आदिवासी समस्याओं को न समझने की, लगता है, भारतीय शासक दल क़सम खा चुका है। औपनेवेशिक अंगरेज-शासकों द्वारा दिये गये प्रशिक्षण, ज्ञान व अनुभव से मुक्त होकर आदिवासियों को बहुत कम लोग देख सके हैं। —महादेव टोप्पो का लेख :
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जब देश आज़ाद हुआ तो खूनी बंटवारे के बावजूद कई लोग खुश थे कि अंगरेजी शासकों के जुल्मों से मुक्ति मिली। अब अपनी सरकार होगी, शासन में देश के लोग होंगे। अन्य देशवासियों की तरह आदिवासियों ने भी सोचा, अंगरेजों के जाने से बिरसा मुण्डा का ‘अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ (हमारा देश, हमारा राज) आयेगा। लेकिन भारतीय राजनीति एवं बौद्धिक जगत के पास वह दृष्टि, संवेदनशीलता और इच्छा-शक्ति नहीं थी कि आदिवासियों को सच्चे दिल से आगे बढ़ाने के लिए संवैधानिक प्रावधानों को लागू करते। वह इसलिए कि तत्कालीन समस्त भारतीय प्रशासनिक ढांचा और बौद्धिक वर्ग यूरोपीय साम्राज्यवादियों द्वारा विकसित बौद्धिक सांचे एवं संस्कारों के आगे नतमस्तक था। भारतीय समाज तब तक मैकाले की शिक्षा-नीति की चपेट में आकर अंगरेज जैसा बनने की दिशा में कई क़दम आगे बढ़ चुका था। उन्हें अंगरेजों से प्राप्त यूरोपीय गोरी-श्रेष्ठता के शिक्षा-संस्कार, आदर्श, लक्ष्य, अनुशासन और दृष्टि मिल गयी थी। वे उन्हीं सिद्धान्तों, नीतियों, दृष्टियों, आदर्शों और ज्ञान के आलोक में भारत को देख, समझ और गुन रहे थे। उन्हें और उनके नक़्शेक़दम पर बड़े भारतीय समुदाय को ये आदिवासी नंग-धड़ंग, अशिक्षित, गंवार, कुपोषित, जंगली और भोले-भाले ही लगे। उन्हें चुनौती दे सकने की क्षमता यदि किसी भारतीय बुद्धिजीवी में थी तो कुछ हद तक ग्राम-स्वराज्य की संकल्पना देनेवाले गांधी में। औपनेवेशिक शिक्षा-संस्कारों में दीक्षित, पोषित बुद्धिजीवी साम्राज्यवादी लक्ष्यों को ही बढ़ाने में अपना योगदान दे रहा थे। फिर चाहे वह नेहरू की पूरी मंडली हो या आदिवासियों के बीच काम करनेवाले ठक्कर बप्पा जैसे समाज-सेवी नेता। वैसे हमें एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आदिवासी समस्याओं को समझने के लिए अमेरिका, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, रूस तथा साम्राज्यवादियों की चपेट में आये अन्य आदिवासी प्रभावित देशों की परिस्थितियों को देखने से भारत के आदिवासियों को समझने में ज़्यादा सहूलियत होती है। साथ ही, समस्याओं और परिस्थितियों को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में आदिवासी प्रश्न पर सबसे पहले झारखंड के जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व तथा उनकी गतिविधियों की चर्चा करना लाज़िमी है। वे आदिवासियों के लिए नये राज्य के गठन को लेकर आंदोलनरत थे, उनके सपनों के लिए संघर्षरत थे। सपना था आशाओं का, नये जीवन का, अपनी तरक्की का, शांति, समृद्धि और खुशहाली का। तब तक पंचवर्षीय योजना लागू नहीं हुई थी, शायद इसीलिए ‘विकास’ कहीं उनींदा, दुबका पड़ा था। लेकिन, तब संविधान सभा की बैठकों में आदिवासी मुद्दों पर जयपाल सिंह प्रधान मंत्री नेहरू से लेकर अंबेडकर, पटेल आदि अनेक दिग्गज कांग्रेसी नेताओं से अपनी ऑक्सफोर्ड-शिक्षित अंगरेजी में बहस किया करते थे। कई बार उनके सवालों का कोई उत्तर भारत सरकार के प्रतिनिधियों के पास नहीं होता था। लेकिन वे जयपाल को आश्वस्त करते रहते थे कि आदिवासियों के लिए संविधान में जो भी प्रावधान किये जा रहे हैं, उनके भले के लिए किये जा रहे है। जयपाल कई बार उनके उत्तर से सहमत नहीं होते लेकिन बहुमत का ध्यान रख उन्हें चुप हो जाना पड़ता था। आदिवासियों के लिए कौन-सी भाषाएं हों, इसके लिए भी संविधान सभा में गोंडी, मुंडारी और कुंड़ुख के पक्ष में बहस कर चुके थे। जयपाल सिंह ने दामोदर घाटी निगम के निर्माण से आदिवासियों के विस्थापन पर, एवं इनके धर्म-स्थल सरना, जाहेर आदि के संदर्भ में आध्यात्मिक-पुनर्स्थापना कैसे की जाये जैसे गंभीर सवालों पर बहस की और सदस्यों को समझाना चाहा। दुर्भाग्य कि नेहरू, पटेल, अंबेडकर आदि ने तब न उनके सुझावों को माना और न ही कभी इस समस्या को समझने कोशिश की। और अब आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हम पाते हैं कि आदिवासी अपने हक़ के लिए उसी तरह संघर्षरत हैं जैसे वे आज़ादी के डेढ़ सौ साल पहले संघर्ष कर रहे थे। वे उन्हीं समस्याओं, मुद्दों को उठा रहे हैं जिनकी तब भी उपेक्षा की गयी थी। आदिवासी समस्याएं तब नहीं सुनी गयीं और आज भी बहुत कम ही सुनी जाती हैं। हालांकि उनके लिए अंगरेज अनेक क़ानून आदि बना चुके थे। फिर संविधान बनने पर उन्हें नौकरी, चुनाव में लड़ने आदि के लिए आरक्षण की सुविधा दी गयी। संविधान में उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने तथा उनके हित और सुरक्षा के लिए कई धाराएं, उपधाराएं बनायी गयीं। दुख का विषय है कि धरातल पर ये क्रियान्वित नहीं की गयीं। फलतः कहीं भी आदिवासियों के लिए कोई काम होता बहुत कम दिखता है। यही कारण है कि जयपाल सिंह पहले आम चुनाव के लिए झारखंड पार्टी को एकजुट और सशक्त करने में लग गये, ताकि अपने आदिवासी भाई-बहनों की प्रगति में कुछ योगदान कर सकें। चुनाव के बाद, बत्तीस सीटों में जीत के साथ बिहार विधान सभा के प्रमुख विपक्षी दल के नेता के रूप में उभरे। लेकिन बाद में तीसरा आम चुनाव आने तक वे पार्टी को संभाल नहीं सके और झारखंड पार्टी का 1963 ई. में कांग्रेस में विलय हो गया।
दूसरी ओर, हर राज्य की राजनीतिक शक्तियों ने आदिवासियों का अपने राज्य की स्थानीय भाषा, संस्कृति, इतिहास में विलय कर उनकी पहचान को राज्य के बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा बनाने का प्रयास किया है। इसे हम आदिवासियों के अखिल भारतीय स्तर पर हो रहे भारतीयकरण का स्थानीय राज्य-संस्करण कह सकते हैं; जैसे आदिवासियों का बंगालीकरण, ओड़ियाकरण, गुजरातीकरण, तेलुगूकरण आदि। राज्य की बड़ी सांस्कृतिक पहचान से जोड़कर उनकी विशिष्टता को उपेक्षित और उनकी वृहत जातीय पहचान को राज्य की सीमा में सीमित किया जाता रहा है। फलतः एक ही समुदाय के आदिवासी राज्य की नीतियों से प्रभावित होकर भाषा, संस्कृति, लिपि और इतिहास के नाम पर बंट जाते हैं; जैसे, संताल समुदाय अपनी लिपि ओलचिकी के साथ बंगाल में बंगला, झारखंड में देवनागरी, ओड़िसा में उड़िया और असम में असमिया लिपि का भी प्रयोग करता है। यही बात अन्य भाषाओं—खड़िया, मुण्डा, हो, कुंड़ुख, गोंड, भील आदि के साथ लागू हो सकती है।
आदिवासी समस्याओं को न समझने की, लगता है, भारतीय शासक दल क़सम खा चुका है। औपनेवेशिक अंगरेज-शासकों द्वारा दिये गये प्रशिक्षण, ज्ञान व अनुभव से मुक्त होकर आदिवासियों को बहुत कम लोग देख सके हैं। यही कारण है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के कुछ महीनों बाद ही 1 जनवरी 1948 को खरसावां में गोलीकांड में, प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, सैकड़ों की संख्या में आदिवासी मारे गये, जिसे कुछ अख़बार 25 से 40 की संख्या बताते हैं। खरसावां को उड़ीसा अपने राज्य में शामिल करना चाहता था जबकि स्थानीय जनता तत्कालीन बिहार राज्य में रहना चाहती थी। तब स्वतंत्र भारत में इतनी बड़ी संख्या में आदिवासियों का मारा जाना पहली घटना थी। कुछ वर्षों से इस घटना को याद करते हुए आदिवासी नववर्ष की बधाई या शुभकामनाएं नहीं देते। इसी तरह एक दूसरी घटना है। बस्तर के राजा प्रवीर चंद भंजदेव आदिवासी हितैषी माने जाते थे। जब 1957 में वे जबलपुर से चुनाव जीतकर विजयी हुए, तब से उन्होंने आदिवासियों के जंगल, ज़मीन की रक्षा तथा शिक्षा और रोज़गार के लिए लगातार आवाज उठायी। वे सरकार की आदिवासी-विरोधी गतिविधियों का विरोध करते थे, जिससे सरकार और प्रशासन की उनसे नाराजगी रहती थी। बस्तर में 25 मार्च 1966 को कुछ कैदियों को जेल ले जाते समय पुलिस की झड़प आदिवासियों से हुई। आदिवासी भागकर राजा प्रवीर चंद भंजदेव के महल में घुस गये। पुलिस ने आत्मसमर्पण को कहा। पहले बच्चे और औरतें निकलीं। लेकिन उन्हें गोली मार दी गयी। इसके बाद महल को घेरकर कई आदिवासियों को गोली मारी गयी। राजा को भी आदिवासियों के समर्थन की क़ीमत शरीर पर 25 गोलियां झेलकर चुकानी पड़ी। ऐसा लगता है, आज भी सरकारें मुख़ालफ़त करनेवाले आदिवासी नेतृत्व को इसी तरह से नेस्तनाबूद कर देना चाहती हैं। तब से लेकर आज तक देश भर में कहीं न कहीं विभिन्न कारणों से आदिवासियों की हत्याएं होती रही हैं।
प्रथम पंचवर्षीय योजना के बाद बड़े डैम, नदी-घाटी परियोजना तथा कल-कारख़ाने बनाने, अभयारण्य आदि बनाने के लिए आदिवासियों की ज़मीनें अधिगृहीत की गयीं। कहीं मुआवज़े दिये गये, कहीं नौकरी के वादे किये गये, लेकिन आदिवासियों से किये गये वादे या उनके हित में बने नियम क़ानूनों के अनुकूल काम नहीं हुए। उनकी ज़मीनें छिन गयीं। जो कल तक अपनी ज़मीन के मालिक थे, नौकर बना दिये गये। कहीं तो नकली विस्थापितों को नौकरी मिल गयी। रांची का उदाहरण सामने है। जिस एचईसी का उद्घाटन नेहरू ने किया, आज बीमार अवस्था में है। आदिवासियों से ज़रूरत से ज़्यादा ख़रीदी गयीं ज़मीनें आज ऊंचे दामों पर बेची जा रही हैं या लीज़ पर दी जा रही हैं। जिस आदिवासी ने ज़मीन बेची, वह आज भीख मांगने को, मज़दूरी करने को मजबूर है। बाहर से आया परदेशी उस ज़मीन का मालिक है। ऊपर से ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल, पुल, छोटे बांध, चिकित्सालय, सामुदायिक भवन या अन्य योजनाओं के तहत हुए अधूरे निर्माण कार्यों ने आदिवासियों के मन में हताशा भर दी है।
लेकिन इस बीच कुछ लोग थे जो अपनी अदिवासी-शैली के अनकूल जीवन जीना चाहते थे। सन् 1950 के आस-पास कांके रांची का धुमकुड़िया स्कूल अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए जाना जाने लगा। संताली भाषा के लिए ओलचिकि (लिपि) के आविष्कारक रघुनाथ मुर्मू को धुमकुड़िया शिक्षा संस्थान, कांके रांची द्वारा सम्मानित कर डी.लिट की उपाधि दी गयी थी। वहां के शिक्षक जुलियस तिग्गा द्वारा प्रशिक्षित नृत्य-दलों को छब्बीस जनवरी के कार्यक्रमों में प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त हुए। यह आदिवासियों के लिए एक बड़ी सम्मानजक सफलता और उपलब्धि थी। यहां से आदिवासी समाज अपनी एकजुटता को बढ़ाकर एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर सकता था। लेकिन बाद में शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विकास का एक सार्थक विकसित होता मॉडल राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता आदि का शिकार बना दिया गया। इस तरह एक सशक्त स्वदेशी आदिवासी-शिक्षा-प्रणाली और सांस्कृतिक-जुड़ाव और एकजुट-शक्ति का असमय अंत हो गया। ध्यान देने की बात है कि द्वितीय महायुद्ध के बाद 1950 के आस-पास से अफ्रीकी भाषा, संस्कृति आदि को लेकर जागृति आती दिखती है, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से गोंडवाना सभा गोंडी धर्म की मांग कर रहा था और जयपाल सिंह संविधान सभा में आदिवासी अधिकारों के लिए बहस कर रहे थे। दूसरी तरफ़ विश्व भर के कई अल्पविकसित, अविकसित कहे जाने वाले देश साम्राज्यवादियों, उपनिवेशवादियों और उनकी सहयोगी संस्थाओं द्वारा, उनके स्थापित मूल्यों, सिद्धांतों, मापदंडों के नीचे दब गये थे। भारत में तब गांधी जी के ग्राम स्वराज्य की अनदेखी कर विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया और आज भी देश उसी का अनुकरण कर रहा है। यहां भी हम पूंजीवादी यूरोपीय, अमेरिकी मॉडल को अपना रहे हैं जो कि हमेशा आदिवासी-विरोधी रहा है। विदेश हो या भारत, अंगरेजों ने आदिवासियों के साथ किये समझौतों, संधियों में अपने हित, लाभ को ज़्यादा सुरक्षित रखा। स्वतंत्र भारत में भी बोडो, नगा, मिजो, झारखंड संबंधी अधिकांश समझौतों के कई मुद्दों को शाब्दिक भूलभुलैया में या विभिन्न नेताओं, गुटों के बीच भटका दिया गया। फलतः, आदिवासी को उसके जीवन में न अपना अधिकार मिलता है और न कहीं राहत मिलती दिखती है। ऐसा लगता है सभी लोग, आदिवासियों के जीवन में कांटे बोने, गड्ढे खोदने, छल करने और इनके जीवन को कठिन, जटिल तथा शोषण, अन्याय, भेदभाव, उपेक्षा, अपमान, हत्या से भरपूर बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। भारत में अपनी ज़मीन से विस्थापन, कई जगह जबरन विस्थापन तथा सरकारी, ग़ैर-सरकारी शक्तियों द्वारा उन्हें खलनायक सिद्ध करने के काम होते रहे। भारत में अंततः जिन्हें भोला-भाला आदिवासी कहा जाता है, वह बंदूक उठाकर नक्सली बनने के लिए बाध्य कर दिया गया और सैनिक या अर्द्धसैनिक बलों को आदिवासी इलाक़ों में भेज दिया गया। फिर सलवा जुडुम से लेकर ग्रीन हंट जैसे खूनी नरसंहार कर भारतीय सरकारें भी अपने साम्राज्यवादी अंगरेजी आक़ाओं से कम क्रूर नहीं दिखतीं। यह सब करने के लिए सुनियोजित ढंग से सामाजिक, राजनातिक, आर्थिक परिस्थितियां पैदा की गयीं और उनके संसाधनों को लूटकर, कॉरपोरेट जगत को सौंपने के लिए जैसे सरकारें प्रतियोगिता करती दिखती हैं। ऊपर से आदिवासी हितों के संवैधानिक अधिकारों के लिए आदिवासियों को लगातार लंबी क़ानूनी लड़ाइयां लड़नी पड़ी हैं। आदिवासी संबंधी नियम-क़ानूनों को देखें तो ऐसा लगता है, भारत ही नहीं, दुनिया के अधिकांश सभ्य देशों में आदिवासियों को कमज़ोर, पिछड़ा, विकास में बाधक, हिंसक साबित करने के लिए रोज़ नये-नये तरीक़ों, उपायों, परिस्थितियों-घटनाओं और नियम-क़ानूनों की नयी व्याख्या और परिभाषा खोजने की होड़-सी मची दिखती है।
आज भी जो आदिवासी मुख्य-धारा की भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, यहां तक कि धार्मिक प्रदूषण से बचे रहना चाहते हैं, उन्हें भी मुख्य-धारा के भ्रष्ट व प्रदूषित माहौल में धकेले जाने का हर संभव प्रयास किया जाता है। वर्चस्ववादी समाज आदिवासी को बंदूक, रायफ़ल, क़ानूनों के बंधन और धार्मिक-ग्रंथों के हवाले से गुलाम बनाये रखने का उपक्रम करता रहता है। कहीं भी देख लें, पहले जहां आदिवासी गये, उपनिवेशवादियों द्वारा कठिन और जटिल इलाक़ों में भेजे या भगाये गये। उसके बाद ही ‘सभ्य’ लोग वहां बसे। यह प्रक्रिया किसी भी आदिवासी इलाक़े में आज भी देखी जा सकती है। साम्राज्यवादी अंगरेजों ने आदिवासियों के साथ जो कुछ किया, आज़ादी के बाद भारतीय-शासकों का वैसा ही व्यवहार दुहराया जा रहा है।
पूर्वोत्तर के कई राज्यों में जहां छठी अनुसूची लागू है, आदिवासी परंपराओं, रीति-रिवाजों, संस्कृति, पहनावा, खान-पान के अलावा भाषाओं को फलन-फूलने का अवसर मिला। शिलांग, कोहिमा, आइजॉल, कार्बी ज़िला, बोडो बहुल क्षेत्रों में खासी, अओ, मिजो, कार्बी, बोडो आदि भाषाओं में दैनिक पत्र, समाचार बुलेटिन आदि प्रकाशित होते हैं। खासी के एक अख़बार को प्रकाशित होते पचास से अधिक वर्ष हो गये। कोकराझार से बोडो भाषा में बोडोसा और हयमारी राडाब प्रकाशित होते हैं। शेष भारत में किसी आदिवासी भाषा में दैनिक अख़बार प्रकाशित होने की सूचना या विवरण नहीं मिलता. हां, छत्तीसगढ़ से हिंदी में दैनिक पत्र गोंडवाना समय के प्रकाशित होने की सूचना है। स्वायत्त ज़िलों के होने के कारण भाषा-विशेष की स्थानीय संस्कृति, भाषा, कला, हस्तशिल्प, स्थानीय खेल, खान-पान, पहनावा, गीत-संगीत को भी स्थानीय राजकीय समर्थन, संरक्षण व प्रोत्साहन मिलता है। फलतः पूर्वोत्तर के आदिवासी, शेष भारत के आदिवासियों के मुक़ाबले सांस्कृतिक, सामाजिक रूप से ज़्यादा आत्मविश्वासी, भव्य, सुसज्जित, सुव्यवस्थित, अनुशासित और कई बार सकारात्मक रूप से आक्रामक लगते हैं। पांचवी अनुसूची के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का उपयोग न तो स्थानीय प्रशासन ने किया है, न उस राज्य के किसी राज्यपाल ने। संविधान वर्णित प्रावधानों को न लागू किया जाता है और न उसकी परिभाषा दी जाती है और व्याख्या की जाती है। फलतः पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्रों में आदिवासी परंपरा, प्रथाओं या विकास कार्यक्रमों आदि को लागू करने के लिए भी सरकार से दो-दो हाथ करना पड़ता है। खूंटी क्षेत्र में पत्थलगड़ी आंदोलन विवाद इसका ज्वलंत उदाहरण है। कई बार सरकारें पांचवी अनुसूची क्षेत्र में दुविधाग्रस्त स्थिति बनाकर आदिवासी हित के बदले अपनी पार्टी हित का काम करती दिखती हैं। निश्चय ही, इन क्षेत्रों के लिए स्थानीय आवश्यकताओं के लिए कोई ठोस नियम, निर्णय नहीं लेने से और उसके समुचित कार्यान्वयन के अभाव में सरकार और जनता दोनों का अहित होता दिखता है। फलतः छठी अनुसूची के मुक़ाबले पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्रों में आदिवासियों का सांस्कृतिक, भाषिक, सामाजिक विकास कम दिखता है।
पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत नियमों की अवहेलना ने आदिवासियों में भारी असंतोष ला दिया है। इन क्षेत्रों मॆं आदिवासी पंचायतों के अधिकारों की अवमानना करके होने वाले भूमि-अधिग्रहण से आदिवासी-समुदाय आक्रोशित है। उसी तरह पेसा कानून भी लागू नहीं किया गया है। वनोपजों पर अधिकार, जंगल पर, ज़मीन के अंदर खनिजों पे अधिकार आदि के मुद्दों को जबरन विवादास्पद बनाया गया है और अधिकांश नियम-क़ानून को व्यावसायिक हित के लिए अनुकूल बनाने की प्रक्रिया चलायी जाती है। फलतः, आदिवासी पूरे भारत में कहीं न कहीं आंदोलनरत रहता है। कहीं हसदेव जैसी घटना भी होती है कि इलाक़े के पेड़ काट लिये जाते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सभ्य समाज आदिवासी इलाक़ों को पैसा बनाने का स्रोत मात्र मानता है और उसके लिए धरती की उर्वरता बचाने, पर्यावरण के संतुलन को बनाये रखने के लिए लेशमात्र भी महत्त्व नहीं है, जबकि वैज्ञानिक बता रहे हैं कि मिट्टी की उर्वरता अब दुनिया में 50-55 प्रतिशत ही बची है।
दूसरी तरफ़, ईसाई मिशनरियों के अलावा हिंदू मिशनरियों व संगठनों के लगातार आदिवासी इलाक़ों में प्रवेश और आक्रामक सेवाकार्य करने से कई जगहों पर एक ही समुदाय किसी आदिवासी-प्रथा को अलग-अलग ढंग से परिभाषित करता है। फलतः पारंपरिक नियम, व्यवस्था आदि कहीं विवादित हो जाते हैं और एक ही समुदाय में तनाव व भेदभाव बढ़ जाने के उदाहरण मिलते हैं। अंततः. वृहत आदिवासी समुदाय का ही नुक़सान होता है कि उनकी एकता टूटती है और वे कमज़ोर होते हैं। उनके दुश्मन तो यही चाहते हैं। आदिवासी समुदाय इस मुददे पर अपनी समझदारी बढ़ाये तो बेहतर। वे अपनी मूल आध्यात्मिकता की ओर भी लौटे हैं। देश के अलग हिस्सों में सरना प्रार्थना सभा, राजी पड़हा प्रार्थना सभा, केन्द्रीय सरना समिति, गोंडवाना सभा के अलावा आसाम के कई आदिवासी अल्पसंख्यक समुदाय भी अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को लेकर इधर सक्रिय हुए हैं। लेकिन वे सशक्त संगठित धर्मों के मुक़ाबले संगठन के स्तर पर कमज़ोर दिखते हैं। मात्र वृहद झारखंड के सरना आदिवासी ही अपने लिए विधान सभा में अलग धार्मिक कोड की अपनी मांग को पारित करवा सके हैं। इसका नतीजा पूरे भारत में यह हुआ कि कल तक जो आदिवासी अपनी धार्मिक चेतना के बारे सचेत नहीं था, अचानक पूरे भारत में, विशेषतः हिन्दी प्रदेशों में तथा गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सक्रिय हो गया। इसके कारण कई स्थानों में आदिवासियों के बीच एकता बढ़ी तो कहीं मतभेद भी बढ़े। जैसे झारखंड में राम मंदिर के लिए सरना पूजा स्थल से बीजेपी के एक विधायक द्वारा मिट्टी भेजे जाने का कई आदिवासी संगठनों ने विरोध किया। इस तरह आदिवासी सरना, गोंडी जैसे अपने मूल धर्मों के अलावा हिंदू और ईसाईयत के आस्था-विश्वासों के अनेक रूपों, प्रकारों में धार्मिक रूप से बंटे हुए लगते हैं। परिणामतः उत्पीड़न, शोषण, अत्याचार, प्रशासनिक-राजनीतिक उपेक्षा, संस्कृति, भाषा, विकास, विस्थापन, धर्म के मामले से जुड़े आदिवासी-प्रश्नों की पूरे देश में घोर उपेक्षा भी हुई है। हालांकि सरकारों द्वारा आदिवासी समस्याओं से जुड़े मुद्दों के समाधान का नाटक बहुत खेला गया, लेकिन किसी सरकार ने उनके आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषिक विकास के लिए शायद ही गंभीरतापूर्वक काम किया हो।
अमृत महोत्सव की घोषणा के बाद बिरसा के जन्मदिन 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित कर प्रधान मंत्री आदिवासियों के शुभचिंतक बनते हुए दिखते हैं। आदिवासियों के हित में भारत सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक अनेक नियम, क़ानून आदि पहले ही बने हुए हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन अधिकतर जगहों पर समुचित और प्रभावी ढंग से कभी नहीं हुआ। अधिकांश मामलों में पाते हैं कि आदिवासी के नाम पर जो कुछ भी किया गया, उसका लाभ भ्रष्ट राजनीतिक, नौकरशाही, ठेकेदार जैसे बिचैलियों को मिला। चारों तरफ़ ज़मीन, पहाड़, जंगल, नदी, झील, झरने, पेड़-पौधे जैसे प्राकृतिक संसाधनों की लूट कॉरपोरेट घरानों के लिए खुली हुई दिखती है। ऐसे में सभ्य, प्रभुत्वशाली समाज निर्णय ले कि भविष्य में उनकी भावी पीढ़ी को हवा, पानी, उर्वर धरती, शीतल छाया चाहिए या नहीं चाहिए? या वे धरतीखोर, आदमखोर, मुनाफाखोर यूरोपीय विकास, सभ्यता और शिक्षा के गुलाम बनें रहेंगे? धरती के खून के प्यासे आतताइयों, वर्चस्ववादियों, साम्राज्यवादियों, उपनिवेशवादियों, पूजीपतियों, संगठित-धार्मिक शक्तियों व संगठनों से आदिवासी अपनी लड़ाई 1492 (दुनिया की नई खोज का समय) से ही लड़ता रहा है और लड़ेगा भी, भले उसके बगल में कोई खड़ा न हो।
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