‘लोकलहर’ के कांतिमोहन / राजेंद्र शर्मा


14 जुलाई 2024 को साथी कांतिमोहन ‘सोज़’ हमारे बीच नहीं रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक, कांतिमोहन लंबे अरसे तक संगठन के उपाध्यक्ष और संगठन की केंद्रीय पत्रिका ‘नया पथ’  के संपादक-मंडल के सदस्य रहे। 2022 के जलेस राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद से वे संगठन के संरक्षक मंडल में थे। उनकी याद में जलेस की ओर से एक स्मृति सभा 20 जुलाई 2024 को दिल्ली स्थित हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में रखी गयी जिसमें चंचल चौहान, अकुंठ, राजेंद्र शर्मा, इब्बार रब्बी, रविकांत, जवरीमल्ल पारख, ख़ालिद अशरफ़, रेखा अवस्थी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रानी और बजरंग बिहारी तिवारी ने उन्हें याद किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के मुखपत्र ‘लोकलहर ‘के संदर्भ में कांतिमोहन के योगदान को याद करते हुए ‘लोकलहर’ के वर्तमान संपादक राजेंद्र शर्मा ने उक्त स्मृति-सभा में जो लिखित वक्तव्य पेश किया, वह हम ‘नया पथ’  के पाठकों के लिए यहाँ दे रहे हैं। 

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अब जबकि कामरेड कांतिमोहन हमारे बीच नहीं हैं, इस ख़याल से काफ़ी हैरानी होती है कि उन्होंने कैसे अनोखे रिश्ते बनाये और निभाये थे। मिसाल के तौर पर, हमारे बीच उम्र का काफ़ी फ़ासला होने के बावजूद मैं हमेशा उन्हें कांति कहकर ही बुलाता था। कांतिमोहन भी नहीं, सिर्फ़ कांति। कई बार यार कांति’ के रूप में सुपर अनौपचारिकता देते हुए भी। यह सिर्फ़ संबोधन का ही मामला नहीं था। हमारे बीच आमतौर पर संवाद की भाषा भी, ”आप” की नहीं तुम” की भाषा थी। यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांति के व्यक्तित्व की ही ख़ासियत थी जो अपने से काफ़ी कम उम्र के साथियों से एकदम बराबरी के और हद दर्जे तक अनौपचारिक रिश्तों की जगह बनाती थी। हो सकता है, इसमें जेएनयू की मेरी ट्रेनिंग का भी कुछ हाथ हो, जिसमें हमने बराबरी के सलूक का पक्का पाठ पढ़ा था; लेकिन कांति के सक्रिय बढ़ावे के बिना इस तरह का रिश्ता कभी नहीं बन सकता था।

इसका नतीजा था, हमारे संबंध में वैचारिकता की प्रधानता होना। कामरेड कांति से मेरा पहला परिचय प्रगतिशील लेखकों के चर्चित बांदा सम्मेलन के बाद 1974 में आगरा में हुए लेखक सम्मेलन में हुआ था, जहां कांति, कर्ण, सुधीश की तिकड़ी अपनी पूरी क्रांतिकारी धज में थी। अगले साल जब मैं जेएनयू में आ गया, स्वाभाविक रूप से कांति से यह राजनीतिक-लेखकीय परिचय तेज़ी से आगे बढ़ा और उनके परिवार से घनिष्ठ संबंधों तक पहुंचा। कांति-मधु और तब छोटी बच्ची क्रांति का घर दिल्ली में ऐसा घर था जहां हरेक आयोजन में सहज ही मैं आमंत्रित तो होता ही था, निस्संकोच कभी भी चला जाता था। यह रिश्ता उत्तरार्द्ध पत्रिका के लिए थोड़ा-बहुत काम करने के ज़रिये और पुख्ता हुआ, हालांकि इस सिलसिले में एक चीज़ का आज ज़रूर ज़िक्र करना चाहूंगा। कांति, सुधीश आदि के माध्यम से उत्तरार्द्ध के लिए जब-तब काम करते हुए भी, इन साथियों ने सव्यसाची के रहने तक कभी इसकी हवा भी नहीं लगने दी थी कि वास्तव में पत्रिका के संपादन की मुख्य ज़िम्मेदारी दिल्ली के ये साथी ही संभाल रहे थे। लाइमलाइट से पीछे रहकर अपने विश्वासों के लिए काम करना कांति की एक और बड़ी विशेषता थी, जिससे मुझे नजदीक से परिचित होने का मौक़ा मिला था।

इसी सबके क्रम में मुझे कांति के शोध प्रबंध, प्रेमचंद और अछूत समस्या  के कुछ हिस्से पढऩे का भी मौक़ा मिला था। दरअस्ल, उन दिनों प्रेमचंद पर मैं भी कुछ लिख रहा था और कांति ने आग्रहपूर्वक अपने शोध के एक हिस्से पर मेरी राय मांगी थी। 1979 के आख़िरी महीनों में एक दिन जब मैं कुछ चिंता के साथ शिक्षक की नौकरी की संभावनाओं पर चर्चा कर रहा था, कांति ने अचानक मुझे सुझाया कि क्यों नहीं मैं होलटाइमर के रूप में लोकलहर में आ जाता। इसका नतीजा चंद महीनों में मेरे होलटाइमर के रूप में लोकलहर की संपादकीय टीम के साथ जुडऩे के रूप में सामने आया, जो रिश्ता लगभग पेंतालीस साल बाद भी बदस्तूर क़ायम है।

दरअस्ल हुआ यह था कि सलकिया प्लेनम के निर्णय के आधार पर 1979 में जब सीपीआइ (एम) केंद्रीय कमेटी के साप्ताहिक हिंदी मुखपत्र के रूप में कॉमरेड सुरजीत के संपादन में लोकलहर का प्रकाशन शुरू हुआ, प्रथम ग्रासे मक्षिका पात: की स्थिति पैदा हो गयी। मुंबई से ब्लिट्ज से जुड़े जिन साथी पर संपादन की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए भरोसा किया गया था, उनका साथ सिर्फ़ चार हफ़्ते चला। इस संकट से लोकलहर को, उसके लिए संपादकीय सहयोग दे रहे जिन शिक्षक साथियों ने पार्टटाइमर की तरह काम करके उबारा, उनमें कॉमरेड कांति की भूमिका सबसे केंद्रीय थी। वास्तव में कांति ने अपने कॉलेज से रिसर्च के लिए अपनी छुट्टी को सहज ही लोकलहर की संपादकीय ज़िम्मेदारी संभालने की ओर मोड़ दिया। ज़ाहिर है कि इसमें पत्रकारीय लेखन का उनका अनुभव एक महत्वपूर्ण एसेट साबित हुआ। इसी का नतीजा है कि लोकलहर के अनेक स्तंभों, शीर्षकों तथा उनकी संकल्पना से लेकर सामग्री के बुनियादी डिस्प्ले तक पर अब भी कांति की छाप साफ़ देखी जा सकती है। और यह बात अख़बार में लेखन में अपनायी जाने वाली कन्वेंशनों और इमला के संबंध में तो और भी सच है। अख़बार में हम आज भी शब्दों, नामों आदि को क़रीब-क़रीब उसी तरह लिखते हैं जैसे लिखा जाना हमें कांति ने सिखाया है। एक उदाहरण से मेरी बात साफ़ हो जायेगी। फिलिस्तीन पर इस्राइल के संदर्भ में पिछले महीनों में जब हमारे अख़बार में इस्राइल के नाम की आवृत्ति ज़्यादा ही बढ़ गयी, यह ज़रूरी हो गया कि अख़बार में यह नाम एक ही तरह से लिखा जाये। लिहाज़ा मैंने कॉमरेड सहीराम से इस पर चर्चा की कि अख़बार में इस्राइल हमें किस तरह लिखना चाहिए और फ़ैसला इस आधार पर हुआ कि हम तो कांति के समय से उस तरह से लिखते आ रहे हैं।

लोकलहर का आरंभिक रूप ही नहीं, उसकी संपादकीय टीम को जुटाने और उसे स्थिर करने में भी कॉमरेड कांति का ही सबसे बड़ा योगदान रहा था। मेरा होलटाइमर के रूप में लोकलहर की टीम में जुडऩा भी इसी सिलसिले का हिस्सा था। वास्तव में जब कांति को इसका एहसास हुआ कि रिसर्च के लिए उनकी छुट्टी में ज़्यादा समय नहीं बचा था और लोकलहर के संपादन की मुख्य ज़िम्मेदारी संभालने के लिए किसी और साथी की ज़रूरत पडऩे जा रही थी, उन्होंने इसके लिए उपयुक्त होलटाइमर-संभव साथी की तलाश शुरू कर दी और तलाश मुझ पर आकर खत्म हुई। बाद में कांति की पहल पर ही मुझे बाक़ायदा लोकलहर की संपादकीय टीम के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी भी–ज़ाहिर है कि सुरजीत के संपादकत्व में–सोंप दी गयी। इस तरह लोकलहर के संपादकीय पक्ष को ऑटोपाइलट पर डालना न भी कहें तो कम से कम एक स्थिर पटरी पर रखने में कॉमरेड कांति की ख़ास भूमिका रही। इस ओर से एक प्रकार से निश्चिंत होने के बाद ही कांति ने कॉलेज से सेवानिवृत्ति के बाद, जनवादी लेखक संघ और ग़ज़ल समेत अपने लेखन पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया था। बेशक, पिछले क़रीब दसेक साल से, जिनमें गिरते स्वास्थ्य के कई वर्ष भी शामिल थे, लोकलहर में उनका सक्रिय योगदान नहीं रह गया था, फिर भी लोकलहर में कांति का अंश बराबर बना रहा है और हमेशा बरकरार रहेगा।

कॉमरेड मधु को, बेटा आकुंठ को और कांति के सभी दोस्तों तथा साथियों को मेरी हार्दिक संवेदनाएं। और कॉमरेड कांति को लाल सलाम!

rajendra1.sharma@gmail.com


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