तार सप्तक के उलझे हुए तार / विष्णु नागर


तार सप्तक की कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते रहे। छपने के बाद कुछ विवाद हुए, कुछ दावे-प्रतिदावे सामने आये। आपसी कटुता भी दिखी। श्रेय लेने की होड़ भी नज़र आयी। किसी को शामिल करने, किसी को छोड़ देने, किसी के छूट जाने की कहानियां बनीं। —विष्णु नागर का आलेख :

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गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मशताब्दी के अवसर पर रायपुर में आयोजित एक आयोजन में मुझे बुलाया गया था। मैंने इस क्रम में अन्य पुस्तकों के साथ मुक्तिबोध को लिखे पत्रों के संग्रह मेरे युवजन, मेरे परिजन  को भी फिर से पढ़ा। इससे यह ज़ाहिर हुआ तारसप्तक  के प्रकाशन के दौरान कविताओं के संग्रहण और संपादन का दायित्व स.ही.वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने अपने कंधों पर ले ज़रूर लिया था मगर यह काम उनके जैसे दृढ़ इच्छाशक्ति के व्यक्ति लिए भी टेढ़ा साबित हुआ। ‘काम उठाकर छोड़ना मैंने सीखा नहीं…,’ ऐसा उन्होंने मुक्तिबोध को लिखे एक पत्र में कहा था और जो परिस्थितियां बनीं, उनमें इसे पूरा कर दिखाना शायद उनके लिए ही संभव था। तीसरा सप्तक तक इस तरह वे साहित्यिक सफलता की  नयी कहानी उन कवियों के साथ अपने लिए भी लिखते चले गये, पर इसकी बुनियाद तार सप्तक था। बाद के  सप्तकों में यह कठिनाई आयी नहीं क्योंकि कवि इसकी सफलता देख चुके थे।

इस कारण तारसप्तक की जन्मकथा के विवरण जुटाकर लिखने की इच्छा जागी। यह काम अंततः चार साल बाद करने की हिम्मत जुटा सका। तब कुछ और पढ़ा तो कुछ और भी कहानियां सामने आयीं। एक कहानी के अंदर दूसरी कहानी मिलती गयी। लगा कि यह कहानी तो एक दिलचस्प उपन्यास की संभावनाएं लिये है। ऐसा उपन्यास लिखना मेरे बस में नहीं है, इसलिए कुछ दिलचस्प तथ्यों की ओर यहां इशारा किया है।

यह कहानी रोचक इसलिए भी है कि तारसप्तक  का यह प्रयोग हिन्दी कविता की, खुद अज्ञेय के शब्दों में ‘समकालीन काव्य इतिहास’ की एक घटना बन चुका है। शायद कई आधुनिक कवियों की कविताओं के एक संग्रह के रूप में प्रकाशन की दृष्टि से भी यह अभिनव प्रयोग रहा होगा। अगर यह संग्रह एक साधारण घटना बन कर रह जाता तो इसकी कहानी छपने के साथ ख़त्म हो जाती। इसके संपादक सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने इसकी सफलता का  भरपूर उपयोग करने में  कोई संकोच नहीं दिखाया। इससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में बहुत चमक आयी, हालांकि चौथा सप्तक  तक आते-आते  यह सप्तक-क्रांति धूमिल पड़ चुकी थी। यह ज़ाहिर हो चुका था कि अब इसके संपादक की समकालीन कविता पर पकड़ कमज़ोर पड़ चुकी है। वे  सप्तक के संपादक के रूप में समकालीन कवियों के बीच अपना आकर्षण खो चुके हैं। अपने समय के अधिकतर युवा कवियों से उनका कोई संवाद नहीं है। वे नदी का द्वीप  बन चुके हैं, एक दिया मदमाता हैं, जो पंक्ति को दिया नहीं जा सका। इस कारण यह आख़िरी सप्तक उनकी कीर्ति का कारण नहीं बन सका। अपकीर्ति का बना या नहीं, इस पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। दूसरा तथा तीसरा सप्तक तक कवियों में एक होड़-सी रहती थी कि कौन किस सप्तक में लिया या नहीं लिया जा रहा है। तब तक सप्तक में होना एक हद तक कवि होने का  प्रमाणपत्र जैसा बन चुका था। नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में, ‘कविगण अपनी और दूसरों की आधुनिकता, सार्थकता और सफलता, कवि होना या न होना, सभी कुछ सप्तकों में शामिल होने न होने से आंकने लगे थे।’ वैसे  प्रमाणपत्र प्राप्त अनेक कवि भी जल्दी ही लुप्तप्राय हो गये। जिन्होंने यह प्रमाणपत्र हासिल नहीं  किया, इसकी ज़रूरत से तब भी इनकार किया था, इसकी तरफ अपनी पीठ  रखी थी, उनमें से अनेक बहुत महत्वपूर्ण कवि साबित हुए। नागार्जुन, त्रिलोचन आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं। उधर तार सप्तक के एक मूल योजनाकार होने और इसमें शामिल किये जाने के बावजूद मुक्तिबोध आजीवन उपेक्षित रहे। मृत्यु के बाद सिर्फ़ एक कविता संग्रह, चांद का मुंह टेढ़ा है  ने उन्हें जो स्थान हिंदी कविता में दिलवाया, वह अभूतपूर्व है। और जहां तक मेरी और मुझसे पहले की पीढ़ी का प्रश्न है, हमने तो कभी सोचा भी नहीं और न चौथा सप्तक में न लिये जाने का गम मनाया, बल्कि ग़लती से होते तो शायद अपने पर शंका होती।

तार सप्तक की कहानी बाद के तीन सप्तकों की कहानी से काफ़ी भिन्न थी। यह सप्तक कविता के अनजान प्रदेश में भटकते समानधर्मा कवि-मित्रों की एक सामूहिक पहल था। तब तक अज्ञेय तो अपनी  चार पुस्तकों के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे, जिसमें उनका प्रसिद्ध उपन्यास शेखर: एक जीवनी और दो कविता संग्रह थे। इसके बावजूद वे तब तक इतने सिद्ध नहीं हुए थे कि वे किसी प्रकाशक से कहें कि यह पुस्तक प्रकाशित कर दो और वह कर देता। इस कारण सभी सात कवियों को अपनी कविताओं के अलावा  अपना आर्थिक योगदान भी देना था, वरना इसका प्रकाशन असंभव लग रहा था। हर कवि के हिस्से में आज से करीब आठ दशक पहले तीस- तीस रुपये आ रहे थे। आज यह राशि हास्यास्पद रूप से मामूली लग सकती है, मगर तब इसका बहुत मूल्य था। अधिकतर कवियों के लिए इतना धन देना काफ़ी मुश्किल था, चुनौतीपूर्ण था। कुछ की तो मासिक आमदनी के बराबर या उससे कुछ ही अधिक यह राशि थी, पर संपादक भी करते क्या? 

दूसरे सप्तकों के विपरीत संपादक ने इसके प्रकाशन की अपनी रूपरेखा पर अधिकतर  साथी-कवियों से उनकी राय भी मांगना आवश्यक समझा था। इस प्रकाशन का कोई सार्थक परिणाम निकलेगा, यह शायद कोई जानता नहीं था। स्वयं अज्ञेय भी नही। जानते होते तो  प्रथम संस्करण की भूमिका में वे यह न लिखते: ‘ये सभी [कवि] इस बात के लिए भी तैयार हैं कि तार सप्तक के पाठक वे ही रह जायें, क्योंकि जो प्रयोग करता है, उसे अन्वेषित विषय का मोह नहीं होना चाहिए।’

ऐसे संग्रह के प्रकाशन का निर्णय लेने के बाद अज्ञेय बीच-बीच में काफ़ी परेशान होते रहे। एक बार इतने हताश हुए कि सारी सामग्री सभी कवियों को वापस करने की धमकी तक दी। दूसरे कुछ कवि अपने कारणों से भले उदासीन-से दिखे, मगर वे उदासीन नहीं हुए। इसके बावजूद इसका पूरी तरह नायक कोई एक नहीं था, जबकि बाद के सप्तकों के नायक निस्संदेह वात्स्यायन जी ही थे। खुद अज्ञेय ने इसके सभी लेखकों को इसका ‘प्रकाशक और संपादक’ भी  बताया है।

तार सप्तक की कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते रहे। छपने के बाद कुछ विवाद हुए, कुछ दावे-प्रतिदावे सामने आये। आपसी कटुता भी दिखी। श्रेय लेने की होड़ भी नज़र आयी। किसी को शामिल करने, किसी को छोड़ देने, किसी के छूट जाने की कहानियां बनीं। दिलचस्प यह है कि इस कहानी से आरंभ से जुड़े मुक्तिबोध ने इस योजना को बनाने में पहले जो भी सक्रिय भूमिका निभायी हो,  मगर एक बार अज्ञेय के संपादक बनने के बाद उन्होंने अपनी भूमिका को अपनी कविताएं तथा वक्तव्य देने तक समेट लिया। किसी वाद-विवाद में पड़ते हुए वे नज़र  नहीं आते। इसका दूसरा संस्करण आने के बाद  इस सबके लिए  जीवन ने उन्हें समय भी नहीं दिया। एक और कारण शायद यह  था कि उनकी दिलचस्पी शुद्ध सैद्धांतिक मसलों में थी। वे ऐसे विवादों से दूर रहना पसंद करते थे जिसके केंद्र में कोई  व्यक्ति हो।

इस कहानी के अंत तक सबसे सक्रिय किरदार दो हैं–सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और नेमिचन्द्र जैन। ये ही आपस में नायक-प्रतिनायक हैं। प्रभाकर माचवे को तीसरा किरदार माना जा सकता है, मगर वे इतने सक्रिय नहीं रहे। कुछ कोशिश गिरजा कुमार माथुर ने भी की बताई जाती है। उसकी गूंज-अनुगूंज दूर तक नहीं जा पायी। अपनी 75 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर कृष्ण बलदेव वैद को दिये एक साक्षात्कार (मेरे साक्षात्कार पुस्तक में संकलित) में नेमि जी ने कहा : ‘आजकल तार सप्तक में शामिल कवियों में से कई लोग दावा करने लगे हैं कि वह उसके जन्मदाता या प्रवर्तक थे। गिरिजाकुमार माथुर ने कहा ही है। प्रभाकर माचवे भी कभी-कभी कहते थे। अब वात्स्यायन जी ने भी अपनी  भेंटवार्ता में कई तरह की झूठी, आधी सच्ची बातों से लगभग पूरा श्रेय खुद लेने की कोशिश की है।’ 

तार सप्तक  के प्रथम संस्करण (1943) की भूमिका में वात्स्यायन जी ने स्वयं स्पष्ट किया था कि इसके जन्मदाता वे नहीं हैं: ‘दो वर्ष हुए जब दिल्ली में  “अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन” की आयोजना की गई थी। उस समय कुछ “उत्साही बंधुओं” ने विचार किया कि छोटे-छोटे फुटकर संग्रह छापने के बजाय एक संयुक्त संग्रह छापा जाये क्योंकि छोटे-छोटे संग्रहों की पहले तो छपाई एक समस्या होती है, फिर छप कर भी वे सागर में एक बूंद-से खो जाते हैं। इन पंक्तियों का लेखक “योजना विश्वासी” के नाम से पहले ही बदनाम था, अतः यह नयी योजना तत्काल उसके पास पहुंची और उसने अपने नाम (बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा) के अनुसार इसे स्वीकार कर लिया।’

नेमि जी के अनुसार, ये ‘उत्साही बंधु’ वे स्वयं और माचवे जी थे। 1942 के मई महीने में उन्हें वात्स्यायन जी ने आग्रह करके दिल्ली बुलाया था। वहां फासिस्ट विरोधी और प्रगतिशील लेखक संघ का अखिल भारतीय सम्मेलन था। उसके मुख्य आयोजक अज्ञेय थे, जिनसे इस बीच नेमि जी की बहुत निकटता हो चुकी थी। वे चाहते थे कि नेमि जी उनकी इसमें सहायता करें। इसके अलावा एक व्यक्तिगत उद्देश्य भी था कि नेमि जी के लिए यहां कोई काम जुटाया जा सके। बहरहाल, दिल्ली की उस यात्रा में, नेमि जी के अनुसार, उन्होंने मालवा के कवि-मित्रों के संयुक्त संग्रह के विचार का ज़िक्र किया। बाद में जब प्रभाकर माचवे भी सम्मेलन में आये तो उन्होंने भी यह बात उठायी। वात्स्यायन जी को पूरी परिकल्पना आकर्षक लगी और उसे संभव बनाने के लिए विकल्प सोचे गये।

वैसे मूल रूप से यह योजना आज के मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र मे 1941 या 1942 में बनी । कृष्ण बलदेव वैद  को अपने साक्षात्कार में नेमिचंद्र जैन बताते हैं कि 1941 के अंत या 1942 के आरंभ में चार कवि मित्र -प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रभागचंद्र शर्मा और वे स्वयं – उज्जैन में मिले थे। शुरू के तीन कवि ठेठ मालवा के थे। नेमि जी 1941 में एमए पास करके उज्जैन के पास शाजापुर ज़िले की एक तहसील, शुजालपुर के ‘शारदा स्कूल सदन’ में अध्यापक होकर आये थे, जो कुछ आदर्शवादी सिद्धांतों पर चल रहा था।  दुनिया भर की बहसों-चर्चाओं और योजनाओं के बीच इन कवियों को सूझा कि क्यों न किसी तरह एक ऐसा संयुक्त कविता संग्रह छापा जाये जिसमें हम चार के अतिरिक्त मध्य भारत या मालवा के ही कुछ और कवि भी हों, जैसे – वीरेंद्र कुमार जैन, गिरिजाकुमार माथुर आदि। 

‘विचार सामने आते ही यह बड़ा आकर्षक जान पड़ा और लगा कि ऐसे संग्रह की बड़ी सार्थकता हो सकती है, क्योंकि उसका आधार यह भी था कि ये सभी कवि एक ही बाह्य और किसी हद तक मानसिक परिवेश से संबद्ध थे। इस विचार ने क्रमशः एक योजना का स्वरूप लिया। उसके विभिन्न पक्षों को लेकर तरह-तरह के नये-नये – कम से कम उन दिनों के संदर्भ में अवश्य ही नये और मौलिक – विचार सामने आये। जैसे यह सोचा गया कि संग्रह में मुखपृष्ठ पर कवियों के नामों के साथ उनके फोटो या रेखाचित्रों का एक पैनल छापा जाये। इसी तरह संग्रह के नाम को लेकर बड़ी बहस हुई। कोई नाम जमता ही न था। तभी संगीत में रुचि के कारण मुझे ‘सप्तक’ नाम सूझ गया, जो सभी को अच्छा लगा। उस समय तक हमारे सामने मालवा के केवल छह कवि-मित्रों के नाम थे, पर क्योंकि ‘सप्तक’ नाम अच्छा लगा था, इसलिए सोचा गया कि एक और सहकर्मी मित्र-कवि जुटाना असंभव नहीं होगा। इस सिलसिले में भारत भूषण अग्रवाल का नाम आया था, पर एक तो सभी लोग उनसे भलीभांति परिचित न थे, दूसरा उनका मालवा से कोई संबंध न था। वे उन दिनों कोलकाता में थे, इसलिए उनका नाम तुरंत निश्चित न हो सका। इस सातवें सहयोगी की तलाश जारी रखने का इरादा करके तय हुआ कि हम सभी अपने-अपने संपर्कों या साधनों से प्रकाशन की व्यवस्था का प्रयास करें। शायद दिल्ली-आगरा के क्षेत्र से मेरे विशेष संपर्क के कारण तथा उन दिनों की विशेष परिस्थितियों में इन सभी मित्रों के मेरे ऊपर अत्यधिक स्नेह और सहज विश्वास के कारण, मुझसे इस दिशा में विशेष रूप से प्रयास करने को कहा। यह भी सोचा गया कि कुछ प्रबंध न हो तो थोड़ा-थोड़ा पैसा हम सभी दें, जिससे कम से कम कागज जुट सके। फिर शायद छपाई किसी प्रेस में उधार करवायी जा सकती थी।’

वैसे यहां यह उल्लेख करना ज़रूरी है  कि प्रभाकर माचवे का भी सप्तक  नाम पर दावा  है। अज्ञेय संबंधी अपने संस्मरण में वे कहते हैं कि ‘ तार सप्तक की जब योजना बनी थी, तब मैंने ही कहा था कि मराठी के रवि किरण मंडल के सात कवियों की तरह से (सप्तर्षि तारों का ‘लोगो’ उनकी  पुस्तकों पर था) नाम रखें। सप्तपर्णी, सप्तरंग आदि नाम सोचे गये। “तार” उनमें जोड़ा गया।’ गिरिजाकुमार माथुर तो माचवे जी को ही तार सप्तक की मूल योजना का जन्मदाता मानते थे, जबकि ऐसा दावा खुद माचवे जी ने नहीं किया है। माथुर जी ने 21 जून 1991 को जनसत्ता  में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कहा था: ‘अज्ञेय जी में संगठन-क्षमता थी, इसलिए तार सप्तक का प्रकाशन भी हुआ और व्यापक चर्चा भी हुई, पर इस योजना के वास्तविक जन्मदाता माचवे जी ही थे।’ उनके इस दावे का आधार जो भी हो। संभव है, उनका आशय  तार सप्तक नाम देने से रहा हो। वैसे माथुर जी तार सप्तक की आरंभिक योजना के समय उज्जैन या शुजालपुर में मौजूद नहीं थे।  वे पहले ही मालवा से बाहर शिक्षा के लिए लखनऊ जा चुके थे और नौकरी के लिए दिल्ली चले गये थे।

तार सप्तक की योजना अज्ञेय तक कैसे पहुंची, इस बारे में एक कहानी तो उनकी ही बतायी हुई ‘उत्साही बंधु’ वाली है, जो तार सप्तक के पहले संस्करण में दर्ज है और ऊपर बतायी जा चुकी है। उन्होंने बाद में एक दूसरी कहानी रची, जो पहली कहानी का प्रतिलोम थी। यह कहानी उन्होंने पहली कहानी के 41 साल बाद अगस्त, 1984 में सुनायी। 1943 में अज्ञेय जो  कहते हैं, उस पर 1984 में नहीं टिके। आकाशवाणी के लिए अपने जीवन के बारे में हुई रिकार्डिंग में (रघुवीर सहाय तथा गोपाल दास से हुई लंबी और पुस्तकाकार बातचीत अज्ञेय अपने बारे में) वे कहते हैं, ‘जब मैं आगरे में 1936 में रहता था, जेल से छूटने के तुरंत बाद की बात है, सैनिक  के ज़माने में और जब प्रभाकर माचवे, नेमिचंद जैन वगैरह से परिचय हुआ था, तब प्रभाकर माचवे ने यह बात उठायी थी कि कुछ लोगों को मिलाकर एक संग्रह निकालना चाहिए क्योंकि उनके अलग-अलग संग्रह नहीं निकल सकते।’ आगे वे कहते हैं कि ‘उसमें कहीं यह भी निहित था उनके मन में कि चार-पांच कवि हों, जिनके संग्रह नहीं निकल सकते और शायद निकालने लायक़ अभी नहीं हुए, उनका एक संयुक्त संग्रह निकाला जाये। तीन-चार  नाम भी उनके सामने थे, जो कि उनके अपने मित्र थे।’ इस तरह की और भी बातें वे बताते हैं। 

यह सही है कि जब अज्ञेय सैनिक  में आगरा में कुछ समय के लिए आये थे तो माचवे जी और नेमि जी उनसे मिलते थे। इस तथ्य की पुष्टि माचवे जी और नेमि जी अलग-अलग भी करते हैं, मगर इन दोनों में से कोई इस तरह का दावा नहीं करता जैसा अज्ञेय ने बाद में किया। माचवे जी ने अपने संस्मरण में अज्ञेय से आगरा में हुई भेंट को कुछ विस्तार से याद किया है, मगर तब ऐसे किसी प्रस्ताव पर चर्चा होने की बात उसमें नहीं आयी है। उनके शब्द हैं, ‘उससे पहले  तार सप्तक की योजना 1943 में बनी।’ 1942  यहां आगे बढ़कर 1943 ज़रूर हो गया है। यह मामूली-सी चूक है, मगर चूक है, क्योंकि अज्ञेय के लिखे तार सप्तक संबंधी पत्र 1942 से ही मुक्तिबोध को लगातार  मिलने लगे, जिनमें ऐसा ही एक पत्र माचवे जी को लिखने की बात भी है। बाक़ी कवियों के साथ भी यही स्थिति है।

यह 73 की उम्र में अज्ञेय को हुए विस्मरण का मामला अधिक लगता है। तार सप्तक  की भूमिका उन्होंने जब लिखी थी, तब वे महज 32 वर्ष के थे और यह घटनाचक्र उनके लिए एकदम ताज़ा था। तब तथ्यों में गड़बड़ी संभव नहीं थी। दूसरी कहानी 73 वर्ष की उनकी पकी उम्र की है। इस उम्र में  स्मृति  धोखा खा जाये, यह सहज स्वभाविक है। वैसे यहां यह संकेतित करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि 1984 में अज्ञेय जी का नेमि जी का नामोल्लेख करने से बचना इरादतन भी हो सकता है। ऐसा क्यों संभव है, इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।

बहरहाल, हम फिर से तार सप्तक की ओर लौटते हैं। आरंभिक सहमति तो तार सप्तक  के योजनाकारों के नामों पर थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ नेमि जी, माचवे जी तथा वात्स्यायन जी में है। इसके अंतिम रूप से वीरेन्द्र कुमार जैन तथा प्रभागचंद्र शर्मा बाहर हो जाते हैं और भारतभूषण अग्रवाल, रामविलास शर्मा तथा अज्ञेय के नाम जुड़ जाते हैं। यह देखें कि ये दो नाम आख़िर छूटे क्यों? प्रभागचंद्र शर्मा के संदर्भ में नेमि जी लिखते हैं कि इस बीच कलकत्ता चले आने से मध्य भारत के मित्रों से उनका अपना संपर्क कुछ टूट-सा गया था। फलस्वरूप 1942 के अंत तक प्रभाग चंद्र शर्मा निश्चित रूप से योजना की ओर से ‘उदासीन’ हो गये। वीरेंद्र कुमार जैन के बारे में वे बताते हैं कि जहां तक याद है, उन्होंने कविताएं भेज दी थीं, पर कुछ तो उनके ‘अत्यधिक रोमांटिक-रहस्यवादी स्वर’ के कारण और ‘कुछ शायद उन कविताओं के कहीं गुम हो जाने के कारण’ वे योजना में नहीं रहे। उनकी जगह भारत भूषण अग्रवाल को सम्मिलित किया गया। नेमि जी अपनी पुस्तक बदलते परिप्रेक्ष्य  में प्रभाकर माचवे का 9 जून 1942 का एक पत्र उद्धृत करते हैं: ‘मैं प्रभाग (चन्द्र शर्मा) से 25 मई को खंडवा में सवेरे 1:30 से 4:00 बजे तक मिला। वे “आगामी कल” के कारण आर्थिक कठिनाई में हैं। तार सप्तक  के बारे में वह तैयार हैं, पर यह कहना कठिन है कि वह 30 रुपये नकद दे सकेंगे।’ फिर माचवे जी ने लिखा कि ‘ तार सप्तक के बारे में प्रभाग जी संग्रह  बढ़िया छापने की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हैं, बशर्ते हम काग़ज़ का ख़र्च उठायें। छपाई के मूल्य से उनका हिस्सा अदा हो सकता है।’ इसके आगे नेमि जी लिखते हैं, ‘पर इस सबके बावजूद काम कुछ आसान साबित नहीं हुआ। प्रभाग भाई का निश्चय तो था ही, वीरेंद्र कुमार जैन से भी कोई निश्चित सूचना नहीं मिल रही थी।’

अज्ञेय जी का इस संबंध में क्या कहना है, यह बताने से पहले मैं प्रभाग जी से संयोगवश हुई बातचीत का उल्लेख करना चाहता हूं। प्रभाग जी मेरे गृहनगर शाजापुर के थे। आकाशवाणी की नौकरी छोड़कर वे तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के कहने पर अपने जन्मस्थली से विधानसभा का चुनाव कांग्रेस की तरफ़ से लड़ने आये थे मगर हार गये थे। उनसे एक बार मैंने पूछा कि तार सप्तक की योजना में उनका नाम था, फिर क्या हुआ? उनका संक्षिप्त उत्तर था, तब उन्हें इसके ऐसे महत्वपूर्ण और चर्चित हो जाने का अनुमान नहीं था। इस कारण वे उदासीन हो गये। अज्ञेय भी 17 जुलाई, 1942 के पत्र में मुक्तिबोध को लिखते हैं: ‘प्रभागचंद्र जी यदि राज़ी हैं तो उन्हें भी इसी आशय की सूचना दे दें। वे भी कविताएं शीघ्र भेज दें। मैं भी लिख देता हूं। वीरेंद्र कुमार जी का निश्चय जो कुछ भी हो, सूचित कर दें।’ इन पत्रों से मिलनेवाला संकेत यही है कि इस समय तक तो ये दोनों कवि तार सप्तक  की सूची में थे। तार सप्तक की भूमिका में जो कवि छोड़ दिये गये थे या छूट गये थे, उनका उल्लेख करना अज्ञेय ने उचित ही आवश्यक नहीं समझा। इस बारे में लेकिन उन्होंने चर्चा आकाशवाणी वाले साक्षात्कार मे की है: ‘माचवे जी ने शुरू में जो नाम लिये थे, उनमें वीरेंद्र कुमार जैन का भी नाम था और मैंने वह नाम छोड़ दिया। उन्हें उसकी शिकायत भी हुई क्योंकि माचवे ने उन्हें भी यह सूचना दे दी थी या  यह विश्वास दिला दिया था कि वे उसमें सम्मिलित किए जा रहे हैं। उन्हें शायद अभी तक यह शिकायत है कि मैंने उनका नाम हटा दिया और वे अनुमान करना चाहते हैं कि किस कारण से हटाया गया। प्रभाग चंद्र शर्मा का नाम भी मैंने छोड़ दिया। वे अब जीवित नहीं हैं। उन्होंने कभी शिकायत भी नहीं की, लेकिन उनके नाम को हटा देने का ज़िम्मेदार मैं था। [उन्होंने  इसका कोई कारण नहीं बताया है मगर शमशेर बहादुर सिंह भी चाँद का मुँह टेढ़ा है में मुक्तिबोध पर लिखे अपने आलेख में प्रभाग जी को अपने समय का ‘एक अच्छा, योग्य कवि’ बताते हैं]  रामविलास शर्मा को शामिल करने का भी कारण मैं था।’ वीरेन्द्र जी को हटाने के कारणों के बारे में अज्ञेय के दावे की पुष्टि नेमि जी और माचवे जी के कथनों से भी होती है, मगर प्रभाग जी की इस संग्रह से अनुपस्थिति का कारण कवि के रूप में उनकी अयोग्यता नहीं रही होगी बल्कि शायद कवि की अपनी आर्थिक समस्याएँ हों, जिसकी ओर नेमि जी और माचवे जी संकेत भी करते हैं।

वैसे अज्ञेय अपने इस साक्षात्कार में संभवतः पहली बार बताते हैं कि वे तार सप्तक में शमशेर बहादुर सिंह को भी  शामिल करने को उत्सुक थे, मगर उनकी कविताएं  कम मिल पायी थीं।  ‘ दो एक  पेटियां भर कविताएं तो उनके पास पड़ी होंगी, लेकिन खुद उनको अपनी ख़बर नहीं थी। तो जब यह काम हुआ, तभी उन्हें लाया जा सका।’ यानी उन्हें  दूसरा सप्तक में ही लाया जा सका। शमशेर जी और अज्ञेय जी हमउम्र थे, जबकि भवानी प्रसाद मिश्र को छोड़कर दूसरा सप्तक के सभी कवि उनसे कनिष्ठ थे। वैसे मिश्र जी के नाम का  उल्लेख भी तार सप्तक संबंधी अज्ञेय के 29 सितंबर, 1942 के पत्र  में  आया है, जो उन्होंने मुक्तिबोध को लिखा था। उनका प्रस्ताव था कि सातवें कवि भवानीप्रसाद मिश्र या गिरिजा कुमार माथुर हो सकते हैं। वीरेन्द्र (कुमार जैन) न आवें तो दोनों। उन्होंने भवानी बाबू का पता मँगवाया था। इस प्रकार अज्ञेय जी के पास संपादन की कमान आने से यह परिवर्तन आया कि तार सप्तक का स्वरूप बदल गया। वह अब मालवा क्षेत्र के कवियों का संकलन नहीं रह गया था। अज्ञेय भी अपने लंबे साक्षात्कार में कहते हैं कि वह  इससे  सहमत नहीं थे कि इसे दो-चार दोस्तों का संकलन बना दिया जाये। ‘यह  तो आप मेरे बिना भी कर सकते हैं। मैं यह सोचता हूँ कि कविता में कुछ नयी बातें आ रही हैं, उनको सामने लाना चाहिए। वे फिर चाहे जहां से आ रही हों। यह स्पष्ट है कि वे एक शहर तक या एक मंडल तक सीमित नहीं रहेंगी। शायद एक प्रदेश तक भी सीमित नहीं रह जाएंगी। … कविता में एक बुनियादी परिवर्तन हो रहा है।…  इसी दिशा में मेरी रुचि होगी।’

बहरहाल तार सप्तक के  प्रकाशन में कई तरह की बाधाएं आयीं। एक बार अंतिम रूप से कवियों के नाम तय हो जाना काफ़ी नहीं था। उन समस्याओं पर गौर करने से पहले हम यह जान लें कि इस योजना के बारे में स्वयं अज्ञेय क्या कहते हैं। इसके प्रथम संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं कि सिद्धांत रूप में मान लिया गया था कि योजना का मूल आधार सहयोग होगा अर्थात उसमें भाग लेने वाला प्रत्येक कवि पुस्तक का साक्षी होगा। चंदा करके इतना धन उगाहा जायेगा कि काग़ज़ का मूल्य चुकाया जा सके। छपाई के लिए किसी प्रेस का सहयोग मांगा जायेगा, जो बिक्री की प्रतीक्षा करे या चुकाई में छपी हुई प्रतियां ले ले।’ वे आगे लिखते हैं : ‘अनेक परिवर्तनों के बाद जिन सात कवियों की कविताएं देने का निश्चय हुआ, उनसे हस्तलिपियां प्राप्त करते-करते सालभर बीत गया। फिर पुस्तक के प्रेस में दिये जाने पर प्रेस में गड़बड़ी हुई। मुद्रक महोदय काग़ज़ हजम कर गये। साथ ही आधी पांडुलिपि रेलगाड़ी में खो गयी और संकोचवश इसकी सूचना भी किसी को नहीं दी जा सकी। कुछ महीनों बाद जब काग़ज़ ख़रीदने के साधन जुटने की आशा हुई, तब फिर हस्तलिपियों का संग्रह करने के प्रयत्न आरंभ हुए और छह महीनों की दौड़धूप के बाद पुस्तक फिर प्रेस में गयी, जो 1943 के अंत में प्रकाशित होकर आयी।’

इसके प्रकाशन का खर्च भी न्यूनतम रखने के तमाम प्रयत्न अज्ञेय जी ने किये थे। भूमिका में वे लिखते हैं: 

‘इधर कविता प्रायः चारों और बड़े-बड़े हाशिये देकर सुंदर सजावट के साथ छपती रही है। अगर कविता को शब्दों की मीनाकारी ही मान लिया जाए, तब वह संगत भी है। तार सप्तक की कविता, वैसी जड़ाऊ कविता नहीं है। वह वैसी हो भी नहीं सकती। ज़माना था, जब तलवारें और तोपें भी जड़ाऊ होती थीं, पर अब गहने भी धातु के सांचों में ढालकर बनाये जाते हैं और हीरे भी तप्त धातु की सिकुड़न के दबाव में बंधे हुए कणों से। तार सप्तक  में रूप-सज्जा को गौण मानकर अधिक से अधिक सामग्री देने का उद्योग किया गया। इसे पाठक के प्रति ही नहीं, लेखक के प्रति भी कर्तव्य समझा गया है क्योंकि जो कोई भी जनता के सामने आता है, वह अंतत: दावेदार है और जब दावेदार है तो अपने पक्ष के लिए उसे पर्याप्त सामग्री लेकर आना चाहिए। योजना थी कि प्रत्येक कवि साधारण छापे का एक फार्म दे अथवा लेगा। इस बड़े आकार में जितनी सामग्री प्रत्येक की है, वह एक फार्म से कम नहीं है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मानना पड़ेगा कि    तार सप्तक में उतने ही दामों की तीन पुस्तकों की सामग्री सस्ते और सुलभ रूप में दी जा रही है। [मुक्तिबोध को लिखे पहले पत्र में उन्होंने लिखा कि जिस कागज पर यह पत्र लिखा गया है, इसी आकार  (20×16) की पुस्तक छपाई जाए और उसमें दो कालम रखे जाएँ।] यदि पाठक सोचें कि ऐसा प्रचार प्रकाशकोचित है, संपादकोचित नहीं, तो उसका उत्तर स्पष्ट है कि सहयोगी योजना में तार सप्तक के लेखक ही उसके प्रकाशक और संपादक भी हैं और अपने-अपने जीवनीकार भी और प्रवक्ता भी।’ 

सितंबर, 1942 तक यानी योजना बनने  के दो महीने में ही अज्ञेय किताब की छपाई की पूरी योजना  बना चुके थे, जिसे उन्होंने नेमि जी, मुक्तिबोध आदि कवियों से साझा किया था। मुक्तिबोध को उन्होंने लिखा:

‘ मैंने  एक मुद्रक को इस शर्त पर मना लिया है कि हम कागज लेकर पुस्तक छपवायेंगे और मुद्रण का बिल वह  बेच कर वसूल कर लेगा। उसकी वसूली के बाद ही हम कुछ लेनदार होंगे। इस प्रकार कुछ छपाई-बंधाई का बिल हमारा अलग हो जाना है और केवल काग़ज़ की समस्या रह जाती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को 16 पृष्ठ दिए जायें और भूमिका के लिए 16 पृष्ठ रख लें तो कुल जमा 8 रिम कागज लगेगा। 500 प्रतियों के लिए इस प्रकार 120 रुपये लगेंगे। मैं सोचता हूँ कि यदि प्रत्येक व्यक्ति 20 रुपये की किस्त भी डाल दे तो 140 रुपये आ जायेंगे। इसमें पुस्तक तैयार हो जायेगी और 12-12 कंप्लीमेंट्री प्रतियां हर कवि के घर भी पहुंच जायेंगी- बिना झंझट के। 20 रुपये की व्यवस्था, आशा है हम सब करेंगे। यदि यह भी कठिन हो तो कम से कम 16 रुपये तो अनिवार्य हैं। इसमें फिर पुस्तकें भेजते समय कुछ ख़र्चा और लगेगा। जो पुस्तकें कंप्लीमेंट्री होंगी, उनकी जिल्द कपड़े की सुंदर होगी। शेष पर व्हाइट कार्ड और ऊपर का आवरण होगा। आज सभी पुस्तकों.का जिल्दीकरण एक लग्जरी है, जिससे कि हम बचें।’

उन्होंने अपनी ओर से कुछ सुझाव सातों कवियों के सामने रखे थे और उनसे कहा था कि यह काम ‘लोकतंत्र बुद्धि’ से होगा, इसलिए इन प्रश्नों पर भी (कवि) मंतव्य प्रकट करें :

  1. भूमिका हो कि नहीं?
  2. कौन लिखे?
  3. प्रत्येक कवि का संक्षिप्त साहित्य-चरित्र हो कि नहीं? वह अपना लिखा हो या व्यक्तिगत संबंध के आधार पर एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत।
  4. कवि अपनी कविता पर अपना छोटा-सा वक्तव्य दें या नहीं? 

उनकी सलाह थी कि एक्सपेरिमेंटल काव्य में कुछ स्पष्टीकरण होना चाहिए- ‘चाहे स्वयं कवि दे, चाहे दूसरे द्वारा दिया जाये, पर दो पेज से अधिक नहीं।’ 

बहरहाल, तार सप्तक का काम अंत-अंत तक कभी इस और कभी उस कारण ढीला चलता रहा। कवियों में वह आरंभिक उत्साह नहीं रहा जो उज्जैन में योजना बनाते समय उनमें था। कवियों का आर्थिक अभाव भी इसका एक कारण रहा होगा। आधी पांडुलिपि का अज्ञेय की चूक से ट्रेन में खो जाना, मुद्रक का काग़ज़ हजम कर जाना आदि भी इसके कारण  थे। वैसे अज्ञेय इस योजना को लेकर काफ़ी गंभीर थे। दिल्ली में मई, 1942 में योजना तय होने के अगले ही महीने से उनकी चिंताएँ आरंभ हो गयीं। 6 जून 1942 को ही उन्होंने नेमि जी को लिखा- ‘तार सप्तक वाले संग्रह का क्या होता है, यह भी अभी पता नहीं।’ इसके बाद फिर वह 25 नवंबर को नेमि जी को लिखते हैं: ‘तार सप्तक के तार बहुत ढीले दीखते हैं, कोई कुछ पता नहीं देता। सब लोग कविताएँ ही भेज दें तो अच्छा है क्योंकि रुपये भेजने की बात तो तब आयेगी जब कविताएं इकट्ठी हो जायेंगी। आप बिस्मिल्लाह कीजिए और मुक्तिबोध जी से भी ले लीजिए- कम से कम 20- 20 कविताएँ।’

वात्स्यायन जी सभी कवियों के  निरंतर संपर्क में थे, ताकि उनकी ओर से सामग्री भेजने में विलंब न हो। जिनसे अधिक व्यक्तिगत निकटता थी, उन्हें प्यार-भरे उलाहने दिये, व्यंग्यात्मक लहजे में तकाज़े पर तकाज़े किये। इसके बावजूद काम उतनी त्वरित गति से  नहीं हो रहा था जिसकी अपेक्षा उन्हें थी। इसका एक ही हल था, वह लगातार पत्र लिखें, ज़रूरत पड़े तो तार करें। 6 जनवरी 1943 को उन्होंने मुक्तिबोध को लिखा : ‘आपने अच्छा छकाया। कविताओं की पांडुलिपि कब पहुंचेगी? सोचता था कि प्रभाकर ही मेरी ओर से आग्रह करते रहे हों, पर निद्रालस देश में कौन किसे चेतायेगा? यदि पांडुलिपि तैयार न हो तो आप अपनी पांडुलिपि भेज दें, यहां (कलकत्ता में) नेमि जी और मैं मिलकर नक़ल और चयन कर लेंगे। देर आप ही की ओर से हो रही है अब। अब तो साथ ही काग़ज़ के मूल्य का अपना-अपना कोटा भी सबको जुटा लेना चाहिए।’ 12 मार्च को फिर से वे मुक्तिबोध को लिखते हैं- ‘तार सप्तक प्रेस में है। कुछ मैटर कंपोज भी हो गया है। आप लोगों ने मार्च में अपना कोटा भेजने को कहा था- प्रभाकर जी ने पूरा, मुक्तिबोध जी ने आधा, पर दोनों ने कुछ नहीं किया। मुद्दई इतना सुस्त हो सकता है, यह नहीं जानता था। काम उठाकर छोड़ना मैंने सीखा नहीं, पर पछताना आप ने सिखा दिया। अस्तु, अब आप जल्दी कृपा करें तो अच्छा है। पुस्तक अप्रैल के आरंभ में तैयार हो जायेगी। (यदि यह न हुआ तो मैं मैटर डिस्ट्रीब्यूट कराकर सबकी सामग्री लौटाने को बाध्य हो जाऊँगा क्योंकि नेमि जी ने अभी तक वक्तव्य भी नहीं दिया है और कोटा तो किसी का नहीं आया। यदि यही हुआ तो तारसप्तक =  टूटे-टूटे तार, जो कि सर्वथा उचित है। प्रगतिशील स्वर तो फटे बाँस का स्वर है न?) आपको बहुत-सी दिलचस्प बातें लिखनी थीं, पर मेरे पास समय कम है और आपके पास उपेक्षा बहुत, अतः चुप रहता हूं। फिर मैं बहुत दूर चला जाऊंगा, तब आप पछताइयेगा। तब मैं बीन बजाऊंगा। और क्या?… कोटा 30 रुपये है न? और दोनों का जन्म काल, शिक्षाकाल और जन्म स्थान का ब्यौरा भी चाहिए तुरंत।’

17 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने फिर याद दिलाया: ‘अब पुस्तक लगभग तैयार है, सिवाय इसके कि आपने जीवनतथ्य नहीं भेजे। क्यों और कैसे इतनी देर लगती है, समझ में नहीं आता। क्या लौटती डाक से भेज सकेंगे? मैं 8-10 दिन बाद कलकत्ता जा रहा हूं। वहां पुस्तक प्रेस में दे आऊंगा। उत्तर लौटती डाक से भेज सकेंगे।’ अंततः मुक्तिबोध  दो अलग-अलग पैकेटों में कविताएं भेज देते हैं। मगर तब तक भी उन्होंने जीवन-तथ्य नहीं भेजे थे। वैसे अज्ञेय ने जो पत्र लिखा है—जिसे तिथि के अनुसार पहला पत्र बताया गया है— उससे पता चलता है कि वे 13 कालम कविताएं भेज चुके थे, उनकी तीन-चार कविताओं की ज़रूरत रह गयी थी। इस पत्र के मुताबिक़ प्रभाकर माचवे ने भी अपनी कविताओं का कोटा लगभग पूरा कर दिया था। शायद यह सामग्री खो चुकी थी।

मुक्तिबोध को एक पत्र में अज्ञेय उलाहना देते हैं : ‘आप सब इस प्रकार पल्ला झाड़ कर अलग हो जायेंगे और मैं – जिसने आरंभ में कोई उत्साह नहीं दिखाया था – इस प्रकार मुसीबत में फंस जाऊंगा।… जितना क्लर्की- परिश्रम मैंने तार सप्तक के लिए किया है, उतना अपनी पुस्तक में लगाता तो एक उपन्यास तैयार हो गया होता।’ इस पत्र पर पुस्तक में फरवरी, 1938  की तारीख़ दी गयी है। यह छपाई की या संपादन की भूल हो सकती है  क्योंकि सारे उपलब्ध प्रमाण – अज्ञेय के स्मृति दोष को छोड़कर –  बताते हैं कि तार सप्तक की योजना पर पहली बार चर्चा  दिल्ली में मई, 1942 को हुई थी। तब फरवरी, 1938 में ही तकाज़ा करने का कारण कैसे पैदा हो सकता है? इसके बाद मुक्तिबोध को लिखे लगातार दो पत्रों पर 1942 का वर्ष अंकित है और उसके बाद का वर्ष 1943। यानी इतना तगड़ा उलाहना देने के बाद अज्ञेय चार साल तक चुप बैठे रहे और 1942 में जाकर फिर जागे? इसके अलावा अपने पहले ही पत्र में उनकी निराशा इस तरह झलक सकती है, यह सहज विश्वास नहीं होता। बहरहाल, तारीख़ ही बहसतलब  हो सकती है, यह पत्र नहीं।

उधर रामविलास जी को वे 30 जून, 1943 को अंग्रेजी में लिखते हैं, ‘आपकी पांडुलिपि खो जाने को आपने क्षमा कर दिया, इसकी खुशी है।’ साथ ही, लिखा: ‘अभी आपकी तीन कविताएं ही मिली हैं – मेरठ से दीदी के ज़रिये। सौभाग्य से उन्होंने इसे डाक से देर से भेजा तो ये बाक़ी पांडुलिपि के साथ नहीं खोयीं। ये कविताएं मात्र दो पृष्ठ में आ जायेंगी। आप और कविताएं और  वक्तव्य भी भेजें।’ 17 अक्टूबर के पत्र  में वे फिर लिखते हैं: ‘आपकी कविता, वक्तव्य, जीवनकथा की अभी तक प्रतीक्षा कर रहा हूं। सप्ताह गये, महीने भी हो गये। आशा है, आप निश्चित मायने में काम कर रहे हैं और इसीलिए मेरी प्रार्थना है कि आप ध्यान दे सकेंगे। मैं आठ-दस दिन में कलकत्ता जा रहा हूं, जहां दो-चार दिन की छुट्टी लूंगा। इस अवकाश में पुस्तक को प्रेस में देना चाहता हूं। मेरी साधना और तपस्या की ओर आपको कुछ तो ध्यान देना चाहिए।’ इसके बाद वे पुनः 11 नवंबर को पत्र लिखते हैं कि ‘आपको कलकत्ते से तार किया था । पुस्तक आधी छपी रखी है, इसलिए आपको शीघ्रातिशीघ्र सामग्री भेजना चाहिए। जीवन तथ्य, वक्तव्य, कविताएं – कुल सामग्री लगभग बीस पृष्ठ अथवा 1000 लाइन ।’ वे यह भी बताते हैं कि 19 नवंबर को पुस्तक का शेषांश प्रेस में चला जायेगा, तो दिसंबर के पहले सप्ताह में पुस्तक निकल आयेगी। अगला पत्र  बगैर दिनांक का है। इसमें वे लिखते हैं कि आपकी कविताएं मिलीं, पर ये तो बहुत कम हैं। कुल सामग्री चार पेज की है और हमें कम से कम 10 पृष्ठ चाहिए अर्थात आपने अभी आधी भी कविताएं नहीं भेजीं। और पहली बार जो भेजी थीं, वे इसमें हैं भी नहीं। वे क्या हुईं? कृपया लौटती डाक से और सामग्री भेजिए और साथ ही कविता के विषय में कुछ वक्तव्य भी। पिछली बार जो आपने लिखा था, वह ठीक था। वैसा ही या आप नया कुछ लिख दीजिए। एक हजार से लेकर पंद्रह सौ शब्दों तक का। साथ में कुछ बायोग्राफिकल सामग्री। जन्म कब, कहां, शिक्षा कब, कहां? लिखा-छपा क्या? रुचियां क्या? पुस्तक आधी छप गयी है और अब और देर की गुंजाइश नहीं है। अतः निवेदन है कि तुरंत ही सामग्री भेज दीजिए। यह न सोच बैठिएगा कि अब क्रिसमस की छुट्टी में करूंगा, क्योंकि उन छुट्टियों से पहले हम पुस्तक आप तक पहुंचा देना चाहते हैं।’ फिर एक और छोटा-सा पत्र 5 दिसंबर 1943 को: ‘आपका 26 नवंबर का कार्ड अभी मिला है। आज 5 दिसंबर है। सप्ताह हो गया। आशा है, आप लिपि आज भेज चुके होंगे। प्रेस वाले मगज चाट रहे हैं मेरा। और मैं स्वयं भी सोच रहा हूं कि पुस्तक को काफ़ी देर हो गयी – बड़ा डिप्रेसिंग असर होता है।’  फिर वे 14 दिसंबर को लिखते हैं: ‘आपकी प्रेषित  सामग्री भी मिली है। धन्यवाद, किंतु उसके बाद न वक्तव्य, न परिचय। निश्चय ही आप जंजाल समझकर मेरा काम निपटा रहे हैं, पर जो आपने इतना कष्ट किया है तो उतना और कीजिएगा। मैंने पहले ही आग्रहपूर्वक कहा था कि यह दोनों चीजें न भूलियेगा। अभी उनके लिए फिर तार दिया है। पत्र के जाने-आने में भी 15 दिन लग जाते हैं और काम आगे ही ऐसा पिछड़ा हुआ है कि बस।’

रामविलास जी ने अंततः कविताएं भेज दीं। उनका परिचय संपादक की ओर से लिखा गया लगता है। परिचय बाद में रामविलास जी ने भी भेज दिया था, पर उनका वक्तव्य नहीं आया था। परिचय कुछ इस तरह लिखा गया था कि वह वक्तव्य जैसा  होने का भी थोड़ा भ्रम देता था। उसे वक्तव्य का नाम दे दिया गया। जब तक रामविलास जी ने भेजा, तब तक काफी विलंब हो चुका था।

परिचय को ही वक्तव्य बना दिया गया था, इस बात की तस्दीक तो रामविलास जी को पत्र लिखते हुए नेमि जी ने भी की है। 2 फरवरी, 1944 को लिखे एक पत्र में वह स्वीकार करते हैं कि रामविलास जी के परिचय को ही वक्तव्य के रूप में छापना पड़ा क्योंकि जब तक वक्तव्य मिला, तब तक कविता वाला फार्मा छप चुका था। वक्तव्य की तरह छापे गये इस परिचय के अंत में एक पंक्ति आती है: ‘एक बात का और विश्वास दिलाना चाहता हूं कि वात्स्यायन जी ने कविताओं के लिए परेशान कर डाला, नहीं तो कविता लिखने में बड़ी मेहनत पड़ती है और उनकी नक़ल करने में और भी ज़्यादा। आशा है कि यह प्रकाशन बस अंतिम होगा।’ कथन के इस अंश पर रामविलास जी के छोटे बेटे ( स्वर्गीय) विजयमोहन शर्मा को यह विश्वास नहीं था कि यह अंश उनके पिता का लिखा है। केवल परिवार के सदस्यों के लिए प्रकाशित सचेतक नामक न्यूज लैटर में उन्होंने ऐसा लिखा है, मगर न नेमि जी के पत्र से यह ज़ाहिर  होता है, न रामविलास जी के किसी कथन से। स्वयं विजयमोहन शर्मा ने भी अपनी बात रामविलास जी के हवाले से नहीं कही है। उनकी बात का एकमात्र आधार यह है कि उनके तीन कविता संग्रह छपे। उन्होंने अनेक कवियों की कविताओं के हिन्दी अनुवाद भी किये और भक्त कवियों की कविताओं का एक संग्रह भी छपवाया, मगर इन सब बातों से यह सिद्ध कैसे होता है कि तार सप्तक के संपादक ने अपने मन से ये पंक्तियां जोड़ दी हैं? फिर अज्ञेय के लिखे तमाम पत्र बताते हैं कि कारण जो भी रहा हो, रामविलास जी कविताएं, परिचय, वक्तव्य भेजने के मामले में उदासीन ही नज़र आते हैं।

वात्स्यायन जी ने अपने पत्रों में कम से कम दो कवियों – प्रभाकर माचवे और मुक्तिबोध – की कुछ कविताओं पर टिप्पणी की थी। मुक्तिबोध (तथा माचवे जी) को वे लिखते हैं कि प्रभाकर माचवे की जो कविताएं आयी हैं, ‘उनमें कुछ प्रयोग बड़े भीषण हैं और कुछ कविताओं के अर्थ शीर्षासन करके भी नहीं समझे जा सकते। एक आध जगह ‘उड्डीयान बंध’ और ‘ नौलिकर्म’ भी निष्परिणाम होंगे। इनके बारे में क्या विचार है? कुछ मुहावरों के प्रयोग अशुद्ध हैं- और अशुद्धि प्रयोगात्मकता की नहीं,  विशुद्ध नेगलिजेंस की है। यही बात कहीं प्रवाह में भी है। सोचता हूं कि प्रभाकर ध्यान दें तो यह उनकी कविता के लिए और संग्रह के लिए बहुत अच्छा होगा, पर इसके लिए कविताएं लौटाना तो भागते भूत की लंगोटी को भी छोड़ देना होगा। तब क्या किया जाए? वह स्वयं बताएं। उन्होंने  मुक्तिबोध को लिखा: ‘ ‘मुक्त वृत’ में भी मुक्ति का बोध कहीं अधिक हो गया है, वृत्त कुछ कम। नेमि शायद इस बारे में उन्हें बहुत कहें क्योंकि हमने कविताएं साथ-साथ पढ़ी थीं, पर वे नया मैटर तुरंत भेजें। क्या मुक्तिबोध जी एक आध साधारण शब्द परिवर्तन की अनुमति देंगे?’

वैसे बाद में आकाशवाणी वाले साक्षात्कार में उन्होंने गिरिजाकुमार माथुर को छोड़कर बाक़ी सभी कवियों की कविताओं  पर प्रतिकूल टिप्पणी की है। शायद उस समय वे माथुर जी का नाम भूल गये होंगे।

जहां तक ‘कोटे’ की बात है, उसे कवियों ने भेजने में काफ़ी कोताही की या अधिकतर कवियों की आमदनी इतनी कम थी कि इस संकलन पर हर कवि के हिस्से में आनेवाला ख़र्च तीस रुपये (जो पहले बीस रुपये बताया गया था) देना तक शायद उनके लिए भारी था। मुक्तिबोध जैसों के लिए प्रायः असंभव था। नेमि जी भी जब शुजालपुर के स्कूल में सहायक प्रिंसिपल थे, तब उनका वेतन मात्र 45 रुपये था, जबकि  प्रिंसिपल ने उदारतापूर्वक अपने वेतन से भी पाँच रुपये उन्हें अधिक दिलवाये थे। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्धता तथा बिड़ला की एक कंपनी में सहायक लेखाधिकारी की नौकरी करने पर भी स्थिति ख़ास अच्छी नहीं रही होगी। 12 मार्च, 1943 को अज्ञेय द्वारा मुक्तिबोध को लिखे पत्र से स्पष्ट है कि तब तक भी किसी ने अपना ‘कोटा’ नहीं भेजा था। इस संकलन के लिए सबसे पहले अपनी पूरी कविताएं भेजनेवाले और उज्जैन के माधव कालेज में अध्यापक बन चुके माचवे जी ने भी अपना ‘कोटा’ 24 नवंबर, 1943 तक भी नहीं भेजा था। इस तारीख़ को अज्ञेय जी का माचवे जी को लिखा पत्र इसका गवाह है। तब तार सप्तक की छपाई अंतिम चरण में थी। अज्ञेय लिखते हैं: ‘आपके कोटे का क्या हुआ? अब मैं भी और रिमाइंडर नहीं भेजूंगा। पुस्तक दो सप्ताह में छप जायेगी। तब उधार करके प्रेस का बिल चुका दिया जायेगा। पुस्तक की एक प्रति आपको पहुंच जायेगी। तय हुआ था कि कवि को 12-15 प्रतियां भेजी जायेंगी, पर वह अब आपका कोटा पहुंचने पर ही होगा। शेष प्रतियां बेची जायेंगी और जो आय होगी, वह सर्वसम्मति से या तो बंट जाएगी या और प्रकाशनों में लगेगी। आशा है, आप स्वयं ही कोटा भेज देंगे। मुझे न भेजें: भारत भूषण कंपोजर, 203- चितरंजन एवेन्यू, कलकत्ता को भेजिए। मुक्तिबोध भी कोटा भेजेंगे या नहीं, यह कल शाम उनसे लिखवा लीजिए। आग्रह नहीं करूंगा, केवल सूचना चाहता हूं।’ नेमि जी को प्रभाकर माचवे द्वारा लिखे पत्र से ज़ाहिर होता है कि रामविलास जी भी अपना ‘कोटा’ देने को अंत तक तैयार नहीं हुए थे। आर्थिक अभाव से जूझते मुक्तिबोध भी अज्ञेय जी द्वारा ‘कोटा’ भेजने का दबाव बनाने के कारण तार सप्तक की योजना से निकलना चाहते थे। उन्हें कैसे फिर राज़ी किया गया, यह साफ़ नहीं है। बाद में भी शायद किसी ने या सबने कुछ भेजा नहीं। नेमि जी के लेख में एक जगह उल्लेख है कि वात्स्यायन जी के पास कुछ ऐसे साधन जुटे कि उन्होंने यह संग्रह स्वयं ही प्रकाशित करने का निर्णय किया। शायद यही वजह है कि वे मुक्तिबोध को इस संबंध में लिखे अक्टूबर 1943 के अंतिम पत्र में ‘कोटा’ की कोई बात नहीं करते। प्रकाशक के रूप मे प्रतीक प्रकाशन, दिल्ली का नाम गया है, जो बाद में अज्ञेय की साहित्यिक पत्रिका का नाम हुआ, जिससे तीन-चार महीने नेमि जी संबद्ध रहे। यही दो प्रमाण हैं कि इसके प्रकाशन का पूरा भार अंततः अज्ञेय ने ही उठाया।

इस तरह तार सप्तक 1943 के अंत में कलकत्ता में छपा। नेमि जी तब तक कलकत्ता आकर नौकरी करने के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का काम भी कर रहे थे। इस दौरान वात्स्यायन जी सेना की नौकरी में शिलंग में थे। वह लगभग हर महीने कलकत्ता आते और चितरंजन एवेन्यू में नेमि जी का घर उनका ठिकाना होता । शिलंग में रहते हुए उन्हें तार सप्तक के लिए काग़ज़ जुटाना अपेक्षाकृत आसान साबित हुआ। नेमि जी के अनुसार, इसका कारण उनका सेना की प्रचार योजना का हिस्सा होना था। इस काग़ज़ के कारण पहले संस्करण का आकार अजीब-सा था। ऐसा था जैसे कविता संग्रह नहीं छपते।

इस बीच तार सप्तक की सामग्री रुक-रुक कर आती रही। वात्स्यायन जी उसका संपादन करके कलकत्ता भेजते। प्रूफ़ पढ़ने के साथ छपाई के काम की देखरेख कलकत्ता में नेमि जी कर रहे थे। वात्स्यायन जी इसे अंतिम रूप देने के लिए हर फार्म अपने पास मंगवाते थे। 

नेमि जी को 2 दिसंबर 1943 को लिखे पत्र से स्पष्ट है कि तार सप्तक का एक फार्म भी तब तक नहीं छपा था। उन्होंने लिखा: ‘देखिए, छपते ही आप प्रत्येक फार्म मुझे भेजते जायेंगे – देर न कीजिएगा।  साथ ही आप अनुक्रमणिका तैयार कर रखेंगे, जितने कवि हैं उनकी। जो पीछे आयेंगे, उनकी पीछे हो जायेगी। मैंने अपने तथ्य भेज दिये, अब गिरिजाकुमार माथुर और रामविलास बाक़ी हैं। कवर का डिज़ाइन तैयार है, भूमिका लिख रहा हूं। अर्थात काम चालू है।’ बहरहाल, जैसा हम पहले लिख चुके हैं, यह 1943 के अंत में छप गया। नेमि जी ने इसे सभी संबद्ध कवियों तक पहुंचा भी दिया, मगर इसकी ठीक से नोटिस आज़ादी के बाद ली गयी।

प्रथम संस्करण के प्रकाशन के बीस साल बाद 1963 (?) में इसका दूसरा, परिवर्द्धित संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया, तब इसके एक कवि नेमिचंद्र (तार सप्तक में यही उनका नाम छपा है, जैन नहीं जुड़ा है) ने एक तरह से संपादक के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया। तब तक दूसरा और तीसरा सप्तक भी छप कर आ चुके थे। इस बीच सामने आये विवादों के बारे में नेमि जी कहना था कि इसमें संपादक की अपनी छवि का योगदान भी था और आलोचकों की ‘मूढ़ता’ का भी।  ‘पुनश्च’ शीर्षक से लिखे अपने नये वक्तव्य में वह कहते हैं: 

‘कुछ तो तार सप्तक के कवियों और विशेषकर संपादक महोदय के चुनौती भरे स्वर तथा सिद्धांतबाज़ी के कारण और कुछ हिंदी के आलोचकों की मूढ़ता के कारण, उन कवियों के काल्पनिक प्रयोगवाद की ही चर्चा अधिक हुई। उनकी कविता का उचित आकलन या मूल्यांकन नहीं हो सका। दुर्भाग्य से तार सप्तक एक अन्य भ्रम का शिकार भी हुआ। साधारणत: यही माना और समझा जाता है कि तार सप्तक किसी सुनिश्चित काव्य-आंदोलन का अग्रदूत था, जिसके झंडाबरदार और नेता उसके संपादक महोदय थे। फलस्वरूप संपादक महोदय से संबंधित विभिन्न साहित्यिक और व्यक्तिगत पूर्वग्रहों की तीखी आलोचना का बेशुमार बोझ भी तार सप्तक के कवियों और उनके निमित्त से मोड़ लेती हुई नयी काव्य-चेतना को उठाना पड़ा। तथाकथित ‘प्रयोगवाद’ तथा समस्त नवीन-काव्य की सारी परवर्ती आलोचना में मूलतः उसके संपादक के नेतृत्व की, साहित्यकार और कवि अज्ञेय की आलोचना होती रही और इन कवियों का अपना व्यक्तित्व उपेक्षित भी हुआ और ग़लत भी समझा  गया।

‘ स्वाधीनता के बाद जब तार सप्तक की ओर पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकर्षित हुआ और उसकी संभावनाओं को पहचाना गया, संपादक महोदय ने वैसे ही और संग्रह निकालने की योजना बनायी, तो स्थिति ने एक नया ही मोड़ ले लिया। दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक के प्रकाशन से आलोचकों का यह भ्रम पूरी तरह बाक़ायदा प्रतिष्ठित हो गया कि संपादक महोदय सचमुच प्रयोगवाद नामक किसी नये काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक हैं।

 ‘ दूसरा सप्तक में संपादक महोदय ने तार सप्तक के सभी कवियों की ओर से आलोचकों को जवाब देते हुए कहा: तार सप्तक के कवि ऐसे कवि थे, जिनके बारे में कम-से-कम संपादक की यह धारणा थी कि उनमें कुछ है और वे पाठक के सामने लाये जाने के पात्र हैं। तीसरा सप्तक की भूमिका में ‘सप्तकों की योजना’ के आधारभूत विश्वास की चर्चा के साथ उन्होंने कहा कि: ‘ तार सप्तक एक नई प्रवृत्ति का पैरवीकार मांगता था, इससे अधिक और कुछ नहीं’।

‘ तार सप्तक के कवियों को एकत्र करने और ‘पात्र’ समझ कर उन्हें पाठकों के सामने लाने का यह मिथ्या दावा दंभ न भी हो, पर इन कवियों के साथ सरासर अन्याय तो है ही। पर यह बात उस समय इसलिए विश्वसनीय लगी कि दूसरा और तीसरा सप्तक सचमुच संपूर्णत: संपादक के प्रयत्न, संयोजन और उनके संगठनात्मक सामर्थ्य और पहल के फल थे, पर यह बात तब स्पष्ट न हो सकी कि जहां मूलतः तार सप्तक के कवियों ने अपना संपादक या कि कहूं प्रकाशक चुना था, वहां बाद के दोनों सप्तकों के कवियों को संपादक ने चुना था। इन दोनों सप्तकों में कुछ एक सर्वथा स्वतंत्र, समर्थ और पूर्व विकसित कवि-व्यक्तित्व सम्मिलित होने के बावजूद, इस संग्रहों के पीछे मूलतः उनके संपादक के साहित्य और काव्य संबंधी मान्यताओं की प्रेरणा और अभिव्यक्ति थी। उन्होंने न केवल उपलब्ध नवीन काव्य का प्रकाशन किया बल्कि समकालीन काव्य के रूप को एक दिशा में मोड़ा।

‘ तार सप्तक के कवि न तो स्वयं ही किसी भी रूप में, किसी भी अंश तक ऐसी किसी प्रकृति से परिचालित हुए थे, न वे किसी भी प्रकार से संपादक के वैचारिक, सैद्धांतिक अथवा संगठनात्मक प्रयत्नों के अंग थे, चाहे फिर व्यक्तिगत स्तर पर उनसे कवियों की कितनी ही घनिष्ठता क्यों न रही हो। महत्वपूर्ण बात यह नहीं कि तार सप्तक के प्राय: सभी कवि एक दूसरे के कुत्तों और मित्रों पर हंसते थे बल्कि यह कि उनका कोई दल नहीं था, कोई गुट नहीं था और आज भी नहीं है। उनकी उपलब्धि चाहे जो हो, पर वे स्वतंत्र रूप में ही अपने काव्य का पथ खोजते और बनाते रहे हैं।’

आगे वे लिखते हैं कि संग्रह में सम्मिलित बाक़ी कवियों के नाम भी मूलतः उनके सोचे या सुझाये हुए नहीं थे। बाद में परिवर्तित नाम भी अन्य लोगों से आये थे और न ये कवि मूलतः उनकी पसंद के कारण एकत्र हुए थे बल्कि संपादक महोदय स्वयं ही उस संग्रह में शायद इस कारण ही अधिक थे कि वे उसके प्रकाशन में प्रमुख रूप से सहायक हो रहे थे। ध्यान दें तो मुक्तिबोध, माचवे, नेमिचन्द्र जैन आदि ने मिलकर तब मालवा के होने के कारण गिरिजाकुमार माथुर का नाम भी प्रस्तावित किया था। भारतभूषण अग्रवाल का नाम भी कम-से-कम बातचीत में आया था। इस प्रकार तार सप्तक के चार नाम तो वे थे जो उज्जैन में तय हुए थे और पाँचवा नाम कम-से-कम विचारार्थ सामने आया था। अज्ञेय तक यह विचार माचवे जी और नेमि जी ले गये थे, इसलिए उनका सप्तक में होना अनिवार्य था और नेमिजी प्रसन्न थे कि वे भी इसका हिस्सा हैं। इससे इस संग्रह का महत्व बढ़ेगा। एक रामविलास शर्मा का नाम इसमें नया था। इस नाम के बारे में नेमि जी बताते हैं कि इसका प्रस्ताव शायद गिरिजा कुमार माथुर का था।

ये कवि किसी सामान्य साहित्यिक या अन्य मान्यताओं के कारण नहीं बल्कि नितांत व्यक्तिगत कारणों से, विशुद्ध परिस्थिति और संयोगवश एक साथ थे। वे स्पष्ट करते हैं कि ‘तार सप्तक किसी भी रूप में किसी साहित्यिक आंदोलन या प्रवृत्ति से प्रेरित नहीं था। उसके कवि प्रयोगवादी नहीं थे, शायद उस अर्थ में भी नहीं जो संपादक ने पहले अपनी भूमिका में आरोपित किया और जिसे फिर बाद में सिद्धांत रूप दे दिया गया। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति, दोनों तत्कालीन सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियों की लगभग अनिवार्य परिणति थी। इनमें से कोई भी उनके अथवा किसी अन्य व्यक्ति के काव्य संबंधी दृष्टिकोण का अनुयायी नहीं था।’ 

जहां तक तार सप्तक के पहले और दूसरे संपादकीय का प्रश्न है, उसमें ऐसा कुछ ख़ास आपत्तिजनक नहीं दिखायी देता। संबंधित अंशों को एक नज़र देख लें : ‘तार सप्तक में सात कवि संगृहीत हैं। सातों एक-दूसरे के परिचित हैं। बिना इसके इस ढंग का सहयोग कैसे होता है? किंतु इससे यह परिणाम न निकाला जाये कि ये कविता के किसी एक ‘स्कूल’ के कवि हैं या  साहित्य-जगत के किसी गुट या दल के सदस्य या समर्थक हैं, बल्कि उनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक ‘स्कूल’ के नहीं है, किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं- राही नहीं, राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है। सभी महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है- जीवन के विषय में, समाज और धर्म और राजनीति के विषय में भी। काव्य-वस्तु और शैली के, छंद और तुक के, कवि के दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है।……वे सब एक-दूसरे पर, एक दूसरे की जीवन-परिपाटी पर….. और यहां तक कि एक दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हंसते हैं। [दूसरे संस्करण में  उन्होंने संशोधन किया: सिवाय इसके इन पंक्तियों को लिखते समय संपादक को जहां तक ज्ञान है, कुत्ता किसी कवि के पास नहीं है।]  इसके पाठक तब जानेंगे कि तार सप्तक किसी एक गुट का प्रकाशन नहीं है क्योंकि संगृहीत सभी सात कवियों के साढ़े सात अलग-अलग गुट हैं।  साढ़े सात व्यक्तित्व, साढ़े सात यूं कि एक को अपने कवि-व्यक्तित्व के ऊपर संकलनकर्ता का आधा छद्म व्यक्तित्व और लादना पड़ा है।’

इसके आगे वे कहते हैं: ‘काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बांधता है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएं प्रयोगशीलता के नमूने हैं या कि इन कवियों की रचनाएं रूढ़ि से अछूती हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील हैं और बाक़ी सब घास छीलने वाले। वैसा दावा कदापि नहीं। दावा केवल इतना है कि ये सातों अन्वेषी हैं। ठीक यही सप्तक क्यों एकत्र हुआ, इसका उत्तर यह है कि परिचित और सहकार-योजना ने इसे ही संभव बनाया। इस नाते तीन-चार और नाम भी सामने आये थे, पर उनमें वह प्रयोगशीलता नहीं थी जिसे कसौटी मान लिया गया था, यद्यपि संग्रह पर उनका भी नाम होने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही, घटती नहीं।’

शायद इससे अधिक विनम्रता से लिखा नहीं जा सकता था। यहां सारी संभावित आपत्तियों का वाजिब स्पष्टीकरण पहले से मौजूद है। नेमि जी भी अपने वक्तव्य में इस बात से सहमति जताते हैं। वे लिखते हैं: ‘तार सप्तक की संपादकीय भूमिका कुछ एक सैद्धांतिक पक्षों के बावजूद मूलतः उन सात कवियों के एकत्र होने के कारणों का विवरण मात्र थी।’ उनकी मूल आपत्ति दूसरा तथा तीसरा सप्तक में तार सप्तक को लेकर संपादक के दावों से है। वे लिखते हैं कि संपादक महोदय ने तार सप्तक के सभी कवियों की ओर से आलोचकों को जवाब देते हुए दूसरा सप्तक में लिखा: ‘ तार सप्तक के कवि ऐसे कवि थे, जिनके बारे में कम से कम संपादक की यह धारणा थी कि इनमें कुछ है और वे पाठक के सामने लाये जाने के पात्र हैं।’ इसके बाद तीसरा सप्तक की भूमिका में वे लिखते हैं: ‘तार सप्तक एक नई प्रवृत्ति का पैरवीकार मांगता था, इससे अधिक और कुछ नहीं।’ इस पर नेमि जी कहते हैं कि ‘तार सप्तक के कवियों को एकत्र करने और पात्र समझ कर उन्हें पाठक के सामने लाने का यह मिथ्या दंभ भरना न भी हो, पर इन कवियों के साथ सरासर अन्याय तो है ही।’ वे आगे लिखते हैं: ‘जहां मूलतः तार सप्तक के कवियों ने अपना संपादक या कि कहीं प्रकाशक चुना था, वहां बाद के दो सप्तकों के कवियों ने संपादक को चुना था। इन दोनों सप्तकों में कुछ एक सर्वथा स्वतंत्र, समर्थ और पूर्व विकसित कवि व्यक्तित्व सम्मिलित होने के बावजूद इन सबों के पीछे मूलतः उनके संपादक के साहित्य और काव्य संबंधी मान्यताओं की प्रेरणा थी।’ 

यह दिलचस्प है और इसकी ओर नेमि जी ने भी ध्यान दिलाया है कि तार सप्तक के पहले संस्करण की भूमिका में अज्ञेय स्वयं को केवल ‘संकलनकर्ता’ बताते हैं। यह संकलनकर्ता बाद में ‘पैरवीकार’ बन जाता है, यह अलग बात है। गिरिजाकुमार माथुर की कविता पर टिप्पणी शायद भूलवश या वे ही जानें, क्यों रह गयी। वैसे माथुर जी भी, नेमिजी की तरह, अज्ञेय को तारसप्तक के संपादक से अधिक ‘संकलनकर्ता’ मानते थे। वे लिखते हैं: ‘नयी प्रवृत्ति की उपलब्धि और परिवर्तित सामग्री को तार सप्तक में मात्र संकलित किया गया था, फलत: तार सप्तक किसी एक कवि या उसके संपादक द्वारा प्रस्तावित प्रयोगवादिता का समारंभ नहीं था क्योंकि नवकाव्य उसके कई वर्ष पूर्व आरंभ हो चुका था। बाद में प्रगतिशील आलोचकों ने रूपवाद का जो लांछन इस प्रवृत्ति पर लगाया था, वह तार सप्तक के संपादक की स्थिति ‘संकलनकर्ता’ के रूप में और सात में से एक कवि के रूप में भिन्न न देखने के भ्रम से ही हुआ था।’

नेमि जी तार सप्तक के प्रकाशन का सारा श्रेय अज्ञेय द्वारा लूटे जाने से भी अप्रसन्न थे। नेमि जी इसे अज्ञेय तथा अपने संयुक्त प्रयत्नों का परिणाम मानते थे। इसमें अपने योगदान का उन्होंने विस्तृत ब्योरा एक लेख में दिया है। वैसे कम-से-कम एक बार अज्ञेय जी ने भी (मार्च, 1944 में) मुक्तिबोध को लिखे पत्र में इसे स्वीकार किया था: ‘इसमें नेमि जी ने बहुत श्रम किया है, उनका कृतज्ञ हूं बल्कि सहयोगी के नाम पर उन्हीं का नाम ले सकता हूं।’ पर अज्ञेय ने यही बात तार सप्तक की संपादकीय भूमिका में नहीं लिखी। अन्यत्र भी संभवतः इसका उल्लेख नहीं किया। इस पत्र में भी वे नेमि जी के श्रम को स्वीकार तो करते हैं मगर इसका स्वरूप क्या था, यह स्पष्ट नहीं करते। नेमि जी ने भी अपनी सारी आपत्तियों-असहमतियों के बावजूद तार सप्तक के दूसरे संस्करण में अपने व्यक्तिगत योगदान को वक्तव्य का हिस्सा बनाना उचित नहीं समझा था। उससे उनकी सैद्धांतिक आपत्तियों का स्वर कमज़ोर पड़ जाता।

अपनी पुस्तक बदलते परिप्रेक्ष्य के ‘तार सप्तक प्रसंग’ लेख में वे लिखते हैं: ‘इस प्रकार दिसंबर 1943 के अंत में आखिरकार तार सप्तक प्रकाशित हो गया और एक दिलचस्प स्वप्न पूरा हुआ। स्पष्ट है कि वात्स्यायन जी जैसे व्यक्ति की अनूठी पहल, अथक उत्साह, लगन और साधनाशीलता के बिना यह कभी न छप पाता, पर जिस रूप में वह छपा है, वह उनके अकेले व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति न था। प्रारंभ से लगाकर अंतिम दिनों तक कम-से-कम हम दो व्यक्तियों के लिए वह एक संयुक्त प्रयास ही था। यही बात कविताओं को पढ़कर उनके अंतिम चुनाव के बारे में और उनके प्रस्तुतीकरण के रूप, अनुक्रम आदि के बारे में भी है। यह दूसरी बात है कि हम सभी – विशेष कर मैं – वात्स्यायन जी की कलात्मक अभिरुचि, उनकी सूझ और समझ का बड़ा आदर करते थे और उनके सुझाव प्राय: ही स्वीकार होते थे। उन्होंने इस कार्य को संभव बनाने के लिए इतना अधिक प्रयत्न और परिश्रम किया था कि हम सभी इसके लिए उनके बहुत कृतज्ञ थे।’ 

नेमि जी बताते हैं कि मध्य भारत में मौजूद कवियों से कविताएं इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उनकी थी और दिल्ली में रह रहे गिरिजाकुमार माथुर से वात्स्यायन जी की। बाकी सब प्रबंध करने की ज़िम्मेदारी भी वात्स्यायन जी ने ली थी। 23 नवंबर, 1943 को अज्ञेय जी ने स्वयं अपना परिचय नेमि जी को भेजते हुए उनसे कहा था कि ‘यदि लंबा हो तो आवश्यक काट-छांट कर लें।’ प्रभाकर  माचवे ने अपनी किसी कविता के दो पाठ भेजे थे। उनमें से जो पाठ वहां ठीक बैठे, उसे रखने की स्वतंत्रता नेमि जी को दी थी। फिर 2 दिसंबर 1943 को उनसे कवियों की अनुक्रमणिका तैयार रखने को कहा था और यह भी कहा था, ‘जो पीछे आयें, उनके नाम पीछे रखे जायें।’ फिर 8 दिसंबर 1943 को लिखा: ‘गिरिजा कुमार बाबू मिल गये। अच्छा हुआ पर परिचय कहां से लाऊं? बेसिक फैक्ट्स तो जानता नहीं। बाकी गैस दे सकता हूं। उन्हें तार दे रखा है, देखो। मीनवाइल आप यदि मंदार (उनका कविता संग्रह) कहीं से पा सकें, तो उसमें शायद परिचय हो।’ इससे स्पष्ट है कि नेमि जी सहायक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने प्रूफ़ जांचने से लेकर छपाई तक तथा इसे प्रकाशित रूप में कवियों तक पहुंचाने तक की ज़िम्मेदारी उठायी थी।

अज्ञेय जी और नेमि जी के रिश्ते जून, 1940 से लेकर जनवरी, 1947 तक बेहद घनिष्ठ रहे। इस बीच लिखे तमाम पत्र इसके गवाह हैं। वे अज्ञेय जी के निरंतर आग्रह के बाद इलाहाबाद आकर प्रतीक से जुड़े थे, मगर यह अनुभव दोनों के लिए कटु साबित हुआ। आकाशवाणी वाली बातचीत में अज्ञेय की कटुता जिन शब्दों में ज़ाहिर हुई है, वह उनके बारे में निर्मित देवप्रतिमा के अनुकूल नहीं है। दिलचस्प यह है कि अज्ञेय जी के कम शब्दों में यह कटुता अधिक दिखायी देती है। 

नेमि जी इलाहाबाद में प्रतीक में उनके साथ कुल तीन-चार महीने ही काम कर सके। इन संबंधों के बिगड़ने के बारे में अज्ञेय जी ने शायद अधिक कुछ नहीं कहा है मगर एकाध पंक्ति में जो कहा है, वह उन जैसे व्यक्ति से अपेक्षित नहीं था। अज्ञेय अपने सुदीर्घ साक्षात्कार में कहते हैं कि वे तो समझते थे कि नेमि जी सहयोगी के रूप में आये थे लेकिन वे उसे [प्रतीक को] नष्ट करने के विचार से आये थे और अपने [कम्युनिस्ट पार्टी] दल की अनुमति लेकर आये थे। नेमि जी ने भी दुखी मन से अपनी बातें कही हैं मगर अज्ञेय में यह भाव नहीं दीखता। नेमि जी बात यहां से शुरू करते  हैं कि उन्हें वहां दो-तीन स्तरों पर कठिनाई महसूस हुई। उन्हें आशा थी कि उनके साथ बराबरी का व्यवहार होगा। समानधर्मा की तरह, कनिष्ठ संपादक की तरह व्यवहार होगा, अनुभवी बड़ा भाई सीखते हुए अपने छोटे भाई के साथ जैसा बर्ताव करता है, वैसा होगा। अभी तक उनके साथ संबंधों का यही रूप रहा था और इलाहाबाद आने के लिए आमंत्रित करते हुए उनके पत्रों और बातचीत की ध्वनि भी यही थी कि यहां पर उनके साथ उचित और सम्मानजनक व्यवहार होगा, पर वहां रहते हुए उन्हें जल्दी ही यह अहसास हो गया कि उन्हें वेतनभोगी सहायक या आश्रित जैसा माना जा रहा है।

फिर एक और मामले ने रिश्तों की कड़ुवाहट बढ़ा दी। वात्स्यायन जी, श्रीपत राय और उनके रहने की व्यवस्था 14, हेस्टिंग रोड पर थी। वहां पर एक और परिवार रहता था – डा. आशामुकुल दास, उनकी पत्नी और दो बेटे। ये लोग वात्स्यायन जी के परिवार की हैसियत से रहते थे। यह वात्स्यायन जी के जीवन का एक अटपटा प्रसंग है, यह संकेत देकर नेमि जी आगे बढ़ जाते हैं। समस्या यह आयी कि डा. दास की पत्नी अपने आप को घर की स्वामिनी समझती थीं। यह बात कई तरह से श्रीमती रेखा जैन के साथ विशेष रूप से और उनके अपने साथ भी कुछ हद तक व्यक्त होती थी। यह भी अज्ञेय जी के साथ तनाव का एक कारण बना। एक और बड़ा कारण, नेमि जी के अनुसार, ‘वात्स्यायन जी के व्यक्तित्व की बनावट से गहरा जुड़ा है। वे न केवल मन-ही-मन मुझे मात्र एक संपादकीय सहायक मानते थे बल्कि शायद वह सोचते थे कि उनके इस उपकार के फलस्वरूप मैं एक उपग्रह की तरह उन्हीं के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहूंगा। उन्हें इसका ठीक-ठीक और पूरा अहसास नहीं था कि इधर-उधर भटकते रहने के बावजूद मैंने अपनी एक अलग व्यक्तिगत आइडेंटिटी बना रखी है और इसके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी के एक विशिष्ट कार्यकर्ता के रूप में मेरी एक अलग स्थिति बन चुकी है।’ 

इलाहाबाद आकर भी बंबई की तरह यह दंपती इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ तथा पार्टी के अन्य कामों से जुड़ गया। नेमि जी के अनुसार, अज्ञेय जी को शायद यह अच्छा नहीं लगा कि प्रतीक की परिधि के बाहर भी ‘मेरी अपनी स्वतंत्र, महत्वपूर्ण और बड़ी जिंदगी है।’ धीरे -धीरे संबंध बिगड़ते गये।

इसके अलावा वर्षों बाद तनाव का एक और कारण पैदा हुआ। इसका संबध सप्तक की रायल्टी से था। तार सप्तक का दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने के बाद उसका कई बार पुनर्मुद्रण हुआ और होता रहा। दूसरे संस्करण के प्रकाशन के समय सभी कवियों को अज्ञेय जी की ओर से पत्र लिख कर बताया गया था कि प्रत्येक को दो प्रतिशत रायल्टी मिलेगी, ‘पर एकाधिक बार पुनर्मुद्रण के बाद भी जब कई वर्षों तक कोई रॉयल्टी नहीं मिली तो मैंने भारतीय ज्ञानपीठ को पत्र लिखकर इस बारे में जानकारी चाही। उसका उत्तर जो आया, उसने चौंका दिया। पत्र में लिखा था कि अनुबंध के अनुसार सारी रॉयल्टी वात्स्यायन जी को भुगतान कर दी जाती है और अलग-अलग कवियों को रॉयल्टी भेजने की ज़िम्मा उन्हीं का है। इस पर मैंने लक्ष्मी चंद्र जी को सूचित किया कि मुझे तो अभी तक कुछ भी नहीं मिला है। इस बीच मुझे यह भी पता चला कि किसी कवि को कुछ नहीं मिला है और तार सप्तक ही नहीं, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक के भी किसी कवि को कोई रॉयल्टी नहीं मिली है। मैंने लक्ष्मीचंद्र जी को लिखा कि अनुबंध जो भी हो, इस मामले में आप कुछ मदद कीजिए। उत्तर में उन्होंने लिखा कि समझ में नहीं आता, कैसे करें? अब तक की सारी रॉयल्टी पेशगी दी जा चुकी है। मैंने फिर से लिखा कि आप चाहे जैसे भी हो, करें। इसका कुछ हल आपको निकालना ही पड़ेगा। इसके कुछ समय बाद लक्ष्मी चंद्र जी का जो पत्र आया, उसमें वात्स्यायन जी के एक पत्र के वाक्य उदृत थे, जिसका अभिप्राय था कि मैं भूल गया कि मुझे यह भी करना है। वात्स्यायन जी की इस प्रतिक्रिया से खीज तो बहुत हुई, पर मैंने लक्ष्मी चंद्र जी से फिर आग्रह किया कि इसका कोई रास्ता निकालना ज़रूरी है। इस प्रश्न को सार्वजनिक और अधिक अप्रिय होने से बचाना चाहिए। इतने सारे कवियों के साथ ऐसा अन्याय होने में भारतीय ज्ञानपीठ की भी प्रतिष्ठा का सवाल है। अंततः भारतीय ज्ञानपीठ ने वात्स्यायन जी की अपनी कई किताबों की रॉयल्टी रोककर सब कवियों को उनकी रॉयल्टी भेजी। तीन सप्तकों के बीस कवि थे। कवियों को इस प्रकार कई-कई हज़ार रुपये मिले। कुल मिलाकर 50-60000 रुपये का मामला था, जो उस ज़माने के लिए बहुत बड़ी राशि थी। यह उसूल का सवाल भी था। यह बहुत ही अनुचित था कि कोई एक बड़ा लेखक ऐसा करे, जो इन सब बातों के बारे में बहुत सतर्क भी रहता हो। उनसे ऐसी उम्मीद मैं नहीं कर सकता था।’

वैसे यहां यह तथ्य सामने रखना समीचीन होगा कि अज्ञेय जी की लिखी 16 मार्च, 1967 की एक संक्षिप्त चिट्ठी रामविलास जी के नाम इस प्रकार है: ‘इस पत्र के साथ का चेक स्वीकार करें, उसकी पहुंच देने की कृपा करें।’ यह चैक स्वयं अज्ञेय ने अपने खाते से दिया है या ज्ञानपीठ की ओर से उनके माध्यम से भिजवाया गया है, यह स्पष्ट नहीं है। वैसे इससे पहले उनका एक और पत्र 2 सितंबर, 1958 का मिलता है, जो सभी सातों कवियों को दो प्रतिशत रायल्टी देने की सूचना के बारे में है। इसमें आगे वे स्पष्ट रूप से लिखते हैं: ‘आप उचित समझें तो इसकी व्यवस्था मुझ पर छोड़ सकते हैं या आपका आग्रह हो तो प्रकाशक से आपका अलग अनुबंध हो जायेगा।’ संभव है कि सभी कवियों ने अज्ञेय पर यह ज़िम्मेदारी छोड़ना उचित समझा होगा और हो सकता है, उस कारण यह समस्या पैदा हुई हो। 

आगे नेमि जी लिखते हैं: ‘तो यह संभव है कि मेरे प्रति वात्स्यायन जी के उतने तीखे आक्रोश का यह भी एक कारण रहा हो। इसी खीज में, शायद बदले की भावना से, उन्होंने मेरे बारे में तरह-तरह के झूठ बोले, मुझे प्रतीक को भीतर से नष्ट करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा भेजा गया छिपा एजेंट बता कर घटिया ढंग से बदनाम करने की कोशिश की। एक तरह से अपने जीवन के परिदृश्य में मेरी उपस्थिति को ही नकार दिया। मुझे देखकर बड़ी हैरत होती है कि [आकाशवाणी के] इस साक्षात्कार में उन्होंने साहित्य जगत के जितने भी लोगों के बारे में जो भी बातें कही हैं, उनमें सबसे अप्रिय और तीखी अपमानजनक बातें मेरे बारे में ही हैं।’

जिन ‘अप्रिय और तीखी अपमानजनक’ बातों का उल्लेख नेमि जी कर रहे हैं, उसका पूरा संदर्भ समझने के लिए अगस्त, 1984 में (सप्तक के प्रकाशन के चार दशक बाद) अज्ञेय ने पांच कवियों का अपना एक मूल्यांकन प्रस्तुत किया था, उसकी ओर नज़र डालना होगा। इसमें वे मुक्तिबोध को भी समर्थ कवि नहीं मानते नज़र आते हैं। यह मूल्यांकन अज्ञेय : अपने बारे में में प्रकाशित साक्षात्कार का हिस्सा है: 

मुक्तिबोध : ‘अनगढ़पन इतना न बना रह गया होता, अगर वास्तव में उनकी जो बेचैनी थी, वह कवि-कर्म को लेकर हुई होती या कि कविता को लेकर हुई होती। उनमें बड़ा एक ईमानदार सोच तो है। उनकी चिंताएं बहुत खरी चिंताएं हैं लेकिन शायद वे कविता के बारे में नहीं हैं। वे ज़्यादा कवि और समाज के बारे में हो जाती हैं। भाषा की ओर वे इतने उदासीन रह ही नहीं सकते थे, अगर वह चिंता भी उनके सामने रही होती और मैं यह कहूं कि अंत तक वे एक बहुत ही खरे और तेजस्वी चिंतक तो रहे हैं और उनमें बराबर सही ढंग से सोचने की छटपटाहट भी दीखती है लेकिन अंत तक वे समर्थ कवि नहीं बन पाये। उनकी एक आध को छोड़कर कोई भी कविता पूरी कविता नहीं हुई। बल्कि यह भी कह सकता हूं कि उनकी जो लगभग पूरी कविताएं हैं, वे तार सप्तक में आ गयी थीं। उसके बाद जो कविताएं आयी हैं, वे वैसी नहीं हैं।’

रामविलास शर्मा: ‘उन्हें तार सप्तक में लेने का कारण उनकी कविताएं और कुछ उनके विचार भी थे। उन्होंने उसके बाद में और लिखा ही नहीं, यह मेरा भी दुर्भाग्य है और उनका भी कोई सौभाग्य तो नहीं है, लेकिन उस समय वह एक अलग ढंग का काम था।…उनकी आरंभ की कविताएं – जो कि देहाती जीवन के बड़े सच्चे और खरे चित्र सामने लाती हैं – मुझे अच्छी लगती थीं। अब भी अच्छी लगती हैं।’

प्रभाकर माचवे: ‘अब ज़रूर आश्चर्य हो सकता है लेकिन उस समय उनमें प्रतिभा तो थी। मैं समझता हूं कि अगर प्रतिभा के दुरुपयोग का उदाहरण देना हो तो मैं उनका नाम ले सकता हूं क्योंकि उस समय बड़ी प्रखर बुद्धि के व्यक्ति थे और तर्क की भी अद्भुत प्रतिभा थी और काफ़ी संवेदनशील प्राणी भी थे। चित्र भी बनाते थे, लेकिन धीरे-धीरे मैंने पाया कि कवि-कर्म या रचना-कर्म के प्रति जैसा एक उत्तरदायी भाव कवि में होना चाहिए, वैसा उनमें कभी नहीं रहा। अतः इस अनुत्तरदायीपन के कारण ही धीरे-धीरे उनकी प्रतिभा भी बिखरती चली गयी। ग़लत कामों में भी लगती रही। ग़लत-ग़लत दिशाओं में भी जाती रही और धीरे-धीरे विलय हो गयी।’

नेमिचंद जैन : ‘बहुत जल्दी चूक गये और जल्दी ही यह भी स्पष्ट हो गया कि उनकी भी रुचि साहित्य की अपेक्षा साहित्य की राजनीति और राजनीति में अधिक है।’

भारत भूषण अग्रवाल: ‘ मैं समझता हूं कि एक संवेदनशील व्यक्ति थे और कवि तो थे और रहे लेकिन साथ ही बड़े दुर्बल व्यक्ति थे और जिस काम को वे सही मानते थे, दूसरों के प्रभाव में आकर या उनके डर से, उससे हाथ खींच लेना भी उनके लिए कठिन नहीं था और जिस काम को वे ग़लत मानते हैं, उनमें प्रवृत्त हो जाना भी डर के या कि दबाव के कारण कठिन उनके लिए नहीं था, लेकिन उनकी कविता में अच्छी कविता भी है, बहुत रद्दी कविता भी काफ़ी है।’

वैसे तार सप्तक का परिवर्द्धित-पुनर्प्रकाशित 11वां संस्करण जो मेरे पास है, उसके अनुसार और अन्यत्र भी यही बताया जाता है कि इसे पहली बार भारतीय ज्ञानपीठ ने 1963 में प्रकाशित किया, मगर इसके कवियों को अज्ञेय के लिखे पत्र बताते हैं कि इसका प्रकाशन 1964 में कभी हुआ होना चाहिए। मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा को 24 दिसंबर, 1963 को वे सूचित करते हैं कि अनेक प्रकार की बाधाओं के बाद अब तार सप्तक के नये संस्करण की बात भारतीय ज्ञानपीठ से तय हुई है। मुझे मासांत में पांडुलिपि देनी है। मुक्तिबोध की कविता और वक्तव्य तो अज्ञेय जी को 6 जनवरी, 1964 तक मिल चुके थे मगर रामविलास जी को इस बारे में लिखा अज्ञेय जी का दूसरा पत्र 31 जनवरी, 1964 का है। इसमें वे लिखते हैं कि ‘आपका पत्र पाकर जान में जान आयी लेकिन अभी आधी ही, क्योंकि चैन की सांस तो तब लूंगा जब वक्तव्य और कविता मिल जाये।’ इससे स्पष्ट है कि उन्होंने अपना नया वक्तव्य और कविता तब तक भी नहीं भेजी थी। इसका अर्थ है कि इसका प्रकाशन 1964 में फरवरी या उसके बाद कभी हुआ होगा या किसी कारणवश उस पर वर्ष 1963 दिया गया होगा। यह संभव नहीं लगता कि इन दो कवियों की कविताओं तथा वक्तव्य के बग़ैर इसे छापा गया होगा। इसके अलावा अज्ञेय स्वयं रामविलास जी को 31 जनवरी, 1964 को यह पत्र लिख रहे हैं और पांडुलिपि प्रेस में 5 फरवरी से पहले देने की बात कर रहे हैं।

इसके पुनर्प्रकाशन का प्रयास वैसे अज्ञेय ने सितंबर, 1958 से आरंभ कर दिया था, लेकिन 1963 में उन्हें तब जाकर आंशिक सफलता मिली जब भारतीय ज्ञानपीठ इसके लिए तैयार हो गया। इससे पहले उन्होंने साहित्य सदन से बात की थी। उसके प्रमुख गुप्त जी का आग्रह था कि इसमें से दो-एक कविताएं निकाल दी जायें, जो उनके यहां से छप नहीं सकतीं। भारतभूषण अग्रवाल को दिसंबर, 1958 में अज्ञेय लिखते हैं: ‘मेरी हठ थी कि वह नहीं होगा, इसलिए तीनों सप्तकों की बात यहां से टूट गयी। फिर ज्ञानपीठ वाले राज़ी हुए । तीसरा सप्तक तो छप रहा था, प्राय: पूरा हो गया था, पर तार सप्तक को कुछ नया करना वे चाहते थे।’ पुराने रूप को अक्षुण्ण रखते हुए नवीकरण का यही उपाय समझ में आया कि पहली पुस्तक ज्यों-की-त्यों छपे और उसमें एक-एक नया वक्तव्य कविगण जोड़ दें और एक-एक कविता।

तार सप्तक का 1943 में प्रकाशन तो तमाम कठिनाइयों के बावजूद करीब डेढ़ साल में हो गया, मगर पुनर्प्रकाशन में प्रयास करने के क़रीब छह वर्ष बाद सफलता मिली। तब तक ये सभी कवि अपने अपने ढंग से स्थापित हो चुके थे। शायद इस बार प्रयासों में अज्ञेय की ओर से भी ढिलाई रही। भारत जी को लिखे अज्ञेय के एक पत्र से यह भी ज़ाहिर होता है। एक संकोच नेमि जी और भारत जी के मन में था कि संपादक अपने वक्तव्य के अलावा संपादकीय भी लिखेंगे और उसमें कवियों के वक्तव्य की काट करेंगे। अज्ञेय लिखते हैं: ‘ऐसा विचार कभी मेरा नहीं रहा। मैं बल्कि नयी भूमिका कुछ नहीं लिखना चाहता, यानी काव्यविषयक, केवल विज्ञप्ति ही होगी कि दूसरा संस्करण है और इसमें यह जोड़ा गया है, बस..।’ वे आगे और स्पष्ट करते हैं: ‘अपनी ओर से छोटा-सा वक्तव्य दे रहा हूं और भूमिका नयी नहीं लिख रहा हूं। केवल दूसरे संस्करण की औपचारिक भूमिका जितनी होती है, उतनी ही, कोई खंडन- मंडन नहीं।’ अगर दूसरे संस्करण का वक्तव्य (परिदृष्टि: प्रतिदृष्टि) देखें तो अज्ञेय जी ने अपने इस वचन का पालन किया। नेमि जी के वक्तव्य पर संकेत में भी कोई टिप्पणी नहीं की, जो सबसे अधिक विस्फोटक था। भारतभूषण अग्रवाल के नये वक्तव्य में ऐसा कुछ नहीं था जो संपादक को खंडन-मंडन के लिए बाध्य करता।

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तार सप्तक और पहली बार प्रकाशित तार सप्तक में तीन उल्लेखनीय परिवर्तन आये। 1943 में किताब की रूपसज्जा को गौण मान कर अधिक-से-अधिक सामग्री देने पर बल था। पहले संस्करण के समय मुक्तिबोध को एक पत्र में अज्ञेय ने लिखा था कि रुपये की किल्लत और काग़ज़ की महंगी के कारण यह उचित जान पड़ता है कि जिस काग़ज़ पर यह पत्र (20×6/8) लिखा है, इसी आकार की पुस्तक छपायी जाये और उसमें दो कॉलम रखे जायें। इस प्रकार ठोस छपाई हो जायेगी। यह हिंदी में नई शैली की छपाई होगी- और ठोस मैटर – ठोस छपाई। तब प्रत्येक व्यक्ति के लिए दस पृष्ठ काफ़ी होंगे, अर्थात बीस कॉलम। ख़र्च (काग़ज़ का) कुल इतना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति तीस रुपये देगा तो काम चल जायेगा। अब ये समस्याएं नहीं थीं। कवियों को प्रकाशन का ख़र्च नहीं देना था, अब यह सारा काम प्रकाशक को करना था, इसलिए ‘ठोस मैटर तथा ठोस छपाई’ की ज़रूरत नहीं रह गयी थी। ‘पहले संस्करण में जो आदर्शवादिता झलकती थी’, उसे अब ‘काव्य प्रकाशन के व्यावहारिक पहलू’ को ध्यान में रखकर तज दिया गया था। इसकी ‘रूप सज्जा पर परवर्ती दोनों सप्तकों का प्रभाव पड़ा था’। तीसरा परिवर्तन यह आया था कि ‘पहले संस्करण में उपलब्धि के नाम पर कवियों को पुस्तक की कुछ प्रतियां मिलीं, बाकी जो कुछ उपलब्धि हुई, वह भौतिक नहीं थी।’ इस बार भौतिक उपलब्धि भी थी। प्रत्येक कवि को दो प्रतिशत रॉयल्टी देने की बात थी, जो अंततः मिली भी। पहले संस्करण में संपादक का दावा था कि ‘तार सप्तक में तीन पुस्तकों की सामग्री सस्ते और सुलभ रूप में उपलब्ध की जा रही है।’ अब इस दावे का कोई अर्थ नहीं रह गया था।

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संदर्भ सूची

1 तार सप्तक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 11 वां संस्करण, 2014. 

2 मेरे युवजन, मेरे परिजन : मुक्तिबोध को लिखे पत्र, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली. 

3 अज्ञेय पत्रावली : संपादक-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2012. 

4 मेरे साक्षात्कार : नेमिचन्द्र जैन, किताबघर, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 1998. 

5 अज्ञेय अपने बारे में (रघुवीर सहाय तथा गोपाल दास की भेंटवार्ता) : आकाशवाणी महानिदेशालय, नई दिल्ली.

6 बदलते परिप्रेक्ष्य : नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.

7 प्रभाकर माचवे : राजेन्द्र उपाध्याय, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2004. 

8 तुममें मैं सतत प्रवाहित हूं : संपादक-रमेश मुक्तिबोध एवं राजेश जोशी, प्रथम संस्करण : 2020.

9 नटरंग, अंक 74-76 (नेमिचन्द्र जैन विशेषांक) : संपादक-अशोक वाजपेयी तथा रश्मि वाजपेयी, सितम्बर 2020.

10 चांद का मुंह टेढ़ा है : गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतीय ज्ञानपीठ, बाईसवां संस्करण : 2015.

11 अपने अपने अज्ञेय : सम्पादक-ओम थानवी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011.


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