मुख़्तार ख़ान का यह लेख जितना उर्दू क़वायद के बारे में है, उतना ही हिंदी-उर्दू के अटूट रिश्ते के बारे में भी। मुख़्तार ख़ान मुंबई के सेंट झेवीयर्स संस्थान में अध्यापन से जुड़े हैं। उर्दू, हिंदी और मराठी, तीनों भाषाओं में लेखन और अनुवाद का काम करते हैं। जनवादी लेखक संघ, महाराष्ट्र में सक्रिय हैं।
उर्दू भाषा का जन्म और हिन्दी-उर्दू रिश्ते
उर्दू भाषा का शुमार विश्व की आधुनिक भाषाओं में होता है। हम कह सकते हैं कि पिछली एक सदी में इसने अपने दम पर खड़ा होना सीख लिया है। जिस तरह एक बीज से अंकुर फूटता है, पौधा बड़ा होता है, शाखाएँ निकलती हैं, धीरे-धीरे उसका तना पुख्ता होता जाता है और एक दिन वही नन्हा सा बीज एक विशाल तनावर पेड़ का आकार ले लेता है, भारत में जन्मी उर्दू ज़बान का विकास भी कुछ इसी तर्ज़ पर हुआ। उर्दू भाषा के व्याकरण की रिवायत पर चर्चा से पहले इस ‘आधुनिक भारतीय भाषा’ की विकास यात्रा को जानना भी ज़रूरी है।
उर्दू ज़बान उस ज़माने की यादगार है, जब मध्य-पूर्व देशों से राज्य विस्तार की गर्ज़ से जंगजू सिपाह-सालार भारत आये। उन्हीं में से कुछ ने भारत को अपना वतन बना लिया। ईरान, इराक, तुर्की से लेकर अज़रबैजान तक आवगमन का यह सिलसिला सैकड़ों बरस जारी रहा। मध्य-पूर्व की सदियों पुरानी अरबी-फ़ारसी तुर्की तहज़ीब से हमारे सांस्कृतिक रिश्ते बनने लगे। आदान-प्रदान का सिलसिला बढ़ता गया। इन सांस्कृतिक रिश्तों को बनाने में फ़नकारों, शायरों की भूमिका अहम रही। इनके साथ-साथ सूफ़ी संतों के योगदान को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। रूहानियत से लबरेज़ इस्लाम के ये उदार मतवादी सूफ़ी संतों ने अपनी सादगी और प्रेम-भरी वाणी से समाज में अपने लिए एक मक़ाम बना लिया। सूफ़ी संतों के क़ाफ़िले दिलों में मोहब्बत का पैग़ाम और इंसान-दोस्ती की शमा लिये सर-ज़मीन-ए-हिंदुस्तान पहुँचे, तो उन्हें यहाँ की आब-ओ-हवा, यहाँ के लोग, इनकी संस्कृति बिल्कुल अपने वतन जैसी लगी। गंगा-यमुना के अमृत ने उन पर ऐसा जादू किया कि वे दजला व फ़रात की रवानी भूल गये। उन्होंने यहीं अपनी ख़ानक़ाहें बनायीं। पीरी-मुरीदी का सिलसिला चल पड़ा। स्थानीय लोगों से राब्ता बढ़ने लगा। इनकी सादगी और दिव्य बानी ने आम लोगों पर जादू का असर किया। ये चाहते तो बड़ी आसानी से दरबार के मुसाहिब बनकर जीवन जीते, लेकिन वे सीधे लोक जीवन से जुड़े। अरबी, फ़ारसी, तुर्की ज़बान स्थानीय बृज, अवधी, प्राकृत, हिन्दी, मैथिली जैसी बोलियों-भाषाओं के सम्पर्क में आने लगे। अवाम की भाषा में बदलाव आने लगा। धीरे-धीरे एक नयी भाषा आकार लेने लगी।
इस दौरान फ़ारसी का दबदबा राज भाषा की हैसियत से दरबारों और महलों में बना रहा। लेकिन दरबार से बाहर अवाम में इसकी मक़बूलियत नहीं हो पायी। दरबारों के आस-पास लगने वाले बाज़ार, मेलों और ख़ानक़ाहों, फ़ौजी छावनियों में एक नयी तहज़ीब परवान चढ़ने लगी। आपसी मेल-जोल से नयी बोली, भाषा भी गढ़नी शुरू हुई। जिसे हम चाहे जो नाम दें- हिन्दी, हिन्दुस्तानी, खड़ी बोली, रेख़्ता या उर्दू। आम लोगों, सिपाहियों, सूफ़ियों और उस दौर के शायरों और कवियों ने अवाम तक अपनी बात पहुँचाने के लिए इस नयी भाषा को हाथों हाथ लिया। इसके बावजूद उर्दू भाषा का चलन बोल-चाल तक ही सीमित रहा। उत्तर भारत में अभी तक यह साहित्य व अदब की भाषा नहीं बन पायी थी। फ़ारसी, संस्कृत को ही ज्ञान व इल्म की ज़बान माना जाता था। फ़ारसी को लेकर अपनी भाषा में अवाम ने लोकोक्ति तक गढ़ डाली ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’। अभी यह ज़बान इतनी सशक्त नहीं थी कि इसमें ज्ञान और साहित्य रचा जा सके। बावजूद इसके उस समय के संत कवियों ने इस खुरदरी ज़बान ही में अपना कलाम कहना शुरू कर दिया। जब इस ज़बान को लिखने की बात आयी, तो शुरुआत में इसे नागरी और (अरबी) फ़ारसी दोनों लिपियों में लिखा जाने लगा। आगे चलकर इस लिपि को नस्ता’लीक़ भी कहा गया। मिली-जुली संस्कृति के केवल सौ वर्षों के भीतर ही इस आधुनिक भाषा को कवि के रूप में अमीर ख़ुसरो जैसा फ़नकार प्राप्त हुआ। अमीर ख़ुसरो उस खुरदरी-सी ज़बान में अपनी बात कुछ इस तरह कहते हैं–
ख़ुसरो दरिया प्रेम का उलटी वा की धार
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।
वहीं संत कबीर के यहाँ इसका रंग देखिए–
न पल बिछड़े पिया हम से न हम बिछड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागी है हमन को बे-क़रारी क्या।
उसी तरह आरंभिक उर्दू गद्य की पहली पुस्तकों को देखें तो मीर अम्मन का नाम आता है। फ़ारसी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘चहार दरवेश’ का अनुवाद मीर अम्मन (1748- 1806) ने दिल्ली और आस-पास बोली जाने वाली आम ज़बान में किया था। पुस्तक ‘बाग व बहार’ की नस्र का एक उदाहरण देखिए-
‘रोम के मुल्क में एक शहंशाह था। नवशेरवाँ की सी अदालत और हातिम सी सखवात उसकी ज़ात में थी, उसका नाम आज़ाद बख्त था। जितने चोर-चकार जेब कतरे उठाईगीरे उनको नेस्त नाबूद कर के नाम व निशाँ उनका मुल्क में न रखा था’। (बाग व बहार)
मीर अम्मन ने अनुवाद में अरबी, फ़ारसी से बचते हुए ‘हिन्दवी’ का इस्तेमाल किया है बल्कि दिल्ली की ज़बान इस्तेमाल की है और प्रचलित व्याकरण की भी अवहेलना की है। इसमें वचन और लिंग का भी ध्यान नहीं रखा गया है। इसके बावजूद बाग़ो बहार की नस्र लाजवाब और अद्वितीय है।
इसी तरह (1803-08) में सय्यद इंशा अल्लाह खान द्वारा लिखित रानी केतकी की कहानी की भाषा का एक उदाहरण देखिए-
रानी केतकी अपनी सहेली मदनबान से अपने दील का हाल कुछ यूं बयान करती है- “अरी वो, तूने कुछ सुना है ? मेरा जी उस पर आ गया है और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब जो होना हो सो हो; मैं उसके पास जाती हूँ।”(रानी केतकी की कहानी)
इस विशेष भौगोलिक क्षेत्र से निकलकर जब यही भाषा दक्षिण के पठारी प्रदेश गोलकुंडा, हैदराबाद और औरंगाबाद पहुँची, तो यहाँ बहुत जल्द ही इसे साहित्यिक रूप मिला। उर्दू के साथ अब दक्कनी लहज़े की मिठास भी इस मिली जुली भाषा के साथ जुड़ गयी। इस ज़बान में यहीं से एक नग़्मगी पैदा हुई। शायद इसी नग़्मगी और मिठास से प्रभावित होकर मीर व ग़ालिब ने भी फ़ारसी का दामन छुड़ाकर, उर्दू में शे’र कहने शुरू किये। दक्कनी शायरों की आरंभिक शायरी के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं जहाँ उर्दू, हिन्दी का रंग बिल्कुल यकसाँ नज़र आता है।
मोहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह, 1580-1612 का यह शेर देखिए –
मोहब्बत की सुल्तानी है सब इस जगत में / कि इस सम नहीं कोई ज्ञानी व दानी ।।
वहीं वली दकनी, 1667-1707 का अंदाज़ कुछ इस तरह है-
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे / उसे ज़िंदगी क्यों भारी लगे।।
सिराज औरंगाबादी,1712-1764 को देखिए –
ऐ सनम तुझ बिरह में रोता हूँ / अश्क-ए-खूनीं सीं मुँह कूँ धोता हूँ।
दरबारों से जुड़े आला ओहदेदारों, शायरों, और दफ़्तरी कामकाज में ज़रूर फ़ारसी भाषा का वर्चस्व बना रहा। आख़िर अवाम में बढ़ती लोकप्रियता ने दरबारी शायरों को भी अवामी ज़बान उर्दू की ओर आकर्षित किया। अब दरबारी शायर भी अपना कलाम उर्दू में पेश करने लगे। मुग़लिया सल्तनत के आख़िरी दौर में हिन्दू-मुस्लिम शायरों ने इस मिश्रित ज़बान को ग़ज़ल की ज़बान बना दिया। ग़ज़लों ने उर्दू को ख़्वास-ओ-‘अवाम में मक़बूल कर दिया। अँग्रेज़ों के आने के बाद दरबारों से फ़ारसी का वर्चस्व ख़त्म हो गया।
उर्दू के जन्म और विकास को ऐतिहासिक संदर्भ में देखें, तो हमें बुनियादी हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नज़र नहीं आता। दोनों भाषाओं की जड़ें एक ही हैं। दोनों का लिखित रूप भले ही अलग हो, मौखिक रूप में आज भी उर्दू-हिन्दी में अंतर करना मुश्किल है। उर्दू के विद्वान सिफ़त ज़मीरी उर्दू के संबंध में यह दावा करते है कि- “उर्दू ज़बान हिन्दी नज़ाद है। उर्दू प्राचीन हिन्दी और प्राकृत का आख़िरी सबसे शाइस्ता और नफ़ीस रूप है। उर्दू, हिन्दी बोली और फ़ारसी के मेल से बनी है। उर्दू में प्रयोग में आने वाले संस्कृत और प्राकृत के शब्द ज़माने के साथ धुल कर सीधे हो गये हैं।” भाषा विज्ञान और व्याकरणिक दृष्टि से हिन्दी-उर्दू को अलग-अलग भाषा कहना ठीक नहीं है। उर्दू में प्रयुक्त क्रियाएँ, सर्वनाम अधिकतर संज्ञा, विशेषण, प्रत्यय-उपसर्ग, वाक्य विन्यास – इन सबका आधार हिन्दी पर है। प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी ग्रियर्सन ने उर्दू और हिन्दी की परिभाषा देते हुए कहा था, “खड़ी बोली के दो रूप हैं, एक में अरबी फ़ारसी के शब्द ज़्यादा हैं, उसे उर्दू कहते हैं। दूसरे में अरबी फ़ारसी के स्थान पर संस्कृत शब्द अधिक हैं, वह हिन्दी है।” अंग्रेज़ अपना शासन सुचारु रूप से चलाने के लिए जन भाषा सीखना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गयी। इसके बाद ही अँग्रेज़ों की छिपी मंशा और उर्दू-हिन्दी को धर्म से जोड़कर देखने के चलते ही दोनों भाषाओं के रास्ते अलग-अलग होने शुरू हुए। जबकि उन्नीसवीं सदी तक दोनों ज़बानों की मंज़िल एक ही थी।
उर्दू व्याकरण लिखने की शुरुआत
आख़िर उर्दू व्याकरण लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? काफी समय तक यही धारणा बनी रही कि जो अहल-ए-ज़बान होते हैं, उन्हें व्याकरण के नियम सीखने की भला क्या आवश्यकता ? जन्म से ही उसका साक्षात्कार अपनी भाषा से होता रहता है। उर्दू के साथ भी ऐसा ही हुआ। अँग्रेज़ों के आने के बाद ही उर्दू व्याकरण लेखन की शुरुआत हो पायी। अपना राजपाट सुचारु रूप से चलाने और मिशनरियों द्वारा धर्म प्रचार के लिए उर्दू ज़बान सीखना ज़रूरी हो गया था। उस समय तक उर्दू क़वायद यानी व्याकरण पर कोई विशेष पुस्तक उपलबद्ध नहीं थी। इस संदर्भ में लेखक बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक़ लिखते हैं कि “किसी भी जीवंत भाषा के लिए व्याकरण की उतनी ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन जब कोई दूसरी ज़बान का व्यक्ति नयी भाषा सीखना चाहे, तब व्याकरण की आवश्यकता पड़ती है।” उर्दू भाषा के साथ भी ऐसा ही हुआ। इसीलिए जब अंग्रेज़ भारत आये और उन्होंने स्थानीय भाषाएँ सीखीं, तब पहली बार अंग्रेज़ विद्वानों ने उर्दू भाषा का व्याकरण लिखा।
उर्दू व्याकरण लेखन की धाराएँ
उर्दू व्याकरण की दो विशिष्ट परंपराएँ रही हैं। एक यूरोपीय परंपरा और दूसरी अरबी-फ़ारसी परंपरा। यूरोप में बारहवीं सदी में जब उपमहाद्वीप की भाषाओं का अकादमिक अध्ययन शुरू हुआ, उस दौरान फ्रेंच, डच और अंग्रेज़ी भाषाविदों ने हिन्दुस्तानी भाषाओं के नियम लिखने की शुरुआत की। इन पुस्तकों का मुख्य उद्देश्य व्याकरणिक नियमों के माध्यम से उन्हें उर्दू सिखाना था, जो धर्म प्रचार या व्यापार के लिए भारत आये थे। व्याकरण पर किये गये इस आरंभिक प्रयास का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व है। यूरोपीय व्याकरण शास्त्रियों ने अपनी निजी आवश्यकता पूर्ति या स्थानीय भाषा सीखने की दृष्टि से व्याकरण के नियम बनाये। इसलिए हम इन पुस्तकों को प्रमाणिक उर्दू व्याकरण के नियम नहीं मान सकते। आरंभ में उर्दू क़वायद अरबी और फ़ारसी को आधार बना कर लिखा गया। उस समय के भाषाविज्ञानी उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानकर, इसे अरबी, फ़ारसी के नियमों के आधार पर कसते रहे। लेकिन उर्दू का मिज़ाज हिन्दी के क़रीब है। उसका जन्म हिंदुस्तान में हुआ है। मौलवी अब्दुल हक़ लिखते हैं, “उर्दू हिन्दी नज़ाद है। यानी उर्दू की जड़ें हिन्दी की क्लासिक भाषाओं और खड़ी बोली में पैवस्त हैं। मैं तो यह कहता हूँ उर्दू, संस्कृत, प्राकृत भाषाई कबीले का सब से शाइस्ता और उन्नत रूप है। प्राकृत, संस्कृत और बोली, भाषाओं के शब्द उर्दू के साँचे में ढलते चले गये। समय के साथ-साथ इनमें और निखार आता गया। उर्दू की सभी क्रियायें, सर्वनाम, वाक्य-विन्यास हिन्दी के तर्ज़ पर ही गढ़े गये हैं। इसलिए उर्दू, हिन्दी नज़ाद है। हाँ उर्दू की बहुत सी संज्ञाएँ, विशेषण और शब्दावलियों को ज़रूर अरबी-फ़ारसी से लिया गया है।” इसे अरबी या फ़ारसी के व्याकरण में बाँधना यानी उलटी गंगा बहाने जैसा है।
विदेशी लेखकों द्वारा लिखा गया व्याकरण
उर्दू के व्याकरण पर सबसे शुरुआती किताबें विदेशियों द्वारा लिखी गयीं। उर्दू व्याकरण लिखनेवाले यूरोपीय लोगों ने इसे उर्दू नहीं बल्कि ‘हिंदुस्तानी’ या ‘इंदोस्तान’ यहाँ तक कि ‘मूर्स’ भी कहा। यह उपनाम उस समय मध्य-पूर्व या अफ्रीकी मुसलमानों के लिए प्रयोग में लाया जाता था। इन योरपीय विद्वानों की उर्दू को लेकर यह धारणा रही कि यह केवल मुसलमानों की भाषा है। जबकि यह सही नहीं है। उर्दू व्याकरण की पहली पुस्तक आज से तीन सौ वर्ष पूर्व डच भाषा में जॉन जोशुआ केटेलर (John Joshua Ketelaar 1659-1718) ने लिखी थी। जॉन ईस्ट इंडिया कंपनी का मुलाज़िम था। बाद में इसने बहादुर शाह ज़फ़र के दौर में डच राजदूत के रूप में भी कार्य किया। उसके द्वारा लिखी गयी व्याकरण की पुस्तक का नाम ‘ग्रामेटिकल हिन्दुस्तानिका’ था, जो 1696-97 में प्रकाशित हुई। केटेलर के व्याकरण को हिंदी व्याकरण के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन उर्दू के विद्वान गोपी चंद नारंग ने इसका खंडन किया है। नारंग ने सबूतों के साथ साबित किया है कि केटेलर का व्याकरण उर्दू व्याकरण है न कि हिंदी व्याकरण। इसके बाद डेविड मिल्स (1692-1756) नामी एक और डच विद्वान ने केटेलर के उर्दू व्याकरण का संक्षिप्त रूप लातीनी भाषा में वर्ष 1743 में प्रकाशित किया। इसके बाद अगले सौ वर्षों में उर्दू व्याकरण पर ऐसी लगभग पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित हुई। जिनमें से कुछ यूँ हैं-
1744 में बेंजामिन शुल्ज़ द्वारा, ‘ग्रामेटिकल ऑफ हिंदुस्तानिका’ (लैटिन में)
1771 में जॉर्ज हैडली द्वारा, लंदन से Grammatical Remarks on the Practical and Vulgar Dialect of the Indian Language
1796 में जॉन गिलक्रिस्ट द्वारा, कलकत्ता से A Grammar of the Hindoostanee Language
1813 में जॉन शेक्सपियर द्वारा, लंदन से A Grammar of the Hindoostanee Language
1829 में गार्सिनद टेसी द्वारा, पेरिस से ‘Rudimens de la langue Hindoustani’ (फ्रेंच)
1855 में डकनफोर्ब्स द्वारा, लंदन से A Grammar of the Hindustani Language
1874 में जॉन टीप्लेट्स की किताब A Grammar of the Hindustani or Urdu Language लंदन से प्रकाशित हुई।
1892 में केमिलोतगलिआबु ने Grammatica Della Lingua Indostana o Urdu (in Italian) नामी पुस्तक इतालवी भाषा में लिखी।
1893 में जर्मन भाषा में ए. सीडल ने वियाना से ‘Theortisch Praktische Grammatik der Hindustani’ नामी पुस्तक लिखी।
केटेलर द्वारा लिखी गयी पहली पुस्तक के प्रकाशित होने के सौ वर्ष बाद, पहली बार किसी भारतीय विद्वान ने उर्दू का व्याकरण लिखने की ज़हमत उठायी। इसके अतिरिक्त रूसी स्कॉलर सोनिया चरनिकोवा की उर्दू व्याकरण पर लिखी दो महत्त्वपूर्ण किताबें हैं—’उर्दू के सीगे’ और ‘उर्दू अफ़ ‘आल’। इन पुस्तकों में शब्दों, धातु, क्रिया का एकवचन व बहुवचन रूप, सकर्मक क्रिया जैसे विषयों पर उदाहरण के साथ चर्चा की गयी है। इसके अतिरिक्त अँग्रेज़ी में रुथ लैला स्कमिथ ने ‘उर्दू एन इनीशियल ग्रामर’ नामी पुस्तक लिखी।
उर्दू व्याकरण लेखन की भारतीय परंपरा
उर्दू में सर्वप्रथम इस विषय पर मीर इंशा अल्लाह ख़ान ने अपना क़लम चलाया। इन्होंने ‘दरिया-ए-लताफ़त’ नाम से 1802 में उर्दू व्याकरण पर फ़ारसी में किताब लिखी। इसके बाद 1823 में मुंबई से मोहम्मद इब्राहीम द्वारा उर्दू व्याकरण पर ‘तोहफ़ा-ए-एल्फिस्टन’ नामी पुस्तक लिखी गयी। सर सैय्यद अहमद ख़ान ने भी उर्दू व्याकरण पर एक किताबचा 1840 में लिखा था। मौलवी अहमद अली देहलवी की ‘फ़ैज़ का चश्मा’ नामी व्याकरण की पुस्तक 1849 में आयी थी। उस दौर में उर्दू व्याकरण पर लिखी सभी पुस्तकों में मीर इंशा अल्लाह ख़ान की पुस्तक ‘दरिया-ए-लताफ़त’ को उर्दू व्याकरण लेखन परंपरा में एक विशेष महत्त्व प्राप्त है। इंशा ने उर्दू को क्लासिकी अरबी, फ़ारसी की तरफ़ मोड़ने की बजाय स्थानीय भाषा की नज़र से देखा। स्थानीय भारतीय भाषा के रूप में इसे बारीकी से जाँचा-परखा। उनका कहना था कि “जो भी शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, और पंजाबी से उर्दू में आता है, वह शब्द उर्दू का हो गया। इस शब्द का उच्चारण और लिखने का तरीक़ा उर्दू क़वायद के अनुसार ही होगा। इसे अरबी और फ़ारसी की तर्ज़ पर गढ़ना तर्कसंगत नहीं है।” इंशा ने अपनी किताब में स्थानीय बोलियों को विशेष महत्त्व दिया। आम बोलचाल के मुहावरों का विश्लेषण किया। इस तरह उन्होंने उर्दू भाषा की रिवायात को क्लासिकी अरबी और फ़ारसी से दूर स्थानीय बोली जाने वाली भाषा को अधिक महत्त्व दिया।
इंशा ने इस किताब में ऐसे शब्दों की भी विशेष चर्चा की जो अरबी, फ़ारसी, तुर्की और संस्कृत से उर्दू में लिये गये। उन्होंने इस बात का ज़ोर दिया कि इन शब्दों व ध्वनियों का स्थानीय बोली, भाषा के आधार पर ही प्रयोग में लाना उचित है। इस पुस्तक में औरतों के मुहावरें भी संकलित किये गये थे। उस ज़माने में औरतों का जीवन चारदीवारी के भीतर व्यतीत हुआ करता था। युद्ध, घोड़े, बैल, खेती किसानी से उनका राब्ता नहीं रहता था। संवाद ख़वातीन के दरमियान ही हुआ करता था। एक उदाहरण देखिए : जैसे आम तौर पर कहा जाता है ‘आ बैल मुझे मार’। अब औरतों का मुहावरा देखिए, ‘आ पड़ोसन लड़ें।’ (इसी मौज़ूअ पर लेखिका वहीदा नसीम की ‘निसवानी मुहावरे’ नाम से एक ख़ूबसूरत किताब 1982 में आयी है) इंशा ने अपनी किताब में दिल्ली और लखनऊ की ज़बान का तुलनात्मक अध्ययन भी पेश किया। उन्होंने यह बात उदाहरण के साथ स्पष्ट की कि ख, घ, फ़, भ जैसे अक्षरों की ध्वनियाँ स्वतंत्र ध्वनियाँ हैं। उन्होंने ऐसी सत्रह ध्वनियों की चर्चा की। उनका कहना था कि इन ध्वनियों की अपनी एक स्वतंत्र पहचान है। यह किताब मूल रूप से फ़ारसी में लिखी गयी थी। आगे चलकर इसका उर्दू तर्जुमा 1835 में पंडित दत्तात्रेय कैफ़ी ने किया। इसका एक नुस्ख़ा इटावा की लाइब्रेरी में मौजूद है।
मौलवी अब्दुल हक़ कहते हैं कि अभी तक जितनी भी उर्दू व्याकरण की संदर्भ पुस्तकें लिखी गयी हैं, उनका आधार अरबी, फ़ारसी रहा। जबकि उर्दू की जननी हिन्दी ज़बान है। उर्दू भाषा में भूगोल, विज्ञान व आधुनिक ज्ञान पर आधारित शब्दावली अरबी और फ़ारसी भाषा से ली गयी है। उर्दू व्याकरण की परंपरा में इब्ने इंशा के बाद मौलवी अब्दुल हक़ का नाम सबसे महत्त्वपूर्ण है। मौलवी अब्दुल हक़ को ‘बाबा-ए-उर्दू’ का ख़िताब हासिल है। मौलवी हक़ ने सौ वर्ष पहले ‘क़वायद उर्दू’ नाम की पुस्तक 1914 में लिखी थी। उन्होंने अक्षर, शब्द, वाक्य की संरचना, संज्ञा, सर्वनाम आदि जैसी व्याकरणिक इकाइयों व अन्य विषयों का ऐतिहासिक व तर्कसंगत विश्लेषण प्रस्तुत किया। आज भी मौलवी अब्दुल हक़ की पुस्तक को उर्दू क़वायद की मुस्तनद (प्रमाणिक) पुस्तक का दर्जा प्राप्त है। इस पुस्तक के लिखे जाने के बाद लगभग अगले पचास वर्षों तक उर्दू क़वायद पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इसके बाद सत्तर और अस्सी की दहाई में ज़रूर कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें मंज़र-ए-आम पर आयीं। इस संदर्भ में डॉ. ज्ञान चंद जैन की उर्दू व्याकरण और लिसानियात पर दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें मंज़र-ए-आम पर आयीं। 1979 में आयी पुस्तक ‘आम लिसानियत’ और 1985 में ‘लिसानी मुताले’। ‘आम लिसानियत’ में डॉ. जैन ने ज़बान और बोली के रिश्ते, उर्दू का रोमन इमला, उर्दू और हिन्दी के भाषाई रिश्ते, इन विषयों की व्याकरणिक दृष्टि से जाँच-परख की है। उर्दू में व्याकरणिक परंपरा में लिखी गयीं कुछ अहम पुस्तकों की सूची यहाँ दी जा रही है-
1961 ‘उर्दू क़वायद व इंशा’, सय्यद अतहर हुसैन, ऐवान-ए-उर्दू, पटना
1961 ‘सहल क़वायद उर्दू’, मुज़फ्फर इक़बाल, ऐवान-ए-उर्दू, पटना
1971 ‘जाम उल क़वायद’, डॉ. अबुल अलीस सिद्दीक़ी
1979 ‘आम लिसानियत’, ज्ञान चंद जैन
1985 ‘लिसानी मुताले’, ज्ञान चंद जैन
1981 ‘नई उर्दू क़वायद’, इस्मत जावेद
1981 ‘जदीद उर्दू क़वायद’, मो. इब्राहीम
1982 ‘उर्दू क़वायद’, डॉ. शौकत सब्ज़वारी, कराची
1985 ‘सर्फ व नहू’, डॉ. इक़्तेदार हुसैन ख़ान
‘उर्दू ज़बान व क़वायद’, शफ़ी अहमद सिद्दीक़ी
इसके अलावा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने भी ‘लुग़ात-ए-रोज़ मर्रह’ के नाम से एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है जिसमें उर्दू की शब्दावली पर खुलकर चर्चा की गयी है।
9867210054, mukhtarmumbai@gmail.com
लेख तो सुन्दर है ही; लेख की भाषा भी लाजवाब है। ज्ञानवर्धक। अभी अपने बच्चों को हिन्दी का शब्द भण्डार पढ़ा रहा था। अरबी-फ़ारसी-तुर्की-पश्तों के शब्दों को श्यामपट्ट पर देखकर पूछने लगे कि हिन्दी कहाँ है? हमने कहा कि तुम्हीं बताओ कि हिन्दी कहाँ है? हमने समझाया कि यही हिन्दी है। सभी लोग हमारे हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति मिली-जुली है। अलग देखोगे तो कुछ नहीं मिलेगा। मिलकर देखोगे तो बहुत कुछ मिलेगा।
शानदार और काफी मेहनत से लिखा गया ये लेख देश की गंगा जमुनी तहजीब की तर्जुमानी करता दिख रहा है.
हिंदी – उर्दू और हिन्दुस्तानी कुछ भी कह लें ये देश की सांस्कृतिक धरोहर का अटूट हिस्सा है .