सांप्रदायिक राजनीति के कुचक्र में हिंदी सिनेमा / जवरीमल्ल पारख


जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर वह तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे प्रभावी माध्यम सिनेमा है जिसका 2014 से हिंदुत्व की विचारधारा के प्रचार के लिए लुका-छिपा और कई बार बिल्कुल नग्न रूप में इस्तेमाल होता रहा है। —जवरीमल्ल पारख का आलेख :

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सिनेमा की शुरुआत के दौर से ही इस बात को पहचान लिया गया था कि सिनेमा प्रचार का बहुत सशक्त माध्यम हो सकता है। सिनेमा यथार्थ को यथार्थ की तरह ही नहीं, अयथार्थ को यथार्थ की तरह दृश्यांकित करके दर्शक के मन में अयथार्थ को यथार्थ मानने का यक़ीन पैदा कर सकता है। वह एक ऐसी कहानी गढ़कर हमारे सामने पेश कर सकता है जिसे हम सच मान बैठें। वह किसी ऐतिहासिक पुरुष की ऐसी छवि निर्मित कर सकता है जो ज़रूरी नहीं कि उसकी वास्तविक छवि से मेल खाती हो, लेकिन फ़िल्म देखकर हम उसे ठीक वैसा ही मानने लग सकते हैं जैसा उसे दिखाया गया है। इसी तरह, वह हमारे अपने आसपास के यथार्थ को, जिसके हम स्वयं हिस्सा हैं, इस रूप में दिखा सकता है कि जो पर्दे पर दिखाया जा रहा है उसे ही सच मान लें और स्वयं अपने अनुभवों को अस्वीकार कर दें। सिनेमा का प्रोपेगेंडा के रूप में उपयोग उसकी इसी शक्ति के कारण संभव है। यह इसलिए भी संभव होता है कि हमें अपने समय और समाज के प्रति जितना जागरूक होना चाहिए, उतने हम नहीं होते। इसलिए जब सिनेमा के पर्दे पर ऐसी छवियां बारबार हमारे सामने रखी जाती हैं जो पूरी तरह से झूठ पर टिकी होती हैं, तो भी हम उसे सच मान लेते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद जब हिटलर की नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (नाज़ी पार्टी) द्वारा जर्मन जनता के मनोमस्तिष्क में यह बैठा दिया गया कि उसकी पराजय और दुर्दशा का कारण यहूदी हैं और इस झूठ को फैलाने के लिए व्यापक प्रचार किया गया तो धीरे-धीरे जर्मन जनता ने भी मान लिया कि यही सत्य है। यहूदी समुदाय जर्मन समाज का एक बहुत ही नगण्य-सा अल्पसंख्यक समुदाय था, कुल आबादी का एक प्रतिशत से भी कम। लेकिन यहूदी समुदाय के विरुद्ध धुआंधार प्रचार ने जर्मन जनता के मन में यह बैठा दिया कि यहूदी ही हमारी सारी समस्याओं का कारण हैं और अगर इस बुराई को जर्मन राष्ट्र से समूल नष्ट कर दिया जाता है तो उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। इस असत्य के साथ-साथ यह भी प्रचारित किया गया कि जर्मनी को उसका खोया हुआ स्वाभिमान केवल नाजी पार्टी और उसका सर्वोच्च नेता हिटलर ही वापस दिला सकते हैं।

1933 में जब हिटलर जर्मनी का शासक बना, तब उसने ऐसे कई फ़िल्में बनवायीं जिनमें यहूदियों की बर्बर और हिंसक छवि पेश की गयी थी। उसने ऐसे वृत्तचित्र बनवाये जिसमें स्वयं उसकी छवि ‘अतिमानवीय’ नज़र आती थी। जर्मन फ़िल्मकार लेनी रिफ़ेंस्ताल ने कई वृत्तचित्र बनाये जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध वृत्तचित्र था, ट्राइंफ ऑफ दि विल (1935), जो न्यूरेम्बर्ग में 1934 में आयोजित नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (नाज़ी पार्टी) की छठी कांग्रेस पर आधारित था। लगभग पौने दो घंटे के इस वृत्तचित्र की शुरुआत बादलों के बीच से धरती की ओर आते हुए विमान से होती है जिसमें से हिटलर उतरता दिखाया गया है। लाखों-लाख लोग उसकी प्रतीक्षा करते नज़र आते हैं जिनके चेहरों पर उल्लास का सामूहिक भाव है। विमान से उतरकर हिटलर का जनता के बीच आना ठीक वैसा ही है जैसे आकाशीय देवता का धरती पर अवतरित होना। इस पूरे वृत्तचित्र में हिटलर की जयजयकार करता हुआ विराट जनसमूह और बारबार हज़ारों की संख्या में अनुशासनबद्ध होकर परेड करते और हिटलर को सलामी देते सैनिक और अर्धसैनिक बल एक ऐसे शासक की छवि निर्मित करते हैं जिसके पीछे पूरा देश है। वृत्तचित्र के आरंभ से लेकर अंत तक हिटलर और जर्मनी को बार-बार एक दूसरे का पर्याय कहा गया है। पार्टी की अग्रिम पंक्ति के नेता बार-बार आकर हिटलर को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ‘फ्यूहरर, आप ही जर्मनी हैं, जब आप कुछ करते हैं तो पूरा देश क्रियाशील हो जाता है’। एक अन्य नेता कहता है, ‘आप विजय की गारंटी है और आप ही शांति की गारंटी है। चूंकि हिटलर ही जर्मनी है, हिटलर के प्रति निष्ठा ही जर्मनी के प्रति निष्ठा है और हिटलर के लिए संघर्ष ही जर्मनी के लिए संघर्ष है’। कुछ-कुछ इसी तरह का प्रचार हम अपने देश में भी आजकल देख सकते हैं। 

हिटलर के सत्ता में आने के बाद किये गये प्रचार ने जर्मनी की बहुसंख्यक जनता को हिटलर का समर्थक बना दिया। उसके प्रचार अभियान का ही नतीजा था कि जनता हिटलर की युद्धोन्मादी और बर्बर क्रूरताओं की भागीदार भी बन गयी थी। लाखों-लाख यहूदियों को दी जाने वाली यातनाएं इसीलिए संभव हो सकीं कि उनको क्रियान्वित करने के लिए इंजीनियर, डॉक्टर और दूसरे पेशों से जुड़े शिक्षित और कुशल लोग अपनी सेवाएं दे रहे थे। फ़ासीवादी प्रचारतंत्र ने पूरे राष्ट्र की सामूहिक चेतना को हिंसक और संवेदनहीन बना दिया था। यातना शिविरों से बहुत पहले से यहूदियों के विरुद्ध हिंसक कार्रवाइयां आरंभ हो चुकी थीं। यहूदियों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया जाने लगा। उनके घरों और प्रतिष्ठानों पर हमले किये जाने लगे। उनकी भीड़ द्वारा लिचिंग की जाने लगी और जब उन पर हमले हो रहे थे तो जर्मन नागरिक या तो निष्क्रिय बने रहे या हिंसक भीड़ का हिस्सा बन गये। 

यह कहना बहुत ग़लत नहीं है कि हर कला माध्यम, जिनमें सिनेमा भी शामिल है, एक तरह का प्रचार ही होता है, लेकिन यह प्रश्न ज़रूर पैदा होता है कि प्रचार का मक़सद क्या है और उसका प्रभाव दर्शकों पर किस तरह का पड़ता है। 1915 में अमरीकी फ़िल्मकार डी डब्ल्यू ग्रिफिथ की मूक श्वेत-श्याम फ़िल्म बर्थ ऑफ़ ए नेशन भी एक प्रचार फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में ग्रिफिथ ने अमरीकी गृहयुद्ध को कहानी का विषय बनाया था, लेकिन इस गृहयुद्ध में उसकी सहानुभूति श्वेत समर्थक नस्लवादी समूह ‘कु क्लक्स क्लान’ के प्रति थी जो मानता था कि श्वेत औरतों को अश्वेतों के हमले से बचाने के लिए और अमरीका में श्वेतों के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए अफ्रीकी मूल के लोगों को नियंत्रण में रखना ज़रूरी है और ज़रूरत हो तो इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी कुछ ग़लत नहीं है। इस तरह यह फ़िल्म अश्वेत लोगों के प्रति घृणा और नफ़रत की प्रचारक बन गयी। स्वाभाविक था कि अश्वेत समुदाय इसका विरोध करता और इस पर प्रतिबंध की मांग करता, लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गयी। आज भी यह फ़िल्म हॉलीवुड की सबसे ख़तरनाक नस्लवादी फ़िल्म मानी जाती है।

 

आज हमारा देश कुछ हद तक उन्हीं परिस्थितियों के बीच से गुज़र रहा है जिनसे हिटलर के शासन के आरंभिक दौर में जर्मनी गुज़र रहा था। 2014 से दिल्ली की केंद्रीय सत्ता पर एक ऐसी पार्टी क़ाबिज़ है जिसका संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से है। इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड में जो विचार पेश किये, उसके पीछे फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का प्रभाव भी था। इस पुस्तक में गोलवलकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ‘अगर निर्विवाद रूप से हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं ही के फलने-फूलने के लिए है, तो उन सभी लोगों की नियति क्या होनी चाहिए जो इस धरती पर रह रहे हैं, परंतु हिंदू धर्म, नस्ल और संस्कृति से संबंध नहीं रखते’ (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम, फारोस, नयी दिल्ली, पृ. 199)। स्वयं द्वारा उठाये गये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे लिखते हैं कि ‘वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं, राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते। वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें। राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा एवं संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें। जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतरों को बनाये रखते हैं, वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रवत हो सकते हैं या शत्रुवत’ (वही, 199)। गोलवलकर की इन बातों का अर्थ यही है कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र है और बाकी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं लेकिन जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’ (वही, पृ. 201-202)। यह संयोग नहीं है कि आरएसएस ने अपनी प्रेरणा फ़ासीवाद और नाज़ीवाद से ग्रहण की है। इस पुस्तक में गोलवलकर ने, अल्पसंख्यकों के प्रति जर्मनी और इटली ने जो रवैया अपनाया, उसकी न केवल प्रशंसा की बल्कि उसे अनुकरणीय भी माना। 

आरएसएस से संबद्ध राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में, उसने उस दिशा में लगातार क़दम उठाये जो आरएसएस की सांप्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे प्रभावी माध्यम सिनेमा है जिसका 2014 से हिंदुत्व की विचारधारा के प्रचार के लिए लुका-छिपा और कई बार बिल्कुल नग्न रूप में इस्तेमाल होता रहा है। इस आलेख में हम आगे ऐसी कई फ़िल्मों पर विचार करेंगे।

दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति पर बनी मौजूदा फ़िल्मों पर विचार करने से पहले उन प्रवृत्तियों पर भी विचार करना होगा जिन्होंने हिंदी सिनेमा के दर्शकों को इस तरह की फ़िल्में देखने और स्वीकार करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। हिंदी सिनेमा की आठवें-नवें दशक की उन फ़िल्मों पर भी गौर करना ज़रूरी है जिन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों के कमज़ोर होते जाने के विकल्प के रूप में उन गैरलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को बल दिया जो अंतत: देश को फ़ासीवाद की ओर धकेलने में सहायक बनीं। लोकतंत्र के कमज़ोर होने की आलोचना यदि इस तरह की फ़िल्मों का सकारात्मक पक्ष था, तो इसका नकारात्मक पक्ष यह था कि सिनेमा जन आंदोलनों के बजाय निजी स्तर पर प्रतिशोध को हल के रूप में पेश करने लगा। प्रतिशोध की जो परंपरा ज़ंजीर (1973) और शोले (1975) से शुरू हुई, वह लगभग तीन दशकों तक हिंदी सिनेमा की मुख्य प्रवृत्ति के रूप में लगातार मज़बूत होती गयी। अब तक छप्पन (2004) ऐसी फ़िल्मों की पराकाष्ठा थी जिसमें पुलिस द्वारा फ़र्जी एनकाउंटर के नाम पर की जाने वाली हत्याओं को जायज़ ठहराया गया, बल्कि उन्हें ‘ग्लेमराइज़’ भी किया गया।

धीरे-धीरे यह प्रतिशोध, जो पहले अपराधियों के विरुद्ध था, 1990 के दशक से आतंकवाद के विरुद्ध केंद्रित होने लगा और इसका वैचारिक आधार बना अंधराष्ट्रवाद। इसकी पराकाष्ठा 2008 में प्रदर्शित हिंदी फ़िल्म ए वेडनेस्डे में दिखायी देती है जो आतंकवाद के विरुद्ध ‘प्रतिशोधी आतंकवाद’ को जायज़ ठहराती है और आतंकवाद के विभिन्न रूपों के बजाय केवल इस्लामी आतंकवाद को ही अपने निशाने पर लेती है। इस फ़िल्म को काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त हुई और इस तरह की फ़िल्में दर्शकों के बीच इस विचार को लोकप्रिय बनाने में सहायक बनीं कि इस्लामी आतंकवाद ही आतंकवाद है और उसके विरुद्ध उठाया जाने वाला हर क़दम, वह कितना ही गैरक़ानूनी क्यों न हो, जायज़ है। इस तरह पिछले तीन-चार दशकों से हिंदी सिनेमा अपने दर्शकों को फ़ासीवादी सोच की ओर धकेलती जा रहा है और आज हम एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंच गये हैं जहां कुछ आतंकवादियों को नहीं, पूरे के पूरे मुस्लिम समुदाय को देश का दुश्मन और आतंकवाद का समर्थक बताया जा रहा है। उनका होना ही देश की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है। द कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी के माध्यम से भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को ऐसे स्याह रंग में पेश किया गया है जो देश के शत्रुओं के साथ मिलकर बहुसंख्यक हिंदुओं को अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनने के लिए मजबूर कर दे और देश का एक बार फिर से विभाजन हो जाये।

 

इन दोनों फ़िल्मों पर विचार करने से पहले पिछले दो दशकों में बनी उन फ़िल्मों पर भी विचार करने की ज़रूरत हैं जो भारत के इतिहास और वर्तमान को तथ्यात्मक रूप में नहीं, बल्कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के साथ तोड़-मरोड़कर पेश करती हैं। मणिरत्नम की फ़िल्म बॉम्बे (1995) और रोज़ा (1992) में मुसलमान समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। बॉम्बे में सांप्रदायिक दंगों के लिए जहां एक ओर मुसलमानों को गुनहगार बताया गया है, वहीं रोज़ा में मुसलमानों को आतंकवादी और स्त्री-विरोधी दिखाया गया है। इन फ़िल्मों के ही हिंदू पात्रों से तुलना करने पर दो समुदायों के पक्षपातपूर्ण चित्रण को आसानी से पहचाना जा सकता है।

  पिछले दो दशकों में इतिहास में से ऐसे नायकों को चुना जाता रहा है जिन्हें मुस्लिम शासकों के विरुद्ध देशभक्त नायक के रूप में पेश किया जा सके। चाहे वह तान्हा जी हो, या पृथ्वीराज चौहान या चित्तौड़गढ़ की पद्मावती जिसे दिल्ली का मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी हासिल करना चाहता था। यहां संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावत का उदाहरण लिया जा सकता है जिन्होंने इस फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को एक क्रूर और बर्बर मुस्लिम शासक के रूप में ही पेश नहीं किया, बल्कि फ़िल्म में सती-प्रथा का महिमा-मंडन भी किया। फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को जिस ढंग से पेश किया गया है, वह ऐतिहासिक अलाउद्दीन से तो मेल नहीं ही खाता है,  पद्मावत महाकाव्य के अलाउद्दीन से भी मेल नहीं खाता। अलाउद्दीन खिलजी की जो छवि फ़िल्म पद्मावत में गढ़ी गयी है, वह पूरी तरह से अनैतिहासिक और काल्पनिक है। 

फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को बर्बर, हिंसक और व्यभिचारी बताया गया है। जिस तरह उसे अपने नजदीकी लोगों की निर्मम हत्या करते हुए, औरतों को अपनी हवस का शिकार बनाते हुए दिखाया गया है, वह उसके वास्तविक चरित्र से मेल नहीं खाता। लंबे और खुले बाल रखना, क्रूर हंसी हंसना, मांस को जानवरों की तरह खाना, यहां तक कि नाचते और गाते हुए भी शरीर और चेहरे पर क्रूर भाव प्रकट करना उसके चरित्र को एक ख़ास सांचे में ढालता है। इसके विपरीत रतनसेन को सुसंस्कृत, सभ्य और शिष्ट आचरण करता हुआ दिखाया गया है। एक ओर खिलजी अपनी पत्नी मेहरुन्निसा के साथ क्रूर ढंग से पेश आता है, उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करता है, दूसरी ओर रतनसेन पद्मिनी के सम्मान का सदैव ध्यान रखता है। खिलजी से मेहरुन्निसा भय खाती है, जबकि पद्मिनी रतनसेन से प्रेम करती है और पति की सेवा करना ही अपना धर्म समझती है। उसके लिए अपने प्राणों तक की आहूति देने को तैयार हो जाती है। खिलजी के खाने के असभ्य तरीक़े के विपरीत रतनसेन के यहां जब अलाउद्दीन के सामने चांदी की थाली में भोजन पेश किया जाता है तो ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया है कि वह शाकाहारी भोजन है और जिसे बहुत ही शिष्टाचार के साथ पेश किया गया है। खिलजी और रतनसेन की यह जो भिन्न और विपरीत छवियां पेश की गयी है, उसके पीछे की प्रेरणा विद्वेषपूर्ण और सांप्रदायिक है। यह उस सांप्रदायिक और सवर्ण हिंदू मानसिकता को पुष्ट करती है जिसके अनुसार हिंदू शाकाहारी होता है, अहिंसक होता है और स्त्री को देवी समझ कर पूजा करता है, जबकि मुसलमान मांसाहारी होता है, हिंसक और बर्बर होता है और स्त्री पर अत्याचार करने वाला व्यभिचारी होता है। फ़िल्म के अनुसार खिलजी इसी बर्बर मुस्लिम मानसिकता का प्रतिनिधि है और रतनसेन और पद्मिनी सुसंस्कृत हिंदू मानसिकता के। 

फ़िल्म आरंभ से अंत तक राजपूती गौरव का महिमामंडन करती है। उन्हें ऐसी वीर जाति के रूप में पेश किया गया है जो अपने आत्मसम्मान के लिए अपनी जान दे भी सकती है और जान ले भी सकती है। इसी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए राजपूती स्त्रियां सामूहिक आत्मदाह करने से भी नहीं डरतीं। फ़िल्म के आरंभ में यद्यपि कहा गया है कि फ़िल्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करती लेकिन फ़िल्म में जौहर के पूरे कृत्य को जिस विस्तार से धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए भव्यता के साथ दिखाया गया है, वह शर्मनाक भी है और ख़तरनाक भी। संजय लीला भंसाली ने जौहर को युद्ध का ही एक रूप बताकर उसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की है। जबकि यह पितृसत्तात्मक सोच का सर्वाधिक घृणित रूप है जो सतीत्व की रक्षा के नाम पर स्त्री को जबरन हत्या और आत्महत्या की ओर धकेलता है।

 

इन फ़िल्मों का एक पहलू राष्ट्र्वाद भी है। पृथ्वीराज चौहान हो या तान्हा जी, राजा रत्नसेन हो या कोई अन्य राजपूत और मराठा शासक, इन सबको जिन मुस्लिम शासकों से संघर्ष करते हुए दिखाया जाता है, उन्हें फ़िल्मों में विदेशी आक्रांता रूप में पेश किया जाता है, भले ही उनकी कई पीढ़ियां हिंदुस्तान में रहती आयी हों। विडंबना तो यह है कि फ़िल्मों में जिस राष्ट्रवाद की जय-जयकार की जाती है, वह केवल मुस्लिम शासकों के विरुद्ध ही सक्रिय नज़र आता है, यहां तक कि मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अंग्रेज शासकों की गुलामी को भी जायज़ ठहराया जाता है। अक्षय कुमार के नायकत्व वाली फ़िल्म केसरी का उदाहरण लिया जा सकता है जहां उन सिख सैनिकों को अफ़गान के मुसलमानों से लड़ते हुए दिखाया गया है जो अपने देश पर हुए अंग्रेज हमलावरों का साहसपूर्ण मुक़ाबला कर रहे होते हैं। भारतीय सैनिक अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले अफ़गान कबीलों का अंग्रेजों की तरफ़ से मुक़ाबला करते हैं और फ़िल्म में इन्हें वीर देशभक्त कहा गया है, जबकि उनकी हैसियत अंग्रेजी उपनिवेशवाद के गुलामों से ज्यादा नहीं थी। भारत की आज़ादी की लंबी लड़ाई का इससे ज़्यादा अपमान क्या हो सकता है!

 

इस दौरान सिनेमा के माध्यम से आधुनिक इतिहास के विकृतिकरण की कई कोशिशें भी सामने आयी हैं। ऐसी ही एक कोशिश राजकुमार संतोषी की फ़िल्म गांधी-गोडसे : एक युद्ध के माध्यम से सामने आयी है। यह हिंदी के प्रख्यात कथाकार असग़र वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.कॉम पर आधारित है जिसमें यह कल्पना की गयी है कि यदि गांधीजी गोडसे की गोलियों से न मरे होते तो उनके साथ क्या होता। फ़िल्म जिस तरह प्रस्तुत की गयी है, उससे स्पष्ट है कि पूरी फ़िल्म संघ परिवार के राजनीतिक एजेंडे का जाने-अनजाने अनुसरण करती है। कांग्रेस और नेहरू के प्रति जो नफ़रत संघ परिवार व्यक्त करता रहा है, फ़िल्म उस नफ़रत को बढ़ाने में ही योग देती है। फ़िल्म पूरी दृढ़ता से यह स्थापित करती है कि नाथुराम गोडसे एक साहसी और सच्चा देशभक्त था। गांधी की हत्या उसने ज़रूर की, पर उसे माफ़ कर दिया जाना चाहिए क्योंकि गांधी जी ने तो उसे माफ़ कर दिया था। लेकिन अगर गांधी ज़िंदा रहते तो नाथुराम गोडसे नेहरू और कांग्रेस से कहीं ज़्यादा गांधी के नज़दीक होता और शायद उनका प्रिय भी। दरअसल, यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने, राष्ट्रीय आंदोलन की गौरवशाली परंपरा को बदनाम करने और हिंदुत्ववादी नाथुराम गोडसे को महान देशभक्त और जननायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान की कोशिश ओर सांप्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा के प्रसार का हथियार बन गयी है।

1965 में हुए हिंदुस्तान और पाकिस्तान युद्ध के बाद सोवियत संघ के शहर ताशकंद में भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता हुआ था और उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में ही हृदयाघात से मौत हो गई थी। उस समय संघ और उनके संगठनों ने इस झूठ को पूरे देश में फैलाया था कि ताशकंद में शास्त्री की मृत्यु दरअसल साज़िश के तहत हत्या थी। बिना किसी प्रमाण के यह अफवाह फैलायी गयी और इसी अफवाह को दि ताशकंद फाइल्स नाम से विवेकरंजन अग्निहोत्री ने फ़िल्म का रूप दे दिया। ये फ़िल्में इस बात का प्रमाण हैं कि मौजूदा सांप्रदायिक राजसत्ता की विचारधारा से प्रेरित होकर कई फ़िल्मकार ऐसी फ़िल्में बना रहे हैं जिनमें भारत के इतिहास को विकृत रूप में पेश किया गया है और इस तरह जनता को गुमराह किया जा रहा है। लेकिन इनसे भी ज़्यादा खतरनाक वे फ़िल्में हैं जो ऐसी संवेदनशील घटनाओं के माध्यम से सामने आयी हैं जो बहुत ही क्रूर और हिंसक रूप में मुस्लिम समुदाय को पेश करती हैं और इस तरह हिंदू जनता के मन में अपने ही पड़ोसी भाइयों के प्रति नफ़रत और घृणा का प्रचार करती हैं। उनके मन में मिथ्या भय भरा जा रहा है कि उसका पड़ोसी मुसलमान ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है जो मुस्लिम देशों और इस्लामी आतंकवादियों के साथ साज़िश करके इस देश को मुस्लिम राष्ट्र् बनाने के अभियान में जुटा है। ये फ़िल्में हैं : दि कश्मीर फाइल्स और दि केरला स्टोरी। 

दि कश्मीर फाइल्स (2022) कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के जबरन पलायन पर बनायी गयी फ़िल्म है। फ़िल्मकार का दावा है कि यह कश्मीरी पंडितों से लिये गये साक्षात्कारों पर आधारित है कि किस तरह कश्मीरी पंडितों की हत्याएं की गयीं और उनको कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र कृष्ण पंडित, जिसके माता-पिता इस्लामी आतंकवादियों के द्वारा मारे गये थे, उनकी हत्या के वास्तविक कारणों की खोज करता है और उसे मालूम पड़ता है कि किस तरह घाटी के मुसलमानों के सहयोग और समर्थन से कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाया गया था। फ़िल्म 1990 के हालात के इर्द-गिर्द बुनी गयी है और कश्मीर के हालात के लिए कश्मीरी मुसलमानों को, कांग्रेस सरकार को ज़िम्मेदार ठहराती है। फ़िल्म आतंकवादियों के हाथों मारे गये कश्मीरी मुसलमानों का बिल्कुल उल्लेख नहीं करती और वहां तैनात भारतीय सेना के हाथों मारे गये निर्दोष कश्मीरी मुसलमानों की हत्या के बारे में भी चुप रहती है जो कश्मीरी पंडितों की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़ी संख्या में मारे गये हैं। इस तरह यह फ़िल्म कश्मीरी पंडितों के पलायन की एकतरफ़ा कहानी कहती है, न कि कश्मीर के यथार्थ को समग्रता में और निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत करती है। इस फ़िल्म को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कश्मीरी मुसलमानों को सांप्रदायिक और राष्ट्रद्रोही के रूप में तथा पाकिस्तान के समर्थक के रूप में रखती है, जबकि सच्चाई यह है कि कश्मीरी पंडितों को बचाने के लिए बहुत से मुसलमान न केवल आगे आये बल्कि इस कारण उनको अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस, नेशनल कान्फ्रेंस के बहुत से कार्यकर्ता और नेता दहशतगर्दों के हाथों मारे गये थे। कश्मीर के मौजूदा यथार्थ पर और भी कई फ़िल्में बनी हैं, मसलन, विनोद भारद्वाज की हैदर और एजाज़ खान की फ़िल्म हामिद का उल्लेख किया जा सकता है जो कश्मीर के अंदरूनी हालात को ज़्यादा ईमानदारी  के साथ और वस्तुपरक ढंग से पेश करती हैं। दरअसल, दि कश्मीर फाइल्स झूठे प्रचार पर आधारित एक सांप्रदायिक दृष्टिकोण की अत्यंत साधारण प्रोपेगेंडा फ़िल्म है जो हिंदुओं को भड़काने का काम करती है। इस फ़िल्म को इतना अधिक महत्व इसलिए मिला कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस फ़िल्म को देखने का आह्वान किया और यह दावा किया कि इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों के बारे में उस सच्चाई को सामने रखा गया है जिसे आज तक देश से छुपाया गया है, जबकि इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिससे देश की जनता पहले से परिचित नहीं रही हो। इस फ़िल्म को लोकप्रिय बनाने के लिए भाजपा की राज्य सरकारों ने टैक्स माफ़ी से लेकर अपने कर्मचारियों को फिल्म देखने के लिए छुट्टी देने तक का काम किया। यह फ़िल्म इस हद तक नफ़रत और घृणा फैलाने वाली थी कि भारत में होने वाले फ़िल्म फेस्टिवल में इज़राइल के फ़िल्मकार और जूरी अध्यक्ष नादव लेपिड ने इसे एक वल्गर प्रोपेगेंडा फ़िल्म कहकर इसकी भर्त्सना की थी।

अभी हाल ही में प्रदर्शित फ़िल्म दि केरला स्टोरी (2023) दि कश्मीर फाइल्स से एक क़दम आगे कही जा सकती है, जो पूरी तरह से एक ऐसे मुद्दे पर बनायी गयी है जो आरएसएस और उससे संबद्ध संगठनों द्वारा फ़र्जी रूप से प्रचारित किया गया है। वह मुद्दा है, लव जिहाद का। फ़िल्म का दावा है कि केरल राज्य से 32000 हिंदू लड़कियों की ब्रेन वाशिंग करके और मुस्लिम लड़कों के जाल में फंसाकर उन्हें शादी करने के लिए मजबूर किया गया, उनका धर्म परिवर्तन किया गया और बाद में उनके कथित पतियों के साथ सीरिया, यमन आदि इस्लामी देशों में आइएसआइएस जैसे आतंकवादी संगठनों में सेक्स स्लेव के रूप में भेज दिया गया। इन बत्तीस हज़ार औरतों का आज कुछ भी पता नहीं है। उनके साथ क्या हुआ कोई नहीं जानता। जब बत्तीस हज़ार की संख्या को कोर्ट में चुनौती दी गयी तो फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक ने बताया कि यह सरकारी आंकड़ा है, लेकिन उन्हें मुँह की खानी ही थी क्योंकि केरल सरकार ने कभी भी यह आंकड़ा नहीं पेश किया। पूर्व मुख्यमंत्री ऑमन चांडी ने वे आंकड़े ज़रूर पेश किये थे जिसमें हिंदू, मुसलमान और ईसाई धर्मावलंबियों ने अपने धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अंगीकार कर लिया था, पर वह संख्या भी दो-ढाई हज़ार से ज़्यादा नहीं थी। उस समय मुख्यमंत्री ने यह भी बताया कि इनमें से कोई भी जबरन धर्मपरिवर्तन का मामला नहीं था। फ़िल्मकार ने जब कोई प्रमाण पेश नहीं किया तो कोर्ट के आदेश पर 32000 के इस आंकड़े को हटा दिया गया और इस संख्या को घटाकर केवल तीन कर दिया गया। कथित रूप से जिन तीन लड़कियों की कहानी फ़िल्म में कही गयी है और जिसके बारे में फ़िल्मकार का दावा है कि यह सत्य घटनाओं पर आधारित है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भी दि केरला स्टोरी पर आदेश पारित करते हुए निर्माताओं से एक डिस्क्लेमर जोड़ने को कहा कि ये घटनाओं का काल्पनिक लेखा-जोखा है और इसका कोई डेटा नहीं है जो इस दावे का समर्थन करते हो कि केरल में 32000 महिलाओं को इस्लाम में परिवर्तित होने और आतंकवादी समूह आईएसआईएस में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था। लेकिन कोर्ट ने फ़िल्म को न केवल प्रतिबंधित करने से इन्कार कर दिया बल्कि पश्चिम बंगाल की सरकार के प्रतिबंध लगाने के आदेश को निरस्त कर दिया। फ़िल्म देखकर लौटने वालों की प्रतिक्रिया बताती है कि यह फ़िल्म दि कश्मीर फाइल्स से कहीं ज्यादा मुस्लिम विरोधी प्रचार करने और लोगो के दिमागों में ज़हर भरने में कामयाब हो रही है। यह फ़िल्म न केवल हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा कर रही हैं बल्कि अपने घर-परिवार की बहू-बेटियों पर अंकुश लगाकर उनकी आज़ादी छीनने को भी प्रेरित कर रही है।

 

भारत का संविधान प्रत्येक बालिग नागरिक को यह आज़ादी देता है कि वह किसी भी धर्म, जाति और नस्ल के व्यक्ति से विवाह कर सकती/ता है। लेकिन फ़िल्म ‘लव जिहाद’ के झूठ के बहाने हिंदू परिवारों में मुस्लिम समुदाय के प्रति नफ़रत और घृणा ही नहीं फैलाती, उन्हें उनसे दूर रहने का भी आह्वान करती है। इसका अर्थ यह भी है कि मुसलमानों से किसी भी तरह के सामाजिक और वैयक्तिक संपर्क रखने से बचा जाये। मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध भड़काने की इन कार्रवाइयों के बावजूद भारत के मुसलमान, जिनकी आबादी बीस करोड़ से ज़्यादा है, काफ़ी संयम से काम ले रहे हैं। आइएसआइएस जैसे संगठनों में, जिनमें सौ से अधिक देशों के लोग शामिल है, भारत के सौ नागरिक भी मुश्किल से है। इस्लामी आतंकवाद के सबसे बड़े संगठन जिसकी सदस्य संख्या लगभग चालीस हज़ार बतायी जाती है, उसमें मुस्लिम आबादी के तीसरे सबसे बड़े देश भारत के महज सौ लोगों का शामिल होना इस देश की धर्मनिरपेक्षता की मज़बूत बुनियाद को दर्शाता है और जिसे मौजूदा सरकार खोखला करने में लगी है। ऐसी फ़िल्में इस काम को और आसान कर देती है।

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1 thought on “सांप्रदायिक राजनीति के कुचक्र में हिंदी सिनेमा / जवरीमल्ल पारख”

  1. बहुत महत्त्वपूर्ण लेख है। ठीक उसी तर्ज पर आम नागरिकों की मानसिक कन्डीशनिंग की जा रही है।
    पिछले साल ‘हंस’ में ‘कश्मीर फाइल्स’ पर अपने एक लेख के कुछ हिस्से दे रहा हू। –
    ”क्या कारण है कि तहजीब के लिए मशहूर शहर या पूर्व के ऑक्सफ़ोर्ड कहे जाने वाली किसी वक़्त की साहित्यिक नगरी में ‘कश्मीर फाइल्स’ के प्रदर्शन के दौरान हॉल में एक वर्ग के प्रति – कटुए मादर …’, एक राजनीतिक दल व इसके नेताओं के नाम पर ’माँ-बहन-बेटियों’ की गालियों के साथ ‘एक नेता’ और उसकी पार्टी के जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे. हाल में अनेक लोग परिवारों-स्त्रियों के साथ मौजूद थे. लेकिन शायद ‘देशभक्ति’ के प्रदर्शन के नाम पर सबकुछ जायज था. जो सेंसर बोर्ड सामान्य से प्रेम-दृश्यों, किसी नेता के प्रतीकात्मक संयोग पर दृश्यों को काट देता है, वह फ़िल्म को यूंही पास कर देता है, किसके दबाव में? पिछले दिनों से एक वर्ग के प्रति जिस तरह दुष्प्रचार लिया गया है, फिल्म उस ‘यज्ञ-हवनकुंड’ में भावनाओं की आहुति डालती है कि इसके देखने के बाद ‘एक वर्ग’ का हर व्यक्ति बर्बर और आतंकी नज़र आने लगता है”.

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