सुभाष राय की किताब ‘अक्क महादेवी’ की यह छोटी और सघन समीक्षा डॉ. रूपा सिंह ने की है जिन्हें हम उनकी कहानियों की वजह से पहचानते हैं। वे अलवर में हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं।

‘केवल मस्तिष्क ही एक ऐसी सत्ता है जो अपने भीतर किसी नर्क को स्वर्ग और स्वर्ग को नर्क बना सकता है।’ (The mind is its own place, and in itself can make a Heaven of Hell , a Hell of Heaven). – जॉन मिल्टन
भारत अनादिकाल से ही एक विशिष्ट आध्यात्मिक क्षेत्र रहा है। विभिन्न धर्मों एवं दर्शनों के उदय एवं विकास के साथ ही अपनी-अपनी परंपरा तथा विधि-विधान के अनुसार परम तत्व की प्राप्ति हेतु साधना करने वालों की संख्या अनगिनत रही है। सुमन राजे ने इसे नवजागरण के रूप में लिया और लिखा कि ‘परम तत्व की प्राप्ति में जो विदुषी स्त्रियां सामने निकल कर आयीं वे सबकी सब प्रेम, भक्ति और कवित्व की प्रचुरता लिये अपनी स्वतंत्रता और सामर्थ्य की तलाश से जा जुड़ीं। चाहे थेरी स्त्रियां हों, तमिल की आण्डाल हों, कन्नड़ की अक्क महादेवी हों, चंद्रावती हों या महाराष्ट्र की बहिनबाई हों। ये सभी परम बुद्धिमती, रहस्य से भरी और अतुलनीय संदर स्त्रियां थीं।
समाज के जिस विधान ने स्त्री को केवल देह-रूप में जाना, प्रायः इन सभी स्त्रियों ने देह के इस मानक को अपने तईं तोड़ा। जिस देह लिप्सा के लिए उन्हें दिन-रात प्रताड़ित किया गया, अपमान, तिरस्कार, जूठन और गालियां झोली में भरी गयीं, उस देह के प्रति दूसरों की गंदी वासनाओं से जूझती स्त्री ही फिर गणिका भी बनाई गई। जिस समाज में स्त्री या तो पिता या पति या पुत्र के अधीन है, विवाहित स्वरूप में ही किंचित् सम्मान की पात्र है, उस समाज में ‘देह रूपी मकान की खिड़कियां व दरवाजे बंद करने के सिवा विकल्प ही क्या है?’ जब वह वेश्या है तब भी संरचना के अधीन है या विवाहिता अपनी देह की मालकिन नहीं है। आम्रपाली ने नश्वर देह की प्रेमरहित खिंचाई देख ली थी। वह संघ को समर्पित हुई। देह की यह विरक्ति उसके लिए नई घटना नहीं। विदेह रहने का प्रशिक्षण उनका बहुत पुराना है।
‘ग्लोरिया स्टायनेम’ लिखती हैं:
‘प्रायः सभी तेजस्वी स्त्रियों ने इस बात को समझा कि शक्ति का केन्द्र इनके भीतर होने के अतिरिक्त और कहीं नहीं। यदि अयोग्यता की भावना हमारे शरीर में जमी हुई है, तो आत्मसम्मान की शुरूआत भी शरीर से ही करनी होगी।’
थेरियों ने अपनी देह को केन्द्र में रखा और उससे ऊपर उठने का संघर्ष किया। स्वयं बुद्ध ने कहा-‘स्त्री होना दुख है।’ अर्थात् सेक्स की बात नहीं है, यह जेण्डर की बात है। मीरां ने अपनी जेण्डर-पहचान के साथ ही विद्रोह किया। उस बुद्धिमती ने कृष्ण को अपना पति चुन लिया और अहंकारी पितृसत्ता को उसी के मोहरे से पीटती, स्वयं को अबला और पगलिया घोषित कर स्वतंत्रता के स्वाद में मग्न नाचती फिरी। आण्डाल ने कृष्ण के प्रेम में अपने रूप और यौवन की सचेतनता बरकरार रखी और एक से एक सघन ऐन्द्रिय बोध वाली कविताओं की रचना की। उन्हें और उनके पदों को पर्याप्त सम्मान प्राप्त हुआ क्योंकि उस विदुषी के यहां पंचतत्वों के खेल को समझने का कौशल था। अपनी मेधा से उसने अपने सारे तापों को तेजस वाणी प्रदान की। कश्मीर की ललद्यद हालांक प्रत्यभिज्ञादर्शन की गूढ़ ज्ञाता थीं, फिर भी उन्होंने अपना रास्ता स्वयं चुना। यह रास्ता भक्ति और धर्म की ओर जाने वाला रास्ता नहीं था जबकि आवरण या आड़ वही था।
‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ पुस्तक में दिगंबर का अर्थ है- आकाशवस्त्रधारी और विद्रोहिणी, वह जिसका अंबर दिशाओं को सिद्ध करे। जो न तो कोई वस्त्र धारण करे और न ही पहनने के पारंपरिक अभ्यास को स्वीकारे। सुभाष राय द्वारा लिखित यह गहन शोधपरक पुस्तक दक्षिण और उत्तर में भक्ति आंदोलन तथा बाहर से भीतर की यात्रा को तत्पर तेजस्विनी स्त्रियों की कथा कहती है जिसमें अक्क महादेवी के माध्यम से समकालीन स्त्री-विमर्श की पट्टिका भी अनावृत हुई है। किंवदन्ती के अनुसार, बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक की अपूर्व सुंदरी शैव महादेवी, जिसने शिव के रूप मल्लिकार्जुन को अपना प्रेमी मान लिया, के साथ एक जैन राजा कासपाटया (कौशिक) ने अनुरक्त होकर ज़बरदस्ती विवाह रचाया। सौन्दर्य और यौवन को लूट लेने की हिंसा, तिसपर अपना मालिकाना हक, पूजा अर्चना करती स्त्री को वासना वशीभूत वस्त्रहीन करता गया उसका स्वामी। अपनी शर्तों के खंडन, आराध्य-पूजा में विघ्न और अपने इस अनादर से अवसन्न वह आत्मस्वाभिमानिनी निकल पड़ी ज्यों की त्यों बाहर। अपने खुले बालों में किसी तरह अपनी नग्नता छुपाये वह अनिंद्य सुंदरी विक्षोभ और अपमान से पीड़ित निकल आई बाहर। ‘आवरण एक छिलका है, नग्नता और काया भी छिलका है’ – यह सब उसके स्त्री अनुभव में कितने गहरे संताप के बाद आया होगा या दिगंबर, अर्थात् आकाश को ओढ़ा-बिछाया जा सकता है, यह जानने से पहले कितने ईंट, पत्थर, लोलुप वासनायें उन पर टूट पड़ी होंगी, अनुमान लगाना भी कठिन है। पीड़ाओं की अधिकता में वह पीड़ा के मूल कारण से ही ऊपर उठ गईं। तमाम जेण्डर संरचनाओं को सिरे से नकारती हुई उसने अपने प्राप्त जेण्डर को भी अस्वीकार कर दिया। जेण्डर-मुक्त हो गयीं वह।
हिन्दी में पहली बार समकालीन स्त्री विमर्श के बरक्स सुभाष राय ने ऐसी पुस्तक तैयार की है जो अक्क महादेवी के माध्यम से उस साहसी व्यक्तित्व की कथा प्रस्तुत करती है जो पहली बार स्त्री होने के दायरे को अस्वीकार करती सत्य की खोज में सतत बढ़ती चली जाती है। यह खोज अपने भीतर सबकी खोज है। दरअसल, यह खोज स्थापित परंपराओं के प्रति एक अस्वीकार भी है और इस अर्थ में यह एक तरह का सामाजिक विद्रोह भी है। यही बुद्ध ने किया था, गोरख ने भी और कबीर ने भी। भक्ति की यह सामाजिकता अक्क महादेवी को एक ‘विद्रोहिणी’ की तरह प्रस्तुत करने का आधार देती है।
सुभाष राय ने पुस्तक की आरंभिक पंक्तियों में पुस्तक के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जिन्हें समर्पित किया है, उन्हें देखना महत्वपूर्ण है – ‘दुनिया भर के सामाजिक बदलाव और स्त्रियों के अधिकारों के लिये लड़ने वाले अनगिनत क्रांति योद्धाओं के लिए।’
निश्चय ही, अक्क महादेवी का संघर्ष उन समस्त स्त्रियों का संघर्ष है जिन्हें स्वाधीनता और सामर्थ्य की तलाश है, जो अपने आपको छिपाती हुई अपने में अपने को खोजती हैं। पूरी पुस्तक बाहर से भीतर की ओर ले जाने वाली ऐसी महायात्रा है जो साहस और निडरता के साथ तमाम सैक्सुअल पॉलिटिक्स को ख़ारिज करती अनवरत आगे बढ़ते व्यक्तित्व-विकास की कल्याण-यात्रा में तब्दील हो जाती है।
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(‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’, लेखक – सुभाष राय, सेतु प्रकाशन, दिल्ली)






