‘साथियो, हमने कर दिखाया’ : लखनऊ में जलेस उत्तर प्रदेश राज्य सम्मेलन / शालिनी सिंह


13-14 अप्रैल 2025 को जनवादी लेखक संघ, उत्तर प्रदेश का राज्य सम्मेलन लखनऊ में सम्पन्न हुआ। उसे याद करते हुए शालिनी सिंह की यह आत्मीय-सी प्रतिक्रिया :

13 अप्रैल, लखनऊ। कैफ़ी आज़मी सभागार में कुछ अलग ही रौनक थी। कुछ साथी ऊपर छत के उस हिस्से में बैनर लगा रहे थे ,जहाँ से प्रतिनिधियों को सभागार की तरफ़ से प्रवेश करना था। बाहर और भीतर अलग अलग चार पाँच की संख्या के समूहों में खड़े लोग बात कर रहे थे। एक तरफ़ मेज़ और दो कुर्सियाँ रखी हुईं थीं, जिस पर शुरुआत में सजावट के लिए दो नक़ली फूलों वाले गुलदान रखे गये लेकिन रजिस्ट्रेशन करने वाले साथियों ने पाया कि वे गुलदान सजावट तो कम कर रहे थे, बार बार इधर उधर लुढ़कते हुए व्यवधान अधिक उत्पन्न कर रहे थे, तो उन्हें तत्काल मेज़ से हटा दिया गया।

सभागार में गेंदे की लड़ियों और रजनीगंधा के फूलों से सजावट की जा रही थी। सजावट करते समय बारीक़ से बारीक़ चीज़ों का ध्यान रखा जा रहा था। मेज़ पर पड़ी चादर तिरछी तो नहीं हो रही, कोई दूर से देखकर बताता तो कोई पोस्टर चिपकाने के लिए दीवार पर जगह और पोस्टर के रंगों का मिलान करता।

कार्यक्रम में सहभागिता करने के लिए जो लोग आ रहे थे , उनमें कुछ प्रिय अलोचक , कुछ प्रिय कवि और कुछ प्रिय दोस्त भी शामिल थे…

कोई तस्वीरें खिचवा रहा था तो कोई स्मारिका के पन्ने पलट रहा था।

दिन के भोजन के पश्चात जब कार्यक्रम आरंभ हुआ तो सभागार खचाखच भरा हुआ था । लोग अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए कार्यक्रम के शुरू होने की प्रतीक्षा में थे।

संचालक ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए मंच पर अतिथियों को आमंत्रित किया। स्वागत समिति के अध्यक्ष अखिलेश जी ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। मंच पर बैठे अतिथियों – संजीव कुमार , चंचल चौहान ,नमिता सिंह , हरीश चन्द्र पांडे जी – ने “असहमति और जनतंत्र : हमारे समय की चुनौतियों के बीच साहित्य” विषय पर अपने बेहद मूल्यवान विचार प्रस्तुत किये, जिसे विस्तार से जनवादी लेखक संघ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में, जो कि अब ‘नया पथ’ पर उपलब्ध है, पढ़ा जा सकता है ।

यह लेख लिखने के पीछे मेरा आशय केवल और केवल उन बातों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करवाना है जिससे एक लेखक संगठन के समर्पण और उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी को समझा जा सके।

वे दो दिन कितने सुंदर बीते, अब याद करती हूँ तो सुख से भर जाती हूँ। कहाँ तो इतने दिनों से प्रतीक्षा थी इस दिन की और कहाँ ये दिन पलक झपकते ही बीत गये।

दूसरे दिन सांगठनिक सत्र के संपन्न होने के बाद कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई। एक समूह चित्र खींचा गया और सभी लोग भोजन करने के पश्चात वापस अपने-अपने शहरों की तरफ़ लौटने लगे। जिनकी रात की ट्रेन थी, वे भी अपने अपने कमरों में आराम करने के लिए चले गये।

सभागार में अब हम लखनऊ इकाई के कुछ लोग ही बैठे थे।थकान का अंदाज़ा हम सबके चेहरे देखकर लगाया जा सकता था। ज्ञान प्रकाश जी, जिनके ऊपर कार्यक्रम के बहुत से कामों की ज़िम्मेदारी थी, चाय का गिलास बगल की कुर्सी पर रखकर सभी का हिसाब किताब जोड़ने में व्यस्त थे कि तभी नलिन रंजन सिंह (लखनऊ कार्यकारिणी के सदस्य और जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश तथा केंद्र में क्रमशः महत्वपूर्ण पदों पर हैं), जो कि तीन चार रातों से बमुश्किल ही भर आँख नींद सो पाये होंगे, बाएँ कंधे पर जनवादी लेखक संघ का झोला लटकाये कमरे में दाख़िल होते हैं
और मुट्ठी तानते हुए उत्साह से भरे स्वरों में कहते हैं:

“साथियो, हमने कर दिखाया!“

जवाब में हम सब भी अपनी मुट्ठियाँ बाँधकर अपनी ख़ुशी अभिव्यक्त करते हैं।

ये वाक्य सुनकर कुछ लोगों को लग सकता है कि इसमें कुछ अतिश्योक्ति जैसा ध्वनित हो रहा है लेकिन जो लोग संगठन से जुड़े होते हैं, जिनके पास कार्यकम करवाने के लिए आर्थिक संसाधन नहीं होते और ना ही कांवर यात्रा और कलश यात्रा से लेकर पग यात्रा करने जैसी सामाजिक-राजनीतिक स्वीकार्यता, उनके लिए इस वाक्य के बहुत गहरे मायने होते हैं। जटिल समय और विपरीत परिस्थितियों में यह एक वाक्य उनको भीतर तक ऊर्जा से भर देता है।

संगठन के वे लोग जिनका कार्यक्रम की तैयारियों का अधिकांश समय खर्च के जुटान की चिंताओं में खप जाता है , उनके लिए भी इस वाक्य के बहुत गहरे मायने होते हैं।

कार्यक्रम की तैयारियों के लिए बैठकें होती हैं,समितियाँ बनती हैं, ज़िम्मेदारियाँ तय की जाती हैं, सभी सदस्य हाथों-हाथ ज़िम्मेदारियाँ लेते भी हैं, लेकिन बात वही कि हमें कम से कम संसाधनों में कार्यक्रम सम्पन्न करवाना है। हम बहुत अधिक दबाव में होते हैं।

पर ये जो हमारा शहर लखनऊ है ना, इसमें बसते हैं कुछ अच्छे और सच्चे मनुष्य भी, जो हमारे कंधों पर अपना हाथ रख देते हैं, हमारे कंधे और सबल, पीठ थोड़ी और सतर हो जाती है।

हमारे पास न मैन पॉवर होती है, ना ही होते हैं वालंटियर्स लेकिन जो कुछ सदस्य होते हैं, वो ही सभी ज़िम्मेदारियों को आपस में बाँट लेते हैं ,जिनमें कुछ तो अतिरिक्त सक्रिय सदस्य होते हैं , जिनके कामों के प्रति समर्पण को केवल और केवल महसूस किया जा सकता है, उसे शब्दों में बाँधकर नहीं कहा जा सकता।

कोई आगंतुकों को लेने स्टेशन की तरफ़ दौड़ता है, कोई रजिस्ट्रेशन काउंटर की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए दूर शहर से भागा चला आता है तो कोई सदस्य अपने घर को ही एक दिन पहले सारी तैयारियों के लिए खोल देता है जहाँ सदस्य देर रात तक अगले दिन के आयोजन के लिए झोले, प्रकाशित सामग्री, स्मारिका आदि चीज़ों को व्यवस्थित करते हैं।

दूसरी तरफ़ कुछ सदस्य आयोजन स्थल पर तैयारियों का जायज़ा ले रहे होते हैं और एक दिन पहले आने वाले सदस्यों के इंतज़ाम देखने में व्यस्त होते हैं।

इस तरह दो दिनों की सुखद यादों के साथ कार्यक्रम तो संपन्न हो जाता है लेकिन उसकी स्मृतियाँ मन में सदा के लिए ठहर जाती हैं।

प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइये।वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।

प्रेमचंद की मशाल थामे हुए ऐसे सभी लोगों के लिए मेरे मन में अपार सम्मान उमड़ता है। मैं सोंचती हूँ कि उनके भीतर चेतना का, संवेदनशीलता का कौन सा सोता बहता होगा, कौन सी लौ लगी होगी जो ये लोग एक लेखक होने के असल भाव के साथ खड़े होना चुनते होंगे, चुनते होंगे सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़ा होना।

मैं शायद कुछ अधिक भावुक हो रही हूँ, लेकिन मैंने वही लिखा है जो आठ साल से जलेस में रहते हुए महसूस किया है और मेरे लिखे का एक-एक शब्द सच है।

satyshalini@gmail.com

 


13 thoughts on “‘साथियो, हमने कर दिखाया’ : लखनऊ में जलेस उत्तर प्रदेश राज्य सम्मेलन / शालिनी सिंह”

  1. आपने लिखा कि जलेस के पास आज “न मैनपॉवर है, न वालंटियर हैं, न संसाधन हैं, न पैसा है”। लेकिन यह नहीं लिखा कि ‘जलेस’ की यह हालत “क्यों और कैसे” हुई है? ‘जलेस’ तो खुद को किसानों मजदूरों मेहनतकशों का हिमायती होने का दावा करता रहा है, फिर ये वर्ग साथ क्यों नहीं जुड़े हैं, क्या जलेस व माकपा ने उनसे कभी यह बात पूछी है? यदि हां तो क्या उनके उत्तर पर गौर किया है? अमल किया है? नहीं पूछा,ना अमल किया। नतीजा यही होना था, सो हुआ ! ‘जलेस और माकपा’ की सोच ठस्स हो चुकी है, लकीर पीटते रहने से कुछ होने वाला नहीं है! मैं स्वयं 1982 से ‘राष्ट्रीय-जलेस’ का संस्थापक सदस्य हूं और ‘हरियाणा जलेस’ का राज्य अध्यक्ष रह चुका हूं। दोनों को बनाने में हमारा ही खून-पसीना लगा था। और जब तक हम रहे संगठन को भी टॉप पर रखा था। नाकाबिल लोगों ने हमें निकाला क्योंकि हम ‘आम आदमी पार्टी’ के साथ चले गए थे, बाद में पाया कि वह भी दिशाहीन है और और हम राहुल गांधी के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। यह इनका ढकोसला है कि किसी अन्य सेकुलर पार्टी का सदस्य-लेखक ‘जलेस’ में रह सकता है। हमारे निकाले जाने के बाद ‘जलेस’ का भट्टा बैठ गया! इनके पास ना तो नया विचार है, ना जन है ना जन-संपर्क है, न सांगठनिक क्षमता है, न नेतृत्व की क्षमता है,न रचनाकारों को आकर्षित कर सकते हैं, न उनसे कोई संपर्क है। क्योंकि इनके पास संवाद की भाषा और आत्मीयता भी नहीं बची है। नए रचनाकार इनकी तकरीर सुनते हुए बोर हो जाते हैं, उबासियां लेने लगते हैं और ये लोग उसको अपने ज्ञान का उच्चतर स्तर मानकर आत्म-मुग्ध जाते हैं? शुरू में कई अच्छे लेखक चिंतक बुद्धिजीवी लोग भी जलेस के नजदीक आए लेकिन वह इनकी संगत में निभ नहीं सके। दूरी बना लिया या फिर छोड़ कर चले गए। ये खुद में सुधार को तैयार नहीं हैं, और वक्त इनको दोबारा मौका देने के लिए तैयार नहीं है। प्रोफेसर शिव कुमार मिश्र जी और प्रोफेसर ओ पी ग्रेवाल जी जैसी शख्सियतों के कारण लोग आते रहे जुड़ते रहे थे लेकिन बरसों पहले वह दोनों इस दुनिया से रुखसत हो गए और जो पीछे बचे उन्होंने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया। आज जो हालात हैं वह आपने खुद ही बयां कर दिए हैं।

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    • आपने अपने गरेबां में झांक कर नहीं देखा। जलेस के साथियों पर तोहमत लगाने लगे। जलेस के जिक्र में माकपा कहां से आ गई। आपकी टिप्पणी में ही जाहिर हो रहा है कि आप प्रगतिशील जनवादी लेखन परंपरा से भटककर कभी अपने को आम आदमी पार्टी में रहने और फिर कांग्रेस पार्टी के सदस्य होने की बात कहते हैं , जबकि बात लेखक संगठनों व प्रगतिशील जनवादी लेखन की बात हो रही है। यह जनवादी लेखक संघ में जनवाद ही है, जिसने आपकी टिप्पणी को प्रकाशित होने दिया। जबकि आप अपने को जलेस का फाउंडर मेंबर बताते हुये भी जलेस के प्रति असहिष्णुता के साथ अनर्गल आरोप लगा रहे हो।-सुनील

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  2. सिर्फ जलेस ही नहीं, पूरे के पूरे वामपंथ की यही कहानी है !!!!

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  3. हमें आज जरूरत है कि खुद की निंदा भी करें और खुद को शाबाशी भी दें। और इन दोनों से ज्यादा जरूरी है के हम सब एक पक्ष के लोग मिलकर कर रहे और कार्यरत रहे।
    जलेस भारत में वैचारिक समझ बढ़ाने का और लोगों को जागरूक करने का एक ख़ूबसूरत और शानदार अभियान दिखाई दे रहा है।

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  4. वाह शालिनी।
    साथियों को हिम्मत दिलाने वाला लेख।
    अंदाज़ अच्छा लगा।

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  5. उप्र जलेस राज्य सम्मेलन के बेहतरीन आयोजन पर शालिनी सिंह की क़ाबिले तारीफ़ टिप्पणी।
    लेखक संगठनों को हतोत्साहित करने वालों की संख्या में इधर बीच बढ़ोत्तरी हुई है। इसकी कई वज़हें हैं। आलोचकों, निंदकों की कई कोटियाँ हैं।
    सार सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय ।

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  6. इस सफल आयोजन के लिए आप सब को बधाई।

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  7. लाल सलाम कामरेड आपने बहुत अच्छा लिखा है

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