जनवादी लेखक संघ केंद्र की इस रिपोर्ट का मसौदा महासचिव द्वारा 17 नवंबर को केंद्रीय परिषद की बैठक में पेश किया गया था। इस पर परिषद के सदस्यों के अनेक सुझाव आये जिनके अनुरूप रिपोर्ट में आवश्यक संशोधन-परिवर्द्धन किये जाने के बाद अब यह आपके सामने है। 17 नवंबर के बाद गुज़रे 10-12 दिनों में ही चर्चा के लायक़ अनेक घटना-विकास सामने आये हैं, पर उन्हें रिपोर्ट में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजे, महाराष्ट्र के नतीजों पर उठते गंभीर सवाल, अडानी पर अमरीका में दायर मुक़दमा, उस पर संसद में बहस कराने से याराना पूँजीवाद की पोषक मोदी सरकार का साफ़ इंकार और उसके कारण उत्पन्न गतिरोध—इतने महत्त्वपूर्ण प्रसंग इस रिपोर्ट में ग़ैर-हाज़िर हैं। अलबत्ता, यह ग़ौर किया जाना चाहिए कि ये सारे घटना-विकास रिपोर्ट में चिह्नित किये गये रुझान को पुष्ट ही करते हैं।
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जलेस केंद्रीय परिषद की बैठक (17.11.2024) में पारित केंद्र की रिपोर्ट
केंद्रीय कार्यकारिणी और परिषद की पिछली संयुक्त बैठक के बाद हम लगभग एक साल के अंतराल पर मिल रहे हैं। 2 दिसम्बर 2023 को हमने इसी जगह (सुरजीत भवन, नयी दिल्ली में) अपनी पिछली बैठक की थी। कैसी विडंबना है कि उस दिन हमने फ़िलिस्तीन पर जिस इज़रायली हमले और लंबे अरसे से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर चिंता जतायी थी, वे आज भी जारी हैं। फ़िलिस्तीन पर इज़रायल के पाशविक हमले का सभी मुल्कों के इंसाफ़पसंद लोगों द्वारा विरोध किये जाने, इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस द्वारा जनसंहार की दिशा में जाते हमले को रोकने का निर्देश दिये जाने तथा संयुक्त राष्ट्र में उसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित होने के बावजूद जिस तरह महिलाओं, बच्चों और आम नागरिकों को घेरकर निशाना बनाया गया है और बनाया जा रहा है, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति प्रयासों की नाकामी का सबसे क्रूर उदाहरण है। 2 अक्टूबर को गज़ा में सेवारत 99 अमरीकी डॉक्टरों और नर्सों ने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति को जो खुली चिट्ठी लिखी थी, उसमें प्रामाणिक आंकड़ा देते हुए बताया था कि गज़ा में उस समय तक लड़ाई से हुई मौतों की संख्या 1,18,908 को पार कर चुकी थी; यह वहाँ की कुल आबादी का 5.4 फ़ीसद था! इज़रायल को अपने इस जनसंहार में अमरीका और पश्चिमी मुल्कों से जो सहयोग मिलता रहा है, वह लोकतंत्र और मानवतावाद के उनके सारे दावों की पोल खोलता है। भारत ने भी इज़रायल के खिलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव लाये जाने पर वोट न करने का रास्ता चुनकर अपनी मिलीभगत को ज़ाहिर कर दिया। हमले के लिए गज़ा में इस्तेमाल किये गये ड्रोन भारत में अडानी के कारखाने में बने थे और उनकी आपूर्ति पूरी तरह से अबाधित रही, मिलीभगत का ऐसा उदाहरण, फिलिस्तीन इज़रायल संघर्ष को लेकर भारत के बदलते रुख के बावजूद, पहले नहीं देखा गया था।
यही स्थिति यूक्रेन पर रूसी हमले की है जिसमें शांति की कोई सूरत फ़िलहाल नज़र नहीं आती। दोनों तरफ़ से हमलों में तेज़ी आयी है। उसमें अमरीका और नाटो का भड़काऊ सहयोग एक अहम भूमिका निभा रहा है। रूस-विरोधी पश्चिमी ताक़तों का यूक्रेन की आड़ में इस तरह अपने इरादों को अंजाम देना युद्ध की यथास्थिति को बनाए रखने में एक प्रमुख कारक है।
श्रीलंका जैसे इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथ का बढ़ता प्रभाव इस अवधि का मुख्य रुझान रहा है। जर्मनी, इटली, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका –सभी जगहों पर या तो संकीर्ण राष्ट्रवादी, नस्लवादी सोच वाला दक्षिणपंथी नेतृत्व सत्ता-शीर्ष पर पहुँचा है, या फिर उसके समर्थन-आधार में पर्याप्त इज़ाफ़ा हुआ है। नव-उदारवाद की विश्व-विजय और नस्ली-राष्ट्रवादी संकीर्णता का वैश्विक उभार युगपत रूप से सामने आने वाली परिघटनाएँ हैं जिनमें निस्संदेह गहरा संबंध है।
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दिसम्बर 2023 के बाद से गुज़रे इस एक साल में देश-दशा संबंधी हमारे पिछले विश्लेषण में किंचित बदलाव की गुंजाइश बनती दिख रही थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और हम कह सकते हैं कि अंततः हालात वैसे ही हैं जैसे साल भर पहले थे।
बदलाव की गुंजाइश का संबंध 2024 के लगभग मध्य में संपन्न हुए आम चुनावों से था।
इन चुनावों से चार महीने पहले 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन हुआ। धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य का जैसा माखौल नये संसद भवन के उद्घाटन के मौक़े पर उड़ाया गया था, उससे कहीं आगे बढ़कर मंदिर उद्घाटन के मौक़े पर उसकी अंतिम विदाई का ही दृश्य उपस्थित कर दिया गया। हमारा संविधान कहता है कि राज्य की अपनी कोई धार्मिक संलग्नता या प्राथमिकता नहीं होगी, पर प्रधान मंत्री से लेकर पूरा राज्यतंत्र जिस तरह इस आयोजन में जुटा हुआ था, वह भारत के हिंदू राष्ट्र बन चुके होने की घोषणा जैसा प्रतीत हो रहा था। इस उद्घाटन को आने वाले चुनावों में भुनाने के लिए भी इसे एक देशव्यापी अभियान की शक्ल दी गयी, तमाम सरकारी महकमों, बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में आधे दिन की छुट्टी घोषित हुई, तमाम माध्यमों से सुनिश्चित किया गया कि देश भर की आबादी इस उद्घाटन की साक्षी बने।
उद्घाटन के तुरंत बाद, उसके द्वारा बनाये गये माहौल के मद्देनज़र, आम चुनावों की दिशा में कार्यवाही शुरू हुई। मार्च महीने में उन्होंने अपनी पसंद के दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की, जिसके लिए चयन समिति का संघटन तय करते हुए 2023 में ही किसी भी तरह की लोकतांत्रिक रोक-टोक की संभावना को दरकिनार करना सुनिश्चित कर लिया गया था। फिर जब चयन के मौक़े पर उन्होंने विपक्ष के नेता को एक लिये जा चुके फ़ैसले पर दस्तखत करने भर के लिए बुलाया तो इस नये संघटन की ग़ैर-लोकतांत्रिकता पूरी तरह से उजागर हुई। विपक्ष के नेता की शिकायत को लेकर कुछ लोग उस समय सर्वोच्च न्यायालय में भी गये थे, जहाँ दो न्यायाधीशों की बेंच ने नियुक्तियों को रद्द करने से तो इंकार कर दिया, पर उसके लिए अपनायी गयी प्रक्रिया पर अपना असंतोष जताते हुए यह अवश्य कहा कि उम्मीदवारों के तमाम विवरण पहले से समिति के सदस्यों के बीच वितरित किये जाने चाहिए।
अपनी मर्ज़ी का चुनाव आयोग गठित करने के लाभ बहुत जल्दी सामने आने लगे। चुनाव आयोग ने भाजपा की प्राथमिकताओं का ध्यान रखते हुए एक असाधारण रूप से लंबा चुनावी शेड्यूल घोषित किया। इसके साथ-साथ, भाजपा के नेतृत्व द्वारा चुनाव की आचार संहिता के बार-बार उल्लंघन, देश की अनेक चुनावी सभाओं में और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर दिये जा रहे नफ़रती बयानों, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों आदि की शिकायत आने पर उसने ज़्यादातर बार दिखावे का संज्ञान लेने से भी परहेज किया।
भाजपा ने इंडिया ब्लॉक के अभियान की कमर तोड़ने के लिए काँग्रेस पार्टी और केरल के एक ज़िले में सीपीआई (एम) का खाता फ्रीज़ करने से लेकर विपक्ष की सरकार वाले दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जेल में डाल देने तक, सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कर विपक्षी नेताओं का भयदोहन करने से लेकर कई जगहों पर नामांकन दाख़िल करने में बाधा डालने और नामांकन वापस करवाके अपने उम्मीदवार को निर्विरोध जिताने की कोशिशों तक, ऐसे अनगिनत काम किये जिनकी पूरी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी होगी। अपने चुनाव-अभियान में उन्होंने धन-शक्ति का जैसा प्रदर्शन किया, वह अभूतपूर्व था, और इस धन-शक्ति का एक बड़ा स्रोत वह चुनावी बॉण्ड योजना थी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी अपारदर्शिता और ‘क्विड प्रो क्वो’ (भ्रष्ट लेन-देन) की आशंका के कारण चुनाव से दो महीने पहले ही असंवैधानिक ठहरा दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आधार पर जब बॉण्ड खरीदने वालों और उसे भुनाने वालों की फ़ेहरिस्त सामने आयी तो यह बात एकदम स्पष्ट हो गयी कि भाजपा इस अपारदर्शी व्यवस्था की सबसे बड़ी ही नहीं, सबसे भ्रष्ट लाभार्थी भी रही है। उसने केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल हफ़्ता वसूली के एजेंटों की तरह किया; मनी लॉन्डरिंग, टैक्स चोरी जैसे मामलों को लेकर जिन व्यापारिक घरानों पर छापे पड़े, उनसे चुनावी बॉण्ड के रूप में बेनामी चंदा लेकर उन पर कार्रवाई रोक दी गयी। आश्चर्यजनक है कि चुनावों से ठीक पहले इस योजना के सारे छेद-भेद खुलकर सामने आ जाने के बावजूद भाजपा का अभियान अप्रभावित रहा क्योंकि बहुत बड़ी आबादी तक पहुँच रखने वाली गोदी मीडिया ने, जिसका मुख्य काम ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में नैरेटिव सेट करना रहा है, इस रहस्योद्घाटन को एक तरह से ब्लैक आउट कर दिया।
वैकल्पिक मीडिया का गला दबाकर, चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाकर और खुलेआम मुस्लिम-विरोधी नफ़रती भाषणों के द्वारा हिंदू वोट को इकट्ठा करने का अभियान चलाकर वे इस आत्मविश्वास में थे कि उनकी सीटें चार सौ पार कर जायेंगी। लेकिन हुआ वस्तुतः यह कि इन कोशिशों के बल पर वे एक हारता हुआ चुनाव जीत भर लेने का प्रबंध कर पाये। भाजपा के अपने विजेता उम्मीदवारों की संख्या 2019 के 303 से घटकर 240 पर आ गयी। इसका मतलब यह कि वह इस अठारहवीं लोकसभा में बहुमत के लिए अपने गठबंधन के सहयोगियों पर निर्भर हो गयी है और कोई बहुत बड़ा फ़ैसला लेने में उसे अलग तरह के जनाधार वाली अपनी सहयोगी पार्टियों की रज़ामंदी पर निर्भर रहना होगा। साथ ही, विपक्ष मज़बूत बनकर उभरा है और सरकार पर दबाव बनाने में उसके बढ़े हुए मनोबल का असर स्पष्ट दिखने लगा है।
आश्चर्य नहीं कि नयी सरकार को अपने कई फ़ैसले वापस लेने पड़े हैं। उसने यूपीएससी द्वारा घोषित लैटरल एंट्री स्कीम को ख़ारिज किया, प्रसारण बिल के मसौदे को वापस लेकर री-ड्राफ्टिंग के लिए सम्बद्ध कमेटी को भेजा, और वक़्फ़ (संशोधन) बिल को लोकसभा के पटल पर रखने के बाद विचार के लिए संयुक्त संसदीय समिति के पास रवाना किया। मोदी सरकार की दूसरी पारी में इस तरह के रवैये की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
लेकिन इन बदलावों के आधार पर यह समझ लेना कि ज़मीनी हालात भी बदल गये हैं, भारी भूल होगी। अव्वल तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि भाजपा के मत-प्रतिशत में बहुत अंतर नहीं आया है। उसमें लगभग 1.15 फ़ीसद की मामूली गिरावट आयी है, जो इस बात का सूचक है कि उसकी विचारधारा को भारतीय समाज में मिली हुई पैठ, हर मोर्चे पर सरकार की नाकामी के बावजूद, बरक़रार है। उसने उड़ीसा में ज़बरदस्त विस्तार करने के साथ-साथ केरल और तमिलनाडु में भी अपने मत-प्रतिशत को बढ़ाया है। दूसरे, यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि आरएसएस-भाजपा जैसे धुर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक-फ़ासीवादी संगठन ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को हर ऐसे ऐतिहासिक क्षण में कमज़ोर पड़ने देने के बजाये और पुरज़ोर तरीक़े से आगे बढ़ाते हैं जब उन्हें अपना समर्थन-आधार थोड़ा भी छीजता नज़र आता है। सरकार गठन के बाद से भाजपा की राज्य सरकारों की ओर से तथा नेताओं और ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ओर से मुस्लिम-घृणा के खुले प्रदर्शन में कोई कमी नहीं आयी है, और एनडीए में शामिल सहयोगी दलों से इसका विरोध किये जाने की उम्मीद बेमानी है। जैसा कि जवरीमल्ल पारख ने सरकार-गठन के तुरंत बाद, 11 जून को nayapath.in में प्रकाशित अपने लेख में कहा था, ‘यह सही है कि जेडीयू और तेलुगु देशम पार्टी… चुनावों में सांप्रदायिक घृणा फैलाकर वोट नहीं माँगते। लेकिन यह भी सही है कि उन्हें भाजपा द्वारा ऐसा किये जाने पर कोई समस्या नहीं होती।… 2024 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जिस तरह सांप्रदायिक घृणा का प्रचार किया, उसकी एनडीए में शामिल किसी दल ने निंदा नहीं की और न ही भाजपा के नेताओं को चेतावनी दी कि वे अपने घृणित प्रचार से बाज़ आयें। इसलिए इन दलों से यह उम्मीद करना कि वे धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर भाजपा के लिए किसी भी तरह की मुश्किल पैदा करेंगे, अपने-आपको धोखा देना है।’
यही वजह है कि सरकार में अपनी स्थिति तुलनात्मक रूप से कमज़ोर होने के बावजूद आरएसएस-भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे के पालन में अपनी आक्रामकता बनाये रखी है। अभी-अभी झारखंड में चुनाव प्रचार के दौरान हेमंत बिस्वा सरमा लेकर अमित शाह और नरेंद्र मोदी तक ने जिस तरह मुस्लिम-विरोधी नफ़रत का माहौल बनाने का प्रयास किया, वह एक मिसाल है। इनके भाषणों में वहाँ की मुस्लिम आबादी को सीधे-सीधे ‘घुसपैठिया’ बताते हुए उनके खिलाफ़ हिंदू वोट के एकजुट रहने का आह्वान किया गया है। सरमा ने अपने भाषणों में साफ़ शब्दों में कहा है कि ‘वे लोग अपना वोट एक जगह डालेंगे जबकि हमारे हिंदू लोग आधे इधर डालेंगे, आधे उधर डालेंगे,’ और ‘यह सरकार घुसपैठियों को बुलाती है क्योंकि एक खास समुदाय उसे वोट देता है।’ सिर्फ़ दस दिन पहले, 8 नवंबर को उसने अपने भाषण में कहा, ‘ये जेएमएम का सरकार हमारा सरकार नहीं है। ये आलमगीर आलम का सरकार है, ये इरफ़ान अंसारी का सरकार है। जैसे अयोध्या से हम लोगों ने बाबर को हटाया, ऐसे ही सरकार से हमें आलमगीर आलम और इरफ़ान अंसारी को भगाना पड़ेगा। एक साथ मिलके हमको बीजेपी सरकार को लाना पड़ेगा।’ ये सभी वक्तव्य ऐसे हैं जिनका चुनाव आयोग या अदालतों को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था, पर वहाँ एक कानफाड़ू सन्नाटा है। ऐसी ही स्थिति बिहार के किशनगंज में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा आयोजित हिंदू स्वाभिमान यात्रा में भी देखने को मिली जहाँ उसने खुलेआम बेहद भड़काऊ भाषण दिये और घुसपैठियों का डर दिखाते हुए हिंदुओं को अपने घर में देव-पूजा के नाम पर तलवार, भाला और त्रिशूल रखने का सुझाव दिया ताकि ज़रूरत पड़ने पर आत्म-रक्षा में उनका इस्तेमाल किया जा सके।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और हरियाणा में गौ-रक्षकों के हमले, उत्तराखंड में मुसलमान व्यापारियों और दुकानदारों का बहिष्कार और गाँवों के सीमांत पर मुसलमानों के लिए प्रवेश-निषेध के बोर्ड, शिमला में एक मस्जिद को अनधिकृत निर्माण बताकर उसे ध्वस्त किये जाने के लिए आंदोलन (अब तो इसमें संभल की शाही मस्जिद के सर्वे और उस दौरान पुलिस की गोली से पाँच लोगों के मारे जाने की वारदात भी शामिल हो चुकी है जो कि हमारी बैठक के बाद का घटना-विकास है)—ये घटनाएँ पिछले कुछ महीनों की ही हैं। भाजपा की राज्य सरकारों ने भी अपने आदेशों और पारित किये गये क़ानूनों से इस मुस्लिम-विरोधी ध्रुवीकरण को बढ़ाने की कोशिश में पूरा योगदान किया है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों ने काँवड़ यात्रा के रास्ते पर मौजूद सभी ढाबों और ठेलों पर उसके स्वत्वाधिकारी का नाम लिखे होने का आदेश जारी कर मुस्लिम दुकानदारों का बहिष्कार सुनिश्चित करने का प्रयास किया, हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह आदेश निरस्त कर दिया गया। उसके बाद सितंबर में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश लाकर खाने-पीने के सामानों की सभी दुकानों पर संचालक का नाम लिखे होने और सीसीटीवी कैमरे लगे होने जैसी शर्तें अनिवार्य कर दीं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2021 के धर्मांतरण विरोधी क़ानून में संशोधन करते हुए 30 जुलाई को प्रोहिबिशन ऑफ़ अनलॉफुल कन्वर्शन ऑफ़ रिलीजन (अमेंडमेंट) बिल 2024 भी पारित किया, जिसके ज़रिये अंतरधार्मिक विवाहों को और मुश्किल बनाते हुए सिर्फ़ पीड़ित पक्ष को ही नहीं, किसी को भी एफ़आईआर दाख़िल करने की छूट दी गयी है और सज़ा में भी अच्छा-खासा इज़ाफ़ा किया गया है। इनके अलावा भी अनेक कठोर प्रावधान शामिल किये गये हैं। भाजपा की ज़्यादातर राज्य सरकारें इस तरह के मुस्लिम-विरोधी क़ानून बनाने में लगी हुई हैं और मुख्यमंत्री से लेकर विधायक तक, ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए सभी लोग सामाजिक वातावरण को विषाक्त बनाने वाला ज़हर उगलने में मुब्तिला हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ‘बँटोगे तो कटोगे’ का नारा ही दे दिया है जिसमें यह स्पष्ट संदेश है कि पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में स्वयं को न देखकर हिंदू के रूप में देखो, वरना ‘उनके’ हाथों कटोगे। यही संदेश प्रधानमंत्री ने भी ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ के नारे के माध्यम से दिया है। मध्य अक्टूबर में बहराइच में हिंदुत्ववादियों के भड़काये हुए दंगे के बाद हिंदू और मुसलमान, दोनों को मिलाकर 100 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार हुए, लेकिन हिंदू जहाँ कुछ ही घंटों बाद ज़मानत पर रिहा कर दिये गये, वहीं मुसलमानों को 10 दिन जेल में काटने के बाद ज़मानत मिली। मुस्लिम घरों में हुई लूट-मार और तबाही के लिए पुलिस ने जहाँ एक भी एफ़आईआर दर्ज नहीं की है, वहीं गंभीर आरोपों के तहत अनेक मुसलमानों पर मामले दायर हो चुके हैं। पहले से जारी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद बुलडोज़र (अ)न्याय की भी पूरी तैयारी हो चुकी थी, पर पीड़ितों के एक मददगार वकील के अदालत पहुँच जाने पर इस तैयारी को रोकना पड़ा।
वस्तुतः, भाजपा के अब तक के शासनकाल में पूरे मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से स्थायी तौर पर निष्काषित करने या पूरी तरह हाशिये पर डालने के क़दम उठाये जाते रहे हैं। पिछले आम चुनावों में भाजपा की ओर से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी का न होना और फिर मंत्रिमंडल का गठन होने पर मुस्लिम समुदाय से एक भी मंत्री का न होना इस बात का स्पष्ट संदेश है कि उनके लिए इस पूरे समुदाय का वजूद ही अनावश्यक और अनपेक्षित है। संस्कृति के क्षेत्र से मुस्लिम प्रभाव का नामोनिशान मिटा देने की उनकी कोशिशों के संदर्भ में हमने पिछली रिपोर्ट में मिया म्यूजियम बंद कराने की असम सरकार की कार्रवाई का ज़िक्र किया था। ऐसी अनगिनत घटनाएँ इस बीच देखने को मिली हैं जिनका राष्ट्रीय क्या स्थानीय समाचारों में भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। मसलन, फैज़ाबाद के गुप्तहरि मंदिर के बाहर चबूतरे पर प्रस्तावित सूफ़ी संगीत के कार्यक्रम को होने नहीं दिया गया जबकि वहाँ नियमित रूप से इस तरह के संगीत कार्यक्रम होते रहे हैं। ऐसी घटनाएँ मुस्लिम समुदाय को सांस्कृतिक रूप से बहिष्कृत करने की योजना का हिस्सा हैं।
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सरकार के आदेशपाल की तरह काम करती पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों तथा आरएसएस के पाले-पोसे हुए स्टॉर्मट्रूपर्स की ओर से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले की अनगिनत घटनाएँ भाजपा के दस सालों के शासनकाल में सामने आती रही हैं जिनके बारे में हमने 2022 के अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित रिपोर्ट से लेकर दिसम्बर 2023 में हुई केंद्रीय परिषद के बैठक में पारित रिपोर्ट तक में विस्तार से चर्चा की है। उसके बाद की स्थिति 1 मई 2024 को जारी फ्री स्पीच कलेक्टिव की रिपोर्ट में बहुत व्यवस्थित तरीक़े से उजागर हुई है जहाँ यह बताया गया है कि 2024 के पहले चार महीनों में ही अभिव्यक्ति के अधिकार के उल्लंघन के कम-से-कम 134 मामले सामने आये। ‘क्रॉसिंग द लाइन: 18थ लोक सभा इलेक्शंस एण्ड फ्री स्पीच इन इंडिया’ शीर्षक यह रिपोर्ट गिरफ़्तारी के 36 मामलों, प्रतिबंध/सेंसरशिप के 36 मामलों, इंटरनेट नियंत्रण के 24 मामलों, हमले के 13 मामलों और ‘लॉफ़ेयर’ (लॉ और वॉरफ़ेयर को मिलाकर बना शब्द) के 7 मामलों के बारे में ठोस जानकारी देती है।
अपेक्षाकृत कमज़ोर सरकार के आने के बाद इस रुझान में निस्संदेह इतना बदलाव तो आया है कि प्रसारण बिल को लोकसभा के पटल पर रखने के बजाये सरकार ने उसके संबंध में आयी आलोचनाओं के मद्देनज़र री-ड्राफ्टिंग की ज़रूरत को स्वीकार किया है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी कि प्रेस की और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहाल हो गयी है। 30 अक्टूबर की रात को उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले में दो पत्रकारों पर भाजपा से जुड़े पंचायत प्रधान और उनके गुंडों ने जिस तरह का वहशियाना हमला किया और उसके बाद मामले को कमज़ोर करने के लिए जिस तरह पुलिस ने पंचायत प्रधान के साथ-साथ पत्रकारों के ख़िलाफ़ भी एफ़आईआर दर्ज की, वह बताता है कि भाजपा के राज में ज़मीनी स्तर पर प्रेस की स्वतंत्रता क्या हाल है। आम नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सूरते-हाल को इसी से समझ सकते हैं कि केरल को छोड़कर देश के अन्य हिस्सों, ख़ासकर भाजपा-शासित राज्यों में फिलिस्तीन-समर्थक और इस्राइल-विरोधी प्रदर्शन करना लगभग नामुमकिन हो गया है। कई ऐसे प्रदर्शनों पर पुलिस के बल-प्रयोग और प्रदर्शनकारियों को कई-कई घंटों तक हिरासत में रखने की ख़बरें आती रही हैं। प्रो. अचिन विनायक ने जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के इतिहास पर दिये गये अपने व्याख्यान में ज़ायोनिज़्म और हिंदुत्व की तुलना की तो उसके ख़िलाफ़ ज़बरदस्त हंगामा खड़ा किया गया और यूनिवर्सिटी ने प्रो. विनायक को अपने भाषण के इस अंश पर खेद प्रकट करने के लिए कहा। इसे दखते हुए आईआईटी बंबई ने इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के मुद्दे पर ही प्रो. विनायक का पहले से तय व्याख्यान रद्द कर दिया। इससे पहले आईआईटी बंबई में ही एक फ़िल्म स्क्रीनिंग के मौक़े पर जनम के साथी सुधन्वा देशपांडे द्वारा दिये गये व्याख्यान को हमास-समर्थक और आतंकवाद-समर्थक बताकर हंगामा किया गया और उन्हें आमंत्रित करने वाली प्रो. शर्मिष्ठा साहा के ख़िलाफ़ संस्थान में शिकायत दर्ज की गयी। हाल ही में पश्चिम एशिया में चल रहे युद्ध पर जनेवि में ईरान, लेबनान और फिलिस्तीन के राजदूतों के व्याख्यान रद्द किये गये। ऐसी अनेक घटनाएँ हमारे रोज़मर्रा के अनुभव का हिस्सा बन चुकी हैं और ऐसा लगता नहीं है कि निकट भविष्य में इनमें कोई सुधार होने वाला है।
स्थिति और बदतर हो सकती है, ऐसा अनुमान लगाना शायद अधिक तार्किक होगा, क्योंकि पिछली संसद में निहायत अलोकतांत्रिक तरीक़े से पारित कराया गया भारतीय न्याय संहिता बिल 2023 इस वर्ष पहली जुलाई से अमल में आ गया है। क़ानून के जानकारों की राय में, आईपीसी को प्रतिस्थापित करने वाली यह भारतीय न्याय संहिता सरकार पर सवाल खड़े करने वालों के लिए कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है। यह पुलिस के हाथों में अधिक अधिकार सौंपती है और अधिकारियों द्वारा मनमानी व्याख्या कर उसका दुरुपयोग किये जाने की गुंजाइश इसमें बहुत ज़्यादा है। सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह क़ानून को स्थगित रखने के सबंध में जो फ़ैसला दिया था, उसके मद्देनज़र ‘राजद्रोह/सिडिशन’ शब्द को तो यहाँ औपचारिक रूप से हटा दिया गया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले की मूल भावना की अवहेलना करते हुए भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 (Acts endangering sovereignty, unity and integrity of India) को इस तरह सूत्रबद्ध किया गया है कि उसके तहत किसी को ‘राष्ट्रविरोधी’ साबित करना आसान हो गया है। शब्दावली की अस्पष्टता और द्वयर्थकता के कारण वाजिब प्रतिरोध और शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के साथ असहमति के इज़हार को अब इस ग़ैर-जमानती धारा के तहत आपराधिक ठहराया जा सकता है, जो कि सीधे-सीधे संविधान की धारा 19 (अभिव्यक्ति का अधिकार) का उल्लंघन है। क़ानूनविद अमित देसाई के शब्दों में, ‘… बिना क़ानूनी परिभाषा के ‘सब्वर्सिव ऐक्टिविटीज़’ जैसे पद अस्पष्ट बने रहेंगे और इनमें सरकार के ख़िलाफ़ वाजिब विरोध-प्रदर्शन तथा असहमति को आपराधिक क़रार दिये जाने की गुंजाइश रहेगी। स्पष्टता का यह अभाव देखते हुए इसमें उसी तरह के न्यायिक हस्तक्षेप की ज़रूरत है जैसी राजद्रोह के संदर्भ में की गयी थी, ताकि इसके दुरुपयोग और धारा 19 पर इसके दुष्प्रभाव को दूर किया जा सके।’
कहना मुश्किल है कि आने वाले समय में किस तरह का न्यायिक हस्तक्षेप और किस स्तर की स्पष्टता संभव हो पायेगी। भारतीय न्यायपालिका की स्वायत्ता अब सवालिया घेरे में है। कुछ बेहद निर्णायक मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय तक का रवैया संवैधानिक मूल्यों के प्रतिकूल नज़र आता है। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर उसने जिस तरह निराश किया था, वैसे ही निराशा धारा 370 के निरस्तीकरण और जम्मू और कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के मुद्दे पर भी उसके फ़ैसले (दिसम्बर 2023) से हुई। सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला इस निरस्तीकरण को जायज़ ठहराते हुए अव्वल तो विलय के बाद विलय की शर्त के निष्प्रभावी हो जाने के विस्तारवादी तर्क को मान्यता देता है, दूसरे, जम्मू और कश्मीर को किसी भी अन्य राज्य के समान बताते हुए उसे उस स्पेशल स्टेटस की संभावना से भी वंचित कर देता है जो धारा 371 के तहत उत्तर-पूर्व के राज्यों एवं कुछ अन्य राज्यों को हासिल है। साथ ही, यह फ़ैसला पुनर्गठन की प्रक्रिया को वैध ठहराते हुए संघीय ढाँचे की बुनियाद पर ही प्रहार करता है। आने वाले समय में केंद्र द्वारा किसी भी राज्य के पुनर्गठन के लिए अगर वही प्रक्रिया अपनायी जाये जैसी जम्मू और कश्मीर में अपनायी गयी थी, तो यह फ़ैसला एक नज़ीर के तौर पर उसे वैध ठहराने के काम आएगा। क्या इसके बाद संघीय ढाँचे का, जो हमारे संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से है, कोई मतलब रह जाता है?
ऐसी ही निराशा ईवीएम की वोटिंग के VVPAT से सम्पूर्ण सत्यापन की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से हुई, जिसमें न्यायालय ने इस सत्यापन को अनावश्यक बताया। निस्संदेह, चुनावी बॉण्ड और बुलडोज़र जस्टिस जैसे मामलों में भारत की न्यायपालिका ने संविधान के मुहाफ़िज़ की अपनी भूमिका बखूबी निभायी है, पर देश की न्याय व्यवस्था को लेकर पूर्णतः आश्वस्त होने के लिए शायद इतना काफ़ी नहीं है।
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देश के हालात पर बात करते हुए कम-से-कम तीन और मुद्दों की चर्चा ज़रूरी है। इनमें से एक तो है मणिपुर के हालात, जहाँ पिछले डेढ़ साल से अनवरत हिंसा जारी है। वहाँ साफ़ तौर पर धर्म-आधारित विभाजन की साज़िश दिखती है। इसीलिए न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार का रवैया मामले को हल करने के पक्ष में है। उनकी ओर से कोई वास्तविक पहलक़दमी नहीं है, और इतनी भयानक एवं अनवरत हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री का एक भी दौरा न होना हिंसा को क़ाबू में करने की कोई मंशा न होने का प्रमाण है।
यह अनुमान लगाना भी असंगत न होगा कि यह मणिपुर के पहाड़ों को कुकी समुदाय से खाली करवाकर अपने पसंदीदा पूँजीपतियों को सौंपने की लंबी साज़िश का हिस्सा हो। प्रभात पटनायक जिसे पूँजीवाद में लगातार जारी रहने वाला आदिम संचय कहते हैं, उसके उदाहरण मौजूदा निज़ाम में बड़ी संख्या में मिलते रहे हैं और कोई आश्चर्य नहीं अगर मणिपुर का पूरा खेल अंततः इसी आदिम संचय की सुदीर्घ योजना का हिस्सा साबित हो।
नव-उदारवादी नीतियों को पूरी निर्ममता और निर्लज्जता से लागू करना इस निज़ाम की खासियत है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बंद करने और निजीकरण को बढ़ावा देने का इसने रिकार्ड क़ायम किया है। इससे आरएसएस-भाजपा का एक और मक़सद घलुए में पूरा होता है। वह है, दलित और पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण में कमी। वे अपना आरक्षण-विरोधी, दलित-पिछड़ा-विरोधी एजेंडा इस रास्ते से पूरा कर रहे हैं।
दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, धार्मिक अल्पसंख्यक, लड़कियाँ और कुल मिलाकर ग़रीब तबके का शिक्षा प्राप्त करना भी धीरे-धीरे असंभव होता जा रहा है। हज़ारों की संख्या में सरकारी स्कूल बंद हुए हैं जिनका लाभ समाज के इन हिस्सों को मिलता रहा था। शिक्षा का अधिकार महज़ एक काग़ज़ी अधिकार बनता जा रहा है। उच्च शिक्षा को धीरे-धीरे इतना महँगा कर दिया गया है कि वह दिन दूर नहीं जब निम्नवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय तबकों के युवा उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के बारे में सोचना भी छोड़ देंगे; इनमें से इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों के बारे में सोचना वे कब का छोड़ चुके हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में विचारधारात्मक हमला तो और ज़बरदस्त है। पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों के बदलावों (एन सी ई आर टी की किताबों में बदलाव का चौथा चक्र इसी अवधि में संपन्न हुआ जिस पर हमने बयान भी जारी किया था) और विश्वविद्यालयों में कुलपति से लेकर नीचे तक आरएसएस के लोगों की नियुक्तियों ने पूरे शैक्षिक वातावरण को विषाक्त कर दिया है। आलोचनात्मक सोच वहाँ हमले के निशाने पर है, जिसके उदाहरण हमारी पिछली रिपोर्टों में भी बहुतायत से उपलब्ध हैं। आज्ञापालन और भक्तिभाव की जिस संस्कृति को वहाँ खाद-पानी दिया जा रहा है, उसके भयावह दूरगामी परिणाम होना निश्चित है।
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इन तमाम स्थितियों को अलग-थलग देखने के बजाये समेकित रूप में इनका विश्लेषण करने की ज़रूरत है। हम पहले भी इस बात पर बल देते रहे हैं और आज भी इसे दुहराना उचित होगा कि भारत जिस नवउदारवादी राह पर चल रहा है, उससे एक बहुत बड़े तबके में जन्म लेते असंतोष को शासक वर्गों की ओर लक्षित होने से रोकने का उपाय ‘बाँटो और राज करो’ के सूत्र में ही छिपा है। वस्तुतः ‘बँटोगे तो कटोगे’ के नारे का निहित संबोध्य अगर हिंदू समुदाय न होकर देश की आम जनता हो, जिसे हिंदू-मुस्लिम में बाँटने का खेल आरएसएस-भाजपा ने खेला है, तो यह नारा बिल्कुल दुरुस्त होगा, और तब कटने का मतलब नवउदारवादी गिलोटिन के नीचे आम मेहनतकश के कटने से होगा। बड़ी पूँजी को इस देश में आरएसएस-भाजपा अपनी ज़रूरत के लिए सबसे उपयुक्त राजनीतिक शक्ति प्रतीत होती है तो यह अकारण नहीं है। पिछली रिपोर्ट में भी इस बात पर बल दिया गया था कि हमारा समय ‘फ़ासीवादी हिंदुत्व और नवउदारवाद के ज़हरीले गठजोड़’ का समय है, ‘जहाँ हिंदुत्व, नवउदारवाद के असमाधेय गतिरोध और उससे पैदा होनेवाले असंतोष से निपटने के लिए जनता का ध्यान भटकाने वाले एक उद्धारक की भूमिका निभाता है, और नवउदारवादी ताक़तें वित्तपोषण एवं अन्य उपायों से उस फ़ासीवादी हिंदुत्व का सत्ता में बने रहना सुनिश्चित करती हैं।’ सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के सर्वे के अनुसार, सितंबर 2024 में भारत में बेरोज़गारी दर बढ़ते हुए 9.2% पर पहुँच चुकी थी। सरकारी आँकड़े बेरोज़गारी दर घटने का दावा करते हैं तो उसका कारण है कि भाजपा सरकार ने बेरोज़गारी की पहले से चली आती परिभाषा को ही बदल दिया है। अब पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे में, जो कि सरकारी है, उन लोगों को भी रोज़गार-शुदा माना जाता है जो बिना किसी पारिश्रमिक के खेती के काम में अल्पकालिक योगदान करते हैं। सच्चाई यह है कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी और बड़ी पूँजी का हित साधने वाली नीतियों तक, सबने इस देश के असंगठित क्षेत्र को बहुत नुकसान पहुँचाया है और यही वह सेक्टर था जो 94% कामगारों को नौकरी देता रहा है। इस श्रम-गहन क्षेत्र की क़ीमत पर जिस पूँजी-गहन क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया, वह अधिक रोज़गार पैदा नहीं कर सकता। साथ ही, मनरेगा भी सरकार की प्राथमिकता पर नहीं है। इसीलिए बेरोज़गारी, ग़रीबी और ग़ैर-बराबरी लगातार बढ़ रही हैं। ऐसे में उपाय है, असंतोष को हिंदू-मुस्लिम झगड़े की दिशा में मोड़ देना और लोगों को यह समझाना कि दूसरी पार्टी वाले सत्ता में आये तो तुम्हारे दरवाज़े पर बँधी भैंस और बीवी के गले में पड़े मंगलसूत्र से लेकर निर्माण-कार्यों के ठेके तक मुसलमानों को दे देंगे।
लेकिन यह मान लेना कि आरएसएस-भाजपा सिर्फ़ असंतोष को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए यह झगड़ा खड़ा करते हैं, स्थिति का बिल्कुल ग़लत आकलन होगा। असंतोष का दूसरी दिशा में मोड़ा जाना वस्तुतः बड़ी पूँजी की ज़रूरत है, हिंदुत्व जिसका साधन बनता है। आरएसएस-भाजपा का असल विचारधारात्मक मक़सद तो आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों को आधार बनाकर तैयार किये गये भारतीय संविधान को बदल डालना और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना है। बड़ी पूँजी उसके इस ग़ैर-लोकतांत्रिक, धुर दक्षिणपंथी और फूटपरस्त रवैये को अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल पाती है। यही इस गठजोड़ की बुनियाद है।
कोई वजह नहीं कि ऐसा गठजोड़ अपने नवउदारवादी तथा हिंदू-राष्ट्रवादी लक्ष्यों के रास्ते में बाधा बनने वाले आलोचनात्मक सोच और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बर्दाश्त करे। लेखक-संस्कृतिकर्मी के रूप में आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है। पिछले सालों में कितने बुद्धिजीवी मनगढ़ंत आरोपों के आधार पर पकड़े गये और सालों-साल बिना चार्जशीट दाख़िल किये उन्हें सलाखों के पीछे रखा गया, कैसे पेगासस जैसे सॉफ़्टवेयर का ग़ैर-क़ानूनी इस्तेमाल करके लेखकों-पत्रकारों पर निगरानी रखी गयी, हम जानते हैं।
हिंदी लेखन की दुनिया में आलोचनात्मक आवाज़ों के किसी हद तक मंद पड़ने के पीछे इन घटनाओं का ‘चिलिंग इफ़ेक्ट’ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं, हालाँकि एक अच्छी संख्या ऐसे लेखकों की है जो ऐसी घटनाओं के कारण ‘ठंडे’ नहीं पड़े हैं और विश्लेषणात्मक से लेकर व्यंग्यात्मक तक, हर तरह का व्यवस्था-विरोधी लेखन, सीमित माध्यमों में ही सही, सामने आ रहा है। इनसे परे, जिन लेखकों के यहाँ वर्तमान यथार्थ की कोई झलक नहीं मिलती, वे कितना सरकारी दमन के भय से संचालित हैं और कितना किसी लाभ से वंचित रह जाने के भय से, कहना मुश्किल है, क्योंकि सोशल मीडिया पर लेखकों की बहुसंख्या जिस तरह के मुद्दों को लेकर दुर-दुर-बिल-बिल के खेल में उलझी रहती है, उससे तो यही पता चलता है कि उनकी चिंताएँ और प्राथमिकताएँ ही बिल्कुल अलग तरह की हैं और उनमें समय-समाज का कोई स्थान नहीं है। इसके साथ-साथ, ऐसे लेखकों की संख्या में भी इज़ाफ़ा हुआ है जिनके यहाँ मोदी सरकार के साथ मौन या मुखर सहमति दिखती है, या कम-से-कम जिन्हें मोदी-समर्थकों से कोई दिक्क़त नहीं है। क्या यह स्थिति हिंदी की दुनिया में प्रगतिशीलता-जनवाद के मूल्यों की व्यापक स्वीकार्यता के ख़त्म हो जाने की सूचना है?
ध्यान रखें कि यहाँ मूल्यों की बात की जा रही है, संगठन की नहीं। संगठनों के अपेक्षाकृत कमज़ोर पड़ने का सिलसिला तो पीछे से चला आ रहा है और पिछली रिपोर्ट में हमने प्रतिरोध की संस्कृति के क्षरण को लेकर जो बातें कही थीं, उन्हें इस प्रसंग में दुहराना अनुचित न होगा: ‘लेखक समाज में ऐटॉमाईज़ेशन या अलग-थलग रहने की प्रक्रिया, अपने ऐतिहासिक कारणों से, काफ़ी समय से चली आ रही है जिसका सीधा लाभ मौजूदा दमनकारी निज़ाम को मिलता दिखाई देता है। लेखन के स्तर पर लोग जो भी करें, अभिव्यक्ति और मानवाधिकारों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ किसी सामूहिक कार्यवाही का हिस्सा बनने से या तो बचते हैं या उसे बेमानी समझते हैं।… कुल मिलाकर, साहित्य की दुनिया में वैचारिक आबोहवा सांगठनिकता के ख़िलाफ़ है। इस आबोहवा में लेखक आम तौर पर संगठित होने के बारे में सोचने की भी ज़हमत नहीं उठाता। यह मुद्दा उसकी कार्यसूची में है ही नहीं। इसीलिए संगठित होने की बात कभी औचक सामने आ जाये तो वह अदबदाकर ऐसे तर्कों का सहारा लेता है जो कहीं से भी तथ्य-समर्थित नहीं हैं; मसलन, “इससे लेखक के रूप में हमारी स्वतंत्रता बाधित होती है” या “संगठनों पर निहित स्वार्थों का क़ब्ज़ा है”। तर्क यह भी आता है कि “संगठन नाकारा हो गये हैं”। इस पर काफ़ी बात हो सकती है, लेकिन फ़िलहाल इतना ही कि क्या उस कथित नाकारेपन के पीछे वह लेखक अपनी भी कोई भूमिका देखता है? क्या जो लोग संगठनों के किसी भी आह्वान पर घर से बाहर नहीं निकलते, उन्हें संगठनों का कोई प्रभावी हस्तक्षेप न हो पाने का कारण अलग से बताना पड़ेगा?… सांगठनिकता के प्रति एक आम उपेक्षा और सरकार तथा व्यवस्था की आलोचना करते हुए भी उसे किसी तरह की गतिविधि में अनूदित करने के प्रति अरुचि का परिणाम यह हुआ है कि साहित्यिक हल्के में बड़े आयोजनों के नाम पर साहित्योत्सवों का दौर-दौरा है। समय की इस भयावहता की ओर पीठ किये एक अकारण उत्सवधर्मी माहौल तैयार हुआ है और उसका दबाव ऐसा है कि अपने समय की गंभीर चिंता से प्रेरित सत्रों वाले आयोजन भी अपने को ‘साहित्योत्सव’ कहने पर बाध्य हैं। साहित्योत्सवों की विकासयात्रा, राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र पर अभी तक कोई गंभीर काम नहीं हुआ है। हमें यह काम अपने हाथ में लेना चाहिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के इस परिघटना को समझने की कोशिश करनी चाहिए।’
पिछली रिपोर्ट में इस ज़रूरत को रेखांकित करने के बावजूद हमने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। फरवरी 2023 की कार्यकारिणी बैठक में इस संबंध में एक ड्राफ्ट पर काम करने का आग्रह साथी संदीप मील और साथी शुभा से किया गया था। उसके बाद यह काम हम सभी के ध्यान से उतरा रहा। हमें आज की बैठक में दुबारा इस संबंध में कोई फ़ैसला लेना चाहिए।
[बैठक में यह मसला आने पर हमारी ओर से एक पोज़िशन पेपर का मसौदा तैयार करने की ज़िम्मेदारी साथी संदीप मील और साथी शुभा को दी गयी। इसके साथ इस बात पर मोटे तौर पर सभी साथियों ने सहमति व्यक्त की कि जब तक किसी कार्यक्रम में लेखक की भागीदारी सांप्रदायिक फासीवाद के साथ उसके समझौते का असंदिग्ध साक्ष्य न हो, बतौर संगठन लेखक की भागीदारी पर बंदिश लगाना हमारी नीति नहीं है, लेकिन हम यह अवश्य मानते हैं कि कॉर्पोरेट पूँजी से चलने वाले जिन कार्यक्रमों से आरएसएस-भाजपा और उनसे संबद्ध संगठनों को फायदा होता है, वैधता मिलती है, साहित्य-संस्कृति के संसार में सम्मानजनक प्रवेश मिलता है, ऐसे सभी कार्यक्रमों का लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को बहिष्कार करना चाहिए। प्रगतिशील आंदोलन की विरासत से अपने को जोड़ने वाले संगठनों के सदस्य लेखकों की तो यह प्राथमिक ज़िम्मेदारी बनती है।]
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जनवादी लेखक संघ केंद्र की सक्रियता इस अवधि में बहुत सीमित रही। हमने कोई हस्तक्षेपकारी आयोजन नहीं किया। ‘हम देखेंगे’ के नाम से 2020 से जो साझा मंच जलेस, जसम और दलेस की पहल पर चला आ रहा है, वह भी इस बीच अनेक कारणों से बड़े आयोजनों की दिशा में सक्रिय नहीं हो पाया। अलबत्ता, इस साझा मंच की ओर से साथी बजरंग की पहल पर घरेलू बैठक योजना की शुरुआत हुई जिसकी अनेक कड़ियाँ 2024 में आयोजित हो चुकी हैं। भगत सिंह के जन्म दिन (28 सितंबर) से शुरू होकर महात्मा गाँधी की शहादत के दिन (30 जनवरी) तक इप्टा की पहल पर अनेक राज्यों से होकर जो ‘ढाई आखर प्रेम’ नामक यात्रा निकली, उसमें जलेस एक सहयोगी संगठन के रूप में शामिल रहा और अनेक राज्यों में हमारी इकाइयों ने उसमें सक्रिय हिस्सेदारी की। दिल्ली में इस यात्रा का आख़िरी पड़ाव 26-30 जनवरी को था जिसमें हमारी, कमज़ोर ही सही, भागीदारी रही। इसके अलावा हमने 12 मार्च को सुदर्शन गमरे की फिल्म ‘हिमोलिम्फ’ की स्क्रीनिंग और उस पर परिचर्चा का आयोजन किया। दलेस के साथ मिलकर मई में जगदीश पंकज के नवगीत संग्रह पर और 8 जून को चंचल चौहान की किताब ‘साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र’ पर चर्चा रखी गयी। 17 जुलाई को कांतिमोहन स्मृति सभा का आयोजन किया गया।
पिछले दिसम्बर महीने से अब तक हमने शोक-संदेशों समेत कुल 11 प्रेस बयान जारी किये।
प्रेस बयान और सभा-संगोष्ठी, दोनों दृष्टियों से हमारा काम बहुत असंतोषजनक कहा जायेगा। अपने काम को लेकर थोड़ा संतोष हम सिर्फ़ इस बात से अर्जित कर सकते हैं कि इस अवधि में हमने ‘नया पथ’ के ऑनलाइन अवतार को कारगर बनाने का प्रयास किया। 20 जनवरी से ऑनलाइन नया पथ की शुरुआत करके हमने 12 कवियों की कविताओं, 6 कहानियों, 18 सामयिक लेखों, 8 सिनेमा संबंधी लेखों, 9 आलोचनात्मक लेखों (अस्मिता वाली श्रेणी में आये 4 लेखों समेत), 14 रपटों, 10 पुस्तक समीक्षाओं, कला संबंधी 2 लेख और उर्दू की सामग्री समेत कुल 92 सामग्रियाँ अपलोड की हैं। जिन 17 पोस्ट्स के साथ नया पथ की शुरुआत की गयी थी, उनमें से 4 नयी और शेष पूर्वप्रकाशित थीं। बाद की 75 पोस्ट्स में से हम 5 की संख्या घटा सकते हैं क्योंकि 5 लेख दो-दो श्रेणियों में अपलोड किये गये हैं। इस तरह जो 70 पोस्ट्स बचती हैं, उनमें से 3 कहानियों और दो-तीन आलेखों को छोड़कर ज़्यादातर सामग्री पहली बार प्रकाशित हुई हैं।
लंबी रिपोर्ट है। इसे उप शीर्षकों में विभाजित करने प्रकाशित करना चाहिए था!
यह सुझाव है!