जनवादी लेखक संघ उ. प्र. का दसवाँ राज्य सम्मेलन लखनऊ स्थित कैफ़ी आज़मी एकेडमी में 13-14अप्रैल 2025 को आयोजित किया गया। पहले दिन उद्घाटन सत्र में ‘असहमति और जनतंत्र: हमारे समय की चुनौतियों के बीच साहित्य’ विषय पर गोष्ठी आयोजित की गयी।
इस सत्र में स्वागत समिति के अध्यक्ष, लेखक और संपादक अखिलेश ने स्वागत वक्तव्य देते हुए कहा कि इसी प्रदेश की धरती पर कबीर, निराला और प्रेमचंद जैसी साहित्यिक हस्तियों ने जन्म लिया है। इस धरती को उन्होंने आंदोलनों की धरती बताया। जनवादी लेखक संघ की स्थापना के समय को याद करते हुए उनका कहना था कि यहाँ आने वाले हर ज़िले और दूर दराज़ के साथी एक ऐसा नज़रिया लेकर जाएँ जो अपने क्षेत्र में उस मशाल को जलाये रख सके। उन्होंने हर साथी से यह अपील की कि इस कठिन समय में हर कलाकार अपने हर संभव प्रयास से इस समय का सामना करे। साथ ही, उन्होंने नये साथियों को सम्मिलित किये जाने की बात कही।
जनवादी लेखक संघ के महासचिव संजीव कुमार ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि लोकतंत्र बहुमत का नाम नहीं है। सौ लोगों में अगर एक की आवाज़ भी निन्यानवे से अलग है तो उसे सुना जाये, यही लोकतंत्र है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र का मतलब संख्या से नहीं है। अपने भाषण में उन्होंने ‘फुले’ फिल्म पर सेंसर बोर्ड द्वारा लगाये गये कट्स की चर्चा की। ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई’ पुस्तक के हवाले से उन्होंने कहा कि अब ब्यूरोक्रेसी को दबाव में रखकर, चुनाव आयोग और न्यायपालिका में अपने अनुकूल हस्तक्षेप करके, मीडिया हाउसेज़ को काबू करके, बैलेट के ज़रिये और क़ानूनी प्रतीत होते माध्यमों से लोकतंत्र की हत्या होती है। क़ानून हमें असहमति का अधिकार देता है। गुलफ़िशा फ़ातिमा और उमर खालिद को सीएए से असहमत होने पर आज भी कारावास में रखा गया है और उन पर चार्जशीट तक दाखिल नहीं हो सकी है। इन्हें दंगा फैलाने के नाम पर अंदर रखा गया है जबकि हम जानते हैं असली दंगाई बाहर घूम रहे हैं। सच्चाई यही है कि इन्हें असहमत होने का दंड दिया जा रहा है और सरकार भी चाहती है कि इस कारण को हम समझें। इसका एक ‘चिलिंग इफ़ेक्ट’ होता है; हम आगे बढ़कर अपनी असहमति व्यक्त करने से डरने लगते हैं, यह सोचकर कि हमें भी किसी और नाम पर इस असहमति के लिए दंडित किया जायेगा।
उन्होंने कहा, यह विडंबना है कि हम लोग जो बनाने और बदलने की बातें करते थे, 1991 के बाद से सिर्फ़ बचाने की बातें कर रहे हैं। उदारीकरण के साथ ही यह बचाने का यह मुहावरा हमारी बोली में शामिल हुआ। हमें पब्लिक सेक्टर को बचाने, व्यावसायीकरण से शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बचाने पर ज़ोर देना पड़ा और जब नव-उदारवाद और सांप्रदायिक ताक़तों का गठजोड़ अपने शिखर पर पहुँचने लगा तो हमने उन चीजों के साथ-साथ संवैधानिक मूल्यों को बचाने, साझा संस्कृति को बचाने, धर्मनिरपेक्षता को बचाने का नारा दिया। यह नव-उदारवाद ही है जिसने हमें इतनी सारी चीजों को बचाने मात्र की लड़ाई में झोंक दिया है।
क्या ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में हमें ऐसा साहित्य नहीं रचना चाहिए जो लोगों तक सीधे पहुँचे और इन चुनौतियों को संबोधित करे? निस्संदेह, प्रथमदृष्टया तो यही लगता है। लेकिन यह बात पूरी तरह सही होती अगर साहित्य जनता के एक बड़े तबके तक पहुँचता। वह स्थिति तो है ही नहीं! ऐसे में समय के दबाव में किसी सरलीकरण की तरफ जाने के बजाये अभी के सच की परतों को समेटने वाले गहन और गंभीर साहित्य की रचना को अपना लक्ष्य बनाना भी एक अच्छा प्रस्ताव हो सकता है। हम अपनी रचनाओं में रोग के लक्षणों को दर्ज करने के बजाये रोग को दर्ज करें तो शायद आने वाली पीढ़ियों को उस साहित्य से यह समझने में मदद मिलेगी कि यह कैसा समय था और इसकी क्या जटिलताएँ थीं। उन्होंने अनेक साहित्यिक कृतियों के हवाले से अपनी यह बात कही।
प्रगतिशील लेखक संघ से शकील सिद्दीक़ी ने अपनी बात रखते हुए प्रतिरोध की परंपरा और चेतना को जिलाये रखने के लिए इसके संस्थापक लेखकों के सहयोग की बात कही। अपने संगठन की ओर से जनवादी लेखक संघ के इस आयोजन की सराहना की और कहा कि यह अधिवेशन रास्ता दिखाने वाला, प्रेरणा देने वाला और रौशनी दिखाने तथा नये लोगों को जोड़ने वाला कार्यक्रम है।
अध्यक्ष मंडल से कवि हरीश चंद्र पाण्डे ने कहा कि आज लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद में भी कही हुई बात को स्विच बंद करके रोक दिया जाता है। उन्होंने दक्षिण भारत में इस समय भाषा को लेकर जारी विवाद का हवाला दिया और बताया कि किस प्रकार वहाँ हिंदी थोपने की कोशिश जा रही है।
जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश की पूर्व अध्यक्ष नमिता सिंह ने जनवादी लेखक संघ की स्थापना से अब तक के सफ़र को याद किया और कहा कि पिछले लम्बे समय से माहौल ऐसा है कि बेबसी ओर बेचैनी बनी रहती है। आज कि स्थितियों को कठिन बताते हुए उन्होंने कहा कि लेखक संघ हमेशा से इस आज़ादी और सत्ता के चरित्र का विरोध कर रहा था। साथ ही उन्होंने कहा कि हम उन समानांतर चल रही ताक़तों को शायद उस हद तक नहीं समझ सके और उतनी गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने इन हालात के साथ पली-बढ़ी पीढ़ी और पूँजीवाद के खतरे का ज़िक्र किया। ऐसे समय में उन्होंने साहित्य की भूमिका पर बोलते हुए गोर्की का हवाला दिया कि यथार्थ को दर्ज किया जाना चाहिए। इस बात पर उन्होंने अफ़सोस जताया कि आज भी हम वही साहित्य लिखने को मजबूर हैं जो कई दशक पहले लिखा जा रहा था। साथ ही उन्होंने सोशल मीडिया और आज के माहौल में वर्तमान साहित्यकारों को इस बात पर विचार करने की बात कही कि किस तरह हम जनता के बीच जाएँ। उन्होंने व्यंग्य विधा को सबसे साहस की विधा कहा और कहा कि खतरे तो उठाने ही होंगे।
कुँवारपाल सिंह स्मृति सम्मान से नवाज़े गये जनवादी लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष चंचल चौहान ने बताया कि इस समय सारी दुनिया संकट का सामना कर रही है। उन्होंने कहा कि यहाँ शिक्षा का स्तर कम है जबकि अमरीका में अच्छी शिक्षा और जागरूकता के बावजूद वहाँ की जनता हालात की मार झेल रही है। पूरी दुनिया में हड़कंप का कारण जानने की कोशिश में लगे जानकारों के हवाले से उन्होंने कहा कि इस नवफासीवाद के पीछे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी है जिसकी कारगुज़ारियों को समझे बिना हम अभी के हालात का सही विश्लेषण नहीं कर पायेंगे। आई एम एफ, वर्ल्ड बैंक और डब्लू टी ओ को पूरी दुनिया पर राज करने वाला टूल बताते हुए उन्होंने कहा कि इनकी मदद से हमें ग़ुलाम बना लिया गया है। अपने वक्तव्य में उन्होंने बताया कि मुक्तिबोध अपनी रचना में इंटरनेशनल फाइनेंस कैपिटल का ज़िक्र करते हैं और इसे वह मौजूदा समय में संकट का सबसे बड़ा कारण बताते हैं। धर्मवीर भारती को याद करते हुए चंचल चौहान ने उनकी कही बात को आज के समय से जोड़ते हुए उनकी पंक्ति दोहरायी – ‘सत्ता उसकी होगी जिसकी पूँजी होगी।’ उन्होंने कहा कि इस समय यह तो कहा जाता है कि डेमोक्रेसी की आत्मा आलोचना है लेकिन परिस्थितियाँ विपरीत हैं। उन्होंने बताया कि हर दौर में दोनों तरह के लेखक रहे हैं, कुछ लेखक मानसिक रूप से गुलाम बनने के लिए होते हैं जबकी कुछ लेखक संवेदना को लेकर रचते हैं।
धन्यवाद ज्ञापन जनवादी लेखक संघ लखनऊ के अध्ययक्ष ज्ञान प्रकाश चौबे ने किया। प्रदेश भर से आने वाले सभी साथियों का आभार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि अपने साथियों की बदौलत हम इस कार्यक्रम को सफल बना सके। संचालन जलेस लखनऊ की सचिव शालिनी सिंह ने किया।
इस अवसर पर विनोद कुमार दत्ता, नमिता सिंह, नाइश हसन और केशव तिवारी को उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया।
दूसरे सत्र में सफ़दर हाशमी के नाटक ‘औरत’ की प्रस्तुति इप्टा के कलाकारों द्वारा की गयी। नाटक को शहज़ाद रिज़वी ने निर्देशित किया था।
तीसरे सत्र में विभिन्न जनपदों से आये प्रतिनिधियों को स्मृति चिह्न देते हुए उनका परिचय कराया गया।
चौथे सत्र में तीन प्रस्ताव रखे गये। पहला प्रस्ताव उत्तर प्रदेश सरकार की उर्दू भाषा नीति के विरुद्ध मुनेश त्यागी ने रखा जिसका समर्थन समीना खान ने किया। दूसरा प्रस्ताव उत्तर प्रदेश में महिला हिंसा के विरुद्ध नाइश हसन द्वारा रखा गया जिसका समर्थन सीमा सिंह ने किया। तीसरा प्रस्ताव लेखकों, पत्रकारों, शिक्षकों और छात्रों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरों के विरुद्ध विशाल श्रीवास्तव द्वारा रखा गया जिसका समर्थन बसंत त्रिपाठी ने किया।
दिन के चौथे और अंतिम सत्र में ‘एक कवि-एक कविता’ शीर्षक से काव्य पाठ आयोजित किया गया।
दूसरे दिन सांगठनिक सत्र में विभिन्न ज़िलों से आये प्रतिनिधियों और केंद्रीय पर्यवेक्षकों ने शिरकत की।
सत्र का आरम्भ जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश के सचिव नलिन रंजन सिंह ने बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर को याद करते हुए किया। उन्होंने कहा कि आज के समय में भी अंबेडकर के विचार बेहद प्रासंगिक हैं। भारत के संविधान और जनतंत्र को बचाने के लिए ज़रूरत है कि हम कार्ल मार्क्स, महात्मा गांधी और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रेरणा लेकर काम करें। उनके विचारों पर चलकर ही हम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा कर पाएँगे।
सांगठनिक सत्र में प्रदेश की राज्य समिति के सदस्यों की संख्या 47 से बढ़ाकर 71 करने का निर्णय लिया गया। 2022 में 14 जनपदों में सक्रिय इकाइयाँ होने के कारण 47 की संख्या रखी गई थी। इस सम्मेलन तक उत्तर प्रदेश के 24 जिलों में इकाइयाँ सक्रिय होने के कारण और सदस्यों की संख्या डेढ़ गुना बढ़ जाने के कारण राज्य समिति की संख्या बढ़ा कर 71 करना ज़रूरी था। राज्य समिति में आने वाली कार्यकारिणी, राज्य परिषद, पदाधिकारी मंडल एवं संरक्षक मंडल सभी में सदस्यों की संख्या उचित अनुपात में बढ़ायी गयी।
इस दौरान बनारस इकाई के नईम अख्तर, मेरठ के मंगल सिंह ‘मंगल’ और बीना मंगल की किताबों एवं ‘जलवायु’ पत्रिका का विमोचन किया गया।
इसके बाद सचिव की रिपोर्ट पढ़ी गयी। इस रिपोर्ट के माध्यम से मौजूदा हालात पर रौशनी डालते हुए सिलसिलेवार राज्य सरकार की नाकामियों का विस्तार से उल्लेख किया गया। सचिव की रिपोर्ट के माध्यम से प्रदेश की आगामी योजनाओं की जानकारी दी गयी। इसमें लेखक और कवियों पर आधारित कार्यक्रमों की संख्या बढ़ाये जाने के साथ लेखन को और भी माँजने के लिए कार्यशालाएँ आयोजित किये जाने पर चर्चा हुई।
रिपोर्ट के माध्यम से संगठन के सदस्यों और इकाईयों के विस्तार पर भी विचार-विमर्श हुआ। सचिव की रिपोर्ट पर ज़िलों से आये प्रतिनिधियों ने अपने विचार व्यक्त किये और ज़िलों की रिपोर्ट भी प्रस्तुत की। इन रिपोर्ट्स के ज़रिये ज़िले में होने वाली विभिन्न गतिविधियों की जानकारी दी गयी। अंत में सभी प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से सचिव की रिपोर्ट का अनुमोदन किया।
इसके बाद मुनेश त्यागी ने अंधविश्वास के विरुद्ध प्रस्ताव रखा जिसे ध्वनिमत से पारित किया गया। प्रतिनिधि-परिचय रिपोर्ट ज्ञान प्रकाश चौबे ने रखी।
राज्य सचिव ने नयी राज्य कमेटी का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। नवनियुक्त अध्यक्ष हरीश चन्द्र पांडे ने प्रतिनिधियों को संबोधित किया और सम्मेलन के समापन की घोषणा की। चुनी गयी राज्य कमेटी इस प्रकार है-
संरक्षक मण्डल―
1. विनोद कुमार दत्ता
2. अमरीक सिंह ‘दीप’
3. नमिता सिंह
4. प्रदीप सक्सेना
5. तारिक छतारी
6. प्रमोद कुमार
अध्यक्ष-
1. हरीश चन्द्र पाण्डे
उपाध्यक्ष—
1. केशव तिवारी
2. एम. पी. सिंह
3. मुनेश त्यागी
4. सगीर अफ़राहिम
5. टीकेन्द्र सिंह ‘शाद’
6. सुधीर कुमार सिंह
7. अनीता मिश्रा
सचिव-
1. नलिन रंजन सिंह
कोषाध्यक्ष—
1. ज्ञानप्रकाश चौबे
उपसचिव –
1. आशिक अली
2. बसंत त्रिपाठी
3. विशाल श्रीवास्तव
4. वेद प्रकाश
5. धर्मराज
6. सोनी पाण्डेय
7. आभा खरे
कार्यकारिणी सदस्य-
1. अजय बिसारिया
2. राजेन्द्र वर्मा
3. माधव महेश
4. रमेश पंडित
5. विवेक निराला
6. अनिल दीक्षित
7. धर्मेन्द्र वीर सिंह
8. अब्दुल अज़ीम खान
9. रामनाथ शर्मा
10. महेश आलोक
11. अरुण मौर्या
12. शालिनी सिंह
13. नूर आलम
14. सीमा सिंह
15. समीना खान
16. नाइश हसन
17. सुभाष राय
18. रिक्त..
परिषद सदस्य—
1. जयप्रकाश मल्ल
2. सरिता सिंह
3. राजनारायण सिंह
4. सीमंत साहू
5. सबिता एकांशी
6. जावेद आलम
7. आरसी चौहान
8. मो. हुसैन
9. नीरज सिन्हा ‘नीर’
10. मंगल सिंह ‘मंगल’
11. शालू शुक्ला
12. सलमान खयाल
13. रेनू सिंह
14. सलाम बनारसी
15. बलबीर पाल
16. राकेश रागी
17. उमेश शर्मा
18. रचित
19. विमल चन्द्राकर
20. अजय कुमार पाण्डेय
21. सुनील कटियार
22. गीता भारद्वाज
23. मुजम्मिल फिदा
24. अजय गौतम
25. रमाशंकर सिंह
26. देव कुमार
27. शोएब निजाम
28. रिक्त
29. रिक्त
30. रिक्त
प्रस्तुति:
नलिन रंजन सिंह
समीना खान
हकदर का कोई हिंदी शब्द भी होता है, दुर्भाग्य से मै इसको समझ नहीं सका
यह शब्द तो इस रिपोर्ट में ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला! जिस वाक्य में आया है, संभवतः उसे उद्धृत करने पर ट्रेस किया जा सकता है।