यह संकट का नहीं, संभावनाओं का दौर है / संगोष्ठी रपट


पुस्तक समीक्षा संवाद के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए उसकी पांचवीं कड़ी में जनवादी लेखक संघ (जलेस) ने प्रो. गोपाल प्रधान की पुस्तक मार्क्सवाद का नवीकरण (परिकल्पना प्रकाशन, दिल्ली) पर संगोष्ठी का आयोजन किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता जलेस के कार्यकारी अध्यक्ष चंचल चौहान ने की। संचालन संजीव कुमार ने किया। चर्चा की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि हम जिस किताब पर बात करने जा रहे हैं, वह किताबों के ही बारे में है, और एक ऐसे समय में हमारे सामने आई है जब पुस्तक पढ़ने की संस्कृति बहुत कमज़ोर हो गयी है। गोपाल प्रधान की किताब सन् 2000 के बाद लिखी गयी उन किताबों का परिचय और विश्लेषण प्रस्तुत करती है जो मार्क्सवाद से ताल्लुक़ रखते हैं। पूंजीवाद के उग्रतम रूप नवउदारवाद की विश्वविजय के दौर में यह एक ज़रूरी काम है।

इतिहासकार सलिल मिश्र ने कहा कि उनका इस किताब के साथ अजीब-सा रिश्ता रहा है। अगर लेखक ने कुछ स्थापनाओं को लेकर हड़बड़ी न की होती तो किताब और भी बेहतर होती| स्थापना करने से पहले ठहरकर सोचना ज़रूरी होता है। मार्क्सवाद को एनलाइटनमेंट (प्रबोधन) का क्रिटीक बताते हुए सलिल ने कहा कि मार्क्सवाद ने क्रिटीक देने के साथ उस परियोजना को आगे बढ़ाने का काम भी किया। मार्क्सवाद के मूल तत्त्वों (कोर वैल्यूज़) का उल्लेख करते हुए उन्होंने भौतिकवाद, सोपानिक विकास, साइंटिज़्म/पॉजिटिविज़्म और आशावाद (ऑप्टिमिज़्म) का विवेचन किया। मार्क्सवाद की समस्याओं पर अपनी राय रखते हुए सलिल मिश्र ने कहा कि सोवियत संघ में यह थियोलॉजी बन गया था। यूरो केंद्रिकता मार्क्सवाद की दूसरी समस्या बना रहा। मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद के बीच के रिश्ते जटिल रहे; यूरोप और एशिया दोनों जगहों पर। भारत में भी मार्क्सवादी विचारक राष्ट्रवाद के प्रश्न पर उलझन में रहे। वे राष्ट्रवादियों को संदेह की नज़र से देखते रहे और राष्ट्रवादी उन्हें संदिग्ध मानते रहे। फिर भी दोनों में अंतरंग रिश्ता बना रहा। सलिल मिश्र ने कहा कि सोवियत संघ के टूटने को ‘ट्रिपल कॅलेप्स’ माना गया। इकॉनमी, कंट्री और पार्टी तीनों ध्वस्त हो गयी हैं, ऐसा कहा जाने लगा। वक्ता ने कहा कि यह संकट का नहीं, अवसर का दौर है। सोवियत संघ के विघटन से पहले एक कम्युनिस्ट के तौर पर आपको सोवियत संघ का बचाव भी करना होता था। वह मजबूरी खत्म हो गयी। अब मार्क्सवाद पूरी दुनिया पर दावा कर सकता है। उन्होंने कहा कि मार्क्सवाद के साथ नारीवाद, ब्लैकवाद, दलितवाद और पर्यावरणवाद का आवयविक (आर्गेनिक) संबंध है। आप क्लास से कास्ट को काटकर नहीं देख सकते। यह मार्क्सवादियों के लिए नये सहयोगी बनाने का समय है।

सलिल मिश्र ने कहा कि सिद्धांत (थियरी) की अनुपस्थिति में कोई भी आइडियोलॉजी पॉपुलिज़्म बनकर रह जाती है। कठिन बौद्धिक श्रम से अर्जित सिद्धांत (‘रिगरस थियरी’) ही मार्क्सवाद को बचायेगा। यह न हो तो दक्षिण और वाम में फ़र्क मिट जाये। हम कुछ सतही समानताओं के आधार पर उसे किसी पुरानी परिघटना से जोड़ देते हैं। हम समझते हैं कि इतिहास अपने को दुहरा रहा है। वास्तव में ऐसा होता नहीं। इतिहास अपने को दुहराता नहीं। वर्तमान इतनी तेज़ी से बदल रहा है कि हमारे विचार उसे पकड़ नहीं पा रहे। ऐसे में हम कह देते हैं कि कुछ भी नया नहीं हो रहा। हम अपना काम कुछ नये उपसर्गों ‘प्रि’, ‘पोस्ट’, ‘रि’, ‘नियो’ से चला रहे हैं। तेज़ी से बदलती इस दुनिया को समझने के लिए ‘थियरी’ को सतत अपडेट करते रहने की ज़रूरत है।

इतिहासविद और एक्टिविस्ट-फिलॉसफ़र डॉ. प्रदीपकांत चौधरी ने हिंदी में ऐसी किताब लाने के लिए गोपाल प्रधान की प्रशंसा की। इस किताब के लेखन में गोपाल जी ने गज़ब की तैयारी की है| नवीनतम से नवीनतम बहसें इस किताब में समेटी गयी हैं। किताब की कमियों की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें तारतम्यता की कमी है। पुनरावृत्तियाँ भी हैं। उन्होंने लेखक से अपेक्षा की कि अगली किताब मुद्दों पर आधारित रहे। इस किताब के शीर्षक से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा मार्क्सवाद में क्या पुराना हुआ है जिसका नवीकरण किया जाना है! अभी मार्क्सवाद बैकफुट पर जाकर खेल रहा है। उसे अग्रेसिव होना है। भारत में पार्टियों का अस्तित्व ख़त्म नहीं होता। बस वे लुंजपुंज होकर पड़ी रहती हैं। कई पार्टियां आज ऐसी ही अवस्था में हैं। प्रदीपकांत चौधरी ने कहा कि हम मार्क्स से पद्धति सीखते हैं। आज समाजवाद की चर्चा होनी चाहिए। उसके अंग के रूप में मार्क्सवाद रहे। मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता| इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि मार्क्स ने जिस समाज की परिकल्पना की थी, वह पूरी क्यों नहीं हुई| सबके अपने-अपने मार्क्स हैं| तय कीजिए कि आपको मार्क्स क्यों चाहिए| अभी सोवियत संघ और एंगेल्स के प्रति हेय भाव पैदा किया जा रहा है। यह ठीक नहीं है। मार्क्सवाद के दो रूपों- सांगठनिक और अकादमिक की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सांगठनिक मार्क्सवाद में नवोन्मेष की बहुत ज़रूरत है। वहां इसकी बहुत संभावना भी है। मार्क्सवाद कितना भी महान क्यों न हो, वह समाजवाद से बढ़कर नहीं हो सकता| समाजवाद पर काम होना चाहिए। एक बार फिर अराजकतावादियों को, बाकुनिन और क्रोपाटकिन को पढ़ने की ज़रूरत है। रोज़ा लक्ज़मबर्ग को पढ़ने की आवश्यकता है। गांधी में एंटीस्टेट सामग्री पर्याप्त है। उत्तरआधुनिकता हमारा परमानेंट दुश्मन नहीं है। इसने मार्क्सवादी केन्द्रवाद पर प्रहार करके बहुत भला किया है। हम अपने असहमतों से संवाद करें, उन्हें रगड़ें नहीं। पोलिमिक्स हमारे डीएनए का पार्ट बन गया है। इससे मुक्त होने की ज़रूरत है।

प्रदीपकांत ने कहा कि इन तीन क्षेत्रों में काम करने की ज़रूरत है- जनवाद, सामाजिक उद्यम और सांस्कृतिक संवेदनशीलता। धर्म के प्रति भी रवैया बदलना चाहिए। धर्म हर स्थिति में शोषणकारी उपक्रम हो, यह ज़रूरी नहीं है।
प्रश्नोत्तर सत्र के बाद अब तक हुए विमर्श पर अपना पक्ष रखते हुए गोपाल प्रधान ने कहा कि सोवियत संघ के ढहने के बाद हल्ला हुआ कि समाजवाद ख़त्म हो गया है। यह किताब इस हल्ले का जवाब देने के क्रम में लिखी गयी है। पूंजीवाद ने जो नये रूप बदले हैं, उनके गंभीर अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। जो लोग इस काम में लगे हुए हैं, उनके काम को सामने लाने की ज़रूरत है। गोपाल जी ने कहा कि मैंने अपने लिए प्रचारकर्ता की भूमिका चुनी है।

अध्यक्ष चंचल चौहान ने कहा कि यह किताब बहुत बड़ा काम करती है। यह दुनिया भर में चिंतकों को हमारे सामने लाती है। इससे हमारी सोच, हमारी वैचारिकी अद्यतन होती है। उन्होंने कहा कि अनुवाद में कुछ दिक्कतें हैं। इन्हें अगले संस्करण में सुधारा जाना चाहिए। कुछ चीज़ों को क्रिटिकली देखे जाने की ज़रूरत है।

कार्यक्रम के अंत में समीक्षा संवाद सीरीज़ के संयोजक बजरंग बिहारी ने सभी आगंतुकों को धन्यवाद दिया और ऐसे गंभीर सैद्धांतिक कार्यक्रमों की ज़रूरत बतायी|


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