ग्राम्शी : वर्चस्व के ख़िलाफ़ दीर्घकालीन सांस्कृतिक युद्ध का प्रस्ताव / महेश मिश्र
“ग्राम्शी ने क्रांति को केवल सत्ता–हस्तांतरण की घटना नहीं माना, बल्कि उसे एक लंबी सांस्कृतिक प्रक्रिया बताया। यदि पूँजीवाद अपनी
“ग्राम्शी ने क्रांति को केवल सत्ता–हस्तांतरण की घटना नहीं माना, बल्कि उसे एक लंबी सांस्कृतिक प्रक्रिया बताया। यदि पूँजीवाद अपनी
भाषा का मसला पहले से भी, और इन दिनों विशेष रूप से, विवादों में रहा है। हमें कैसी हिंदी चाहिए,
“स्योहारवी ने रूढ़िवादी माने जाने वाले संस्थान से होकर भी आधुनिकता के साथ संवाद स्थापित किया और पाकिस्तान आंदोलन की
“कोई भी पलटकर पूछ सकता है कि हम अभी तक कौन-से स्वर्ग में रह रहे थे जिसको बचाने की फ़िक्र
पत्रिकाओं में छप तो बहुत कुछ रहा है, पर क्या वह सब पढ़ा भी जा रहा है? विचार कर रहे
‘व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के तमाम दावों के बावजूद अधिकांश लोग अपनी मानवीय संभावनाओं और क्षमताओं से कमतर जीवन ही
इरफ़ान हबीब का यह निबंध –दि नेशन दैट इज़ इंडिया–पहले पहल 10 जून 2003 को ‘दी लिटिल मैगज़ीन’ में प्रकाशित
‘इस ऐतिहासिक मोड़ पर हमें न केवल संविधान सभा की नैतिक दूरदर्शिता की ओर लौटना होगा, बल्कि बिपिन चंद्र, रजनी
मुख़्तार ख़ान का यह लेख जितना उर्दू क़वायद के बारे में है, उतना ही हिंदी-उर्दू के अटूट रिश्ते के बारे