2022 में हरित साहित्य/ग्रीन लिटरेचर पर केंद्रित एक ऑनलाइन फैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम में इस विषय पर बोलने का मौक़ा मिला था। यह आलेख उसी भाषण का लिप्यंतरण है।– संजीव कुमार
सबसे पहले मैं इस आमंत्रण के लिए कोच्चिन साइंस एण्ड टेक्नॉलजी यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग को धन्यवाद देना चाहूंगा और इसके लिए साधुवाद भी कि बढ़ते पर्यावरण संकट के इस दौर में आपने ग्रीन लिटरेचर या हरित साहित्य जैसे विषय पर विचार की ज़रूरत समझी। मैं सच बताऊं कि जब मेरे पास यह न्योता आया, तब तक मैंने हरित साहित्य के विषय में कुछ भी अलग से पढ़ा नहीं था। कहानियां पढ़ी थीं, उपन्यास पढ़े थे; साहित्य की समस्याओं पर विचार करता रहता हूं, इसलिए बहुत तरह की चीज़ें मेरी निगाह से गुज़रती रहती हैं। लेकिन पूंजीवाद द्वारा जो पर्यावरण का संकट पैदा किया गया है, उस संकट को साहित्य कैसे संबोधित कर रहा है, और उस संकट के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है, इस प्रश्न पर मैंने अलग से विचार नहीं किया था। लिहाज़ा, सबसे अधिक मैं इसके लिए आभारी हूं कि इस विषय के प्रति आपने मेरी दिलचस्पी जगायी और इस दिलचस्पी के नतीजे के तौर पर आगे इस दिशा में कुछ काम करने की कोशिश मैं शायद कर पाऊंगा।
‘हिंदी कहानी में पूंजीवादी विकास की आलोचना’—यह मेरे सत्र का विषय है। मैं हिंदी कहानी पर आने से पहले इस पूंजीवादी या पूंजी-हितैषी विकास के बारे में आपको कुछ बातें दुबारा याद दिलाने की कोशिश करूंगा। याद दिलाना मैं इसलिए कह रहा हूं कि एकाधिक दिनों से इसी विषय पर विचार-विमर्श में शामिल रहने के कारण ये बातें आपकी चर्चा में पहले अवश्य आ चुकी होंगी।
पूंजीवाद और पर्यावरण
यह जिसे मैं पूंजी-हितैषी विकास कह रहा हूं, इसे सबसे पहले संभवतः मार्क्स ने ही चिह्नित किया था। उससे पहले क्लासिकी अर्थशास्त्र ने निश्चित रूप से उसकी कुछ बुनियादी विशेषताओं को रेखांकित किया था, लेकिन उस क्लासिकी अर्थशास्त्र की मुख्य रूप से मान्यता यह थी कि पूंजीवाद मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का संकल्प लेकर चल रहा है। मार्क्स ने पहली बार इस बात को रेखांकित किया कि मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करने का संकल्प उसकी चालक शक्ति नहीं है। पूंजीवाद की चालक शक्ति पूंजी के स्व-प्रसार की अगाध भूख है। यही वह चीज़ है जो पूंजीवाद को नये उत्पादन-साधनों की ओर या उत्पादन-साधनों के परिष्कार की ओर ले जाती है, प्रतियोगिता में मुब्तिला रखती है, चीज़ों को मुनाफ़ा देने के लायक बनाने/बनाये रखने की एक अनवरत कोशिश में झोंके रखती है, और इसके लिए पूंजीवाद अपने रास्ते की किसी भी बाधा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। नतीजा यह है कि अगर इतिहास के एक दौर में यह उत्पादन-पद्धति मनुष्यता के लिए बहुत ज़रूरी और उपयोगी साबित हुई—क्योंकि इसने उत्पादकता को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने में योगदान दिया और इससे सचमुच मनुष्य की आवश्यकताएं पूरी होने की दिशा में एक बड़ा क़दम उठाया जाना संभव हुआ—तो वही आगे चलकर मनुष्यता के सबसे बड़े संकटों का भी कारण बनी। मार्क्स की वे पंक्तियां आपकी नज़र से शायद कई बार गुज़री होंगी, ‘संचय करो! संचय करो! पूंजीपति के लिए ईसा और मूसा का यही सबसे बड़ा संदेश है।’ यह संचय क्या है? पूंजी जो अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है, जिसे हम मुनाफ़े के रूप में जानते हैं, उसके एक हिस्से को पूंजीपति फिर पूंजी में तब्दील करता है। इससे जो वर्द्धित पूंजी तैयार होती है, वह बाज़ा र में जाकर फिर सरप्लस/अधिशेष पैदा करती है और उस अधिशेष के एक हिस्से को फिर से पूंजी में तब्दील किया जाता है। तो पूंजी लगातार अपने को बढ़ा रही है। और वह किस चीज़ के ज़रिये बढ़ा रही है? संचय के ज़रिये बढ़ा रही है। इस प्रक्रिया में संचय कोई साधन नहीं रह जाता, वह अंततः साध्य बन जाता है। लगता है, संचय के लिए ही संचय किया जा रहा है, उत्पादन के लिए ही उत्पादन किया जा रहा है। तो अति-उत्पादन की महामारी, जैसा कि मार्क्स ने कहा, पूंजीवाद के युग से पहले कभी नहीं देखी गयी थी। और यह जो पूंजी के स्व-प्रसार की चाह है, वह अंततः मानव समाज से और प्रकृति से अपनी क़ीमत वसूलती है। प्रकृति को लेकर जो मार्क्सवादी नज़रिया है, और जिसकी वजह से हम पूंजीवाद को पर्यावरण के लिए एक बड़े संकट के रूप में पाते हैं, उसके संबंध में पॉल एम स्वीज़ी ने एक बहुत ही दुरुस्त बात लिखी है। मैं उसका हिंदी अनुवाद आपके सामने पढ़ रहा हूं। मैं उसे पढ़कर इसलिए सुना रहा हूं कि जो बातें मैंने कही हैं, उन्हें यहां बेहतर तरीक़े से कहा गया है, और जो सूत्रीकरण इस अनुच्छेद में आता है, वह अपने-आप में मुकम्मल है:
‘पूंजी संचय की यही मनोग्रस्ति या जूनून है जो पूंजीवाद को मानवीय आवश्यकताओं को संतुष्ट करनेवाली सरल व्यवस्था, जैसा कि मेन्स्ट्रीम इकोनॉमिक्स इसे चित्रित करता है, से अलग करती है। और पूंजी संचय के मक़सद से चालित यह व्यवस्था कभी स्थिर नहीं रहती, हमेशा परिवर्तनशील बनी रहती है। उत्पादन और वितरण के पुराने तरीक़ों को ख़ारिज करती है, और नये तरीक़ों को अपनाती रहती है, नये क्षेत्र खोलती है, ऐसे समाजों को अपने उद्देश्य के लिए शिकार बनाती रहती है जो अपनी हिफ़ाज़त खुद नहीं कर सकते। इस अनथक विस्तार और नवाचार की प्रक्रिया में लिप्त यह व्यवस्था अपने लाभार्थियों को भी कुचलती हुई या रास्ते से हटाती हुई आगे बढ़ जाती है अगर वे इसके रास्ते में आते हैं। जहां तक प्राकृतिक पर्यावरण का संबंध है, पूंजीवाद इसे लुत्फ़ उठाने और आस्वाद लेने की चीज़ नहीं मानता। इसे मुनाफ़ाखोरी और इस तरह और पूंजी-संचय के लक्ष्य के साधन के रूप में देखता है।’
यह जो प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति पूंजीवाद का रवैया है, कि वह किसी और रूप में नहीं, सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने के साधन के रूप में महत्त्व रखता है—और मुनाफ़ा क्यों? क्योंकि वह अधिक से अधिक पूंजी संचय में सक्षम बनायेगा—यह रवैया प्रकृति से बहुत बड़ी क़ीमत वसूलता है।
फ्रेड मेडगॉफ़ और जॉन फ़ॉस्टर ने एक पुस्तिका लिखी है, What Every Fundamentalist Should Know About Capitalism, जो मंथली रिव्यू से प्रकाशित है और मुझे इंटरनेट पर मिली। इसमें वे पूंजीवाद की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ-साथ छह ऐसी चीज़ें रेखांकित करते हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे पूंजीवाद द्वारा लायी गयी समृद्धि के बरख़िलाफ़ उसे एक बेहद नुक़सानदेह व्यवस्था के रूप में हमारे सामने रखती हैं। ये इस प्रकार हैं:
- आय और संपदा का ध्रुवीकरण
- बेरोज़गारों या अर्द्ध-बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी
- समय समय पर आनेवाले आर्थिक संकट
- भारी क़ीमतों का बाह्यीकरण (एक्स्टर्नलाईज़ेशन), जिससे वे क़ीमतें समाज और पर्यावरण को चुकानी पड़ती हैं
- युद्ध और साम्राज्यवाद
- असंख्य व्यक्तियों की क्षमताओं की बर्बादी
यह जो चौथा बिन्दु है, एक्सटर्नलाईज़ेशन ऑफ़ कॉस्ट्स, इसे हमारे विषय के संदर्भ में समझना ज़रूरी है। इसकी बहुत सरल परिभाषा है, ‘Externalized costs are cost of production that someone else pays.’ यह उत्पादन-लागत का ऐसा हिस्सा है जो कोई और चुकाता है। किसी चीज़ का बाज़ार मूल्य कम है तो इसलिए कि उसकी लागत कम पड़ी है, और लागत कम इसलिए पड़ी है कि उन चीज़ों की क़ीमत उत्पादक से वसूल नहीं की गयी जिनकी क़ीमत अंततः यह समाज चुकाता है। मसलन, आप जानते हैं कि ऊर्जा के अन्य स्रोतों के मुक़ाबले कोयला सस्ता स्रोत है। वह सस्ता क्यों है? इसलिए है कि कोयले के खनन के कारण जिन इलाक़ों का पर्यावरण संतुलन ख़राब हुआ, जितने बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हुए, उस खनन से पैदा होनेवाली बीमारियों के शिकार होकर जितने लोग मरे, उस खनन से पानी के गंदला होने पर मनुष्यों पर और जलचरों पर जो असर पड़ा, इन सारी चीज़ों की क़ीमत कोयले के उत्पादन में और कोयले से बननेवाली बिजली के उत्पादन में नहीं जोड़ी गयी। यानी यह क़ीमत किसी और ने चुकायी। यह है, एक्सटर्नलाईज़ेशन ऑफ़ कॉस्ट्स। पूंजीवाद में बड़े पैमाने पर क़ीमतों का यह एक्सटर्नलाईज़ेशन या बाह्यीकरण होता है, और पर्यावरण के नुक़सान को इसी बाह्यीकरण के रूप में देखा जाना चाहिए।
तो दोस्तो, ये मोटी बातें हैं जो हिंदी कहानी से सीधे ताल्लुक नहीं रखती हैं, लेकिन हमारे विषय से ताल्लुक रखती हैं।
हिन्दी कहानी में पूंजी-हितैषी विकास और पर्यावरण
अब हिंदी कहानी पर बात करते हुए मैं आपके सामने कोई सर्वे पेश नहीं करूंगा। मैं आपको 25-50 कहानियों के नाम गिना दूं और उनके बारे में एक-एक, दो-दो लाइनों में कुछ बता दूं तो इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। न ही उससे यह साबित होगा कि इतनी ही कहानियां हैं इस समस्या पर केंद्रित। इसलिए मैं कुछ ही कहानियां उठाऊंगा, उनका थोड़ा लंबा और शायद गहरा विश्लेषण करने के कोशिश करूंगा।
लेकिन उससे पहले मैं कहानियों की दो श्रेणियां बनाना चाहता हूं। पहली श्रेणी उन कहानियों की है जो मेरे विषय से भी ताल्लुक़ रखती हैं और इस एफ़डीपी की केन्द्रीय थीम से भी—यानी जिनमें पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध करते हुए पर्यावरण के पक्ष को सामने लाने का प्रयास किया गया है। आप जानते हैं कि पूंजीवादी विकास की मुख़ालफ़त करते हुए पर्यावरण के पक्ष को हर बार सामने लाना ज़रूरी नहीं है। हो सकता है, कोई कहानी मानव समाज और मानवीय संबंधों पर केंद्रित रह जाए। कहानी तो एक छोटे कलेवर वाली विधा है, वह वैसे भी कई पक्षों को समेटने वाली विधा है नहीं। तो यह बिल्कुल संभव है कि पर्यावरण का पक्ष कुछ कहानियों में न आए। मैं पहली श्रेणी में ऐसी कहानियों को नहीं रख रहा हूं। पहली श्रेणी में मैं ऐसी ही कहानियों को रखूंगा जिनमें हमारे सत्र के विषय को संबोधित किया गया है और उसे पर्यावरण के कोण से संबोधित किया गया है।
ज़ाहिर है, इस श्रेणी में मैं ऐसी कहानियों को भी शामिल नहीं करूंगा जिनमें पर्यावरण के ख़राब होते जाने का पक्ष तो आता है, पर पूंजीवादी विकास का कोई क्रिटीक उभर कर नहीं आता। यानी जिनमें पाठक के सामने कुछ ऐसा नहीं आ पाता जिससे वह यह कह सके कि पर्यावरण के इस बिगाड़ के पीछे सिर्फ़ मनुष्य की लापरवाही है या यह पूंजीवादी विकास का संकट है? अनेक कहानियाँ हैं जिनमें पक्षियों के ग़ायब होते जाने या हरियाली के ग़ायब होते जाने की बात मिलती है, लेकिन उसके कारणों की कोई ऐसी पड़ताल नहीं है। कारणों की पड़ताल न होने से, या कारण के रूप में पूंजीवादी विकास को चिह्नित न किये जाने से कोई कहानी ख़राब नहीं हो जाती। हो सकता है, उस कहानी ने अपना दायरा ही वही तय किया हो और जिस बात को वह कह रही हो, उसे बहुत ठोस तरीक़े से कह रही हो। लेकिन वह फ़िलहाल हमारे मतलब की नहीं है। तो मैं पहली श्रेणी में ऐसी कहानियों को ही सामने रखूंगा जिनमें पर्यावरण का नाश पूंजीवादी विकास के संकट के रूप में सामने आए, सिर्फ़ मनुष्य की लापरवाही या असंवेदनशीलता के साक्ष्य के रूप में नहीं।
मेरी जो दूसरी श्रेणी होगी, वह ऐसी कहानियों की होगी जो मेरे सत्र के विषय से तो जुड़ती हैं, पर इस एफ़डीपी की थीम से नहीं जुड़ती हैं—यानी जिनमें पूंजीवादी विकास की आलोचना तो है, पर वह पर्यावरण के कोण से नहीं है। आप महसूस करेंगे कि ऐसी कहानियां पर्यावरण का प्रश्न तो नहीं उठा रही हैं, पर उनमें भी पर्यावरणीय प्रश्न व्यंजित हैं। व्यंजना शक्ति से आप परिचित हैं—कुछ बातें बिना कहे भी कह दी जाती हैं।
तो अब हम पहली श्रेणी पर बात करें। इस श्रेणी में आपको अधिक कहानियां नहीं मिलेंगी। पर्यावरण के कोण से पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध उपन्यासों में ज़्यादा मिलेगा। क्यों? इसलिए उपन्यास आम तौर पर जीवन के कई पक्षों को समेटने की कोशिश करते हैं, और उसमें यह पहलू भी संबोधित हो जाता है। कहानी के साथ कुछ ऐसा रहा है कि जब तक वह अपने क्लासिकी ढांचे को तोड़कर नहीं निकलती, तब तक इन प्रश्नों को संबोधित करने की गुंजाइश नहीं निकाल सकती थी। इसलिए आप देखेंगे कि वे आम तौर पर पिछली सदी के आखिरी दशक की कहानियां हैं, या फिर नयी सदी की, सन 2000 के बाद की कहानियां हैं, जिनमें इस तरह के सवालों को संबोधित किया गया है। और मैं इनका विवेचन करते हुए आपको यह दिखलाने की कोशिश करूंगा कि यह कहानी की संरचना में आये हुए बदलाव के बाद ही संभव हो पाया है। निश्चित रूप से, यह प्रकृति और पर्यावरण के प्रति जो नयी क़िस्म की सजगता पैदा हुई है, उस सजगता के कारण भी हुआ है। लेकिन वह इसके साथ-साथ इस कारण भी हुआ है कि कहानी ने अपने ढांचे को बदला है और उसमें यह गुंजाइश बनायी है कि अपने समय के सवालों को बड़े स्तर पर संबोधित कर पाए। कैसे? मैं इस पर आऊंगा जब कहानियों पर बात होगी।
इस पहली श्रेणी में मैंने पंकज मित्र की ‘सेंदरा’, ‘बोनसाई’ और ‘बिन पानी डॉट कॉम’—इन तीन कहानियों को रखा है; मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘पानी’ को रखा है, उदय प्रकाश की ‘मैंगोसिल’ को रखा है, और संदीप मील की ‘कोकिलाशास्त्र’ को। दूसरी श्रेणी, जिसमें पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध मिलेगा, लेकिन पर्यावरण के कोण से नहीं, उसमें अनिल यादव की कहानी ‘नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं’, योगेंद्र आहूजा की कहानी ‘खाना’, मनोज रूपड़ा की ‘रद्दोबदल’, और चंदन पाण्डेय की ‘ज़मीन अपनी तो थी’ को मैं शामिल करता हूं।
कहानियों की संख्या बहुत बढ़ायी जा सकती है। कारण यह कि हिंदी साहित्य का मुख्य स्वर व्यवस्था विरोधी रहा है, और इसीलिए पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध हमें काफ़ी कहानियों में मिल सकता है, लेकिन मेरे लिए प्राथमिक महत्त्व की कहानियां वे हैं जिनमें पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध पर्यावरण के दृष्टिकोण से किया गया है और जैसा कि मैंने कहा, ऐसी कहानियां संख्या में बहुत ज़्यादा नहीं हैं।
कहानी की संरचना का बदलाव और नये प्रश्नों की गुंजाइश
अभी जो मैं आपसे कह रहा था कि यह पिछले तीन दशकों की हिंदी कहानियों में ही बड़े पैमाने पर दिखलायी पड़ पाता है, और उसका कारण यह है कि कहानियों की संरचना बदली है, तो सवाल है कि संरचना का वह बदलाव है क्या?
आप जानते हैं कि कहानी में, जिसे अंग्रेजी में शॉर्ट स्टोरी कहते हैं, आम तौर पर एक फोकस्ड, एकान्वित कथा होती है—यानी घटनाओं की एक ऐसी अर्थवान शृंखला जो कई दिशाओं में अपनी शाखा-प्रशाखाएं नहीं फेंकती।
मैं जब ‘कथा’ कहता हूं तो उसका आशय ‘कहानी’ से नहीं, कहानी के कच्चे माल से होता है। इसे ध्यान में रखकर कहानी की संरचना पर विचार करें तो पायेंगे कि वह अंततः ‘कथा+प्रस्तुति’ के सूत्र में घटायी जा सकती है। कथा ‘इवेंट्स एण्ड एक्सिसटेंट्स’ का समुच्चय है। आप किसी भी कहानी को जब पढ़ते हैं तो आपके सामने उसकी प्रस्तुति होती है। आप कहानी की घटनाओं को एक ख़ास तरह के सिलसिले में, एक विशेष तरह की भाषा और शैली में निबद्ध पाते हैं अपने सामने। लेकिन वही जब आप किसी और को सुना रहे होंगे—जैसे अभी मैं आपको कई कहानियां सुनाऊंगा—तो असल में आप उसकी कथा सुना रहे होते हैं। आप उसकी प्रस्तुति को नहीं सुना रहे होते, क्योंकि प्रस्तुति तो स्वयं पूरी-की-पूरी कहानी है। यानी आप बताते हैं कि घटना क्या हो रही है, किन पात्रों के बीच हो रही है, कहां पर हो रही है। यही ‘इवेंट्स एण्ड एक्सिसटेंट्स’ है। ‘इवेंट्स एण्ड एक्सिसटेंट्स’ को मिलाकर बनी कथा। और इसे पेश करने का एक ख़ास तरीक़ा होगा, भाषा होगी—ये सब मिलाकर बनी प्रस्तुति। मतलब यह कि प्रस्तुति के अंतर्गत आप उन्हीं चीज़ों को रखते हैं जो कि असल में आपके सामने तैयारशुदा कहानी के आने के बाद उसमें से कथा को माइनस कर देने, घटा देने के बाद बचती हैं। आपके सामने एक कहानी है, उसमें से कथा यानी घटनाओं-पात्रों-परिवेश आदि को माइनस कर दें तो जो तत्त्व बचे रह गये, वे प्रस्तुति के तत्त्व हैं।
अब यह जिसे मैंने कथा कहा, जो ‘इवेंट्स एण्ड एक्सिसटेंट्स’ का समुच्चय है, उसके दो पक्ष होते हैं। एक है, परिणति पक्ष, और दूसरा है, प्रक्रिया पक्ष। घटनाओं की वह मोटी-मोटी शृंखला जो किसी परिणति तक, किसी नतीजे तक पहुंच रही है, उसे मैं कथा का परिणति पक्ष कहता हूं। और दूसरा है, प्रक्रिया पक्ष। कहानी में संकट/क्राइसिस जहां से शुरू हुआ, और एक अंतिम परिणति तक पहुंचा, उसके बीच बहुत कुछ है जिसे रचनाकार समेट सकता है। उसको मैं प्रक्रिया पक्ष कहता हूं। असल में, हिंदी कहानी की पूरी विकास यात्रा में आप इस चीज़ पर ग़ौर कर सकते हैं कि वह प्रक्रिया पक्ष और परिणति पक्ष का बदलता हुआ अनुपात है जो अलग-अलग दौर की कहानियों में दिखलायी पड़ता है। मिसाल के लिए, आप प्रेमचंद या मंटो की कहानियों को देखें तो पायेंगे कि वे मूलतः परिणति पक्ष की कहानियां हैं। उनमें प्रक्रिया पक्ष न हो, यह तो हो नहीं सकता, पर उनमें ग़ौर करने वाली मुख्य चीज़ होगी घटनाओं की अंतिम परिणति; इसीलिए आप उन कहानियों का अपेक्षाकृत आसानी से संक्षेपण कर सकते हैं। बाद की, नयी कहानी के दौर की कहानियों को देखें तो पायेंगे कि वहां प्रक्रिया पक्ष महत्त्वपूर्ण हो गया है, परिणति पक्ष उतना अहम नहीं रह गया है। वह होगा तो अवश्य, कहानी कहीं-न-कहीं पहुंचती होगी ही, पर वह जहां पहुंचती है, वहां उसका पहुंचना बहुत ज़्यादा मायने नहीं रखता है। यानी कहानी की जो यात्रा है, वही आपको वास्तविक पठन सुख देती है। आप उस प्रक्रिया की बारीकियों को, उसके ब्योरों को सुनते, हृदयंगम करते कहानी का आस्वाद लेते हैं। यह नयी कहानी के दौर में हुआ। इसीलिए उस दौर की ज़्यादातर कहानियां संक्षेपण के लिए बिलकुल प्रतिकूल हैं। इसके बाद हिंदी में 90 के दशक से, या कहिए 80 के दशक के आख़िरी वर्षों से ऐसी कहानियां बहुत दिखने लगीं जिनमें परिणति पक्ष भी महत्त्वपूर्ण था और प्रक्रिया पक्ष भी। साथ ही, उनमें प्रक्रिया पक्ष बहुत ही विस्तृत हो गया था। इन कहानियों में कथा-सार के तौर पर उनके परिणति पक्ष को सुनाया तो जा सकता है, पर प्रक्रिया पक्ष वहां नदारद होगा और आप महसूस करेंगे कि आपके सुनाए हुए सार में कहानी की आत्मा नहीं आ पाई है। आगे मैं आपको पंकज मित्र की कहानी ‘सेंदरा’ का सार सुनाऊंगा तो यह बताने की भी कोशिश करूंगा कि उस कथा-सार में कैसे कहानी की आत्मा ही छूट गई है। और वह आत्मा असल में पूंजीवादी विकास से पर्यावरण के साथ जो कुछ हो रहा है, और पर्यावरण के साथ होने से मनुष्य समाज के साथ जो कुछ हो रहा है, उसको सामने लाती है। लेकिन उसे वह अपने प्रक्रिया पक्ष से अड्रेस करती है। अगर मैं उसके परिणति पक्ष के सार को आपके सामने पेश करूं, जो कि कथासार कहलाता है, तो आपको कहानी के सरोकार को लेकर कुछ भी हासिल नहीं होगा। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब ये हुआ कि हिंदी कहानी ने जिस समय अपने ढांचे को बदला, या नयी ज़रूरतों के तहत अपने ढांचे को बदलने का दबाव अनुभव किया, उस समय से हिंदी कहानी में पर्यावरण जैसे सवालों को, और उस तरह के कई सवालों को, संबोधित करने की क्षमता पैदा हुई। अगर यह न होता तो जिसे हम परिणति पक्ष कहते हैं, उसकी कहानियों के रूप में पर्यावरण संकट को, और वह भी किसी पूंजीवादी विकास मॉडेल के नतीजे के रूप में पर्यावरण संकट को, पेश करना कहानी के कलेवर में मुश्किल था।
सेंदरा
मैंने अभी जिस कहानी का नाम लिया, ‘सेंदरा’, वह पंकज मित्र की कहानी है। वे 90 के दशक में उभरे हुए महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। शुरुआत से ही उनकी कहानियों में कुछ सवालों को लेकर एक स्पष्ट सजगता दिखलायी पड़ती है। उनमें से एक सवाल पर्यावरण का सवाल भी है। लेकिन वह सिर्फ़ पर्यावरण का सवाल नहीं है। कैसे, यह इस कहानी के माध्यम से देखिए।
‘सेंदरा’ का मतलब होता है, शिकार, आखेट। संथाली भाषा का शब्द है। कहानी यह बताने की कोशिश करती है कि कैसे यह राष्ट्र-राज्य पूंजीपतियों की सेवा के लिए इस देश के सबसे ग़रीब, सबसे पिछड़े जनों का शिकार करता है। ये आदिवासी जो बहुत महंगी खनिज संपदा से भरे हुए वनों में सदियों से निवास कर रहे हैं, उनको वहां से उजाड़ना, उनकी जगह पर क़ब्ज़ा करना, और उनके नक्सली हो जाने की स्थिति में उनका और दमन करने की वैधता हासिल कर लेना—यह एक तरह का शिकार है। इस सेंदरा में, इस शिकार में मारे जाते हैं आम आदिवासी, और लाभार्थी पूंजीपति होता है जो कहीं दिख नहीं रहा है। दिख रहा है राष्ट्र-राज्य, उसकी पुलिस, उसकी फ़ौज, उसके जेलखाने, उसकी अदालतें; और शिकार हो रहे हैं, आम आदमी, आदिवासी, दलित। पूंजीपति कहीं नहीं दिख रहा है, लेकिन ये सारा खेल उसी के लिए है।
अब मैं आपके सामने केवल परिणति पक्ष की दृष्टि से ‘सेंदरा’ का सार-संक्षेप पेश कर रहा हूं : एक भोले-भाले आदिवासी को, जो झारखंड के जंगलों में किसी एनकाउन्टर के समय दोनों तरफ़ से चलती गोलियों से घबराकर अपनी बकरियों के साथ एक गड्ढे में छुप गया था, पकड़कर पुलिस सोमरा मुंडा नामक एक विख्यात-कुख्यात बाग़ी के रूप में पेश करती है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वह इस बात का कोई सबूत नहीं जुटा पाती कि वह सोमरा मुंडा ही है। उसे अदालत से पंद्रह दिनों की रिमांड पर लेने के बावजूद पुलिस ने सुरक्षा कारणों से उसे जेल में ही रखने की इजाज़त मांगी है। जब सबूत नहीं मिल पाते तो एक दिन यह दिखाकर कि उसके दल के लोगों ने ही भेद खुलने के डर से जेल ब्रेक करके उसे मार दिया, पुलिस इस कथित सोमरा को ख़त्म कर देती है। उसका सिर काटकर हटा दिया गया है ताकि उसके पहचान न हो पाए।
यह कहानी का परिणति पक्ष है। लेकिन अगर कहानी इतनी ही होती और इसी एक घटनाक्रम को नाटकीय विधि से ज़रूरी विवरणों के साथ प्रस्तुत कर दिया जाता तो यह पुलिस अत्याचार की एक कहानी तो होती, पर पुलिस, प्रशासन और पूरा राज्यतंत्र जिसके क़ब्ज़े में हैं, उस पूंजीपति वर्ग के हितों का रेखांकन न हो पाता। यह परिदृश्य कहानी के प्रक्रिया पक्ष में उभरता है जहां असली सोमरा की कथा टुकड़ों-टुकड़ों में सामने आती है और यह उद्घाटित होता जाता है कि जिस विकास के नाम पर इस देश में चुनाव लड़े और जीते जाते हैं, आदिवासियों के लिए उसके क्या मायने हैं, वे इस देश को अपना देश और इसकी सरकार को अपनी सरकार क्यों नहीं मान पाते, क्यों वे उस पार्टी और विचारधारा की शरण में जाते हैं जो उन्हें हिंसा की राह दिखाती है। इस प्रक्रिया पक्ष से आपको पता चलता है कि जिस ‘विकास’ के आप लाभार्थी हैं, उसकी क़ीमत कौन चुका रहा है, कौन है जिसके लिए ‘राष्ट्रवाद’, ‘विकास’, ‘क़ानून-व्यवस्था’, ‘राष्ट्रीय समृद्धि’, ये सब आग उगलती हुई स्वचालित मशीनगनें हैं जिनका रुख उसकी तरफ़ है। वह दलाल या बाग़ी बनकर अपने को बचा सकता है तो बचा ले, वरना सोमरा के बाप एतवा मुंडा की तरह या सोमरा की भोली-भाली पत्नी चांदो की तरह या सोमरा के नाम पर पकड़े गये निरीह आदिवासी युवक की तरह अपनी जान से हाथ धो बैठे।
इसके अलावा और भी बहुत कुछ है कहानी में, जो पूंजीवादी विकास के मानवविरोधी और प्रकृतिविरोधी चरित्र को सामने लाता है। यह सब उस प्रक्रिया पक्ष का हिस्सा है जहां कहानी की आत्मा बसी हुई है। इसलिए इसे परिणति पक्ष के आधार पर कस्टोडियल किलिंग की एक कहानी मान लेना इसके महत्त्व को बहुत कमतर करना होगा। एक बहुत बड़ा आदिवासी समुदाय इस भारतीय राष्ट्र-राज्य के हाथों अपने प्राकृतिक आवास की तबाही के बीच जिस तरह उत्पीड़ित और प्रताड़ित हो रहा है, उसकी ओर कहानी हमारा ध्यान खींचती है, और यह बतलाती है कि वह क्यों हो रहा है! यह ‘सेंदरा’ कहानी की विशेषता है। इस क्रम में उसका शीर्षक भी अपने अर्थ का विस्तार कर लेता है। वह पुलिस के हाथों एक आम आदिवासी का सेंदरा नहीं रह जाता, वह पिछले पचहत्तर सालों में भारतीय राष्ट्र-राज्य द्वारा आदिवासी समुदाय का सेंदरा बन जाता है। और आदिवासी समुदाय का यह शिकार क्यों हो रहा है? क्योंकि इसके पीछे पूंजी है। वह पूंजी जो लगातार अपना प्रसार करना चाहती है।
बोनसाई और बिन पानी डॉट कॉम
पंकज मित्र की दो और कहानियों की संक्षेप में चर्चा करूंगा। एक कहानी है, ‘बोनसाई’। चिंतू जो उसका मुख्य पात्र है, बहुत ही जागरूक है। उसे पता चलता है कि कुवांरी नदी पर कोई मल्टीनैशनल कंपनी एक बांध बनाने जा रही है। ईमान साहब की प्रेरणा से वह एक अध्ययन शुरू करता है कि इसके बनने से कितना बड़ा नुकसान होगा। उसकी खोज रिपोर्ट का निष्कर्ष यह है कि इस बांध के बनने से कंपनी को छोड़कर और किसी को फ़ायदा नहीं होगा। जनता को और देश को नुकसान ही होगा। वह रिपोर्ट लेकर दिल्ली जाता भी है। एक सेमीनार में प्रेज़न्टेशन भी होता है। उसे उम्मीद जगती है कि चीजें हल हो जाएंगी। पर वह पाता है कि ईमान साहब ईमानदार नहीं रह गये हैं, और वे यह कहते हैं कि इसके लिए आंदोलन करने की ज़रूरत नहीं है, बातचीत से नतीजा निकलेगा। पता चलता है कि इस रिपोर्ट को पेश करने के बाद उस एमएनसी से ईमान साहब की सौदेबाज़ी हुई, और दरअसल यह रिपोर्ट तैयार करने के लिए उन्होंने चिंतू को इसीलिए उकसाया था कि रिपोर्ट जितनी विध्वंसक तैयार होगी, सौदेबाज़ी उतनी ही तगड़ी होगी। तो वे सौदेबाज़ी कर लेते हैं, अंततः उस बहुराष्ट्रीय कंपनी का कुछ नहीं होता और बांध बनने के शुरुआत हो जाती है। कहानी में और भी पहलू हैं, पर अपने विवेचन को छोटा रखने के आग्रह से उसे छोड़ रहा हूं।
एक और कहानी है पंकज मित्र की, ‘बिन पानी डॉट कॉम’, जिसमें पानी के सवाल को उठाया गया है (पानी के सवाल पर ही हम अपनी अगली कहानी की चर्चा करेंगे)। ‘बिन पानी डॉट कॉम’ का पाठ अभी मेरे सामने नहीं है। बहुत पहले की पढ़ी हुई कहानी है। यह किसी पुराने सुल्तान द्वारा नये सुल्तान की ताजपोशी करने की कहानी है। पुराना सुल्तान असल में पुराना शासक वर्ग और और नया सुल्तान कॉर्पोरेट सेक्टर है, जो आज के राजा हैं। उनकी ताजपोशी हो रही है। इस मौक़े पर पानी सबसे महंगी चीज़ हो चुकी है। बोतलबंद पानी से ज़्यादा महंगा कुछ भी नहीं है। कोल्ड ड्रिंक्स और तमाम दूसरी चीज़ें पीकर लोग प्यास नहीं बुझा पाते हैं। नतीजतन वे लगातार एक गहरी प्यास से गुज़र रहे हैं। और बोतलबंद पानी इतना महंगा है कि उसे हासिल करना लगभग नामुमकिन है। मैं इस कहानी का और विस्तार में विवेचन कर पाता, अगर मेरे सामने इसका पाठ होता। मैं यह जरूर कहूंगा कि आप इसे तलाश कर पढ़िए। यह उनके पहले कहानी संग्रह क्विज़ मास्टर और अन्य कहानियां में है।
पानी
जिस दूसरे कहानीकार की मैं बात करने जा रहा हूं, वे हैं, मनोज कुमार पांडेय। उदय प्रकाश को मैं आख़िर में लूंगा जो इनमें सबसे वरिष्ठ कहानीकार हैं।
मनोज कुमार पांडेय की ‘पानी’ एक लंबी कहानी है। संभवतः आपमें से कुछ लोगों ने पढ़ी होगी। मैं इस कहानी पर लिखे हुए अपने लेख का एक हिस्सा सामने रखते हुए इस कहानी का परिचय दूं : ‘यह एक ऐसे गांव की कहानी है जहां जीवन का पूरा ताना-बाना लंबे अकाल और उसके बाद भीषण बाढ़ की भेंट चढ़ चुका है। कुछ साल पहले तक यहां किसी बड़ी हलचल के बगैर एक भरा-पूरा जीवन अपनी गति से चल रहा था। “पेड़-पौधे, जानवर, तालाब, लड़ाई-झगड़े, प्रेम, ऊंच-नीच, सब कुछ वैसा ही जैसा आपने और जगहों पर देखा-सुना होगा।… फिर अचानक सब कुछ बदल गया।” गांव के उत्तर में, क़रीब आठ-दस बीघे में फैला एक तालाब था, जो “किसी एक गांव का नहीं, समूचे गांव का था, बल्कि गांव के बाहर के लोगों का भी था।” यह तालाब गांव के जीवन के साथ कुछ इस तरह गुंथा हुआ था कि उसके बिना जीवन की कल्पना भी गांव वालों के लिए नामुमकिन थी। एक समय आया जब गांव के मातबर मगन ठाकुर ने इस तालाब का पट्टा अपनी माता के नाम करा लिया और उसका सारा पानी इंजनों की मदद से बकुलाही नदी में उतारकर तालाब पाट दिया गया। यह होना था कि तालाब की ज़िंदगी पटरी से उतर गयी। अगले ही साल सूखा पड़ा और उस सूखे से लड़ने के अपने सारे इंतज़ामात से वंचित हो चुके गांव ने अपने को पूरी तरह से अपंग पाया। “तालाब पाट दिये जाने के बाद गांव की खेती का भूगोल बदल गया। चारों तरफ़ से पानी आने और जाने का रास्ता तालाब की तरफ़ से होकर जाता था। तालाब रहा नहीं तो सारे पानी का रास्ता खो गया था। शुरुआती बारिश का पानी जो तालाब में आता तो हमें जीवन देता, उसी रास्ते से बकुलाही की तरफ़ बह गया जिस रास्ते से तालाब का पानी बकुलाही की तरफ़ गया था। यही उसका देखा-जाना रास्ता था।” संकट गहराता गया। तब धरती के सीने में छेद करके मगन ठाकुर ने पंप लगवाया और पानी जैसी चीज़ बेची जाने लगी जिसे अभी तक लोगों ने श्रम से जोड़कर देखा था, पैसे के साथ नहीं। अब सिंचाई के लिए “श्रम से पहले पैसे की ज़रूरत थी और पूरे गांव में एक अकेले मगन को छोड़कर पैसे का कोई स्थायी स्रोत किसी के पास नहीं था।” अकाल क्रमशः और भयावह होता गया । एक के बाद एक ऐसी चीज़ें घटित होती गयीं जिनके बारे में लोगों ने कभी सुना-सोचा भी न था। लोगों, यहां तक कि हर जड़-जंगम के व्यवहार में अजीबोग़रीब बदलाव आते गये। अकाल ने उनकी भूख और प्यास को ही नहीं, ज़िंदगी के हर पहलू को अपनी ज़द में ले लिया। महामाई और मुहनोचवा जैसी रहस्यमय चीज़ों के साथ तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और अनंतर लूटपाट आम बात होती गयी। शोषक को चिह्नित कर उग्रवाद के ज़रिये बदलाव को संभव करने की नाकाम कोशिशें भी हुईं। पूरी कहानी इस प्रक्रिया के चरणों को उभारते हुए भयावह घटनाओं के एक सिलसिले के रूप में बुनी गयी है। जिसमें धीरे-धीरे आबादी का एक बड़ा हिस्सा मौत के घाट उतरता जाता है और अंत में एक भीषण बाढ़ से घिरे बहत्तर लोग ऊंचाई पर बने मगन ठाकुर के घर की छत पर बचे रह जाते हैं, पानी के उतरने का इंतज़ार करते और नये सिरे से जीवन शुरू करने की उम्मीद में अटके।… कहानी का वाचक एक ‘होमो-डाइजेटिक नैरेटर’ है, प्रथम पुरुष में कहानी कहता गांव का ही एक बाशिंदा, जो बाढ़ से घिरे बहत्तर लोगों में से एक है।… वह ‘मैं’ शैली में कम, ‘हम’ शैली में ज़्यादा चीज़ें बयान करता है (कहानी का आख़िरी वाक्य भी है: ‘हम जो बचे हैं, इसे हमारा सामूहिक बयान माना जाए’)। वह बार-बार प्रकृति के साथ हुए पुराने समझौतों का हवाला देता है। वह तालाब, नदी, पेड़-पौधों और जानवरों की बातें ऐसे करता है जैसे इन सबको एक जीवित व्यवस्था के सचेतन अंगों के रूप में देख रहा हो। … ऐसा व्यक्ति जब पीछे के तमाम विवरण पेश करता है, तो पर्यावरण के साथ मानवीय रिश्ते का संतुलन भंग होने की भयवाहता बहुत तीव्रता से उभरती है।’
इस कहानी में अगर आप कोई ख़ास देशकाल ढूंढ़ने चलेंगे तो आपको बड़ी दिक़्क़तें पेश आएंगी। यह कहानी इतिहास के किसी ख़ास दौर के विश्वसनीय और सत्यापनीय विवरणों के लिए नहीं लिखी गयी है। यह बहुत अद्भुत तरीक़े से आपको प्रकृति के साथ खिलवाड़ न करने की चेतावनी देने के लिए लिखी गयी है। यह चेतावनी देती है कि जिस तरह के पूंजीवादी भुक्खड़पन के हम शिकार हैं, वह बेहद ख़तरनाक है। मुनाफ़ा बनाने की जो हवस आपको इस कहानी में दिखलायी पड़ती है, वह वैसी ही पूंजीवादी हवस है। आप कह सकते हैं कि मगन ठाकुर कोई पूंजीपति तो है नहीं, अधिक से अधिक आप उसमें एक सामंती ज़मींदार देख सकते हैं। लेकिन यह सामंती जमींदार गांव की मुश्किलों का फ़ायदा किस रूप में उठाता है? वह उनका फ़ायदा एक पूंजीपति के रूप में उठाता है। वह आपको कहानी के भीतर एक मुनाफ़ाखोर पूंजीपति में तब्दील होता हुआ दिखायी पड़ता है। और प्रकृति को उसने जिस तरह नाधने की कोशिश की, वह प्रारूपिक/टिपिकल पूंजीवादी ‘विकास’ के पैटर्न पर है। तो उसके ज़रिये प्रकृति के साथ पूंजीवाद का खेल सांकेतिक रूप में प्रकट होने लगता है।
मैंगोसिल
मैं जिस तीसरे कहानीकार की बात करने जा रहा हूं, वे हैं, उदय प्रकाश। उदय प्रकाश के यहां इस पूंजीवादी विकास का प्रतिरोध बहुत मुखर रूप में मिलता है। मुखर कहने से मेरा आशय यह है कि उदय प्रकाश ने अपनी एक ख़ास कहानी शैली विकसित की है जिसमें नैरेटर बहुत ही बोलनेवाला होता है। वो लगभग आपके सामने उपस्थित रहता है। वह घटनाएं ही नहीं बताता, उन पर टिप्पणियां भी करता चलता है। ऐसा नैरेटर उदय प्रकाश के यहां 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में उभरकर आया। ऐसे नैरेटर के रहते इस चीज़ की गुंजाइश भी बहुत थी कि जो चीज़ें पहले का लेखक सिर्फ़ व्यंजना के भरोसे छोड़ देता, उसको वे साफ़-साफ़ अभिधा में कह सकते थे। तो इसीलिए पूंजीवाद के खेलों को उन्होंने अपनी कहानियों में बहुत साफ़ तौर पर बताया।
‘मैंगोसिल’ उदय जी की इस सदी की कहानी है। यह भी लंबी कहानी है। याद रखिए कि मैं जितनी कहानियों की बात कर रहा हूं, सभी आम तौर पर लंबी कहानियां हैं। और इसी से यह बात भी आपके ध्यान में रहेगी कि मैं कहानी के ढांचे में आयी एक तब्दीली के साथ ही इसे जोड़कर देख पा रहा हूं। आख़िर हम सिर्फ़ पर्यावरण की बात तो कर नहीं रहे हैं। हम साहित्य के हवाले से पर्यावरण की बात कर रहे हैं। लिहाज़ा, हमें अपना साहित्य वाला पक्ष तो छोड़ना नहीं ही है। यह जिसे मैं संरचना में आयी तब्दीली कह रहा हूं, इसके कारण कहानियों का औसत आकार लंबा हुआ है। और मैं जो उदाहरण दे रहा हूं, उसमें लगातार ऐसी ही कहानियां आ रही हैं जो अपेक्षाकृत लंबी हैं। ‘मैंगोसिल’ तो बहुत ही लंबी कहानी है। लगभग 100 पृष्ठों की। मैं आपको संक्षेप में इस कहानी को सुनाना चाहूं तो यह कहानी के साथ तो एक ज़्यादती होगी, पर सुनाना पड़ेगा। बगैर उसके हमारी बात आगे बढ़ नहीं पायेगी।
यह चंद्रकांत थोराट, उसकी पत्नी शोभा, और उसके दो बच्चों—सूर्यकांत और अमरकांत की कहानी है। नैरेटर भी कहानी में एक कैरेक्टर की तरह शामिल है। और यह नैरेटर किसी और नाम से आनेवाले पात्र के बजाये स्वयं उदय प्रकाश हैं। वो कहीं अपना नाम भले ही न बतायें, यह बहुत स्पष्ट कर देते हैं कि ‘मैं’ के रूप में वे स्वयं हैं—हिंदी का एक लेखक जो हिंदी की दुनिया से अपने को बिल्कुल त्रस्त पाता है।
कहानी के पात्र चंद्रकांत थोराट और शोभा बहुत ही ग़रीबी में रहते हैं। पृष्ठभूमि यह है कि शोभा निरंतर यौन उत्पीड़न का शिकार होती रहनेवाली एक विवाहित स्त्री थी। छुटकारा पाने के लिए वह चंद्रकांत के साथ भागी। उस समय उसकी उम्र बीस साल थी और चंद्रकांत की 19 साल। भागकर वे दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाक़े में पहुंचे। यहां उन्होंने नया जीवन शुरू किया और बहुत ग़रीबी में जीते हुए भी प्रेम की ऊष्मता से उनका जीवन सुखमय बना हुआ है। कसक है तो एक ही कि कोई बच्चा नहीं हो रहा है। शोभा को यह अंदेशा भी होता है कि संभवतः लंबे समय तक चले यौन उत्पीड़न के कारण उसकी बच्चेदानी में कुछ ऐसा हुआ है कि वह भ्रूणधारण नहीं कर पा रही है। खैर, लंबे इंतज़ार के बाद वह—चंद्रकांत के अनुसार, बाबा विट्ठल के आशीर्वाद से—गर्भवती होती है। फिर एक शिशु होता है। बहुत खुशी है, लेकिन धीरे धीरे यह दिखलायी पड़ता है कि हर रात उस बच्चे का चेहरा भयानक पीड़ा में ऐंठ जाता है। ऐसा लगता है जैसे अंदर कोई असह्य दर्द है जिसे वह रोकर नहीं निकाल रहा, बस चेहरे की मांसपेशियों के खिंचाव से उसे सहन कर रहा है। वह अपने हाथ उठाकर अपने सिर को छूने की कोशिश करता है जिससे पता चलता है कि दर्द सिर में ही है। धीरे-धीरे उसके सिर का आकार शरीर के अनुपात में बड़ा होता जाता है। डॉक्टरों को दिखलाया जाता है, कोई फ़ायदा नहीं होता। डॉक्टर कहते हैं कि कोई असाध्य रोग है जिसके कारण सिर लगातार बड़ा और भारी हो रहा है। उस भारी सिर को अपने शरीर पर टिकाये हुए वह डगमगाता रहता है। वह संतुलन नहीं रख सकता। इसलिए मुश्किल से खड़ा होता है और डगमगाता रहता है। वह जब बैठता भी है तो सिर को दीवार से टिकाकर किसी तरह खुद को संभाले रहता है। डॉक्टरों के सारे अनुमान को धता बताता हुआ वह नौ साल तक जी जाता है। बालक बहुत ही तीव्र बुद्धि का है। उसकी मानसिक उम्र उसकी शारीरिक उम्र के मुक़ाबले बहुत अधिक है। वह बेहद परिपक्व है, चीज़ें बहुत जल्दी सीखता है। बगल के साइबर कैफ़े में जाकर वह उन चीज़ों को, जो बड़े लोग कई-कई दिनों के अभ्यास के बाद सीख पाते होंगे, उन्हें बड़े आराम से कर लेता है, ऐसे जैसे कोई पुराना अभ्यास हो। साइबर कैफ़े का प्रबंधक उसके कामकाज को बड़ी हैरत से देखता है। लेकिन उसकी अपनी हताशाएं हैं। नौ साल की उम्र में एक बार वह किसी बात पर दुखी और नाराज़ होता है और छत की मुंडेर पर जाकर अपने संतुलनहीन शरीर को नीचे गिर जाने देता है। नैरेटर बताता है कि सूर्यकांत के इस रोग को पति-पत्नी मैंगोसिल कहते थे। इसके बाद उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन और पेंटागन की रिपोर्ट के हवाले दिये हैं जिनमें कहा गया है कि हिंदुस्तान में और साथ ही पूरी तीसरी दुनिया के देशों में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ रही है जिनके सिर बड़े हो रहे हैं। यह पूरी फ़ैन्टेसी है, आप यह न समझिए कि सचमुच ऐसी कोई रिपोर्ट है जिसका हवाला कहानीकार ने दिया है। उदय प्रकाश जब ऐसी बातें कहते हैं तो उसे एक ख़बर की तरह पेश करते हैं।
तो नैरेटर के अनुसार, वह रिपोर्ट बताती है कि ऐसे बच्चे बड़ी तादाद में हो रहे हैं और ग़रीब मुल्कों में ही हो रहे हैं। इनका मस्तिष्क समय से पहले बहुत परिपक्व हो चुका होता है और उसमें शताब्दियों की जैविक स्मृतियां होती हैं। मैं आपको कहानी का आख़िर का वह हिस्सा पढ़कर सुनाता हूं। और इसके बाद मैं शुरुआत का हिस्सा सुनाऊंगा। आप देखिए कि पर्यावरण और प्रकृति के साथ यह कहानी कैसे एक अद्भुत रिश्ता बनाती है!
‘… मेरे सामने वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के इस साल के सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट है, जिसमें डरावने आंकड़े हैं कि तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों के कितने करोड़ बच्चे हर रोज़ कुपोषण, ग़रीबी और गंदगी के कारण असंख्य जानलेवा बीमारियों के शिकार होते हैं और मर जाते हैं।
लेकिन इसी रिपोर्ट में यह चौंकाने वाली सूचना भी दर्ज है कि पिछले कुछ सालों से इन बच्चों को एक ऐसी बीमारी अपनी चपेट में ले रही है जिसमें बच्चे का सिर उसके बाक़ी शरीर की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ता है और उसके मस्तिष्क का व्यवहार अस्वाभाविक हो जाता है। […] लेकिन सबसे चौंकाने वाला दस्तावेज़ पेंटागन का है। इथियोपिया, घाना, भारत, बांग्लादेश, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, बोस्निया, फ़िलस्तीन, कोसावो, श्रीलंका, नामीबिया, निकारागुआ, ब्राज़ील समेत 67 देशों में ऐसे बच्चे लगातार जन्म ले रहे हैं, जिनका सिर तेज़ी से बड़ा हो रहा है।
यहां तक कि खुद अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और ऐसे ही विकसित और अमीर कहे जाने वाले देशों में भी।
…ऐसे बच्चे जिनका दिमाग़ सब कुछ जानता है। वे बच्चों की तरह अबोध और मासूम नहीं हैं।
इन बच्चों के सिर के भीतर स्थित मस्तिष्क की उम्र उनकी स्वाभाविक उम्र से कई गुना ज़्यादा बड़ी है। उस मस्तिष्क में कई शताब्दियों की जैविक स्मृतियां मौजूद हैं। एक तरह से अब तक के इतिहास का एक माइक्रोप्रिन्ट। […]
पेंटागन के मुताबिक़ इस समय के सभी देशों की सभी सरकारों को इन बड़े सिर वाले बच्चों पर निगाह रखनी होगी।
उनकी आइडेंटिटी यह है-
वे ग़रीब घरों में गंदगी और कुपोषण के बीच पैदा हुए हैं। […]’
आपने देखा है न कि सड़क के किनारे कूड़ा बीनने वाले बच्चे कितनी जल्दी मैच्योर हो जाते हैं! रेडलाइट पर आपकी गाड़ी के सामने जो भीख मांगने आ जाते हैं, कितनी जल्दी पके-पोढ़े मनुष्य की तरह हो जाते हैं! एक सामान्य मध्यवर्गीय घर में चार साल के बच्चे से आप जिस तरह की परिपक्वता की उम्मीद करते हैं, उसके मुक़ाबले इन भीख मांगने और कूड़ा बीननेवाले चार साल के बच्चों में कितना फ़र्क़ होता है! तो जैसे परिपक्वता के इस अंतर को चिह्नित करते हुए उदय प्रकाश एक फैंटास्टिक तरीक़े से कुछ नया रचने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें ग़रीबी और कुपोषण में जन्मी मैंगोसिल नाम की बीमारी तक पहुंचते हैं। …. इतना बड़ा पूंजीवादी विकास! फिर ग़रीबी और कुपोषण क्यों है? वह इसलिए है कि इस व्यवस्था के पास उस ग़रीबी और कुपोषण का निदान नहीं है। उन्हें बेरोज़गारों और अर्द्ध-बेरोज़गारों की फ़ौज को बनाये रखना है, ताकि पूंजी के मुक़ाबले श्रम के पास बारगेनिंग क्षमता न आ जाए। जब तक श्रम के पास बारगेनिंग क्षमता रहेगी, पूंजीवाद की मुनाफ़ा कमाने की अगाध भूख को संतुष्ट नहीं किया जा सकेगा। इसीलिए बेरोज़गारों की फ़ौज खड़ी रखी जाती है। आप जानते हैं कि हमारे देश में भी इस कोरोना संकट से पहले ही बेरोज़गारी दर पिछले 45 सालों में अधिकतम के स्तर पर थी। लोग आश्चर्य करते हैं कि सब कुछ होने के बावजूद रोज़गार की इस समस्या का निदान क्यों नहीं हो रहा है? अरे भाई, वह समस्या है ही नहीं, वह तो स्वयं समाधान है! बेरोज़गारी इस पूंजी-केंद्रित विकास के लिए निदान है, समस्या नहीं। तो खैर, इससे जो असमानताएं बढ़ती हैं, उनकी ओर उदय प्रकाश का रचनाकार दौड़ रहा है और उसी के लिए वह रूपक गढ़ता है, फैंटेसी खड़ी करता है।
कहानी की शुरुआत में ‘प्रलय का प्राक्कथन’ और ‘जहांगीरपुरी की गली नंबर सात’ शीर्षक से जो हिस्से हैं, उनमें अपनी अतुलनीय वर्णन-शैली में उदय प्रकाश इस दुनिया के हैव्स और हैवनॉट्स का जो चित्र पेश करते हैं, वह बार-बार पढ़ा जाने लायक़ है। ये ऐसे अंश हैं जिनका कोई सार-संक्षेप मैं नहीं सुना सकता, ख़ासकर ‘प्रलय का प्राक्कथन’ शीर्षक अंश का। पूंजी-केंद्रित विकास की विडंबना को यह हिस्सा जिस तरह हमारे सामने लाता है, वह सरल ‘यथार्थवादी’ पद्धति से संभव नहीं था, जहां ब्योरों की सत्यापनीयता और विश्वसनीयता मायने रखती है और जहां हम पाठक के रूप में भी हर ब्योरे से विश्वसनीय और सत्यापनीय होने की मांग करते हैं। उससे अलग कहानी की एक ऐसी अपनी दुनिया बनाना उदय प्रकाश की पद्धति है जिसमें उतारकर आपको कुछ चीज़ों के प्रति गहरे स्तर पर संवेदनशील बनाया जा सके और जो चीज़ें आपके सामने होकर भी नहीं दिखतीं, उन्हें देखने के लिए आपको निगाह सौंपी जा सके।
यह कहानी प्रकटतः पर्यावरण के ऐंगल से पूंजीवादी विकास को संबोधित नहीं कर रही है, लेकिन अगर मनुष्य पर्यावरण का एक हिस्सा है, और इस ग़ैर-बराबरी में असाध्य रोगों का शिकार होते मनुष्यों का एक पूरा तबका है, तो हमें कहना चाहिए यह पूंजी के हित में पर्यावरण के विनाश की ही कहानी है।
मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था मेरा पूरा वक़्त चार-पांच कहानियों में ही ख़र्च हो जायेगा। आशा है, ‘कोकिलशास्त्र’ (संदीप मील), ‘नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं’ (अनिल यादव), ‘खाना’ (योगेंद्र आहूजा), ‘जमीन अपनी तो थी’ (चंदन पांडेय), ‘रद्दोबदल’ (मनोज रूपड़ा) आदि कहानियों को भी आप पढ़ेंगे और पूंजीवादी विकास की विडंबनाओं—कहीं पर्यावरण के कोण के साथ और कहीं उसके बगैर—के प्रति हिंदी कहानी की प्रतिक्रिया पर और व्यापक नजरिया बना पायेंगे।
sanjusanjeev67@gmail.com
हिंदी कहानी के लगभग उपेक्षित विषय पर एक जरूरी लेख।
बेहद ज़रूरी लेख।
शायद विमर्श के क्षेत्र का सबसे पिछड़ा विषय पर्यावरण ही है, जबकि यह किसी वर्ग, धर्म या जाति या क्षेत्र से नहीं पूरे संसार और इंसानियत से जुड़ा नहीं है। यहाँ भी एंग्लो-अमेरिकन धूर्तता साफ़ नज़र आती है। पर्यावरण में संकट बढ़ाने वाले यह देश अपने मामले में खामोश रहकर एशियाई देशों को कटघरे में खड़ा करने का हर जतन करते नज़र आते हैं।
इस विषय पर बहुत ज़्यादा लिखने और चर्चा किए जाने की ज़रूरत है।
बेहतरीन विश्लेषणात्मक आलेख. यह विषय ही अपने आप में मेरे लिए नया है. पूंजी, मनुष्य और प्रकृति के द्वंदात्मक संबंधों और परिणति को व्याख्यायित करने का अच्छा प्रयास . बधाई संजीव जी.