आज़ादी के बाद का भारत / चंचल चौहान


आज़ादी के बाद के भारत के सामाजिक यथार्थ को समझने के लिए उस पहले सवाल से फिर जूझना ही पड़ेगा कि आख़िर आज़ादी के बाद राजसत्ता किन वर्गों के हाथ में आयी, इसकी सही पहचान से बहुत से आज के जटिल प्रश्न भी कुछ हद तक समझे जा सकते हैं। राजनीतिक दल चाहे जो भी संसद में बहुमत रखता हो, असली सत्ता तो वर्गों के अधीन ही होती है, इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। —चंचल चौहान का आलेख :

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1943 में प्रकाशित तार सप्तक में भारतभूषण अग्रवाल की एक कविता ‘पथहीन’ छपी थी जो इसी सवाल से जूझ रही थी कि आज़ादी के बाद का भारत कैसा होगा : 

कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है?
महाजन जिस ओर जायें – शास्त्र हुंकारा
अंतरात्मा ले चले जिस ओर – बोला न्याय पंडित
साथ आओ सर्वसाधारण जनों के – क्रांति वाणी।
पर महाजन – मार्ग – गमनोचित न संबल है, न रथ है,
अंतरात्मा अनिश्चय – संशय – ग्रसित,
क्रांति – गति – अनुसरण – योग्या है न पद सामर्थ्य।
कौन सा पथ है?
मार्ग में आकुल – अधीरातुर बटोही यों ही पुकारा
कौन सा पथ है? 

मुख्य रूप में कविता के वाचक को दो ही रास्ते उस समय संभव लग रहे थे, एक महाजनी सभ्यता यानी पूंजीवाद का रास्ता, दूसरा समाजवादी क्रांति का।  लेकिन मध्यवर्ग संशयग्रस्त रहा। फिर आज़ादी मिली तो समाजवाद का स्वप्न संजोये कवि शायरों ने यह असमंजस अपनी अपनी तरह से व्यक्त किया। फ़ैज अहमद फ़ैज़ ने लिखा :

ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं 

अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आयी
निज़ाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आयी
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आयी 

 

गिरिजाकुमार माथुर ने लिखा : 

आज जीत की रात
पहरुए! सावधान रहना

प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंज़िल का छोर
इस जनमंथन से उठ आयी
पहली रत्न-हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन-मुक्ता-डोर
क्योंकि नहीं मिट पायी दुख की
विगत सांवली कोर
ले युग की पतवार
बने अंबुधि समान रहना।

उस समय कवि ही नहीं, समाज की वैज्ञानिक व्याख्या करने वाले दुनियाभर के मार्क्सवादी चिंतक और राजनेता भी आज़ादी के बाद के भारत की बदली हुई वर्गीय स्थिति नहीं समझ पा रहे थे। यहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने कह दिया कि ‘यह आज़ादी झूठी है’, बाद में इस ग़लती को सुधारा और यह माना कि भारत के सामाजिक विकास की यह एक मंज़िल थी जो पूरी हुई। सोवियत संघ और चीन दोनों देशों की कम्युनिस्ट पार्टियां यह कह रही थीं कि सत्ता का हस्तांतरण ‘राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग’ के हाथों में हुआ जोकि साम्राज्यवादविरोधी और सामंतवादविरोधी है, जिसकी नुमाइंदगी कांग्रेस पार्टी करती है, इसलिए दोनों ने सलाह दी कि भारत के कम्युनिस्टों को कांग्रेस का साथ देना चाहिए। 

हमारे यहां के कम्युनिस्ट आज़ादी के दौर में और उसके तुरंत बाद भी अनेक जनआंदोलनों की रहनुमाई कर रहे थे, फिर तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष लड़ा, उस अतिव्यस्त समय में और भूमिगत होने की वजह से आज़ादी के बाद के भारत की सही सही व्याख्या करने के लिए ज़रूरी अंदरूनी बहस वे नहीं कर पाये थे। फिर काफ़ी अरसे तक पार्टी पर प्रतिबंध लगा रहा जो पहले आम चुनावों से पहले हटा। इस अतिव्यस्तता के चलते वे एक सबसे ज़रूरी काम नहीं कर पाये, वह था पार्टी प्रोग्राम तैयार करने का काम। उसी दस्तावेज़ में आज़ादी के बाद के भारत की बदली हुई वर्गीय असलियत दर्ज होनी थी। एक कामचलाऊ संक्षिप्त सा ‘प्रस्ताव’ तो था, पर पार्टी प्रोग्राम नहीं था। यह भी तब हुआ जब छठे दशक में एक बार कुछ भारतीय कम्युनिस्ट सोवियत संघ के नेतृत्व  से मिलने गये, तो उन्होंने कहा कि अपना ‘पार्टी प्रोग्राम’ पढ़ने के लिए दीजिए। सीपीआइ(अविभाजित) के नेताओं के पास कुछ भी नहीं था, तो वहां के नेतृत्व ने समझाया कि हर कम्युनिस्ट पार्टी को मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के अनुसार अपने देश व दुनिया और अपने समय की वर्गीय व्याख्या करके भावी विकास की मंज़िल तय करनी होती है, उस भावी मंज़िल को ‘रणनीति’(Strategy) कहा जाता है और उसे हासिल करने के लिए रोज़मर्रा के दायें बायें फ़ैसले लेने होते हैं, उन्हें ‘कार्यनीति’(Tactics) कहते हैं। इस तरह का दस्तावेज़ मार्क्सवादी ‘प्रैक्सिस’ का आधार होता है। उसी में सर्वहारा के दोस्त और दुश्मन वर्गों की पहचान दर्ज की जाती है, जिससे सही तरीक़े से वर्गसंघर्ष चलाया जा सके। 

सोवियत यात्रा से लौटकर यहां के नेताओं ने भारी मेहनत करके अपना आधारभूत दस्तावेज़ बनाने की पहल की और इसी दौर में दो तरह की व्याख्याएं उभरकर सामने आयीं, दो दस्तावेज़ बने। भयंकर बहस और भयंकर मतभेद उभरकर सतह पर आ गये। कम्युनिस्टों के एक गुट ने सोवियत और चीन दोनों पार्टियों के सुझाये वर्गविश्लेषण को स्वीकार करते हुए भारतीय सत्ता पर ‘राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग’ का क़ब्ज़ा बताया जो कि साम्राज्यवादविरोधी और सामंतवादविरोधी होता है जिसकी नुमाइंदगी उनकी समझ से कांग्रेस कर रही थी, अत: कांग्रेस के साथ सहयोग की नीति सुझायी, इसे अस्वीकार करते हुए दूसरे गुट ने अनेक प्रमाणों और शोधों के आधार पर भारतीय सत्ता पर ‘इज़ारेदार पूंजीपति और बड़े भूस्वामी वर्ग के गठबंधन का क़ब्ज़ा बताया जो साम्राज्यवाद से समझौता करता है।’ इन दो तरह के पार्टी प्रोग्रामों से उभरे मतभेदों के कारण ही 1964 में पार्टी में विभाजन हो गया, जिस गुट ने उसी व्याख्या को अपनाया जो कि सोवियत और चीन के नेतृत्व ने सुझायी थी वह ‘सीपीआइ’ कहलायी, और उस व्याख्या से भिन्न दूसरी व्याख्या जिन्हें सही लगी उस गुट को ‘सीपीआइ(एम)’ नाम दिया गया। बहुत से लोग अज्ञानवश यह झूठ दुहराते रहे कि सीपीआइ सोवियत समर्थक थी और सीपीआइ(एम) चीन समर्थक, जबकि विभाजन का मूल कारण आज़ादी के बाद के भारत के वर्गीय चरित्र की पहचान में तीव्र मतभेद का होना था।  बाद में 1967 में नक्सलवाद का उदय हुआ तो 1969 में सीपीआइ(एम एल) नाम से उग्रवादी वाम की नयी पार्टी बनी जिसने  भारतीय राजसत्ता पर ‘दलाल पूंजीपतिवर्ग’ का क़ब्ज़ा घोषित किया। इस तरह आज़ादी के बाद के भारत की वर्गीय सत्ता की ये तीन व्याख्याएं तीन तरह के दलों में मौजूद हैं, और अभी तक ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ का आलम है।

भले ही तीन तरह के पार्टी प्रोग्राम रहे हों, तीन अलग अलग व्याख्याएं रही हों, भले ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 1976 में 42वें संशोधन द्वारा भारत को एक ‘समाजवादी, पंथनिरपेक्ष’ गणराज्य घोषित कर दिया हो, सारी दुनिया जानती है कि भारत एक विकासशील पूंजीवादी देश है जिसमें अभी संसदीय जनतंत्र की शासन व्यवस्था है। यह अकाट्य सत्य है और सबने स्वीकार भी किया है कि आज़ादी के बाद भारत ने पूंजीवादी विकास का रास्ता अख़्तियार किया। आम जनता को भले ही न मालूम हो, लेखकों और बुद्धिजीवियों में से बहुत से लोग और ट्रेड यूनियनों के माध्यम से मज़दूरवर्ग के बहुत से हिस्सों को यह सच्चाई मालूम थी कि भारत ने पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया है, और आज भी वही पूंजीवादी विकास दिख रहा है। 

आज़ादी के बाद के भारत के सामाजिक यथार्थ को समझने के लिए उस पहले सवाल से फिर जूझना ही पड़ेगा कि आख़िर आज़ादी के बाद राजसत्ता किन वर्गों के हाथ में आयी, इसकी सही पहचान से बहुत से आज के जटिल प्रश्न भी कुछ हद तक समझे जा सकते हैं। राजनीतिक दल चाहे जो भी संसद में बहुमत रखता हो, असली सत्ता तो वर्गों के अधीन ही होती है, इस वैज्ञानिक सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता। हिंदी में मुक्तिबोध ने अपने समय में ही अपनी वैज्ञानिक विश्वदृष्टि से यह पहचान कर ली थी कि भारत की सत्ता बड़े इज़ारेदार घरानों के अधीन है और उनकी सांठगांठ विदेशी पूंजी से भी है और बड़े भूस्वामियों से गठबंधन भी। मुक्तिबोध ने विदेशी पूंजी के आंकड़े पेश करते हुए 3 अक्टूबर 1954 को एक लेख लिखा था (मुक्तिबोध रचनावली-6, राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 1985, पृ. 61-67) जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘बिड़ला और टाटा विदेशी पूंजी के आमंत्रण को भारत के लिए (यानी स्वयं उनके लिए) हितकर समझते हैं । बिड़ला महोदय स्वयं अनेक ब्रिटिश उद्योगपतियों से पूंजीबद्ध हैं, तो टाटा अमरीकी पूंजीपतियों से’। (वही, पृ. 66) इसी तरह उन्होंने कांग्रेस द्वारा दिये गये समाजवादी पैटर्न के नारे का भी सही वर्गविश्लेषण किया और कहा कि ‘अगर देश में पूंजीवादी समाज-रचना के स्थान पर समाजवादी ढंग की समाज-रचना लाने की ओर प्रयत्न किया जा रहा है, तो (यह महत्वपूर्ण बात है) देश के ग़रीब वर्ग अधिकाधिक ग़रीब और श्रीमान वर्ग अधिकाधिक श्रीमान क्यों होते जा रहे हैं। ग़रीब वर्गों और धनी वर्गों के बीच की खाई अब पहले से ज़्यादा बढ़ गयी है। (वही, पृ. 67) इसी तरह उन्होंने बड़े भूस्वामियों के साथ गठजोड़ की भी बात इशारे के तौर पर कही और उदाहरण देते हुए लिखा कि ‘भूदान आंदोलन के बावजूद, मध्यप्रदेश में तीन सौ तैंतीस ऐसे काश्तकार हैं जिनमें से हर एक के पास एक हज़ार एकड़ से अधिक ज़मीन है। उन्हें अपनी ज़मीन से वंचित किया जा सकता था और उनकी ज़मीन सरकारी तौर पर किसान जनता को दी जा सकती थी जैसा कि चीन में हुआ ।(वही, पृ. 68) 

ये घटनाक्रम दर्शाते हैं कि आज़ादी के बाद भारत की राजसत्ता देश के इज़ारेदारों और बड़े भूस्वामियों के गठबंधन के हाथ में आयी जो साम्राज्यवाद से समझौता किये हुए हैं। इस तर्कसंगत वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर आज़ादी के बाद के भारत के पूरे विकासक्रम को समझने में मदद मिलती है। चंद शोषक वर्गों के अपने हितसाधन के लिए इज़ारेदार पूंजीपति वर्ग ने कांग्रेस का गठन, पुनर्गठन और उसी के विकल्प के तौर पर अलग अलग समय में अलग पार्टियों जैसे स्वतंत्र पार्टी, रामराज्य परिषद, जनसंघ, जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कई लोहियावादी पार्टियों और कई क्षेत्रीय पार्टियों का गठन किया, देश में पूंजीवाद के विकास के साथ इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग ने यह भी कोशिश की कि पाश्चात्य पूंजीवादी देशों की तरह यहां भी उनके हितसाधन करने वाली दो पार्टियां मैदान में रहें, यहां भी राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो जाये या ज़रूरत पड़े तो ‘चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़’ का पद शुरू कराकर मिलिटरी शासन या ‘हिंदू राष्ट्र’ के नारे की आड़ में नंगी फ़ासीवादी तानाशाही थोप दी जाये, इस तरह की कई कोशिशें पूंजीवादी विकास को सुगम बनाने के लिए होती रही हैं और आगे भी देखने को मिलेंगी। जहां कारपोरेट पूंजी के हितों की रक्षा के लिए इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग ने तरह तरह की पूंजीवादी पार्टियों के गठन और विलयन का खेल खेला, वहीं सर्वहारा वर्ग और अन्य शोषित वर्गों की नुमाइंदगी करने वाली वाम और मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर अस्तित्व में आयी राजनीतिक पार्टियों को निष्प्रभावी बनाने की चाल भी चली, जिससे शोषण पर आधारित मौजूदा व्यवस्था बरक़रार रखी जा सके। यह संघर्ष जारी है। 

इसी विश्वदृष्टि की मदद से आज़ादी के बाद के भारत को मोटे तौर पर दो कालखंडों में विभाजित करके ठीक से समझा जा सकता है। एक कालखंड 1947 से 1990 तक का है और दूसरा 1991 से अब तक का। इस विभाजन का आधार है विश्वपूंजीवाद में आयी आधारगत तब्दीली और दुनिया के सारे देशों पर उससे आये नये परिवर्तन। विश्वपूंजीवाद अपने उदयकाल में ‘व्यापारिक पूंजीवाद’ था, जब भाप से चलने वाली मशीनों से बहुत अधिक उत्पादन होने लगा तो वह विकसित होकर ‘औद्योगिक पूंजीवाद’ के दौर में दाख़िल होकर ‘उपनिवेशवाद’ में परिवर्तित होता हुआ ‘साम्राज्यवाद’ की सीढ़ी पर पहुंच गया। उस दौर में विश्वबाज़ार पर अपना अपना क़ब्ज़ा जमाने के लिए साम्राज्यवादी देशों ने दो विश्वयुद्ध भी लड़े, मगर साम्राज्यवाद के अधीन देशों में उसके ख़िलाफ़ ‘राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन’ उभरने लगे और उसी दौर में दुनिया के अनेक हिस्सों में सर्वहारावर्ग की विचारधारा यानी मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर अमल करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में, शोषित समाजों में क्रांति के माध्यम से राजसत्ता मज़दूरवर्ग के हाथ आ गयी, 1917 की सोवियत क्रांति उस प्रक्रिया का जीवंत उदाहरण थी। परिवर्तन की इसी धारा में भारत और चीन भी आज़ाद हुए, मगर चीन में राजसत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में आ गयी जबकि भारत में सत्ता का हस्तांतरण यहां के इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग को हुआ क्योंकि स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व वही वर्ग कर रहा था जबकि चीन में पूंजीवाद बहुत ही कमज़ोर था, वह अविकसित हालत में ‘दलाल पूंजीपति’ (‘कंप्राडोर’) ही बनकर रह गया था, विश्वपूंजीवाद की वह सबसे कमज़ोर कड़ी था, इसलिए सर्वहारा वर्ग ने चीन के राष्ट्रीय मुक्तिआंदोलन की रहनुमाई की। जब हमारे यहां के नक्सलवादी इसी की नक़ल पर भारत के पूंजीपतिवर्ग को भी ‘दलाल पूंजीपति’ कहते हैं तो एक बड़ा झूठ प्रचारित करते हैं। हमारे यहां का पूंजीपति बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर में ही ‘इज़ारेदार’ बन गया था, वह अपना औद्योगिक उत्पादन कर रहा था और उसी के लिए उसे अपना बाज़ार मुक्त कराना था, इसलिए मुक्तिआंदोलन की रहनुमाई का ऐतिहासिक दायित्व उसी के कंधों पर आया, उसने देश के तमाम वर्गों को अपने साथ लेकर आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व किया और इसीलिए बाद में सत्ता भी उसी के हाथ आयी। 

विश्वपूंजीवाद ने यों तो 1944 में ही विकास की एक नयी मंज़िल में दाख़िल होने के संकेत दिये थे, जिसकी ओर बहुत कम समाज वैज्ञानिकों का ध्यान गया, वह था ब्रैटन वुड्स, न्यू हैम्पटन अमेरिका में आयोजित साम्राज्यवादी देशों का अधिवेशन जिसके प्रस्तावों से आइ एम एफ़ और विश्वबैंक का जन्म हुआ, बाद में उसी कड़ी में ‘विश्वव्यापार संगठन’ और जुड़ गया। इस नये घटनाविकास को मोटे तौर पर हम ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ के वर्चस्व के रूप में देखते हैं जिसने चंद देशों को छोड़कर सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को अपने चंगुल में फंसा लिया है। भारत इस भूमंडलीकृत विश्वव्यवस्था का 1991 में हिस्सा बना और तबसे अब तक उसी के नीतिनिर्देशों का पालन एक वफ़ादार गुलाम की तरह कर रहा है। उस समय भारत पर, सरकारी आंकड़ों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का कर्ज़ था : 83.80 बिलियन अमेरिकी डॉलर, वह  मार्च 2014 के अंत में हो गया था, 446.48 बिलियान डॉलर, और एन डी ए के राज में मार्च 2022 के अंत में हो गया है : 620.7 बिलियन डॉलर। इससे स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह भारत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के शिकंजे में पूरी तरह फंस गया है, इस क़र्ज़ का ब्याज चुकाने के लिए अब आटा, दही और साधारण जन के भोजन पर भी टैक्स लगा दिया गया है, धीरे धीरे राहतें ख़त्म की जा रही हैं, सरकारी पद ख़ाली रखे जा रहे हैं, सरकारी ख़र्च में कटौती करने के लिए ‘अग्निपथ’ जैसी योजनाओं का प्रयोग किया जा रहा है, सरकार के सारे कार्यकलाप में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हितों और निर्देशों को साफ़तौर से देखा जा सकता है। यह है ‘आत्मनिर्भर भारत’ की असलियत। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी दुनियाभर में लोकतांत्रिक राजनीतिक ढांचे को कमज़ोर या ख़त्म करके किसी न किसी तरह की तानाशाही या नंगी फ़ासिस्ट व्यवस्थाओं को अवाम पर थोप रही है। फ़ासीवाद की सही वैज्ञानिक विश्वदृष्टि से व्याख्या करने वाले जार्जी दिमित्रोव ने 2 अगस्त 1935 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सातवें विश्वसम्मेलन के सामने अपनी रिपोर्ट में जो कहा था, वह आज भी सही है :

Comrades, fascism in power was correctly described by the Thirteenth Plenum of the Executive Committee of the Communist International as the open terrorist dictatorship of the most reactionary, most chauvinistic and most imperialist elements of finance capital.

आज भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देश जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के चंगुल में फंसे हैं, उसी की छत्र छाया में निरंकुश तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं, भारत की ही तरह अनेक देश धुरदक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों के कब्ज़े में हैं जिनके असली चेहरे, चरित्र और चाल को दिमित्रोव ने 87 बरस पहले दुनिया के सामने स्पष्ट कर दिया था।

1990 तक हमारे यहां के शोषक-शासक वर्ग यानी इज़ारेदार पूंजीपति और बड़े भूस्वामी वर्ग अपने वर्गीय हितों के लिए प्राइवेट सेक्टर और पब्लिक सेक्टर की मदद से पूंजी बढ़ा रहे थे। वे साम्राज्यवादी देशों से और सोवियत संघ से भी पूंजी हासिल कर लेते थे, उसी मिश्रित प्रयास से हमारे यहां अच्छा ख़ासा पूंजीवादी विकास हो चुका था। जब सोवियत संघ का विघटन हो गया तो पूंजी पाने का एक स्रोत सूख गया। साम्राज्यवादी देशों के जिन निजी निवेशक स्रोतों से पूंजी भारत आती थी वे स्रोत भी 1980 के बाद बंद हो चुके थे। ऐसी हालत में 1991 में भारत एक विकट आर्थिक संकट में फंसा हुआ था। संकट से उबरने के लिए उस समय देश का सोना तक गिरवी रखना पड़ा था। जैसे ही हमारे शासकवर्गों को विश्वपूंजीवाद के नये रूप यानी ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ से जुड़ने का मौक़ा हाथ आया, तो उन्होंने 1991 में तुरंत भूमंडलीकरण और नवउदारवाद की राह अपना ली। इसे ‘नयी आर्थिक नीति’ के नाम से पेश किया गया। इससे भारत में बाहरी वित्तीय पूंजी का निवेश अनापशनाप बढ़ गया, भारत का बाज़ार विदेशी उत्पाद से पट गया, बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ गयीं, नये नये वैज्ञानिक आविष्कारों से बनी वस्तुएं उपलब्ध होने लगीं। एक विशालकाय मध्यवर्ग विकसित होगया जिसने उपभोक्ता बन कर नयी व्यवस्था को जीवन देते रहने का काम किया। सस्ती दरों पर ऋण सबको मिलने लगा, चार्वाक ने कभी मज़ाक़ में कहा था, ‘यावत् जीवेत, सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।’ यही फ़लसफ़ा आम लोगों को रास आने लगा। अनिल अंबानी, विजय माल्या जैसे बड़े कारपोरेट घराने और नीरव मोदी जैसे अनेक व्यापारी भारी क़र्ज़ लेकर या तो दिवालिया हो गये या विदेश भाग लिये। आर एस एस-भाजपा नीत सरकार ने ‘स्टार्ट अप इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अनेक ‘इंडिया’ घोषित करके अपने चहेतों को ऋण देकर मालामाल कर दिया, बैंक लुट गये। देश के सभी बैंकों में वापस न आने वाला क़र्ज़ जिसे एन पी ए कहा जाता है हर साल बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2021 के वित्त वर्ष में सारे सरकारी बैंकों में डूब रहा क़र्ज़ का कुल योग लगभग16700000 मिलियन रुपये था। इधर हाल में ही 2 अगस्त 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले बरस के मुक़ाबले इस डूबती राशि में सितंबर 2022 तक 9.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी की संभावना है (Business Standard, August 2, 2022)।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के उन्नायक आइ एम एफ़ और विश्वबैंक ने हमारी अर्थ व्यवस्था को ही नहीं, हमारी राजनीतिक व्यवस्था को भी काफ़ी हद तक प्रभावित करना शुरू कर दिया। अब वही राजनीतिक नेतृत्व सत्ता में आ पायेगा जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का सेवक होगा। हमारे यहां जो भी सलाहकार अर्थशास्त्री या रिज़र्व बैंक के गवर्नर  नियुक्त हुए, वे या तो विश्वबैंक के अफ़सर रह चुके थे या उसके चहेते थे। मनमोहन सिंह, मोंटेकसिंह अहलुवालिया, रघुराम राजन, उर्जित पटेल, अरविंद पानगरिया, अरविंद सुब्रमनियन आदि इसके उदाहरण हैं। यह तथ्य बहुत कम लोगों को मालूम है कि भाजपा नीत एन डी ए के सत्ता में आते ही 21 जुलाई 2014 को विश्वबैंक के ग्रुप प्रेसिडेंट जिम योंग किम ने भारत का दौरा किया और सबसे पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली से और उसके बाद बंद कमरे में प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की और दोनों ने अपनी वफ़ादारी के बारे में उसे आश्वस्त किया। इस घटना पर मेरा  एक लेख अंग्रेज़ी में 5 अगस्त 2014 को एक मशहूर फ़ीचर एजेंसी (इनफ़ा) के माध्यम से अनेक अंग्रेज़ी अख़बारों में छपा था जिसमें विश्वबैंक के प्रति वफ़ादारी और उसके बदले बहुत सा क़र्ज़ मिलने की आश्वस्ति का उल्लेख उस लेख में मैंने किया था। उसके बाद ही ‘इलेक्शन बांड’ के माध्यम से चुनाव फंड लेने की मुहिम को क़ानूनी जामा पहना दिया गया, और अब यह तथ्य सबके सामने है कि भाजपा के पास अकूत धनराशि है, सारे भारत में जगह जगह उसके भव्य कार्यालय हैं, काडर को धन देने के लिए, चुने हुए जनप्रतिनिधियों की ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए धन की कोई कमी नहीं है। कई अति घनिष्ठ कारपोरेट घराने लगातार फंडिंग करके ही देश की सारी संपत्ति पर कब्ज़ा करते जा रहे हैं। 

यह सब अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के निर्देशों के माध्यम से ही संभव हो पा रहा है जिसका मूलमंत्र है सारे सरकारी उद्योगों और परिसंपत्तियों का निजीकरण और सारी दुनिया के उत्पादों और विदेशी निवेश व उद्योगों को सारी सुविधाएं दे कर भारत में जगह देना, व उनके लिए भूमि अधिग्रहण करना और यहां का बाज़ार मुहैया कराना। नित नये टैक्स लगाकर जनता की आमदनी की खुली लूट से वित्तीय पूंजी की ‘सेवा’ करना, क़र्ज़ पर अदा किये जाने वाले ब्याज को नयी भाषा में ‘ऋण सेवा’ कहा जाता है। इसे संभव बनाये रखने के लिए एकदलीय तानाशाही या फ़ासीवादी शासनव्यवस्था सबसे अधिक कारगर होगी, लोकतंत्र उसे बर्दाश्त नहीं। यही कोशिश और यही प्रयोग वित्तीय पूंजी भारत समेत अनेक देशों में कर रही है, जिससे उसकी सूदखोरी अनवरत चलती रहे । ‘नयी आर्थिक नीति’ का यही सार है, सारी सरकारों को इसी पथ पर चलना होगा, भले ही इस पथ पर चलने से अमीर और ग़रीब के बीच की खाई बेतहाशा तरीक़े से बढ़ती रहे। इंडियन एक्सप्रेस  में 10 दिसंबर 2021 को छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि

India stands out as a ‘poor and very unequal country, with an affluent elite’, where the top 10% holds 57% of the total national income, including 22% held by the top 1%, while the bottom 50% holds just 13% in 2021, according to the World Inequality Report 2022.

बात अधूरी रह जायेगी, यदि इस विध्वंसक शोषणतंत्र के प्रतिरोध की मौजूदा स्थिति का जायज़ा न लिया जाये। इतिहास साक्षी है कि वित्तीय पूंजी से परिपोषित फ़ासीवाद से टक्कर सर्वहारावर्ग की वैचारिकी से लैस राजनीति एक व्यापक मोर्चा बनाकर ही ले सकती है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने इस प्रतिरोध को असंभव बनाने के लिए सारे देशों में श्रम क़ानून बदलवा कर संगठित सर्वहारावर्ग को कमज़ोर कर दिया और श्रमिकों के विशाल समूह को असंगठित क्षेत्र में धकेल कर उस आधार पर ही चोट कर दी है जहां से क्रांतिकारी अगुआ दस्ता तैयार होता था। यही वजह है कि इस दौर में दुनियाभर में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता में कमी देखी गयी, चुनावों में कुछ अपवादों को छोड़कर वामपंथ की स्पेस कम हुई है। पोलैंड जैसे देश में जून 2019 के चुनाव में एक भी कम्युनिस्ट संसद में नहीं आ पाया है। जापान की कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा बेहतर प्रदर्शन करती थी, उसके 2014 में 21 संसद सदस्य थे, अब 2021 के चुनाव में 10 रह गये, वहां सदस्यता में भी कमी आयी है। यही हाल भारत समेत अनेक देशों का है। अंतर्राष्टीय वित्तीय पूंजी अभी उत्पादक शक्तियों को दुनिया में विकसित करने की क्षमता बनाये हुए है, भले ही आय में असमानता भी पैदा कर रही है, मगर अवाम के बड़े हिस्से को हर देश में उसने कोऑप्ट भी कर लिया है। यही वजह है इस असमानता से पैदा हो रहा आक्रोश क्रांतिकारी दिशा नहीं ले पा रहा। श्रीलंका में यही हुआ, वे आइ एम एफ़ से और पूंजी मांग रहे हैं, उसी की वजह से दुर्दशा हुई, उसी की शरण में जाना पड़ रहा है। पाकिस्तान भी आइ एम एफ़-विश्वबैंक से और अधिक क़र्ज़ हासिल करने की गुहार लगा रहा है, वहां हाल में हुए घटनाक्रम के पीछे वित्तीय पूंजी का ही हाथ था। 

यह सब देखकर लगता है कि अभी शोषणतंत्र के प्रतिरोध में क्रांति के बड़े सैलाब आने में देर लगेगी। आज़ादी के बाद के भारत की यही तस्वीर है, यह तस्वीर दुनिया के बाक़ी हिस्सों से जुड़ी हुई भी है । मुक्तिबोध ने भारतीय पूंजीवाद को एक कविता में ‘काले सागर’ के बिंब से चित्रित किया था और कहा था :

इस काले सागर का 

सुदूर स्थित पश्चिम किनारे से 

ज़रूर कुछ नाता है

इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।

-मुक्तिबोध रचनावली-2, वही, पृ; 269

 

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