जनवादी लेखक संघ द्वारा अंतरभाषायी दलित परिसंवाद के अन्तर्गत ‘लोकतंत्र, संविधान और दलित साहित्य’ विषय पर दिनांक 29-30 मार्च 2025 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हरकिशन सुरजीत भवन, नयी दिल्ली में किया गया। इस कार्यक्रम के आरंभ में फ़ैज़ साहब की नज़्म ‘इंतसाब’ का पाठ ख़ालिद अशरफ़ साहब ने किया। ख़ालिद साहब ने कहा कि फ़ैज़ को केवल भाषा और ग़ज़ल तक सीमित करना ठीक नहीं। उनकी पहचान मूलतः नज़्मनिगार की है। फ़ैज़ के वैचारिक गले में लोगों ने रदीफ़ और काफ़िये का फंदा डाल दिया है। फ़ैज़ ने सांस्कृतिक डाक्यूमेंट पर काम किया था जो कि अब कहीं प्राप्त नहीं होता। इसके बाद अशोक तिवारी ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुँआ’ का पाठ किया। समूचे कार्यक्रम की रूपरेखा संजीव कुमार जी ने प्रस्तुत की। संजीव जी ने कार्यक्रम की पृष्ठभूमि को तैयार करते हुए कार्यक्रम के शीर्षक की सार्थकता पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र और संविधान ने भारत के जातिगत श्रेणीक्रम को झटका दिया है। इस दौर को प्रतिक्रांति का दौर कहते हुए उन्होंने 1931 कराची कांग्रेस अधिवेशन को याद किया जिसमें लोकतंत्र और समतामूलक समाज के स्थापना की बात की गयी थी जिससे क़ानून, मताधिकार और सामाजिक बराबरी का नारा ज़मीन पर उतरे। आज के समय में संविधान विरोधी लोग संविधान दिवस मना रहे हैं जबकि यही लोग विरोध करते थे कि जब मनुस्मृति है तो किसी भी प्रकार के संविधान की क्या जरूरत? इसी क्रम में संजीव जी ने तरुणाभ खेतान के ‘किलिंग अ कान्स्टिटूशन विद थाउजेंड कट्स’ लेख का ज़िक्र किया। हिन्दुत्ववादी ताक़तों द्वारा संविधान का आज ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें संविधान को लेकर जो पेचीदिगियाँ हैं उन पर बात करनी होगी, तभी हम संविधान के गलत प्रयोग को रोक पायेंगे।
उद्घाटन भाषण बैजवाड़ा विल्सन साहब ने दिया जिसमें उन्होंने अस्मिताओं की आवाज़ को लोकतंत्र की आवाज़ कहा। उन्होंने कहा कि समाज और देश को पल-पल परिवर्तित किया जा रहा है सत्ताधारियों के अनुसार। संसद और न्यायालय की स्थिति आज सबको मालूम है । सत्ताधारी पार्टियों की माँग भी सर्वविदित है । लोकतंत्र में हरेक अस्मिता की माँग लोकतंत्र की माँग होती है। आप दलित और स्त्री कहकर किसी को अलगा नहीं सकते । माँग तो सत्ता की अलग होती है। अस्मिताओं का सवाल दरअसल देश को बेहतर लोकतंत्र बनाने का सवाल है । विल्सन साहब ने इसी क्रम में मैला प्रथा और राज्य के द्वारा टैक्स वसूली पर महत्त्वपूर्ण बातें रखीं । उनके अनुसार अम्बेडकर का नाम लेना आज के सत्ताधारियों की मजबूरी है । अम्बेडकर ने कहा क्या था, उनके लोकतंत्र को लेकर सवाल क्या थे, इससे किसी को कुछ भी लेना-देना नहीं है । विल्सन साहब ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और गुजरात हाईकोर्ट के द्वारा स्त्रियों के खिलाफ़ दिये गये जजमेंट का भी उल्लेख किया । इन जजमेंट्स को पढ़कर ऐसा लगता है कि पितृसत्ता जजों के दिमाग़ पर हावी है । न्यायालय और संसद की भूमिका पर प्रश्न खड़ा करते हुए विल्सन साहब ने कहा कि आज फ़ासिस्ट ताक़तें तय कर रही हैं कि न्याय कैसा होगा? हमें इंसानियत के लिए लिखना होगा । एक समय तक जो ताक़तें यह कह रहीं थीं कि ईश्वर के कान में दलित की आवाज़ नहीं जानी चाहिए, आज वही लोग दलितों का सारा पैसा पूजा-पाठ के नाम पर ख़त्म कर देना चाहते हैं । विल्सन साहब ने आगे कहा कि बेरोज़गारी, भूख और हिंसा का सवाल सभी के लिए है । यह केवल किसी ख़ास तबके या समुदाय का सवाल नहीं है। इसी प्रकार आज़ादी भी लोकतंत्र का बुनियादी सवाल है। उपरोक्त सभी सवाल संगठित होकर एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण का स्वप्न तैयार करते हैं। जिस समय ग़रीबों को खाना नहीं दिया गया तो उन्होंने अमीरों का खाना अपने लिये नहीं खींचा। अगर खींचा होता तो अमीरों का गद्दे पर बैठना मुश्किल हो जाता। वर्तमान समय में हमें आंबेडकर और मार्क्स दोनों को साझे रूप में अपनाना होगा, सबको लोकतंत्र के सवाल पर साथ लाना होगा; सबके लिये एक समान संवेदना का धरातल तैयार करना होगा।
संगोष्ठी संयोजक बजरंग बिहारी तिवारी ने प्रथम सत्र का संचालन करते हुए कहा कि दलित साहित्य का स्वरूप अखिल भारतीय है जिसे समझने के लिए विभिन्न भाषाओं का साझा परिसंवाद होना चाहिए । साथ ही जलेस का अपना एक भवन भी होना चाहिये । कार्यक्रम की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कानपुर बोल्शेविक केस, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल, सत्ता के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जुड़ाव और उत्तरोत्तर समृद्धि आदि पर अपनी बात रखी । उन्होंने कहा कि भारत में ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी आदि में भयंकर इज़ाफ़ा हुआ है । बजरंग जी ने दुर्गादत्त त्रिपाठी के द्वारा 1925 में लिखे गये ‘विजय गीत’ का उल्लेख किया, जिसमें जाति और वर्ण व्यवस्था पर बात की गयी है । साथ ही उन्होंने दुर्गादत्त जी के कुछ विचारों को भी साझा किया जिसमें मुख्य रूप से यह बात है कि ‘प्रगतिवाद के सवाल में जाति का सवाल प्रमुख है’। दुर्गादत्त जी ने जयशंकर प्रसाद को प्रगतिवाद में लाने की भरपूर कोशिश की थी। सुमित्रानंदन पंत को तो सज्जाद ज़हीर PWA में ले आये थे।
उद्घाटन सत्र के उपरांत हुए इस प्रथम सत्र में कल्याणी ठाकुर, ब्राती बिस्वास और कवितेंद्र इंदु ने अपने वक्तव्य प्रस्तुत किये। कवितेंद्र जी ने कहा कि भारत का लोकतंत्र केवल इस बात तक सीमित हो गया है कि यहाँ चुनाव जैसी कोई प्रक्रिया है। भारत का लोकतंत्र एक बुर्जुआ तंत्र है। अब यह सामाजिक न होकर चुनावी राजनीति तक सीमित हो गया है। यहाँ की न्याय व्यवस्था बिक गयी है। हमें आज यह देखना है कि बदलाव आया है कि नहीं । बदलाव तो आया है लेकिन भारतीय समाज में आज भी बहुत हद तक दलितों की स्थिति वैसी की वैसी ही है। बदलाव कहाँ और कैसा है तथा कौन सी चीज़ें बदलाव को रोकती हैं? दलितों की चेतना में बदलाव आया है पहचान और प्रतिकार को लेकर। भारत में देश के भीतर देश है। यहाँ सिल-बट्टा और एलेक्सा के बीच का फ़र्क साफ़-साफ़ देखा जा सकता है । दलितों के सामने लोकतांत्रिक संस्थानों तक पहुँच का प्रश्न है । दलित विमर्श के भीतर यह विचार उभरा है कि जाति तो ख़त्म नहीं की जा सकती अपितु उसे मज़बूत बनाया जा सकता है । इस विचार के पैरोकार लोग वामपंथ को शत्रु के रूप में देखते हैं । प्रश्न यह है कि जाति ख़त्म नहीं करेंगे तो उसमें महत्वपूर्ण कौन है यह कैसे तय होगा? कवितेंद्र जी आगे कहते हैं कि समाज में दलितों की स्थिति बुरी है लेकिन साहित्य में बेहतर है । कौन दलित साहित्य लिख सकता है? यह सवाल आज भी मौजूँ है । दलित साहित्य में आज कई खाने दिखायी पड़ते हैं। हमने जो सरहदें अपनी सुरक्षा के लिये बनायी थीं, वे आज हमारे लिए क़ैदख़ाना बन गयी हैं । आज दलित साहित्य के पीछे कोई आंदोलन नहीं है । वह बाइनरी रचने का हथियार बन गया है, बहुसंख्यक लोग बदलाव के पक्षधर नहीं हैं । आज दलितों के लिये धर्म की तलाश करना मूर्खता होगी ।
प्रथम सत्र की दूसरी वक्ता कल्याणी ठाकुर ने कहा कि आंबेडकर सभी के नेता हैं । उन्होंने बंगाल में दलितों की स्थिति का ऐतिहासिक विवरण दिया । बंगाल में दलितों की सामाजिक स्थिति कितनी भयावह थी जिसके फलस्वरूप वहाँ मतुआ आंदोलन, नामशूद्र आदि आंदोलन बड़े पैमाने पर हुए । इसी क्रम में कल्याणी जी ने गुरुचरण ठाकुर के द्वारा बंगाल में दलितों के लिये आरंभ की गयी स्कूली व्यवस्था को भी रेखांकित किया । गुरुचरन ठाकुर ने ही ‘स्वदेशी आंदोलन’ के समय कहा था कि ‘जिनके पास तन ढकने के लिये कपड़ा ही नहीं उनके लिये विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कैसा’। कल्याणी जी ने आगे बांग्ला दलित साहित्य के इतिहास को संक्षेप साझा किया। जिनमें कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाकार हैं-मनोहर मौली, मनोरंजन व्यापारी, कांति विस्वास, लीली हालदार, सुधा मुखोपाध्याय, मरूना मुर्मू, सरस्वती केरकेट्टा आदि। बंगाल में लम्बे समय तक असुर संस्कृति के अंतर्गत दलितों और आदिवासियों को रखा जाता था परन्तु आज उन्हें सामूहिक रूप से हिन्दू बनाने की साज़िश हो रही है। बंगाल का भद्रलोक पूँजीपतियों का दलाल है, उनके यहाँ जाति जैसी कोई समस्या नहीं है। बंगाल का प्रकाशक वर्ग भी दलित साहित्य को मजबूरी में छापता और बात करता है। हितवाद के लिये सभी वाद को अपनाया है बंगाल के भद्रलोक ने। वर्ग चेतना ही मुख्य है, प्रतिनिधित्व और समानता दिल से होनी चाहिये; धोखा देना ठीक नहीं है। लोकतंत्र की कल्पना जातियों के रहते हुए संभव नहीं है। समाजवाद ही संविधान का विकल्प हो सकता है।
प्रथम सत्र की तीसरी वक्ता ब्राती विस्वास ने बांग्ला दलित साहित्य पर अपनी बात रखी। ब्राती जी अंग्रेजी में बांग्ला दलित साहित्य पर शोध करने वाली पहली महिला हैं, जिसके लिये उनको एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। उन्होंने आगे कहा कि बांग्ला दलित साहित्य की शुरुआत कविता, कहानी और उपन्यास से होती है। बांग्ला दलित साहित्य में आत्मकथाएँ प्रायः नहीं ही लिखी गयी हैं। आगे उन्होंने बंगाल के समाज का विश्लेषण करते हुए कहा कि बंगाल में भद्रलोक और दलितों के बीच कोई संवाद नहीं है। यहाँ क्लास के भीतर जाति को छिपाया गया है। वर्ग बंगाल के समाज में एक भ्रम है। ब्राती जी नामशूद्र आंदोलन को ईको वारियर की तरह देखती हैं। भारतीय समाज में हरेक क्षेत्र से कुछ लोग आगे आये हैं लेकिन एक बड़ी तादात पीछे छूट गयी। बंगाल में दलितों और मुस्लिमों के बीच हिंसा और नफ़रत फैलाने का कार्य किया जाता रहा है। इन दो समुदायों के बीच में पुल बनाने का कार्य मनोहर मौलि और अद्वैतमल्ल वर्मन ने किया। ब्राती जी अखिल भारतीय दलित आंदोलन की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए कहती हैं कि सामाजिक संस्थाओं को दलित साहित्य लोकतांत्रिक बनाने की पहल करता है। य़ही कारण है कि दलित साहित्य को बड़े प्रकाशक छापने से मना कर देते हैं। दलित साहित्य अखिल भारतीय स्वरूप को लिये हुए है जिसकी रंगत अलग-अलग है, नायक अलग-अलग हैं; लेकिन सब अपने आप को आंबेडकर से जोड़ कर देखते हैं ।
पहले दिन के दूसरे सत्र में प्रवाकर पलाका, प्रो. राजकुमार, मदन वीरा और बलबीर माधोपुरी ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रवाकर जी ने लेखन की राजनीति पर बात करते हुए अफ्रीकन लिटरेचर पर अपनी बात रखी। चीनुआ चेबे का जिक्र करते हुए लेखक के इन्साइडर और आउटसाइडर के फोकस पर प्रवाकर जी ने कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु सुझाये। उत्तर औपनिवेशिक लेखन के साथ दलित साहित्य का सम्बन्ध स्थापित करते हुए प्रवाकर जी ने अपने विचार प्रस्तुत किये। आगे उन्होंने कहा कि राजनीतिक लोकतंत्र अगर सामाजिक लोकतंत्र लाने में सक्षम नहीं होता तो वह ख़त्म हो जाता है । इसी क्रम में उन्होंने संजय बाघ की कहानी ‘ब्लैक इंक’ की चर्चा की जिसमें आज़ादी का मतलब और चुनावी प्रक्रिया पर गहरा तंज़ किया गया है । दलित संस्कृति एक धड़कती हुई संस्कृति है और इसे केवल राजनीति से काबू नहीं किया जा सकता है । भारतीय समाज में दलितों के भोजन को उपेक्षा और घृणा के भाव से देखा गया है। किसी भी शहर में अधिकांशतः दलित ही मज़दूर है और शहर को शहर मज़दूर ही बनाता है, इसका उदाहरण हम कोविड के समय में देख सकते थे। प्रो. राजकुमार जी ने उड़िया दलित साहित्य और भारतीय लोकतंत्र पर अपनी बात रखी। राजकुमार जी ने प्रधानमंत्री के. नारायण का हवाला देते हुए कहा कि ‘भारतीय लोकतंत्र वस्तुत: जाति का लोकतंत्र है’। आंबेडकर के सामने यह प्रश्न था कि संविधान की शुरुआत कैसे की जाये। आंबेडकर ने ‘हम भारत के लोग’ से संविधान के शुरूआत की बात रखी। उसी समय कुछ लोग थे जो संविधान को ओम से शुरू करवाना चाहते थे। आगे उन्होंने कहा कि भारत को विकसित करना है तो जाति को ख़त्म करना होगा, दलित लेखन की ज़िम्मेदारी इस मामले में और अधिक बढ़ जाती है। दलित लेखन की ताक़त यह है कि उसको पढ़कर पाठक के मन में बैचेनी पैदा हो। एकता और समता मूलक समाज की स्थापना दलित साहित्य की मुख्य चिंता है। आज के दौर में दलित साहित्य केवल जाति तक सीमित न होकर पितृसत्ता और पूँजीवाद के ख़ात्मे की भी पहल करता है। आज हमें दलित संगीत, कल्पना, भाषा, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि पर विचार करना चाहिए।
राजकुमार जी ने उड़िया दलित साहित्य के ऐतिहासिक पहलू को भी श्रोताओं के साथ साझा किया। सरला दास से लेकर वर्तमान साहित्यकारों तक के योगदान पर राजकुमार जी ने बेहतरीन बातचीत की। उड़िया समाज में जो बँटवारा है और बँटवारे के पीछे कौन सी शक्तियाँ कार्यरत हैं, इस पर भी राजकुमार जी ने ध्यान आकृष्ट किया। अंत में उन्होंने पाठकों की ज़िम्मेदारी तय करते हुए कहा कि दलित साहित्य के सरोकारों को पाठक वर्ग ही समाज पर लागू करा सकता है।
इस सत्र के अगले वक्ता के तौर पंजाबी दलित साहित्य के लेखक बलबीर माधोपुरी जी ने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि क्या मार्क्सवाद से आर्थिक समानता आयेगी? हमें प्रगतिशील लोगों के बीच भी बात करनी होगी। मेरी बात मैं नहींकरूँगा तो कौन करेगा। गुलामों को गुलामी से आज़ादी कौन देगा। इतिहास को खंगालने की बात है, राजनीतिक चेतना की जगह सामाजिक चेतना का प्रश्न है। दलित लेखन में ख़िलाफ़त नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानवता की बात है। सभी वादियों को ‘हम’ की बात करनी चाहिए तभी लोकतंत्र सही तरीके से लागू हो पायेगा। पंजाबी दलित कवि और चिंतक मदन वीरा जी ने पंजाब में आदि धर्म की लहर और उससे उठी क्रांति का ज़िक्र किया। लाल सिंह दिल, गिरदास सिंह आलम, जगदीश चंद्र और गुरुदयाल सिंह के साहित्यिक योगदान को मदन जी ने रेखांकित किया। आगे मदन जी ने कहा कि इतिहास आधा सच है जबकि साहित्य में समाज का पूरा सच सामने आता है। पंजाब में दलितों के साथ ज़मीन के लिए लड़ाइयाँ खूब हुई क्योंकि ज़मीन का अधिकार ही व्यक्ति को सारे अधिकार देता है। पंजाबी दलित साहित्य में स्थानीय लोकनायकों का ज़िक्र कम है। जबकि आदिवासी साहित्य में यह खूब देखने को मिलता है। हमें दलित साहित्य में स्थानीय लोकनायकों को जगह देने की ज़रूरत है। मदन जी आगे कहते हैं कि श्रमशीलों के प्रति मुहावरों और लतीफों पर भी हमें विचार करना चाहिए। स्त्री, दलित, कुम्हार, जुलाहा, चूहड़े, लकड़हारों आदि पर जो मुहावरे बने हैं, उसमें उनके श्रम और जाति का अपमान शामिल है।
पहले दिन के अंतिम सत्र के रूप में काव्य पाठ का आयोजन किया गया। इस सत्र का संचालन टेकचंद कर रहे थे। संचालन करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य शक्तियों का कांउटर रचती है। वह आज़ादी की बात, अँधेरे से लड़ने की बात, लोकतंत्र को बचाने की बात करती है । दरअसल कविता अपने आप में वक्तव्य है। काव्य पाठ में स्नेह लता जी ने अपनी तीन कविताओं—‘भूख’, ‘भाषा’, ‘खेतों को सींचती औरतें’— का पाठ किया। सरोज जी ने ‘बाईक वाले और ‘बचपन’ नामक दो कविताओं का पाठ किया। रजनी दिसोदिया जी ने ‘तुम और वे’, ‘शंबूक मारा गया’ शीर्षक दो कविताओं का पाठ किया। उमा मीणा जी ने ‘भरा पूरा शहर’ सीरीज की दो कविताएँ सुनायीं। सत्यनारायण जी ने ‘भ्रष्टाचार’ और ‘तुम्हीं हो चोर’ शीर्षक दो कविताएं पढ़ीं। पूरन सिंह जी ने ‘मैं अम्बेडकरवादी नहीं होना चाहता’ और ‘पिता तुम जीवन की कथा हो’ शीर्षक दो कविताओं का पाठ किया। ब्राती विस्वास जी ने ‘द्विज’ नामक कविता पढ़ी। रानी कुमारी जी ने ‘बुद्ध और शांति’, ‘इंतज़ार’ और ‘बेमौसम बारिश और किसान’ कविताओं का पाठ किया। हीरालाल राजस्थानी ने ‘मजूरन’ और ‘वे’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। टेकचंद जी ने ‘समझदार आदमी’, ‘किताबें बचाती लड़की’ और ‘वो बचायेंगे’ नामक तीन कविताएं पढ़ीं। अंत में कुसुम वियोगी ने ‘वो सोने वाले’ शीर्षक से ग़ज़ल पढ़ी। पहले दिन के समापन में औपचारिक धन्यवाद बजरंग जी ने दिया।
दूसरे दिन की शुरुआत मदन वीरा जी और जगदीश पंकज जी ने कविता पाठ के द्वारा की । मदन जी ने ‘सहमे हुए गांव के रूबरू, ना मैं लुल्ला ना मैं बुल्ला, आजकल दिन ऐसे चढ़ता है, यह पैरा दा करिश्मा है, दिल्ली दा शाही फकीर, मिट्टी दी रोड’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। जगदीश जी ने दो नवगीत ‘मैं निषिद्धों की गली का नागरिक हूँ’ और ‘एक अकेला सब पर भारी’ का सस्वर पाठ किया। दो दिवसीय कार्यक्रम के चौथे सत्र में संचालन करते हुए बजरंग जी ने कहा कि आज की ख़ामोशी एक गंभीर स्थिति अख्तियार कर चुकी है। सत्ता ने यह भ्रम फैला दिया है कि कुछ बदलाव नहीं हो सकता। इसी को उचाट की स्थिति कहते हैं। चौथे सत्र के पहले वक्ता रामायण राम जी ने कहा कि फ़ासीवादी ताक़तों के साथ आज लोग अलग-अलग रूपों में लड़ रहे हैं। पिछले दस वर्षों में लोकतांत्रिक हकों को ख़त्म करने के लिए हमले और तेज़ हुए हैं। हिंदी दलित साहित्य में डॉ. धर्मवीर की धारा बहुत लोकप्रिय रही है। डॉ. धर्मवीर ने आंबेडकर की सीमाओं पर ही ध्यान दिलाया। कहा कि दलितों की सवर्णों के साथ सांस्कृतिक एकता नहीं है। बौद्ध धर्म से दलितों का लेना-देना नहीं है। रामायन राम ने कहा कि दलित साहित्य में मार्क्सवादी खेमा और दलितवादी खेमे के बीच संघर्ष और संवाद से दलित साहित्य का विकास हुआ है। आप दलित पैंथर के इतिहास को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं। वर्तमान में लगातार दक्षिण पंथी हमले के कारण अब यह दो धाराएँ एक हैं। दलितों के लिए एक अलग धर्म की बात कंवल भारती ने भी रखी। आज दलित साहित्य में भ्रम की स्थिति बन गयी है। आंबेडकर की बुनियादी बातों से दलित लेखकों ने मुँह मोड़ लिया है। समाजवाद का द्वंद्व आंबेडकर के भीतर है और यह बाद के दलित आंदोलनों में भी दिखता है। आज कुछ लोग इसलिए सावधान हैं कि दलित वाद समाजवाद में घुल-मिल न जाए। जाति के सवाल पर वामपंथ की चूक ने यह स्थिति पैदा की है। आंबेडकर क्रांतिकारी जनवाद के कारण समाजवाद तक जाते हैं। आंबेडकर ने कहा था कि उन्हें उम्मीद थी कि नेहरू समाजवाद को लागू करेंगे लेकिन उन्हें नाउम्मीदी मिली। आंबेडकर का मानना था कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुता हमारे चिंतन एवं व्यवहार में होना चाहिए, सिर्फ़ संकल्प में नहीं और बराबरी समाजवादी अर्थव्यवस्था के बगैर नहीं लागू हो सकती। आंबेडकर का समाजवाद सर्वहारा की तानाशाही को मुल्तवी करने के पक्ष में था। आज आंबेडकर के विचारों को दक्षिणपंथी और आंबेडकरवादी दोनों मिलकर ख़त्म कर रहे हैं। जाति का उन्मूलन किये बगैर हम राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। भारत में मनुष्यों के गुणों और प्रतिभा का कोई सम्मान नहीं है। यहाँ लोग अपने जाति के प्रति डकैतों के गिरोह की तरह वफ़ादार होते हैं। दलितों में भी जिनका वर्ग बदल गया है, उनका रिश्ता गाँव के ग़रीब दलितों से टूट चुका है। इसमें एक पूँजीवादी विचारधारा के दलितों की नयी कौम पैदा हो चुकी है जो पूँजीवाद के सहारे अपनी मुक्ति का दिवास्वप्न देखती है।
जगदीश पंकज जी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि न्यायालय और संसदीय व्यवस्था की स्थिति को देखकर भय लगता है। संविधान लागू करने वाले लोग अच्छे थे परन्तु उनकी औलादों ने संविधान को बर्बाद करने का ज़िम्मा उठा लिया है। आज बहुमत का आंतक और उसका दुरुपयोग हो रहा है। विपक्ष की आवाज़ को ख़ामोश किया जा रहा है। मीडिया की चाटुकारिता और चारणवादी भूमिका लोकतंत्र के लिए ख़तरा पैदा कर रही है। इतिहास की ग़लत व्याख्या के द्वारा कट्टरता को बढ़ावा दिया जा रहा है। दक्षिणपंथ दलित साहित्य को विकृत कर रहा है। यह दलितों के बीच में ढुलमुल लेखन को प्रेरित करता है। संयुक्त सहयोग और सामूहिक संघर्ष के ज़रिये दक्षिणपंथ से मुक़ाबला किया जा सकता है। व्यक्ति से हटकर दलित दृष्टि से समाज का मूल्यांकन करना होगा।
समापन सत्र का संचालन करते हुए बजरंग जी ने कहा कि मौजूदा समाज में कट्टरता चरम पर है। दलित साहित्य में दलित स्त्रीवाद के नज़रिये पर भी बजरंग जी ने बात की। धर्मवीर की दलित स्त्री को नियंत्रण में रखने वाली तमाम क़वायदों को भी उन्होंने रेखांकित किया। उनका कहना था कि सांस्कृतिक अस्मितावाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हमजोली है। समापन सत्र के वक्ता रतन लाल जी ने इस बात से अपना वक्तव्य आरंभ किया कि दलित राजनीति में हिंदू राष्ट्र की पालकी कौन ढोयेगा इसकी होड़ मची है। जबकि आंबेडकर ने साफ़-साफ़ कहा था कि हिंदू महासभा और आरएसएस के साथ हमारा कोई समझौता नहीं होगा। हिंदू राष्ट्र देश के लिए एक अभिशाप की तरह होगा। दक्षिणपंथी लोगों के द्वारा हिंदू कोड बिल पर आंबेडकर और नेहरू के पुतले फूँके गये थे। रतन लाल जी ने आगे कहा कि संविधान को ख़त्म नहीं किया जा रहा अपितु उसे अमहत्वपूर्ण बनाया जा रहा है। हिंदू राष्ट्र में आपके साथ क्या-क्या हो सकता है इस पर विस्तृत चर्चा रतन जी ने की। लोकतंत्र का मतलब ही यह है कि बिना किसी रक्तपात के लोकशाही को बहाल किया जाये। लोकशाही में सामाजिक संस्थाओं की समीक्षा होगी। भारत में आज संविधान की शपथ लेकर लोग उसी की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। रतन जी ने लोकतंत्र किस तरह लागू होगा इसके लिए आंबेडकर द्वारा सुझाए गये 7 बिंदुओं को श्रोताओं के समक्ष रखा- ‘सामाजिक असमानता का अभाव, मजबूत/सुरक्षित विपक्ष, क़ानून और प्रशासन के नजर में समानता, संवैधानिक नैतिकता, अल्पसंख्यक पर बहुसंख्यक का अत्याचार नहीं होना चाहिए, सामाजिक नैतिकता और जन चेतना’ । आज दलितों को सर्वाधिक ख़तरा पालकी ढोने वाले दलित नेताओं से है, क्योंकि इन नेताओं के पास कोई वैचारिक लड़ाई की योजना और हथियार नहीं है। आंबेडकर के सामने यह सवाल था कि जाति व्यवस्था कैसे ख़त्म होगी? उन्होंने कहा था कि शिक्षा से जाति व्यवस्था का अंत संभव है। आप अगर शिक्षा दलित को देंगे तो वह विद्रोह करेगा और सवर्ण को देंगे तो वह विद्रोह नहीं करेगा। भारतीय समाज में देश की अवधारणा कभी थी ही नहीं। यहाँ के लोगों ने मुखबिरी करके इस देश को हराया था। समापन सत्र की दूसरी वक्ता मणिमाला जी ने अपने संघर्षों को याद किया। संस्कार के निर्माण की प्रक्रिया और शिक्षा के द्वारा उसमें परिवर्तन की संभावना पर मणिमाला जी ने अपनी बात रखी। इसी क्रम में उन्होंने भुइंया जाति के बारे में श्रोताओं को परिचय कराया। किस प्रकार की मेंटल कंडीशनिंग के तहत शोषित स्वयं को ही नीच या भाग्यहीन मानने लगता है, इस पर भी मणिमाला जी ने विचार प्रस्तुत किये। भारतीय समाज के अंतिम जन का निर्धारण उन्होंने दलित स्त्री के रूप में किया। साथ ही यह भी कहा कि ग़रीब आमतौर पर दलित ही होते हैं। आज देश और दल में बड़ा कौन यह तय कर पाना सत्ताधारियों ने कठिन कर दिया है। अब आज़ादी गयी तो दोबारा उभर नहीं पायेंगे। पहले किसी भी प्रकार उभर गये थे। जातियाँ राष्ट्र विरोधी होती हैं, लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा इसी से है। हमें संविधान विरोधियों के विरुद्ध साथ एकजुट होकर वैचारिक मुठभेड़ करनी होगी। आज के समय में दलित नेताओं के पास वैचारिक स्टैंड नहीं है।
समापन सत्र के अंतिम वक्ता जलेस के अध्यक्ष चंचल चौहान साहब ने समूचे कार्यक्रम में जो चिंता जतायी गयी उसे वास्तविक कहा। उन्होंने कहा कि आज हिंदुत्व की विचारधारा भौतिक शक्ति बन गयी है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी आज दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त है। पूरी दुनिया में क्या होगा, यह पूँजीवादी ताक़तें तय करती हैं। आज लगभग सभी देश इनकी गुलामी कर रहे हैं। चंचल जी ने आगे कहा कि हमारा संविधान वैज्ञानिक चेतना और मानवता के द्वारा असत्य से सत्य की ओर ले जाने वाली कुंजी है। समानता के व्यवहार में विश्वास रखने वाले सभी संगठनों को एक साथ आना होगा क्योंकि असंगठित होना शत्रुओं को बल देता है। याद रखें कि एका को ख़त्म करने में धन लगता है और आज इसी प्रक्रिया के तहत भारतीय समाज के एका को ख़त्म किया जा रहा है।
कार्यक्रम में टेकचंद जी ने संविधान की उद्देशिका का पाठ किया। इसी क्रम में जलेस के पूर्व महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जी और पूर्व सांसद सुभाषिनी अली जी ने भी टिप्पणी के तौर श्रोताओं का कतिपय बातों की तरफ़ ध्यान आकृष्ट किया। दो दिवसीय सफल कार्यक्रम के अंत में औपचारिक धन्यवाद की प्रक्रिया बली सिंह जी ने पूर्ण की। बली जी ने इस दो दिवसीय कार्यक्रम को दो दिन का सिम्पोजियम कहा। और यह भी कि शरीर का इलाज आसान है मस्तिष्क का इलाज उतना ही मुश्किल। वैचारिक लड़ाई ही दुनिया को बदल सकती है। बड़ी संख्या में लेखक, पत्रकार, समाजकर्मी, शोधार्थी और छात्रों की सगभागिता ने कार्यक्रम को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।