वरुण प्रभात गहरे सरोकारों के कवि हैं। जमशेदपुर, झारखंड में रहते हैं। एक कविता-संग्रह ‘अंतहीन रास्ते’ प्रकाशित।
अंकुरण
सुना था
असहाय होते हैं
बच्चे, बूढ़े, औरतें
गाज़ा से उठते
धुएँ के गुबार
आसमान को छूती
आग की लपटें
गरजते राकेट
तड़तड़ाती गोलियाँ
मलबे में बदल चुका
शहर, गाँव, देश
फिर भी
अपने दुधमुँहे को
दूध पिलाना नहीं भूलतीं
फ़िलस्तीन की औरतें
काँपतें हाथों से
मलबों के ढेर से
निकाल लेता है
अपने जवान बेटे का शव
फ़िलिस्तीनी बूढ़ा बाप
बिना थके,
चूमने के लिए
उसका माथा
घने अँधेरे में
शवों के ढ़ेर पर बैठा
फ़िलिस्तीनी बच्चा
जीवन मूल्यों को आँकता
मोड़कर सूखी रोटियाँ
चबाता है
दुधीले दाँतों से
सुनो, विश्व के तानाशाहो!
तुम्हारे मार देने से
ख़त्म नहीं हो जाता जीवन
वह जन्मता है फिर
नये आकार में
अपनी कुर्सियों से जड़े
हो चुके हो तुम असहाय
जैसे
भगत सिंह की फाँसी से पहले
हुआ था
विश्व का तानाशाह,ब्रिटेन
तोड़कर
अपने क़ानून को
जालियाँवाला बाग़
कल रात एक सपना देखा
मैंने देखा अमृतसर शहर
शहर की शान स्वर्ण मंदिर
और वहाँ से कुछ ही दूरी पर
जालियाँवाला बाग़
पढ़ा था जिसे इतिहास के पन्नों में
पढ़ते हुए जिसे सुनायी देती थी
जनरल डायर की क्रूर हँसी
निहत्थे, निःसहायों की चीख
गोलियों की तड़तड़ाहट
मैं सहम कर बैठ गया वहीं
कुरेदने लगा
अपनी ऊँगलियों से उस माटी को
जिसमें रोपा था हज़ारों मतवालों ने
अपनी लहू से सींचकर
स्वतंत्रता के सपने को
देख रहा था उन दीवारों को
जिसके गढ्ढे आज भी ताज़े हैं
झाँका उस कुएँ में
जिसका पानी लाल है आज भी
महसूस किया मेरे कानों ने
वहाँ की हवाओं में घुली चीत्कार को
मैं चीख पड़ा और
डर से आँख खुल गयी
सपना टूट गया
जागती आँखों से
हिन्दुस्तान को देखा
वह भी चीख रहा है
निहत्था, नि:सहाय, निर्दोष
स्वाधीनता की कारुणिक चीत्कार
लेकिन, सुनायी नहीं देती यहाँ पर
जनरल डायर की क्रूर हँसी
गोलियों की तड़तड़ाहट
यह जनरल डायर मुस्कुराता है
वह जानता है हँसने से दिख जायेंगे
उसके खूनी दाँत
वह गोलियाँ नहीं चलाता
जाति, धर्म, संप्रदाय, मंदिर-मस्जिद
उसके अचूक हथियार है
वह दीमक की भाँति
कर रहा है खोखला
हमारी विरासत को
हमारी तहज़ीब को
वह पूरे हिन्दुस्तान के नक्शे पर
चस्पा कर रहा है जालियाँवाला बाग़ को
यह जनरल डायर पूरे मुल्क को
जालियाँवाला बाग़ बना रहा है
लौट आओ जंगल
सुना है
लौट रहे हो अयोध्या
जंगलों से
क्या यह सच है राम?
तुम्हारा लौटना
अकारण है या
बाँधकर लाया जा रहा तुम्हें
राजधर्म की किसी नयी परिभाषा
के अंतर जाल में?
क्या फिर सीता का परित्याग करोगे?
छोड़ोगे अश्वमेध का घोड़ा?
करोगे शंबूक का वध?
कहो राम
सच-सच कहो
जंगल के दुख
और अयोध्या के सुख को कहो
राजा राम और वनवासी राम
के बीच के अंतर को कहो
कहो राम चुप न रहो
जंगलों ने तुम्हें मर्यादा सिखायी
बनाया पुरुषों में उत्तम
शबरी के बेर हनुमंत का आदर
जामवंत का नेह जटायु का स्नेह
कहाँ पाते हो अयोध्या में?
बनाया है अयोध्या ने तुम्हें
राजा राम
इन जंगलों में उगा था रामबेल
पनपा था रामत्व
छोड़कर रामत्व को
जा रहे हो अयोध्या
बनने फिर से राजा राम?
मत जाओ राम
लौट आओ इन्हीं जंगलों में
यहाँ शबरी के मीठे बेर है
वहाँ शंबूक का सिर
यहाँ सीता का वियोग है
वहाँ सिर्फ़ परीक्षा,परित्याग
राजधर्म की आग में
झुलस जाओगे राम
दिशाएँ रचेंगी कुचक्र
लेनी होगी फिर से जल समाधि
जरा सोचो
अयोध्या जाने से पहले
राजा तुम अच्छे या तुम्हारी चरणपादुका?
सुनो कान लगाकर
इस गर्जन इस रणभेरी को
रामत्व के शव पर
राजा राम की जय सुनो
राम तुम जंगलों के लिए बने हो
लौट आओ जंगल
अयोध्या तुम्हें
जल समाधि ही देगी
बेटियाँ
मेरी बेटी,
समय की गति को आँकता तुमसे नहीं कहूँगा कि
पारंपरिक लिबास के बोझ तले
तुम अपने सपने का गला घोंट दो
या कुतर दो अपने पंख को
जिसके सहारे उड़ना है तुम्हें नीले आकाश में
मेरी बेटी,
गूँथी जाओ तुम आटे की तरह या
रोटियों की तरह बेली जाओ
समझकर मसाला पीसी जाओ तुम पत्थरों के बीच
या चुनी जाओ बाज़ार में सजाये गये किसी जींस की तरह
मैं यह बिल्कुल नहीं चाहता
तुम्हें चूल्हे की तरह जलने की सीख नहीं दे सकता मैं
मेरी बेटी,
गहनों से लदी, मर्यादाओं की संकीर्णता में फँसी
कुत्सित संस्कारों की बेड़ियों में कैद
नहीं देख सकता तुम्हें बँटा हुआ टुकड़े-टुकड़े में
तुम्हारी हँसी तुम्हारे बोल तुम्हारी उड़ान पर
लगा दी गयी पाबंदियों को नहीं देख सकता
मेरी बेटी,
देखना चाहता हूँ तुम्हें बनते हुए अक्षर
तुम्हारे हौसले की ऊँचाई अंतरिक्ष की परिधि को छूकर
गढ़े अपना आसमान
तुम्हारी ढृढ़ता अभिमान बने हिमालय का
मेरी बेटी,
मैं देखना चाहता हूँ तुम्हें
मज़बूत और बहुत मज़बूत
जीवन को जीते हुए।
संपर्क : 99343 70219
‘ लौट आओ जंगल ‘ कविता नयी परिस्थितियों के संदर्भ में नये वैकल्पिक वैचारिक और भावनात्मक विमर्श का सृजन करने में समर्थ है .
बधाई वरुण प्रभात
आज की राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य की भयावहता एवं क्रूरता से रू – ब – रू कराती कविताएँ।