एक आंदोलन जो पटरी से उतर गया / सुजाता


जितने क़ानूनी और सामाजिक अधिकार स्त्री को अब तक मिले, वे सब साझा प्रयासों का फल हैं जिनका उद्देश्य है एक ऐसी व्यवस्था बना पाना जो स्त्री-विरोधी न हो। वह अविवाहित रहे, संतान को जन्म देना चाहे, न चाहे, अकेले पाले या मिलकर, सभी परिस्थितियों में समाज और क़ानून उसका सहायक हो, बाधक नहीं। हमें एक पितृसत्तात्मक सपोर्ट-सिस्टम नहीं, एक मानवीय सपोर्ट-सिस्टम चाहिए। –आज़ाद भारत के 75 सालों जायज़ा लेता सुजाता का आलेख :

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‘ज़्यादातर लोग यह सोचते हैं कि औरतें ग़ुलामी में नहीं बल्कि अपनी स्वाभाविक स्थिति में जी रही हैं। यह धारणा कि औरतें दमित नहीं हैं और वर्तमान स्थिति को बदले जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, लोगों के दिमाग़ में इतनी गहरी धंसी हुई हैं कि किसी के लिए यह यक़ीन करना ही मुश्किल है कि उसकी स्थिति कितनी दयनीय है। इससे भी बुरा यह है कि ख़ुद औरतें यह मानती हैं कि उनकी स्थिति जैसी होनी चाहिए वैसी ही है। अतीत में, जब अमेरिका में काले लोग ग़ुलाम थे, उन्हें भी ऐसा ही यक़ीन था…यह मानसिकता ग़ुलामी की सर्वोच्च अवस्था है…यह ईश्वर की दी हुई दो नेमतों, आत्म-विश्वास और आज़ादी की इच्छा, को नष्ट कर देती है।’

यह कथन 1889 में लिखा गया, जब दुनिया की औरतें स्त्री-अधिकार के प्रति जागरूक हो रही थीं। संस्कृत शास्त्रों की ज्ञाता, जाति-व्यवस्था और समाज की जेंडर्ड-संरचना की आलोचक पंडिता रमाबाई अमेरिका और यूरोप की स्थितियों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद भारत में औरत की आज़ादी का एक घोषणा-पत्र लिख रही थीं। उपर्युक्त कथन लिखते हुए पंडिता रमाबाई भली-भांति अवगत थीं कि स्त्री-शोषण और जेंडर ग़ैर-बराबरी की जड़ें कहां है। संपत्ति से बेदख़ली,घरेलू श्रम का अवमूल्यन और शोषक व्यवस्था का शोषित द्वारा आत्मसातीकरण। वह मेरी वोल्स्टोनक्राफ्ट की किताब, विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ विमेन पढ़ चुकी थीं और अमेरिका की स्त्री-मताधिकारवादियों से मिल चुकी थीं। इंग्लैंड, जापान, अमेरिका की यात्राएं कर चुकी थीं और देख रही थीं कि स्त्री की ग़ुलामी की कुछ कड़ियां पूरी दुनिया में अलग होते हुए भी एक-दूसरे से जुड़ती हैं। शायद ही उस समय भारत में कोई स्त्रीवादी ऐसी हो जिसने शिक्षा के साथ-साथ स्त्री के क़ानूनी अधिकार, रोज़गार, स्वास्थ्य और स्वायत्तता पर इतना बल दिया हो जैसा रमाबाई ने दिया, समाज-सुधारकों और मित्रों को नाराज़ करने की हद तक स्पष्टवादी होकर। उनकी प्रसिद्ध किताब द लाइफ ऑफ़ हाई कास्ट हिंदू वुमन पितृसत्ता की शिनाख़्त करती है। वे लिखती हैं- 

 ‘यहां एक सत्ता है, मनु या किसी भी नियम-प्रवर्तक से बड़ी, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती थी।’

सावित्रीबाई फुले ने स्त्री-शिक्षा की मशाल जलायी तो सामाजिक संरचनाओं से टकराने में भयभीत नहीं हुईं। ताराबाई शिंदे इस बात पर भड़क उठीं कि आधुनिक शिक्षा पाये भारतीय मर्द स्त्रियों को पतितावस्था में पड़े रहने देना चाहते हैं। ऐसी और न जाने कितनी महिलाएं थीं जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का सामना करने और स्त्री की एजेंसी की हिमायत करने के लिए डटी हुई थीं। लेकिन मैं पंडिता रमाबाई के बारे में क्यों बात कर रही हूं? यह पड़ताल करने के लिए कि जिस पितृसत्ता की पहचान आज से 133 साल पहले कर ली गयी थी, उससे ठीक-ठाक निपटने की सटीक योजनाएं बनाने में हम सफल हुए? उन्नीसवीं सदी के अंत तक समाज-सुधारों का दौर ख़त्म हो गया था और राष्ट्रवाद का नया दौर शुरू हुआ जहां भारतीय स्त्री की राष्ट्रवादी छवि निर्मित करने की कोशिश की गयी। इस कोशिश में बहुत-कुछ धो-पोंछ दिया गया। जैसे यह कि स्त्री की ग़ुलामी से पहले देश को ग़ुलामी से आज़ादी दिलाने की ज़रूरत है और इसमें भारतीय स्त्री को यूरोपीय स्त्री के पश्चिमी गेज़ को नकारते हुए अपने पतियों-भाइयों के साथ खड़ा होना चाहिए। यह एक मुश्किल स्थिति थी। ख़ुद अंग्रेज़ भी भारतीय पुरुष के ख़िलाफ़ नहीं खड़े होना चाहता था। 

उन्नीसवीं सदी के अंत के साथ समाज-सुधारों के युग का अवसान होने और एक नये राजनीतिक संघर्ष का दौर शुरू होने के बावजूद एक बात थी जो नहीं बदली थी। स्त्रियों को शिक्षा मिले लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि वे बेहतर मां, पत्नी और गृहिणी बन सकें। बी.जी.तिलक और पुनरुत्थानवादी धड़ा इस बात के हिमायती थे कि लड़कियों और लड़कों की शिक्षा में फ़र्क़ हो। आधुनिक शिक्षा उनकी अबोधता छीन लेगी और वे नौकरियां पाने के लिए मर्दों से संघर्ष करेंगी। एनी बेसेंट के विचार थे- 

‘यह वह शिक्षा नहीं है जिसकी आपको ज़रूरत है। इससे प्राचीन आर्यन प्रकार की महिलाएं विकसित नहीं होगी…मैं समझती हूं कि कोई हिंदू नहीं चाहेगा कि अपनी बेटियों को शिक्षा दे और फिर उन्हें आजीविका कमाने के लिए बाहर की दुनिया में मर्दों से संघर्ष करने के लिए भेज दे।’

परिवार स्त्री के जीवन की धुरी है और स्त्री के जीवन में सबसे पहले उसी को आना चाहिए, यह मत सुधारकों, नेताओं से लेकर अख़बारों में बार-बार प्रतिध्वनित होता था। एक संकट और भी था शिक्षित स्त्री के लिए। राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों ने इस बात का भी ध्यान रखना शुरू किया कि उपनिवेशवाद विदेशी स्त्रियों के स्त्रीवाद की उपजाऊ ज़मीन न बन जाये। मार्गरेट कज़िंस ने 1927 में ऑल इंडिया विमेंस कॉन्फ्रेंस की स्थापना की और ‘स्त्री-धर्म’ नाम की फेमिनिस्ट पत्रिका का संपादन भी किया, लेकिन जल्द ही यह संपादन छोड़ दिया ताकि भारतीय परिस्थितियों के अनुसार यहां की स्त्री अपने लक्ष्य और साधन स्वयं तय करे। न जाने कितनी मिशनरी महिलाओं ने स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में काम किया और भारतीय स्त्री के उत्थान का बीड़ा उठाया। उन्हें नायक और खलनायक दोनों बनाया जा सकता है, लेकिन यह चिंता भी जायज़ थी कि भारतीय स्त्री व्हाइट वुमन का ‘अदर बर्डन’ बनकर न रह जाये (द व्हाइट वुमंस अदर बर्डन- एंटॉयनेट बर्टन)। यानी भारतीय स्त्री के सामने राष्ट्रवाद के रूप में एक पितृसत्ता, औपनिवेशिक पितृसत्ता और उसकी एजेंट के रूप में विदेशी स्त्रियां (जैसा मदर इंडिया की लेखिका मिस कैथरीन मेयो को कहा जाता है) और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता मौजूद थी, जिनसे उसे एक साथ जूझना था। 

इसी समय एक सबसे महत्वपूर्ण बात हुई कि गांधी के आह्वान पर स्त्रियों ने सामूहिक रूप से आज़ादी के आंदोलन में भाग लेना शुरू किया। छोटे-छोटे स्थानीय नायक बन गये स्त्रियों में, जिन्होंने अपने-अपने इलाक़े में नमक कानून तोड़ा या चरखे चलाये या शराब बंदी के लिए आंदोलन किये। अभी तक शिक्षित-संभ्रांत स्त्रियां आंदोलन में शामिल थीं, अब आम स्त्री को राष्ट्र-निर्माण में अपनी उपयोगिता दिखायी देने लगी। अंग्रेज़ के रूप में सबसे बड़े शत्रु की पहचान की गयी और कंधे से कंधा मिलाकर स्त्रियां आंदोलनों में बाहर निकल पड़ीं। मनमोहिनी सहगल अपना एक अनुभव सुनाती हैं कि उनके साथ जेल में एक बार कुछ साधारण महिलाएं थीं। उनमें से एक के पति का तार आया कि मुझसे पूछे बिना तुम गईं थीं, इसलिए अब वापस घर में क़दम मत रखना। पढ़कर वह रोने लगी। बाद में उसके पति को लोगों ने समझाया कि उसका व्यवहार कितना संकीर्ण है और उसे तो अपनी पत्नी पर गर्व होना चाहिए। 

पहला झटका: हिंदू कोड बिल

इस उत्सर्ग-भाव को पहला बड़ा झटका लगा जब हिंदू-कोड-बिल पर समाज की प्रतिक्रियाएं सामने आना शुरू हुईं । जून 1941 में राऊ समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमें हिंदू क़ानूनों को सिरे से बदलने की हिमायत की गयी। पुरी और कांची के शंकराचार्य ने, करपात्री महाराज ने इस बिल का कड़ा विरोध किया। एक ‘ऑल इंडिया एंटी हिंदू कोड बिल समिति’ गठित हो गयी। सनातन धर्म सभा, आर्य समाज, हिंदू छात्र संगठन, जैन सभा, खत्री सभा, पंजाब महाबीर दल ने न सिर्फ़ इस बिल की निंदा की बल्कि सार्वजनिक सभाएं करके और पर्चे बांटकर इसके विरोध में समर्थन जुटाने की कोशिश की। रूढ़िवादियों की ओर से यह विरोध चलता रहा लेकिन ख़ुद कांग्रेस के भीतर से कई नेता इसके ख़िलाफ़ थे और हिंदू कोड बिल के प्रबल समर्थक होने पर भी जवाहरलाल नेहरू ख़ुद को असहाय पा रहे थे। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद उन्हें पत्र में लगातार आगाह कर रहे थे कि यह बिल पास हुआ तो देश भड़क जायेगा, इसे रहने दें। एक समय बाद नेहरू ने उनकी चिट्ठियों का जवाब ही देना बंद कर दिया। 1951 में जब बिल पास नहीं हो पाया तो यह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डॉक्टर अम्बेडकर के बीच मतभेद की वजह भी बना। अम्बेडकर, जो मानते थे कि हिंदू-कोड-बिल के पास होने पर औरतों के शोषण की समस्या जड़ से ख़त्म हो जायेगी, चाहते थे कि बिल अपने मूल रूप में पास हो जाये। आज़ादी के बाद भी इस बिल पर कोई कार्यवाही तब तक नहीं हुई थी जब तक कि अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक अलग समिति नहीं बनी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इस बिल से विरोध में थे। अप्रैल 1949 को सरदार पटेल ने इस बिल पर बहस करने के लिए समय देने से इनकार किया और कहा कि यह वक़्त की बर्बादी है। (विस्तार के लिए देखें- डिबेटिंग पेट्रियार्की– चित्रा सिन्हा)। न होते नेहरू तो शायद यह सिर्फ़ एक दस्तावेज़ बनकर रह जाता। भारी विरोध के बावजूद टुकड़ों में इसे पास करवा के उन्होंने इतिहास के क़दम उलटे पड़ने से बचा लिया। 

तमाम तरह का विरोध भी किसलिए? सिर्फ़ इसलिए कि यह बिल हिंदू स्त्री को परिवार में, विवाह में, सम्पत्ति के उत्तराधिकार में अधिकार देने का क़ानून बन जाता। शादी एक धार्मिक कृत्य न होकर एक क़ानूनी क़रार बन जाता। शादी में तलाक़ का अधिकार स्त्रियों के लिए एक बड़ी जीत होता। 1952 में यह बिल टुकड़ों में पास हो पाया। यह विचित्र था कि स्वाधीनता के जो पुरुष नेता स्त्रियों के आंदोलन में बढ़-चढ़ कर शामिल होने के हिमायती थे, वे उनके अधिकारों को लेकर एकदम पुरातनपंथी पितृसत्तावादी पुरुष हो गये। 

हालात बदले भी और नहीं भी 

स्त्रीवादी संगठनों का विरोध भी धीरे-धीरे शांत हो गया और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पुरुषों से एकजुट महिलाओं को अब आज़ाद भारत में सीधा कोई शत्रु नहीं दिखायी पड़ा। इसलिए सत्तर के दशक तक स्त्री आंदोलनों में एक अव्याख्येय चुप्पी छायी रही। स्त्रियां स्थानीय विद्रोहों में भाग लेती थीं और उसकी समाप्ति के बाद वापस घर की ओर लौट जा रही थीं। महिला बटालियन ने तेलंगाना के विद्रोह में जोश से भाग लिया लेकिन आंदोलन के भूमिगत होते ही स्त्रियों को बाहर कर दिया गया। सत्ता और निर्णय में भागीदारी के लिए कहीं कोई चुनौती स्त्री की ओर से नहीं थी। जब 72-73 के अकाल में श्रमिकों का आंदोलन हुआ, जिसमें मज़दूरों ने खाली पड़ी ज़मीनों को कब्ज़ा कर जोतना शुरू किया, तो इस आंदोलन में औरतों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। नारेबाज़ी करके, गीत गा-गाकर, प्रदर्शनों की अगुआई करके औरतों ने धीरे-धीरे लैंगिक भेद-भाव के मुद्दों पर भी ध्यान देना शुरू किया। शराब स्थानीय औरतों की ज़िंदगी में ज़हर था। पति पी कर आते थे और पत्नियों का पीटा जाना आम बात थी। यही शराब-विरोधी आंदोलन की वजह बनी। भील आदिवासी औरतें शराब बनाने वाली भट्ठियों में जाकर शराब बनाने के सब बर्तन तोड़ आती थीं। यह एक गांव से दूसरे गांव तक फैलना शुरू हुआ। शहादा आंदोलन शराब विरोध और पत्नी-उत्पीड़कों की पिटाई में तब्दील हो गया। 

महिलाओं के लिए संगठित होकर काम करना वाकई चुनौतियों से भरा था, इसलिए कि भारतीय समाज संरचना में आमूल बदलाव की बात स्त्री के जीवन में आमूल-चूल बदलाव के बिना ही की जाती रही। जनसंघ और परम्परावादी जहां हिंदूकोड बिल भी पास नहीं होने देना चाहते थे, वहीं कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रगतिशील छात्र आंदोलनों से निकली दबंग महिलाएं दोहरे स्तर पर लड़ रही थीं। समाज के भीतर भी और संगठनों के भीतर भी। अपने एक लेख में मणिमाला लिखती हैं –‘स्त्रियों को दो स्तरों पर लड़ना था- व्यवस्था के खिलाफ़ भी और आंदोलन की भीतर पुरुष साथियों से भी।’

छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पुरुष कार्यकर्ता यह तो चाहते थे कि प्रदर्शनों में स्त्रियां आगे आयें लेकिन जितना बल वे स्त्रियों को प्रदर्शनों में जुटाने पर देते थे, उतना बैठकों में बुलाने पर नहीं। स्त्रियों के लिए घर-बार छोड़ कर किसी भी वक़्त और जगह निकलना आसान नहीं था। वे ज़्यादातर आंदोलनों में बाहर दिखती थीं और फिर उनकी समाप्ति पर वापस अपनी-अपनी घरेलू भूमिकाओं में वैसे ही पहले की तरह लग जाती थीं। बोधगया की एक मीटिंग का मणिमाला उल्लेख करती हैं कि वहां स्त्रियां ज़मीन पर बैठी थीं और मर्द चारपाई पर। उन्होंने स्वीकार किया कि बराबरी छोड़िए, इस ग़ैर-बराबरी पर सवाल तक नहीं उठाये गये। गेल ऑम्वेट अपनी किताब वी विल स्मैश इट में स्वातंत्र्योत्तर स्त्री आंदोलनों और संगठनों के बारे में लिखती हुई बताती हैं कि ‘सालों के कम्युनिस्ट चलन के बावजूद स्त्रियां पीछे ही रहती थीं’ और ‘तकलीफ़देह रूप से अधिकांश पूर्णकालिक कार्यकर्ता पुरुषों की पारम्परिक पत्नियां और जीवन शैली थी।’

1972 में महिलाओं का पहला ट्रेड यूनियन बना – सेल्फ एम्प्लॉयड विमेन असोसिएशन (सेवा)। प्रशिक्षण, तकनीकी सहायता और मोलभाव करने की दक्षता विकसित करके यह संगठन गांधी के मूल्यों के लिए कृत्संकल्प था।  ‘सेवा’ ने स्त्रीवादियों से दूरी बनाये रखी और स्त्री-श्रमिक के मुद्दों पर स्वयं को केंद्रित रखा। महंगाई विरोधी आंदोलन में भाग लिया । शोषण से मुक्ति, नियमित काम की गारंटी और नयी तकनीकें सीखने के अवसर उपलब्ध कराना इसका उद्देश्य था। स्त्रीवादियों को ‘सेवा’ वैसे भी पश्चिम प्रभावित मानता था ।

1973 में महारष्ट्र में समाजवादी पार्टी की मृणाल गोरे और अहिल्या रांगणेकर ने मिलकर महंगाई के ख़िलाफ़ औरतों के बड़े आंदोलन का सूत्रपात किया। इसमें आसानी से गृहिणियां शामिल हो गयीं जिन्होंने थाली पीट-पीटकर अपना आक्रोश दिखाया। यही आंदोलन गुजरात पहुंचा जिसे नवनिर्माण आंदोलन के नाम से जाना गया और जो सरकार की सर्वांगीण आलोचना की तरफ़ मुड़ गया।

इसी बीच एक प्रगतिशील महिला संगठन बना हैदराबाद में – POW जो क्रांतिकारी, मार्कसिस्ट, मुक्तिकामी छात्र आंदोलन से निकली स्त्रियों ने खड़ा किया। इसका अपना एक घोषणापत्र था जिसके अनुसार स्त्री शोषण के दो बुनियादी आधार थे- लैंगिक आधार पर श्रम विभाजन तथा वह संस्कृति जिसने इसे प्रतिपादित किया। महिला समता सैनिक दल बना। इसने घोषणापत्र में जाति और यौन उत्पीड़न को उठाया। 1975 इस मायने में एक बदलाव के युग की तरह देखा जा सकता है। यह संयुक्त राष्ट्र का अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष था। इस वक़्त स्त्रीवादी गतिविधियों की बाढ़-सी आ गयी। पहली बार 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। 

महिला समता सैनिक दल के साथ जेंडर के प्रश्न के साथ जाति का सवाल प्रमुखता से सम्बोधित हुआ। जहां एक तरफ़ तीसरी दुनिया की स्त्री अपनी समस्याओं को पश्चिम के स्त्रीवाद से अलगाने की कोशिश कर रही थी, वहीं समता सैनिक दल ने काली स्त्रियों के आंदोलन को ख़ुद के क़रीब पाया। दल के घोषणापत्र में एंजेला डेविस को उन्होंने वास्तव में अपनी बहन बताया। इसके घोषणापत्र में स्त्री के यौन उत्पीड़न की बात भी प्रमुखता से की गयी। इस तरह स्त्री शोषण में आर्थिक निर्भरता और यौनिकता के पहलू को पहचानने और उससे जुड़ी समस्याओं को सम्बोधित करने की पहली बार कोशिशें हुईं । यह उल्लेखनीय है कि इस दौर के स्त्री आंदोलनों में वाम विचारधारा के लोगों का बड़ा हाथ रहा, बावजूद इसके कि वामपंथियों ने स्त्रीवाद को हमेशा बुर्जुआ और भेदभावमूलक माना। फिर भी नवस्थापित स्त्री संगठनों के ज़्यादातर सदस्य धुर वामपंथी संगठनों से थे। प्रगतिशील महिला संगठन माओवादी स्त्रियों ने बनाया और आत्मालोचन के साथ-साथ उसे व्यापक स्त्री मुद्दों से जोड़ने की कोशिशें कीं।

यह दुखद पहलू रहा कि जब स्त्री संगठनों ने वास्तविक रूप में जुझारू होकर स्त्री-हित के लिए काम करना शुरू किया, आपातकाल ने उसे एक झटका तो दिया। फिर भी, औरतों के संघर्ष ने, स्त्री की सामाजिक दुर्दशा को लेकर स्त्रियों के संगठनों ने कुछ ज़रूरी कानूनी बदलावों के लिए ज़मीन तैयार की। प्रगतिशील महिला संगठन (PWO) ने ही हैदराबाद में सबसे पहले दहेज विरोधी आंदोलन की शुरुआत की। यह भारतीय स्त्री की ऐसी समस्या थी जिसे ‘पारिवारिक झगड़ा’ मानकर हत्या तक का केस भी पुलिस दर्ज नहीं करती थी। समाज तो किसी के आपसी मामले में नहीं ही पड़ता था। लेकिन दहेज के लिए किये जाने वाले अत्याचारों के बारे में सुन-सुनकर स्त्री संगठनों के कान पक गये थे और वे एक असहायता महसूस कर रहे थे क्योंकि क़ानून इस पर चुप था। यह पूर्ण आंदोलन की शक्ल नहीं ले पाया और दो साल बाद दिल्ली में फिर  से दहेज विरोधी आंदोलन की शुरुआत हुई । 1979 में  दिल्ली के  स्त्री संगठन ने दहेज समस्या को फ्रेडरिख एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित ‘निजी संपत्ति’ की अवधारणा के सहारे समझाने की कोशिश की। दिल्ली में लगातार प्रदर्शन, नुक्कड़ नाटक, सुधा गोयल केस और दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुकर्जी कॉलेज की अध्यापिका का दहेज की वजह से पिटाई से तंग आकर आत्महत्या कर लेना—ये सब ऐसी चीज़ें रहीं जिन्होंने क़ानूनी संस्थाओं को विवश किया और अंतत: भारतीय दण्ड संहिता में न केवल नयी धारा 498-A जोड़ी गयी बल्कि पुरानी धाराओं का संशोधन भी किया गया (दहेज प्रतिबंध क़ानून 1961 और 1984 व 1986 के संशोधन)। बावजूद इसके 1988 को कानपुर के गया प्रसाद साहू की तीन  बेटियों ने एक साथ आत्महत्या करके अपने पिता को अपने बोझ से मुक्त किया और अपने आख़िरी नोट में दहेज देने में असमर्थ पिता की  मुसीबतों का ख़ुद को उत्तरदायी ठहराया। इस तरह पितृसत्ता अपने विकराल रूप में सामने खड़ी थी। मथुरा रेप केस, शाहबानो केस, भंवरी देवी रेप केस, रूपकंवर कांड और देवदासियों के लिए, दहेज विरोधी और वेश्याओं के लिए चलाये गये आंदोलनों ने स्त्री के ख़िलाफ़ खड़े क़ानून को चुनौती दी। 

हालात बदले भी और नहीं भी। साथिन भंवरी देवी के बलात्कार केस के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइड लाइन तो जारी की, लेकिन अधिकांश कार्यालयों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिए शिकायत समितियां ही गठित नहीं हुईं । 2005 में लंबे संघर्ष के बाद घरेलू उत्पीड़न अधिनियम भी पास हुआ और 2013 में अंतत: कार्यस्थल पर यौन-शोषण के ख़िलाफ़ क़ानून बना। बहुत से लोग यह कहते पाये जाते हैं कि महिलाओं का आंदोलन मध्यवर्ग की या संभ्रांत वर्ग की महिलाओं का आंदोलन है। उस वक़्त वे भूल जाते हैं कि असल में आधुनिक युग के सभी आंदोलन मध्यवर्ग के बीच से जन्मे हैं। वे शायद समझना नहीं चाहते कि जब अधिकार मिलता है तो वह मध्यवर्ग तक सीमित नहीं रहता। भंवरी देवी केस से जन्मा कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ क़ानून उदाहरण है इस बात का कि जब क़ानून बनते हैं तो किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं रहते, तमाम स्त्रियों का भला होता है।  

स्त्रीवादी सपोर्ट-सिस्टम  

पितृसत्ता ने समर्थक औरतों के लिए कई तरह के सपोर्ट-सिस्टम बनाये हैं, सुविधाओं के इंतज़ामात किये हैं और स्वीकृत क़िस्म के उगालदान बनाये हैं। स्त्रीवाद यह नहीं कर सका। इसलिए कि भले ही स्त्रीवाद बराबरी और न्याय के लिए दुनिया की तमाम औरतों के पक्ष पर खड़े होता है, दुनिया की तमाम औरतों ने उसकी तरफ खड़े होने से इनकार कर दिया।  

अफ्रीकी स्त्रीवादी एलिस वॉकर, जो अपने उपन्यास कलर परपल के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार से समानित हुईं, एक जगह लिखती हैं कि आज़ादी एक निजी और अकेली जंग है। मैं जानती हूं कि आज़ादी एक सामाजिक संघर्ष ही हो सकता है। अकेले की आज़ादी हमेशा एक ‘लक्ज़री’ ही होगी, भले ही वह संघर्ष के भीषण रास्तों से गुज़री हो। लेकिन मैं यह भी जानती हूं कि काली औरतों के संघर्ष की राह सामाजिक न्याय और बराबरी की ही राह थी। मैं यह भी समझती हूं कि एलिस इसे निजी और अकेली जंग क्यों कहती हैं। निजी इसलिए है कि इस लड़ाई में कूदने के बाद एक स्त्री सबसे पहले उस सपोर्ट-सिस्टम से वंचित हो जाती है जिसे पितृसत्ता ने बरसों में स्थापित किया है, दृढ़ किया है। जब अपनी ही साथी-स्त्रियों के बीच आप उन जैसी नहीं दिखतीं और साथी-पुरुषों को संभावना या ख़तरा लगती हैं तो यह अंतत: अकेला कर देता है। 

अमेरीका में सोशल मीडिया पर पिछले एकाध वर्षों में एक आंदोलन सामने आया। ‘ट्रैड वाइफ़’ आंदोलन (traditional wife) जिसमें  खाते-पीते वर्ग की श्वेत महिलाएं शामिल हैं। मज़ेदार है कि न कि अमरीका में ट्रम्प महोदय की जीत में श्वेत, संपन्न स्त्री-वर्ग का बड़ा हाथ था। लेकिन यह कोई बेहद विशाल और प्रमुख वर्ग नहीं है। इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर सक्रिय ट्रैड वाइफ़ समूहों में स्त्रीवादी बातें प्रतिबंधित हैं। यह एक एंटी-फेमिनिस्ट आंदोलन है। एक ऐसे ही समूह से जुड़ी एक युवा स्त्री का अपनी मां के साथ साक्षात्कार मैं यूट्यूब पर देख रही थी। मां बेटी से अधिक आधुनिक दिख भी रही थीं और बातचीत में लग भी रही थीं। लेकिन शुरुआती कुछ मिनटों में ही यह निकल कर आया कि उस युवा स्त्री ने ट्रैड वाइफ़ जीवन क्यों चुना। वह अपनी मां के गर्भ में तब आ गयी थी जब मां 19 बरस की थी और जैविक पिता जो मां का बॉयफ्रेंड था, उसके बिना ही मां ने लम्बे समय अकेले बेटी को पाला-पोसा, बाद में शादी की। युवा स्त्री उसे दुनिया का शानदार पिता कहती है जिससे मां ने बाद में शादी की। कमसिन उम्र में यह निश्चित ही बड़ा फ़ैसला था, दायित्व था और सामाजिक-संरचनाएं, जिन्हें मैं पितृसत्तात्मक सपोर्ट-सिस्टम कहती हूं, वे इन स्थितियों में मदद करने के लिए नहीं बनीं। बेटी एकदम नहीं चाहती थी कि वह मां-जैसा जीवन जिये और कष्ट सहे। स्वाभाविक है। वह अच्छी-सी शादी करके, गोलू-मोलू बच्चों को एक समृद्ध वातावरण में पालना चाहती थी। तनाव और अवसाद में नहीं। मुझे पता है, यह उदाहरण देने पर शायद ही कोई इल्ज़ाम लगायेगा कि आप लोग विदेशी उदाहरणों से विमर्श करते हो, क्योंकि मैं फिलहाल ट्रेडिशनल लोगों के मतलब की ही तो बात कह रही हूं। 

उदाहरण देसी भी है। अभिनेत्री नीना गुप्ता ने अपने करियर के चढ़ते दिनों में क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स से प्रेम किया और विवाह किये बिना अपनी संतान को जन्म देने, अकेले पालने का फ़ैसला किया। अपने संघर्ष की कहानी कहते हुए नीना गुप्ता को हमने बड़े गर्व से सुना। लेकिन जब उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि ‘भारतीय समाज में रहना है तो औरतों को शादी करनी चाहिए। बहुत-सी ग़रीब महिलाएं अकेले बच्चे पालती हैं, लेकिन मैंने यह चुना था और इसकी वजह से संतान को बहुत भुगतना पड़ता है। बच्चे को अकेले पालना बेहद मुश्किल है,’ तो मीडिया और स्त्रीवादियों में इसे लेकर काफ़ी हलचल रही। 

ऐसा कतई नहीं है कि इन उदाहरणों से ही सब तय हो जाता है। लेकिन अब आप उस सपोर्ट-सिस्टम की बात समझिए जिसका अभाव उन स्त्रियों ने भोगा जिन्होंने परंपरागत जीवन से इनकार किया। उनकी जीवन में लड़ाइयां अकेली रहीं और उन्होंने आज़ादी की भारी क़ीमत चुकायी। लेकिन ग़ौर से देखिए कि क्या ये समस्याएं निजी चयन से पैदा हो रही थीं? न! सामाजिक-संरचनाएं इसके लिए ज़िम्मेदार थीं। वे व्यवस्थाएं जो स्त्री को उसके चयन के लिए दंडित करती हैं, उसके स्वतंत्र सोच के लिए उसे अपमानित करती हैं और इस क़दर तोड़ती हैं कि वह अकेला महसूस करने लगे। जब पूरी क़ायनात आपको घर बैठकर ट्रैड वाइफ़ बनाना चाहे तो उम्र के एक पड़ाव पर जाकर यह महसूस करना स्वाभाविक है कि जब हम शादी करके प्यार और सपोर्ट दोनों आराम से पा सकते थे, तब भी हमने अपने जीवन को खामख्वाह संकट में डाला। ऐसे ही वह स्त्री, जो किसी दूर-दराज़ के गांव में है, किसी तरह मैट्रिक तक शिक्षा हासिल कर लेती है, लेकिन आगे पढ़ना या नौकरी करना उसके लिए इसलिए संभव नहीं कि पीछे से घर संभालने वाला कोई नहीं या कोई सुरक्षित साधन उपलब्ध नहीं आवगमन का, या नौकरी में उसे न मातृत्व अवकाश मिलता है, न ही बच्चे पालने के लिए कोई सपोर्ट। जो करियर बनाये, उसके बच्चे न हों, जिसके बच्चे हों, वह करियर न सोचे! यही? अब नीना गुप्ता की बात में आप तीन बिंदुओं पर ध्यान रखिए- 

  • भारतीय समाज में रहना है तो स्त्री को शादी करनी चाहिए 
  • मेरे चयन को संतान ने भुगता 
  • बच्चे को ‘अकेले’ पालना मुश्किल है। 

ऊपर की दो कहानियां पीछे मुड़कर संघर्ष के रास्ते को देखकर डर जाने वाले लोगों की हैं। उस पर गर्व करने वालों की नहीं। यह डर और भय ही पितृसत्ता की विजय है। मुझे फिर भी लगता है कि नीना गुप्ता की बेटी अपनी मां के संघर्षों से ताक़त ही लेती होगी। जीवन में पत्नी बनना कोई मक़सद नहीं हो सकता और मसाबा एक सफल अंतरप्रेन्योर है। 

फिर भी समाज में ये अकेले और निजी लगने वाले जानलेवा संघर्ष तमाम स्त्रियों ने किये हैं। उनकी जीत उनकी निजी जीत नहीं रही। उनकी आज़ादी उनकी ‘लक्ज़री’ तक सीमित नहीं रही। उन्होंने संरचनाओं के आगे बेबस और अकेला महसूस करने की जगह उनसे टकराना बेहतर समझा। जूझते हुए उन्होंने सीखा कि उनकी जंग अकेले की जंग नहीं है, उनके पूरे समुदाय की जंग है। 

ये अकेली लड़ाइयां हैं ही नहीं। जितने क़ानूनी और सामाजिक अधिकार स्त्री को अब तक मिले, वे सब साझा प्रयासों का फल हैं जिनका उद्देश्य है एक ऐसी व्यवस्था बना पाना जो स्त्री-विरोधी न हो। वह अविवाहित रहे, संतान को जन्म देना चाहे, न चाहे, अकेले पाले या मिलकर, सब परिस्थितियों में समाज और क़ानून उसका सहायक हो, बाधक नहीं। हमें एक पितृसत्तात्मक सपोर्ट-सिस्टम नहीं, एक मानवीय सपोर्ट-सिस्टम चाहिए।

‘चयन’ के तर्क से वह सपोर्ट-सिस्टम निर्मित नहीं कर सकता। महज़ अधिकारों पर आधारित आंदोलन से संरचना नहीं बदल सकती। स्त्रीवादी नज़रिये को नीतियों में जगह बनानी होगी। उसे संरचनाओं से टकराना होगा। उसे निर्णय-प्रक्रिया में शामिल होना होगा। उसे पितृसत्ता के वैकल्पिक और मौलिक सपोर्ट-सिस्टम बनाने होंगे। जैसे मुक्ति-मिशन की स्थापना करके पंडिता रमाबाई ने बनाया असहाय, परित्यक्त, विकल्पहीन, दुखी महिलाओं के लिए और उनके लिए भी जो अपनी मर्ज़ी से पितृसत्तात्मक संरचनाओं में नहीं जीना चाहतीं। बल्कि इससे भी आगे की सोच हमारा लक्ष्य हो, यानी औरतों का कोई अलग ग्रह या स्त्री-साम्राज्य या ‘सुल्ताना का सपना’ नहीं बल्कि एक ऐसी व्यवस्था जहां कोई सड़क,कोई घर,कोई संसद, पृथ्वी का कोई कोना ऐसे न बना हो कि जहां स्त्रियों का आना मना हो और ऐसी कोई सत्ता न हो जो ऐसा लिखने की हिमाकत करती हो।   

हम कहां आ पहुंचे? 

अपनी पत्नी और बेटियों को शिक्षित करने के लिए पंडिता रमाबाई के पिता अनंत शास्त्री डोंगरे ने पूरे समाज से विरोध मोल लिया और जंगल के बीच ही घर बना लिया सांसारिक दुनिया का एक तरह से त्याग करके। संस्कृत के सभी पवित्र ग्रंथों का ज्ञान दिया, लेकिन मनुस्मृति नहीं पढ़ने दी। अपने युवा जीवन में जब रमाबाई ने मनुस्मृति और बचे हुए तमाम हिंदू ग्रंथ पढ़े तो मुतमइन हो गईं कि स्त्री के लिए आगे की राहें, बराबरी, शिक्षा, रोज़गार और मुक्ति की राहें यहां से नहीं निकल सकतीं। द लाइफ ऑफ हाई कास्ट हिंदू वुमन में पंडिता रमाबाई लिखती हैं- 

‘जो व्यक्ति मूल संस्कृत साहित्य को कठिन परिश्रम व निष्पक्षता से पढ़ते हैं, यह पहचानने में कभी धोखा नहीं खा सकते कि आचार-संहिता निर्माता मनु उन कई सौ लोगों में से एक है, जिसने दुनिया की नज़रों में स्त्रियों को घृणास्पद जीव बनाने में अपना सारा ज़ोर लगा दिया।’

यह दुखद ही है कि 11 अगस्त 2022 को दिल्ली हाई कोर्ट की एक महिला जज प्रतिभा एम. सिंह ने एक कांफ्रेंस के उद्घाटन में यह बयान दिया कि मनुस्मृति ने भारतीय औरतों को समाज में सम्मानजनक स्थिति दिलायी है। उन्होंने स्त्री के लिए पितृसत्त्तात्मक सपोर्ट-सिस्टम की अनिवार्यता को ही स्वीकार किया जब यह भी जोड़ा कि स्त्री को संयुक्त परिवार में रहना चाहिए ताकि उन्हें परिवार के वरिष्ठ पुरुषों का समर्थन मिले। इस समर्थन की शर्त  भी बतायी कि स्त्रियां एड्जस्ट करें और ‘मेरा समय’ ‘मेरी ज़रूरत’ जैसी बातें न करें। 

हम कहां से चले थे और आज कहां आ गये हैं? आज़ादी के इन 75 सालों में हासिल स्त्री-अधिकारों और बराबरी के बाद ऐसे बयान बार-बार आना औंधे मुंह गिरना ही कहा जा सकता है।  

chokherbali78@gmail.com


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