‘यह संयोग नहीं है कि भाजपा मनरेगा की हमेशा विरोधी रही है और मोदी सरकार ने अपने शासन के दौरान इसे लगातार कमज़ोर किया है। बेरोज़गारी की समाप्ति के लिए ज़रूरी है कि संविधान में प्रत्येक नागरिक के लिए रोज़गार की गारंटी हो। पांच किलो अनाज और 1500 रुपये की कथित मदद से ग़रीब लोगों को अपने अहसान तले दबाकर उनके वोट तो हासिल किये जा सकते हैं और उन्हें अपनी अधिकार के लिए संघर्ष करने से भी रोका जा सकता है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक विषमता से ग्रस्त देश को समतावादी, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता।’– ‘बूट पालिश’ फ़िल्म के बहाने रोज़गार और भीख के फ़र्क़ पर जवरीमल्ल पारख का आलेख :
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1954 में एक फ़िल्म बनी थी जिसका नाम था, बूट पालिश। इस फ़िल्म का संबंध महानगर की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले उन ग़रीबों से है जो या तो भीख मांगकर अपना जीवनयापन करते हैं या छोटे-मोटे काम करके, जिन्हें आमतौर पर भारत में निम्न समझी जाने वाली जातियां ही करती रही हैं। बूट पालिश के निर्माता राज कपूर थे और यह फ़िल्म भी उनकी प्रोडक्शन कंपनी ‘आर. के. फ़िल्म्स’ के मातहत बनायी गयी थी। इस फ़िल्म की कहानी, पटकथा और संवाद भानु प्रताप ने लिखे थे और निर्देशन प्रकाश अरोड़ा का था। फ़िल्म की कहानी दो अनाथ भाई-बहनों, भोला (रतन कुमार) और बेलू (बेबी नाज़) के बारे में है जिनकी मां हैजे से मर चुकी है और पिता काले पानी की सज़ा काट रहा है। एक आदमी इन दोनों बच्चों को उनकी चाची कमला (चांद बर्क) के पास छोड़ जाता है। चाची भी ग़रीब औरत है और अपना शरीर बेचकर अपना गुज़ारा करती है। वह इन दोनों बच्चों को भीख मांगने के काम में लगा देती है। लेकिन जिस झुग्गी बस्ती में वे रहते हैं, वहां जॉन (डेविड) नामक एक व्यक्ति रहता है जिसे बच्चे चाचा कहकर पुकारते हैं। यही जॉन चाचा बच्चों से न केवल बहुत प्यार करते हैं बल्कि वे जीवन के प्रति उनमें उम्मीदें भी जगाते हैं। जॉन चाचा की शिक्षा का ही नतीजा है कि इन मासूम बच्चों की एक ही इच्छा है कि वे भीख मांगना छोड़कर बूट पालिश का काम करें ताकि उन्हें भीख के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। जूतों की पालिश करने का सपना देखने वाले इन बच्चों की जाति का उल्लेख फ़िल्म में नहीं किया गया है।
फ़िल्म के एक संवाद में बेलू जॉन चाचा से पूछती है कि ‘हमें रोज़-रोज़ भूख क्यों लगती है’। उत्तर देते हुए जॉन चाचा कहते हैं, ‘भूख हमारे वतन की सबसे बड़ी बीमारी है’। उन बच्चों के पास और भी बड़े सवाल हैं। वे जानना चाहते हैं कि कौन-सा ऐसा काम है जिससे हमें लोग बदनाम न करें। क्या यह हमारे भाग्य के कारण है कि हम भिखारी हैं और दूसरे लोग अमीर हैं। वे जॉन चाचा से यह भी जानना चाहते हैं कि हमारे पास काम क्यों नहीं है, क्यों हमें भीख मांगनी पड़ती है। बच्चे जॉन चाचा की शिक्षा से यह समझ चुके हैं कि भीख मांगना गर्व की बात नहीं है। बच्चों के जीवन की यह पीड़ा कि उन्हें भीख मांगनी पड़ती है और निरंतर अपमानित होना पड़ता है, इस फ़िल्म का बुनियादी मुद्दा है :
जॉन चाचा तुम कितने अच्छे, तुम्हें प्यार करते सब बच्चे
जॉन चाचा तुम कितने अच्छे, तुम्हें प्यार करते सब बच्चे
हमें बता दो ऐसा काम, कोई नहीं करे बदनाम।
चाचा क्या होती तक़दीर, क्यों है एक भिखारी चाचा, क्यों है एक अमीर
चाचा हमको काम नहीं, क्यों काम नहीं
भीख मांगकर जीने में कुछ नाम नहीं।
बच्चों के इन सवालों से जॉन चाचा भी विचलित हो जाते हैं और वे उन्हें जीवन में निरंतर आगे बढ़ने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे बच्चों को कहते हैं कि ज़िंदगी की ठोकर और मुसीबत का हंस कर मुक़ाबला करना चाहिए। वे यह बात बार-बार दोहराते हैं कि भूखों मरना लेकिन भीख नहीं मांगना।
भोला और बेलू की मजबूरी यह है कि चाची के डर से उन्हें रोज़ भीख मांगनी पड़ती है। लेकिन भीख से ही वे पैसे बचाकर बूट पालिश का सामान ख़रीदते हैं। जिस दिन उनके हाथ में बूट पालिश का सामान आता है, उस दिन वे इतने खुश होते हैं कि वे ज़ोर से नारा लगाते हैं, ‘आज हमारा हिंदुस्तान आज़ाद हो गया है। भीख मांगना बंद और काम करना चालू। महात्मा गांधी की जय’। यह शायद अकेली फ़िल्म है जो भीख मांगने की बजाय काम के महत्त्व को शक्तिशाली ढंग से सामने लाती है। यही नहीं, फ़िल्म इस बात पर भी ज़ोर देती है कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। फ़िल्म के इस संदेश की तुलना 1989-90 के मण्डल विरोधी आंदोलन से कर सकते हैं जहां सवर्ण परिवारों के शिक्षित युवा आरक्षण के विरोध में सड़क पर बैठकर बूट पालिश कर रहे थे और अपनी इस श्रम विरोधी हरकत द्वारा यह बता रहे थे कि अगर आरक्षण जारी रहा तो एक दिन हमें भी सड़क पर बैठकर बूट पालिश करनी पड़ेगी।
वर्ण व्यवस्था के अनुसार अवर्ण और सवर्ण के बीच भेद का आधार श्रम है। जो हाथ से काम करता है, वह अवर्ण है और जो हाथ से काम नहीं करता, वह सवर्ण है। स्त्री को भी हाथ से काम करना पड़ता है, इसलिए उसे भी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अवर्ण ही मन गया है और इसीलिए उसका वर्ण पहले उसके पिता से और बाद में पति से निर्धारित होता है। इसलिए हिन्दू धर्म में श्रेष्ठ वही माना जाता है जो कोई काम नहीं करता। हिन्दू और जैन धर्म, दोनों में माना गया है कि कर्म से मनुष्य बंधन में पड़ता है और जब मोक्ष प्राप्त होता है। दान देने को हिन्दू धर्म में बहुत पुण्य माना गया है। ब्राह्मण को दान देने से अन्य वर्णों और जातियों को पुण्य मिलता है, लेकिन अवर्ण जातियों को दान देने से, जो दरअसल भिक्षा ही है, उसका पुण्य देने वाले को मिलता है, लेकिन स्वयं उनको नहीं। दान लेकर वे ब्राह्मण नहीं हो जाते, अवर्ण ही रहते हैं। दान की महिमा इतनी अधिक है कि कन्या के विवाह को कन्यादान कहा जाता है, यानी कन्या दान में दी जाने वाली वस्तु है और अपनी बेटी को दान में देकर माता-पिता को भी पुण्य मिलता है। दान की इसी महिमा के कारण दान-दक्षिणा देना हिन्दू धर्म और संस्कृति का अविभाज्य अंग है। दान की महिमा से धार्मिक ग्रंथ भरे पड़े हैं, उसकी तुलना में कर्म के महत्त्व का लगभग कोई उल्लेख नहीं है। भगवद्गीता में कहा गया है: ‘कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ यानी कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसका अर्थ यह भी है कि कर्म से फल मिलेगा या नहीं, इस पर धर्म ग्रंथ मौन है लेकिन दान देने से मिलने वाले पुण्य पर धर्म ग्रंथ बहुत अधिक ज़ोर देते हैं और ब्राह्मण को दिये जाने वाले दान पर भी।
बूट पालिश फ़िल्म के ही एक दृश्य में झुग्गी बस्ती में एक सेठानी अपने कारिंदों के साथ ग़रीब लोगों के बीच दान देने के लिए आती है। लोग झुंड के झुंड उसी तरफ़ जाते नज़र आते हैं जहां सेठानी भीख दे रही है। वह सबको एक-एक आना, दो-दो आना बांटती है। साथ में चने भी देती है। वहां बूढ़े, जवान, बच्चे सभी इकट्ठा होकर हाथ फैलाकर भीख लेने लगते हैं। हो-हल्ला सुनकर अपनी झोपड़ी में से जॉन चाचा बाहर आते हैं। लोगों को हाथ फैलाकर भीख मांगते देखकर जॉन चाचा सेठानी और उनके कारिंदों को कहते हैं, ‘आप भीख देता है, देवी जी। आप समझता है आज आपने दो आना दिया तो भगवान आपको चार आना देगा’। सेठानी जॉन चाचा की बात से नाराज़ हो जाती है और कहती है, ‘कैसी बात करता है?’ उसके कारिंदे सेठानी की दान-दक्षिणा की प्रवृति की प्रशंसा करते हुए गर्व से बताते हैं, “माताजी ने धर्म में चार मंदिर बनवाये हैं, और कई गोशालाएं भी बनवायी हैं। और आज पोते की खुशी में अपने हाथों दान देने आयी हैं। आप क्या बक रहे हैं?” सेठानी के चेहरे पर अपनी प्रशंसा सुनकर गर्व की चमक आ जाती है। इस पर जॉन चाचा कहता है, ‘हम ठीक बकता है, साहब। तुम सरीखा लोग नहीं होता तो या तो ये लोग तड़प-तड़प के मर जाता या कुछ काम करता, इनको भीख मत दो, कुछ काम दो, साहब’। इस पर सेठानी का एक कारिंदा कहता है कि ‘ये हमारा काम है क्या?’ इस पर जॉन चाचा कहता है, ‘ये हमारा काम नहीं, तुम्हारा काम नहीं, बाहर वालों का काम है क्या, फिर किसका काम है, बोलो’। जॉन चाचा की बात पर सेठानी के कारिंदे डांटते हुए कहते हैं, ‘तू पुण्य के काम में दखल देता है’। सेठानी अपने कारिंदों के साथ आगे बढ़ जाती है। भीख मांगने में शामिल कुछ युवक आकर जॉन चाचा से लड़ने लगते हैं, ‘ए बुड्ढे, तुम खुद तो भीख मांगता नहीं, हमको भी नहीं मांगने देता’। जॉन चाचा छोटे बच्चों की तरफ़ इशारा करते हुए कहता है, ‘ये बच्चा लोग नयी दुनिया में कदम रखता है, इनको भीख मांगना मत सिखाओ’। इस पर एक युवक कहता है, ‘कहां है नयी दुनिया। हम कल भी भूखा मरता था, आज भी भूखा मरता है, किधर है नयी दुनिया’। यह कहकर वह जॉन चाचा को ज़ोर से धक्का देता है और जॉन चाचा गिर जाते हैं।
फ़िल्म के इस सीन से साफ़ है कि लोग ग़रीब हैं और इस ग़रीबी के कारण ही जब कोई दान या भीख देने आता है तो लोग बड़ी संख्या में उमड़ पड़ते हैं। ग़रीबी लोगों को मदद की ज़रूरत है, पेट भरने के लिए और जीवनयापन के लिए। लेकिन क्या यह मदद भीख के रूप में मिलनी चाहिए या काम के रूप में? किसी को काम देने से कोई पुण्य नहीं मिलता, दान देने से, भीख देने से मिलता है। इसीलिए सेठानी के कारिंदे ये कहते हैं कि ‘ये हमारा काम है क्या?’ दान देने वाले को पुण्य मिलता है या नहीं लेकिन जिनको भीख लेने की आदत पड़ जाती है, उनका काम पर से विश्वास उठ जाता है। और जब काम पर से विश्वास उठ जाता है, तब वे काम को न अपनी ज़रूरत मानते हैं और न अपना हक़। फिर भीख देना और भीख लेना ही संस्कृति बन जाती है।
बूट पालिश में दिखाया गया भीख या दान का दृश्य आज भी हर कहीं देखा जा सकता है। भीख मांगने में इस फ़िल्म के दोनों भाई बहन जो शर्मिंदगी महसूस करते हैं, वैसी शर्मिंदगी शायद ही कहीं नज़र आती है। भोला और बेलू के जीवन का एक ही लक्ष्य होता है कि भीख मांगना छोड़कर मेहनत मज़दूरी से जीवनयापन करें। जो उम्र उनके पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने की है, उस उम्र में उन्हें पेट पालने के लिए पहले भीख मांगनी पड़ती है और बाद में बूट पालिश करना पड़ता है। मेरा मक़सद यहां फ़िल्म की चर्चा करना नहीं है बल्कि भीख देने और मांगने की बढ़ती प्रवृति और उसको शासन की तरफ़ से दिये जा रहे बढ़ावे पर बात करना है। जिस ग़रीबी की चर्चा फ़िल्म में है, वह उस समय का एक ऐसा यथार्थ है, जो सबसे बड़ी समस्या के रूप में मौजूद था और तत्कालीन सरकारों के लिए भी उसे समाप्त करना एक चुनौती थी। देश आज़ाद हुए एक दशक भी नहीं हुआ था। 1952 में पहला चुनाव हुआ था। 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू हो चुकी थी जिसका मक़सद था खाद्य पदार्थों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना, ताकि देश में भूखमरी समाप्त हो और बार-बार होने वाले दुर्भिक्ष के प्रकोप से देश को बचाया जा सके। बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण करना ताकि आधारभूत संरचना का विस्तार हो और देश तेज़ी से विकास करे और इसी विकास से रोज़गार में भी वृद्धि हो। यह लक्ष्य किसी ऐसे देश के नहीं हो सकते जिसकी बहुत बड़ी आबादी भीख और दान-दक्षिणा पर निर्भर रहती हो। इसलिए उस समय ऐसी बहुत-सी फ़िल्में बनीं जिनके माध्यम से ग़रीब जनता की वास्तविक समस्याओं की तरफ़ ध्यान दिलाया गया था। उस दौर की बहुत-सी फ़िल्मों के माध्यम से व्यवस्था का भी ध्यान जनता की वास्तविक समस्याओं की तरफ़ दिलाया गया था ताकि उनकी योजनाएं जनोन्मुखी हों और जनता भी अपनी समस्याओं के प्रति जागरूक हो। बूट पालिश एक ऐसी ही फ़िल्म थी जो बताती है कि भीख पर निर्भर रहने वाली जनता कभी न आत्मनिर्भर बन सकती है और न ही तरक्क़ी कर सकती है, इसलिए ऐसी कुप्रथाओं से मुक्त होना भी उतना ही ज़रूरी है।
आज स्थिति बिल्कुल उलट है। आज जो राजनीतिक दल केंद्र में सत्तासीन है, वह जनता को रोज़गार उपलब्ध कराने की बजाय उन्हें पांच किलो अनाज और 1500-2000 रुपये नक़द देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। आज पिछले 45 सालों की सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। रोज़गार पैदा होता है, उत्पादन के साधनों के विस्तार से। आज़ादी के बाद देश में पहले आधारभूत संरचना का विस्तार किया गया, उसके बाद बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने वाले उत्पादों को बढ़ावा दिया गया। इन सबके बावजूद आज़ादी के तीन-चार दशकों तक देश के किसी-न-किसी हिस्से में अकाल पड़ते रहे, लेकिन कृषि को बढ़ावा देने का ही नतीजा था कि 1990 तक आते-आते देश खाद्य उत्पादों में आत्मनिर्भर बन सका। स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों का विस्तार हुआ। लेकिन जब से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आयी है, सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों का निजीकरण किया जा रहा है या उनको बंद किया जा रहा है। उत्पादन क्षेत्र को प्रोत्साहन देने के बजाय सेवा क्षेत्र का विस्तार किया जा रहा है। नये स्कूल और कॉलेज खोलने के बजाय उन्हें बड़ी संख्या में बंद किया जा रहा है। जब रोज़गार केंद्रित कोई ठोस योजना ही नहीं है तो रोज़गार कैसे पैदा होगा। रोज़गार की मांग से पैदा होने वाले असंतोष को नियंत्रण में रखने के लिए 80 करोड़ लोगों को, जो कुल आबादी का लगभग 60 फ़ीसद है, पांच किलो अनाज दिया जा रहा है। यह मदद उन लोगों को दी जाती हैं जो ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने के लिए मजबूर हैं। यानी कि आजादी के 75 साल बाद भी 60 फ़ीसदी आबादी इतनी अधिक ग़रीब है कि पेट भरने लायक अनाज ख़रीदने की उसकी हैसियत नहीं है। सरकार किसानों को उनके उत्पाद के उचित मूल्य की गारंटी देनेवाला क़ानून बनाने के लिए भी तैयार नहीं है। इसके बजाय उनके खाते में कुछ हजार रुपये डाले जा रहे हैं। लेकिन यह मदद इतनी कम और नाकाफ़ी है कि इसके बावजूद अब भी कर्ज़ के बोझ तले किसान रोज़ाना आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।
औरतों के वोट हासिल करने के लिए लाड़ली बहन या इसी तरह के नामों वाली योजनाओं से उनके खातों में 1500 रुपये चुनाव से पहले डाले जा रहे हैं। नक़दी और अनाज के रूप में दी जा रही मदद लगभग वैसी ही भीख है जैसा बूट पालिश फ़िल्म में सेठानी द्वारा दिया जाने वाला दान, जिसमें वह एक आना-दो आना भी देती है और मुट्ठी भर चने भी। जॉन चाचा सेठानी को कहता है कि इनको भीख के बजाय काम दीजिए। सेठानी के कारिंदे कहते हैं कि काम देना हमारा काम नहीं है। मौजूद सत्ता भी इस बात में यक़ीन करती है कि रोज़गार देना, शिक्षा देना हमारा काम नहीं है। जनता की मानसिकता भी ठीक उसी तरह की बनायी जा रही है जो फ़िल्म के उन झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोगों की है जो हाथ फैलाने और भीख लेने में ही गर्व महसूस करते हैं और जो इस भीख का विरोध करते हैं, उनको वे अपना दुश्मन मानने लगते हैं। अभी काम को अपना अधिकार समझने की मांग करने वाले को ग़रीब जनता अपना दुश्मन तो नहीं मानती, लेकिन अगर स्थिति यही रहती है तो निकट भविष्य में ऐसा भी हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि ग़रीबों और बेरोज़गारों की मदद करने की कोशिशें पहले की सरकारों में नहीं हुई है। इंजीनियरिंग पढ़े-लिखे युवाओं को तब कुछ साल बेरोज़गारी भत्ता दिया जाता था। लेकिन उस दौरान भी किसी न किसी सरकारी संस्थान में रोज़ाना रिपोर्ट करना पड़ता था और काम भी करना पड़ता था। जब किसी राज्य में अकाल पड़ता था तो कई तरह की योजनाएं चलायी जाती थीं और गांव के ग़रीब किसानों और खेत मज़दूरों को सड़के बनाने, तालाब या कुआं खोदने के काम में लगाया जाता था और उनको न्यूनतम मज़दूरी ज़रूर दी जाती थी। यूपीए सरकार के समय चलायी गयी मानरेगा योजना में भी ग्रामीण बेरोज़गारों को कम से काम सौ दिन का काम दिया जाता था। यह ग़रीबों को दिया जाने वाला अस्थायी रोज़गार था, लेकिन भीख नहीं थी। यह संयोग नहीं है कि भाजपा मनरेगा की हमेशा विरोधी रही है और मोदी सरकार ने अपने शासन के दौरान इसे लगातार कमज़ोर किया है। बेरोज़गारी की समाप्ति के लिए ज़रूरी है कि संविधान में प्रत्येक नागरिक के लिए रोज़गार की गारंटी हो। पांच किलो अनाज और 1500 रुपये की कथित मदद से ग़रीब लोगों को अपने अहसान तले दबाकर उनके वोट तो हासिल किये जा सकते हैं और उन्हें अपनी अधिकार के लिए संघर्ष करने से भी रोका जा सकता है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक विषमता से ग्रस्त देश को समतावादी, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता।
jparakh@gmail.com
बहुत बढ़िया सुंदर लेख💐
शुक्रिया
Truthful and in-depth analysis of our present situation through a film Boot Polish. Dignity of human life&labour are in peril today.The people’s struggle and aspirations for better living are being undermined .The issue you have raised is quite relevant and need of the hour.Your every post is very inspiring and food for thought.
Thanks
श्रम और मेहनत की महीमा को स्थापित करता एक ज्ञानवर्धक लेख।
फिल्म बूट पॉलिश के बहाने देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति और पोलिसीयों का विस्तार से जायेज़ा लिया गया।
शुक्रिया बंधु
“बूट पॉलिश ” फिल्म का मैसेज आज और भी प्रासंगिक हो गया है। श्रम के महत्व को दर्शाता यह आलेख आमजन तक पहुंचना चाहिए।
बूट पॉलिश फ़िल्म के माध्यम से आज के दौर की गहन पड़ताल की गई है ..बहुत महत्त्वपूर्ण लेख है
अफ़सोस कि फिल्म की प्रासंगिकता 70 साल बाद भी बदस्तूत बनी हुई है। बूट पालिश के बहाने 2024 में वर्तमान को आइना दिखाता लेख।
वैचारिक स्तर को उद्दीप्त करता आलेख ।