बाहर छात्राओं को दबंगों द्वारा छेड़ने और उनके कपड़े फाड़ने की घटना सामने आयी है। सनपेड गांव (हरियाणा) में दलित परिवार को पुलिस पहरे में जलाकर मारने की घटना अभी हुई जिसमें 2 बच्चे जीवित जल गये और मां 70 प्रतिशत जल गयी। दशहरे के दिन सोनीपत के कुंडली गांव में 14 साल की युवती जो भाई के साथ थी (परिवार उसके पीछे था) को अगवा करके रेप और हत्या अंजाम दी गयी। हर दिन पूरे देश से स्त्रियों पर हमलों की ख़बरें आ रही हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सरसंघचालक इन पर कुछ नहीं बोलते, राजसत्ता, पुलिस-प्रशासन, अपराधियों को बचाते हैं। सोशल मीडिया पर भी हिंदुत्ववादियों द्वारा महिलाओं को लगातार हिंसा और रेप की धमकियां दी जा रही हैं।

दलित, महिलाओं और ग़़रीब तबक़ों को पंचायत चुनावों से बाहर रखने के लिए हरियाणा में प्रत्याशियों पर 10वीं पास होने, बैंक कर्ज़ा न होने, घर में शौचालय होने जैसी शर्तें लगाने वाला प्रस्ताव हरियाणा विधानसभा में पास किया गया है। सरकार के इस फ़ैसले को जनवादी महिला समिति की मदद से प्रत्याशियों ने चुनौती दी है और सरकार ने कोर्ट में मुंह की खायी है। सरकार द्वारा ‘स्टे’ की अपील पर अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में है। वास्तव में संघ परिवार महिलाओं, दलितों और ग़रीब आबादियों से उनकी नागरिकता छीनना चाहता है। वह उनके मताधिकार और निर्वाचित होने के अधिकार को भी स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि इनसे तथाकथित ‘सेवा धर्म’ में बाधा पड़ती है।

जातिवादी, सांप्रदायिक घृणा, हिंसा और स्त्रियों के खि़लाफ़ अपराधों को राजसत्ता का समर्थन इस समय प्राप्त है। वे अपराधों के खि़लाफ़ बयान तक नहीं देते और उनके संगठन, प्रचारक और हिंदूवादी स्वयंभू ‘राष्ट्रवादी’ आग लगाने वाले बयान देते हैं। ऐसा लगता है जैसे वे स्त्रियों के सम्मान के साथ खेल रहे हैं। गृहमंत्री बयान देते हैं कि दो लोगों द्वारा बलात्कार सामूहिक बलात्कार नहीं होता। अपराधियों के खि़लाफ़ कुछ न बोलना और स्त्रियों के खि़लाफ़ सामाजिक-सांस्कृतिक हमले को शह देना व संगठित करना मौजूदा स्त्रीद्रोही हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी सरकार का मुख्य चरित्र है। और ऐसे में मोहन भागवत बयान देते हैं कि ‘पुरुषों को जीविका उपार्जन करनी चाहिए और स्त्रियों को घर संभालना चाहिए।’ वास्तव में वे स्त्रियों की ‘घर वापसी’ का गुप्त एजेंडा रखते हैं। चूंकि आरएसएस के अनुसार ‘मातृशक्ति’ का स्थान घर है। हिंदुत्ववादियों ने लैंगिक प्रश्नों को संकीर्ण विभाजनकारी राजनीति का हिस्सा बना लिया है और महिलाओं को घर और बाहर न केवल असुरक्षित कर दिया है बल्कि उन्हें निहत्था करने और समाज की सबसे पिछड़ी ताक़तों को उनके खि़लाफ़ खड़ा करने का वे काम कर रहे हैं।

संघ परिवार और आरएसएस उस हिंदुत्ववादी परंपरा की निरंतरता को आगे ले जा रहे हैं जिसने ‘हिंदू कोड बिल’ का विरोध इसलिए किया था क्योंकि इसमें एक विवाह और तलाक़ का प्रावधान था। वे पुत्र उत्पत्ति के नाम पर एक से अधिक विवाह यानी बहुविवाह की परंपरा क़़ायम रखना चाहते थे। महिलाओं को संपत्ति में अधिकार नहीं देना चाहते थे। इस स्त्रीविरोधी मुहिम में श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे हिंदू महासभा के लोग नेतृत्वकारी भूमिका में थे।19 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही आगे चल कर भारतीय जनसंघ बनाया जिसका परवर्ती रूप आज की भाजपा जैसी दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टी है। बाबरी मस्जिद ध्वंस से पहले हम रूपकंवर सती प्रसंग में भी हिंदुत्ववादियों का स्त्री-द्रोही चेहरा देख चुके हैं। उस समय उठी बहसों में इन्होंने कामकाजी स्त्रियों को ‘चरित्रहीन’ बताया, पढ़ी-लिखी औरतों की निंदा की और उस ‘भारतीय संस्कृति’ का गुणगान किया जिसमें सती-प्रथा और बहुविवाह को मान्यता प्राप्त है।

सांप्रदायिकता की तरह ही वे लैंगिक प्रश्नों को अपना सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व क़ायम करने के लिए एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।    

मौजूदा सरकार के कारनामे

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाली भाजपा सरकार ने 2014 से आज तक लड़कियों के जीवित रहने और पढ़ने की परिस्थिति को इस हद तक ज़हरीला बना दिया है कि उनका पढ़ना और जीवित रहना दोनों ही मुश्किल से मुश्किल होते जा रहे हैं। विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में छात्र-छात्राओं के लिए एक घुटन भरा वातावरण बनाया गया है। आर.एस.एस. प्रचारकों की नियुक्ति वाइस चांसलर के तौर पर की जा रही है। ये स्त्रीद्रोही लोग हैं। इसका एक उदाहरण तो बनारस विश्वविद्यालय में छात्राओं के आंदोलन के समय सामने आया। बनारस विश्वविद्यालय में सुबह-शाम आर.एस.एस. की शाखाएं लगती थीं और भगवा ध्वज लेकर रोज़़़ जुलूस निकाले जाते थे। लड़कियों को शाम के बाद बाहर निकलने पर छेड़खानी होती थी। लड़कियों ने सीसी टी.वी. कैमरे लगाने, हॉस्टल के आसपास रोशनी का ठीक इंतज़ाम करने और सुरक्षा के अन्य उपायों के लिए एप्लीकेशन लिखी और वी.सी. से समय मांगा जो वी.सी. ने नहीं दिया। लड़कियों ने शिकायत की कि हमारे कमरे की खिड़की के सामने लड़के ने कहा, ‘शाम को बाहर क्यों निकलती हो?’ एक लड़की के साथ शाम को अभद्र शारीरिक व्यवहार किया गया और कहा गया, ‘वापस जायेगी या रेप करायेगी?’ इस पर छात्राओं ने धरना दिया। धरने पर लाठीचार्ज किया गया। लड़कियों के चरित्रहनन की कोशिश की गयी, उनके घरवालों को भड़काने वाली रिपोर्ट भेजी गयी, उनके खि़लाफ़ तरह-तरह की अनुशासनात्मक कार्रवाई की गयी। यह एक जगह की बात नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की नौ लड़कियों की शिकायत के बावजूद प्रशासन ने डॉ. जौहरी का बचाव किया और बरसों से अच्छा काम कर रही यौन उत्पीड़न-विरोधी कमेटी को ही भंग कर दिया। दिल्ली में लड़कियों के ‘पिंजड़ा तोड़’ आंदोलन के दौरान लड़कियों को डराया-धमकाया गया और ए.बी.वी.पी. के लड़कों ने चरित्र हनन के प्रयास किये; साथ ही लड़कियों पर हमले भी किये। यहां एक-दो उदाहरण की बात नहीं है। ऐसा लगता है लड़कियों को पढ़ने से हतोत्साहित करने की मुहिम चली हुई है। हरियाणा में फ़रीदाबाद और फिर रिवाड़ी में स्कूल की लड़कियों ने छेड़ख़ानी के खि़लाफ़ आंदोलन किये। पंचायत ने फै़सला लिया कि लड़कियां पढ़ने नहीं जायेंगी। लड़कियां दिन-रात धरने पर बैठीं, उन्हें डराने के लिए गुंडे भेजे गये और प्रशासन ने कुछ नहीं किया। बाद में महिला आंदोलन के हस्तक्षेप से मामला कुछ सुलझा। उसके बाद ही इस इलाक़े में सी.बी.एस.सी. में प्रथम आने वाली लड़की के साथ सामूहिक रेप हुआ। लड़कियों के माता-पिता में जो लड़कियों को पढ़ाने की गहरी इच्छा पैदा हुई थी वह टूट रही है। लड़कियों के अभिभावक लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं और एक मजबूरी महसूस कर रहे हैं।

आज शिक्षा को लगातार महंगा किया जा रहा है। इसका असर दलित, ग़रीब तबक़ों और ख़ासकर लड़कियों पर पड़ रहा है। माता-पिता असुरक्षा और महंगी शिक्षा के कारण भयानक दबाव में हैं और लड़कियां प्रतिरोध कर रही हैं। प्रतिरोध करती लड़कियों का मनोबल तोड़ने के लिए पुलिस प्रशासन, सरकार हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है। केवल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ही नहीं, पूरे देश में जगह-जगह फ़ीस वृद्धि के खि़लाफ़ आंदोलन हो रहे हैं।

भाजपा बलात्कार, यौन उत्पीड़न और चरित्र हनन को लगातार स्त्रियों के खि़लाफ़, जनतांत्रिक आंदोलनों के खि़लाफ़ और अपनी विभाजनकारी संकीर्ण राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रही है। कठुआ रेप केस में हिंदुत्ववादियों ने तिरंगे लेकर बलात्कारियों को बचाने के लिए उन्मादी जुलूस निकाला। इस जुलूस में जम्मू-कश्मीर के दो भाजपाई विधायकों ने भी हिस्सा लिया। सारे देश में इसका विरोध हुआ। दबाव में विधायकों को इस्तीफ़ा देना पड़ा। प्रधानमंत्री इस केस पर तीन महीने तक कुछ नहीं बोले। उत्पीड़ित बच्ची के घरवालों और उसकी वकील को लगातार केस छोड़ने के लिए डराया-धमकाया गया। इस केस का प्रयोजन बकरवालों को खदेड़ना और सांप्रदायिक विभाजन को पक्का करना था।

बच्चियों के यौन उत्पीड़न और हत्या के मामले एक डराने वाले परिमाण में सामने आ रहे हैं। ख़ुद बच्चियों को शरण देने वाले शेल्टर हाउस यानी बालगृह में बच्चियां यौन उत्पीड़न से लेकर अन्य अनेक तरह की हिंसा की शिकार हो रही हैं। मुजफ़्फरपुर, बिहार बालगृह के संदर्भ में ब्रजेश ठाकुर को पुलिस खोज रही है। इस सुधारगृह से लड़कियां ग़ायब की गयीं। हड्डियों का एक बंडल भी उस स्थान से खुदाई में मिला जहां कुछ बच्चियों को मारकर जलाया गया था। खुद एक आरोपी ने यह जगह पुलिस को दिखायी। लोगों के भारी प्रतिरोध के कारण केस सी.बी.आइ. को सौंप दिया गया।

राजस्थान में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, अलवर में वार्डन और उसके पति को लड़कियों के यौन-उत्पीड़न के संदर्भ में गिरफ़्तार किया गया। सरकार द्वारा जनदबाव में बनायी गयी एक खोजबीन कमेटी ने मध्य प्रदेश आदि अनेक राज्यों के बालिका गृहों में बच्चियों पर हो रही हिंसा और यौन उत्पीड़न के मामलों की रिपोर्ट प्रस्तुत की।

बलात्कार से लड़कर जीवित बच जाने वाली महिलाओं के पुनर्निवास के लिए 2013 में बनाया गया निर्भया फ़ंड उत्पीड़ित महिलाओं पर ख़र्च नहीं किया गया। केवल 30 प्रतिशत फ़ंड ख़र्च किया गया। उसी फ़ंड से 500 करोड़ रुपया रेलवे को सीसी टीवी लगाने के लिए दे दिया गया।

उन्नाव रेप केस, चिन्मयायनंद केस, नित्यानंद केस आदि की एक अंतहीन लिस्ट है जिसमें भाजपा के विधायक, मंत्री और ख़ुद प्रधानमंत्री, गृहमंत्री के साथ फ़ोटो खिंचाने वाले नज़दीकी लोग महिलाओं के प्रति अपराधों में लिप्त पाये गये। इन मामलों में आरोपी को बचाने की पूरी कोशिशें हुईं। आरोपी का भाग जाना, पकड़ा ही न जाना, ज़मानत पर खुला घूमना, उत्पीड़ित पर हिंसा करना, केस वापस लेने के दबाव बनाना, सबूत मिटाना और परिवारजनों की हत्या कर देना — इसी तरह की पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। चिन्मयानंद जो भाजपा सरकार में तीन बार मंत्री रह चुके हैं, आराम से अस्पताल में हैं और लड़की जेल में है। उसे परीक्षा देने की अनुमति भी नहीं मिली; उस पर गै़रज़मानती गंभीर केस बनाये गये हैं; जबकि चिन्मयानंद पर मामूली धाराएं लगायी गयीं। 

शबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फै़सले के खि़लाफ़ गृहमंत्री ने बयान दिया कि सुप्रीम कोर्ट को फै़सला करते समय लोगों की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए। पूरे देश में इस मुद्दे के बहाने महिलाओं के ख़िलाफ़ और प्रगतिशील ताक़तों के खि़लाफ़ कट्टरपंथी उन्मादी भावनाओं को भड़काया गया। मंदिर प्रवेश करने वाली स्त्रियों पर हमले के लिए लोगों को उकसाया गया।

धूर्ततापूर्वक मातृशक्ति का राग छेड़ने वाली इस सरकार ने आइ.सी.डी.एस. आंगनवाड़ी योजना के बजट में 50 प्रतिशत  की कटौती कर दी। ग़रीब गर्भवती औरतों और बच्चों को मिलने वाले मामूली पोषण में यह कटौती बच्चों में कुपोषण और प्रसव के दौरान मौत जैसी समस्याओं को बढ़ाने वाली है। आशा वर्कर्स के बजट को भी कम किया गया है। आर.टी.एफ. (Right to Food) पर पूरा काम करने वाली एक संस्था ने 50 से अधिक मौतें भूख के कारण एक रिपोर्ट में दर्ज की हैं। झारखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में ये मौतें हुई हैं। इसके बावजूद राशन प्रणाली के नियम इस तरह बनाये जा रहे हैं कि लोगों को राशन नहीं मिल रहा। आधार कार्ड से राशन कार्ड को जोड़ने और मशीन पर अंगूठे की छाप से पहचान करने के कारण बहुत ग़रीब लोगों को राशन नहीं मिल रहा। मज़दूर औरतों के अंगूठों के निशान घिस जाते हैं इस वजह से मशीन पर उनकी छाप ठीक नहीं आती।

मनरेगा योजना जिसमें ग़रीब औरतों को 100 दिन काम मिलता था उसमें बजट कम करने से अब केवल 34 दिन काम मिलेगा। यही नहीं, 2016-17 में मनरेगा की 20,000 करोड़ रुपये की दिहाड़ी समय से नहीं दी गयी। वास्तव में इस योजना को बर्बाद कर दिया गया है।

ग्रामीण महिलाएं जो पशु-पालन से घरेलू अर्थव्यवस्था चलाती थीं ‘गाय की राजनीति’ के कारण संकट में हैं। आदिवासी महिलाएं जंगलात के अधिकार के क़ानून में बदलाव के कारण भारी मुसीबत में हैं  झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में उनसे ज़मीनें ख़ाली करायी जा रही हैं और वे भीषण संघर्षों से गुज़र रही हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत लोगों से जो टैक्स वसूल किया जा रहा है और उसे इश्तहार और प्रचार पर ख़र्च कर दिया गया है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार, दस में से छह शौचालयों में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। मध्य प्रदेश में दो दलित बच्चों की पिटाई से मौत हुई क्योंकि वे खुले में निपटने के लिए गये थे। गटर साफ़ करने के लिए अब भी मशीनों आदि के लिए कोई बजट नहीं रखा गया है। आज भी, गटर में उतरने पर मौत की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

हर ओर मौतें। छात्र आत्महत्या कर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, गाय के नाम पर लिंचिंग हो रही है। क़रीब 12 हज़ार किसान कर्ज़े की वजह से हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। औरतें इस समय भयानक दबावों में हैं। कर्ज़ा उगाहने वाले और अनेक असामाजिक तत्त्व उन्हें परेशान करते हैं, साथ में आर्थिक संकट भी झेल रही हैं जिसे नोटबंदी ने और बढ़ा दिया है।

इधर संसद में ऐसे कई बिल पारित करा लिये हैं जिन के माध्यम से सरकार ने स्पष्ट तौर पर सांप्रदायिक पार्थक्य को पक्का कर दिया है। असम में नागरिकता रजिस्टर के क़दम से अनेक लोग भयानक मुश्किलों से गुज़र रहे हैं। उन महिलाओं की ख़ासी तादाद है जिन पर काग़ज़ नहीं है। वे ग़रीब, अनपढ़ औरतें हैं। शादी के बाद वे असम पहुंच गयीं। कितनी औरतें यातनागृह जैसे शैल्टर हाउस में रह रही हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून तो संविधान की मूल प्रतिज्ञा को उलटने वाला है। यह संविधान को अपदस्थ कर मनुस्मृति लागू करने की दिशा में एक क़दम है।

सरकार द्वारा बनायी जा रही तमाम परिस्थितियां औरतों को और अधिक असुरक्षित करने वाली हैं; क्योंकि सारे क़दम एक हिंसक परिस्थिति बना रहे हैं। तथाकथित हिंदू राष्ट्र के संदर्भ में पहले ही घोषणाएं की जा चुकी हैं कि स्त्री का काम पति की सेवा करना है। जो सामाजिक सत्ता आज महिलाओं के ख़िलाफ़ खड़ी है वह केवल परंपरागत सामाजिक सत्ता नहीं है। मौजूदा सत्ता का चरित्र आपराधिक विश्व पूंजी और दक्षिणपंथी प्रतिगामी राजनीति के दलालों द्वारा गढ़ा गया है। यह सामाजिक सत्ता, निरंकुश राजसत्ता और कॉरपोरेट पूंजी के गठजोड़ से निर्मित हुई है जिसकी उपस्थिति दुनिया में मानवता के प्रति होने वाले क्रूरतम अपराधों तक फैली हुई है। इकतरफ़ा युद्ध, गृह युद्ध, जनसंहार, हत्याओं के गूढ़ सिलसिले, नस्ली हिंसा और निर्दोषों पर अकारण बमबारी हो या स्त्री, बच्चों और ग़रीब आबादियों के प्रति व्यापक क्रूरताएं हों–सभी में इस तरह के गठजोड़ की उपस्थिति मौजूद है। इस सामाजिक सत्ता को, हिटलर अपना हीरो लगता है और संघ परिवार व भाजपा के लिए तो वह परम आदर्श है ही। इस राजनीतिक सत्ता का आर्थिक वर्चस्व की शक्तियों से जो गठबंधन है उसके चलते आज व्यापक आबादियां गहरी यातना और लाचारी से गुज़र रही हैं। साथ ही ऐसा कोई प्रदेश या तबक़ा नहीं है जहां इसके खि़लाफ़ विरोध या संघर्ष न हो रहे हों। यह गहरी अंतर्विरोधी स्थिति है। हमारा मुक़ाबला इस समय सिर्फ़ भाजपा से नहीं बल्कि एक मनुष्य द्रोही गठबंधन से है। सामाजिक सत्ता को लोगों के पक्ष में ढालने और विकल्प की रणनीति तैयार करने की मांग इस परिस्थिति में छिपी हुई है।

shubhamanmohan@gmail.com

संदर्भ

  1. सुमित सरकार, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1992, पृ. 93-97
  2. Stanley A. Wolpert, Tilak and Gokhle,Chapter 3, ‘Revival and Reform’  pp 62-119, Oxford University Press] 1991.
  3. मा.स.गोलवलकर, विचार नवनीत, पृ. 32,119,120,152, भारतीय संस्कृति पुनरुत्थान समिति, लखनऊ, उ.प्र., तृतीय संस्करण।
  4. ‘हमारे पूर्वजों ने …कहा कि हिंदू समाज ही वह विराट पुरुष है, सर्वशक्तिमान की स्वः की अभिव्यक्ति। यद्यपि वे हिंदू शब्द का प्रयोग नहीं करते पर ‘पुरुष सूक्त’ में सर्वशक्तिमान के निम्नांकित वर्णन से यही स्पष्ट है:
    ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृतः।
    उरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यांशूद्रो अजायत।।
    (‘ब्राह्मण उसका मुख है, क्षत्रिय भुजाएं, वैश्य उसकी जंघाएं तथा ‘शूद्र पैर हैं।)
    इसका अर्थ है कि समाज जिसमें यह चतुर्विध व्यवस्था है अर्थात हिंदू-समाज हमारा ईश्वर है।’
    विचार नवनीत, पृ. 26 (तृतीय संशोधित संस्करण), गुरु गोलवलकर, इसके अलावा, देखिए, पृ. 104,105
  1. ‘उदाहरण के लिए हमारा यह सामान्य नियम है कि प्रत्येक स्त्री को चाहे वह छोटी बालिका ही क्यों न हो, हम मां कहकर पुकारते हैं। हम अपनी अनेक बोलियों में जो भी शब्द प्रयोग करते हैं, वे भी इस अर्थ को व्यक्त करते हैं। इसका यह आशय है कि पत्नी को छोड़कर अन्य प्रत्येक स्त्री वह चाहे जिस अवस्था एवं प्रतिष्ठा की हो, पुरुष के लिए माता का व्यक्त रूप है। यह हमारी संस्कृति का विशिष्ट स्वरूप है।’ विचार नवनीत, वही, पृ.122
  2. विचार नवनीत, पृ. 115,  
  3. विचार नवनीत, पृ. 31
  4. विचार नवनीत, पृ. 263  
  5. विचार नवनीत, पृ. 405
  6. विचार नवनीत, पृ. 227
  7. विचार नवनीत, पृ. 114
  8. bbc.com 23 सितंबर 2015, ‘महिलाएं बढ़ा रही हैं बेरोज़गारी’
    छत्तीसगढ़ समाज विज्ञान की दसवीं की पाठ्य पुस्तक, (राज्य शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्, रायपुर, छत्तीसगढ़)
  1. विचार नवनीत, पृ. 374
  2. विचार नवनीत, पृ. 34- ‘यह चतुर्विध पुरुषार्थ है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’
  3. विचार नवनीत, पृ. 26
  4. The Hindu, 24 अगस्त 2014,
  5. Bala Saheb Deoras with Delhi Newsmen, March 12, 1979, सुरुचि साहित्य प्रकाशन।   
  6. Times of India, 26 अक्तूबर 2015
  7. Renu Chakarvarty, Communists in Indian Women’s Movement (2nd edition),  p.190-191.

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