आज़ादी के 75 साल – दीर्घक्रांति से प्रतिक्रांति तक


आज़ाद भारत के साढ़े सात दशक के सफ़र की दिशा-दशा को समझने के प्रयास में, देश के जाने-माने अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विद्वान व जन-बुद्घिजीवी, प्रोफेसर प्रभात पटनायक से राजेंद्र शर्मा ने विशेष बातचीत की। प्रोफेसर पटनायक न सिर्फ़ आज़ादी के बाद देश में अपनाए गए विकास के रास्ते व रणनीतियों की दिशा-दशा का गहराई से अध्ययन करते रहे हैं बल्कि मेहनतकश जनता तथा वंचितों के हितों के लिए आवाज उठाने में कक्षाओं व सभागारों से लेकर सड़कों तक निरंतर सक्रिय भी रहे हैं।  प्रस्तुत हैं इस बातचीत के मुख्य अंश:

रा0 श0 आपके लेखन में, व्याख्यानों में अक्सर ही भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के संदर्भ में, इस संघर्ष से भारतीय समाज में आए क्रांतिकारी रूपांतरण की बात आती है। इस क्रांतिकारी रूपांतरण से आपका आशय ठीक-ठीक क्या है?

प्र0 प0 एक सहस्त्राब्दी से जातिव्यवस्था और अस्पृश्यता जैसे आचारों के रूप में, चरम व अमानवीय किस्म की संस्थागत असमानता, भारतीय समाज की बुनियादी पहचान बनी हुई थी। यह असमानता अस्पृश्यता ही नहीं, अदर्शनीयता तक भी जाती थी। मिसाल के तौर पर, केरल में ऊंची जाति के लोगों को दलित पर नजर पड़ने भर से छूत लग जाती थी। ऐसे समाज से, एक ऐसे समाज के रूप में रूपांतरण, जो सार्वभौम वयस्क मताधिकार पर आधारित है तथा जहां हरेक नागरिक के बराबर के अधिकार हैं, सचमुच एक क्रांति है, जिसके महत्व को कम कर के नहीं आंकना चाहिए। यह रूपांतरण जाति, वर्ग तथा लिंग पर आधारित उत्पीड़न पर टिके पुराने समाज से, समान नागरिकों के एक भाईचारे में तब्दील होने की संकल्पना लाता है। अब ऐसे बहुत से लोग हो गए हैं बल्कि अब तो इस तरह का चलन बढ़ता ही जा रहा है कि भारत के अतीत का गौरवगान किया जाए, उसकी ‘गौरवमय संस्कृति’ का बढ़-चढ़कर बखान किया जाए। लेकिन, ऐसा करने वालों को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि इस सभ्यता में, नागरिकों के बीच बराबरी कभी थी ही नहीं। उनके दर्जे कभी भी बराबर के नहीं थे। स्वतंत्र भारत के संविधान में जिस भारत की संकल्पना है, वह इस अतीत से पीछा छुड़ाकर, नये रास्ते पर चले जाने का सूचक है।

बहरहाल, यह ‘दीर्घ क्रांति’ कोई उपनिवेशवाद के कारण शुरू नहीं हुई है। कुछ दलित बुद्घिजीवी जो ऐसा सोचते हैं, गलती करते हैं। यह क्रांति उन्मुक्त हुई है, उपनिवेशवाद के प्रतिरोध से, उसके खिलाफ संघर्ष से। बेशक, औपनिवेशिक हुकूमत ने क़ानून की नज़रों में सबके लिए बराबरी क़ायम की थी और इससे औपचारिक रूप से जाति व्यवस्था पर चोट भी पड़ती थी। लेकिन दूसरी ओर, औपनिवेशिक व्यवस्था का आर्थिक प्रभाव जन-बेरोज़गारी, जन-भुखमरी तथा जन-ग़रीबी पैदा करने के ज़रिए, दलितों पर ही सबसे ज़्यादा मार करता था। इसलिए, इन दलितों के लिए, जिन्हें ‘सामान्य’ वर्षों में भी अकाल तथा अधपेट भोजन ही मिल पाने की मार झेलनी पड़ती थी, क़ानून की नज़रों में इस औपचारिक बराबरी का कोई ख़ास मतलब नहीं था। लेकिन, उपनिवेशविरोधी संघर्ष तो एक बहुवर्गीय संघर्ष ही हो सकता था और यह अपरिहार्य रूप से दलितों के समर्थन का तकाज़ा करता था। इस संघर्ष की तो वहनीयता की ही मांग थी कि यह स्वतंत्र भारत की एक समावेशी संकल्पना को लेकर चले। ऐसी संकल्पना को साफ़-साफ़ शब्दों में पहली बार, 1931 की कराची कांग्रेस में सूत्रबद्घ किया गया था। वामपंथ ने, जिसमें कांग्रेसी वामपंथ भी शामिल था, जिसके अगुआ जवाहरलाल नेहरू थे, इस संकल्पना के अंगीकार किए जाने में एक प्रमुख भूमिका अदा की थी और गांधी भी इसके पक्ष में हो गए थे। ऐसी ही भूमिका भगतसिंह की शहादत ने अदा की थी। उनकी शहादत, कराची कांग्रेस से चंद दिन पहले ही हुई थी।

बहरहाल, यह क्रांति निरंतर आगे ले जाए जाने की, और विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में आगे ले जाए जाने की मांग करती है। हमारे देश के मामले में राजनीतिक क्षेत्र में बराबरी के तो प्रावधान किए गए, लेकिन आर्थिक क्षेत्र में तदानुसार कोई व्यवस्थाएं नहीं रखी गयीं। स्वतंत्रता मिलने के बाद, एक मुकम्मल भूमि सुधार के ज़रिए, पुराने समाज के आर्थिक ढांचों को ध्वस्त किए जाने की ज़रूरत थी, लेकिन वह नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि आर्थिक असमानताएं बढ़ने लगीं और नब्बे के दशक में नवउदारवादी आर्थिक नीतियां शुरू किए जाने के बाद से तो असमानताएं ख़ासतौर पर तेज़ी से बढ़ती गयी हैं। और इस नवउदारवाद ने सिर्फ़ असमानताएं ही नहीं बढ़ायी हैं, इसने ट्रेड यूनियनों तथा खेत मज़दूर संगठनों जैसी सामूहिक संस्थाओं को कमज़ोर भी किया है और व्यक्तियों को अणुओं की तरह अकेला करने का और इस तरह उनका ‘कर्त्तापन’ छीनने का काम किया है। इसी ने उस ‘दीर्घ क्रांति’ के ख़िलाफ़ उस प्रतिक्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की है जो आज हमारे सामने है। हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताक़तें इस प्रतिक्रांति का नेतृत्व कर रही हैं।

0 भारत पर औपनिवेशिक हुकूमत का जो प्रभाव पड़ा उसे आप किस तरह देखते हैं? इस विषय पर मार्क्स ने भी काफ़ी कुछ लिखा था। मार्क्स के इस लेखन के संबंध में आप की क्या समझ है?

00 भारतीय अर्थव्यवस्था पर उपनिवेशवाद का प्रभाव पूरी तरह से अभूतपूर्व था और वह अपनी मिसाल आप ही था। उसकी तुलना किसी दूसरे से नहीं की जा सकती है। इन दिनों ‘विदेशी शासन’ की बहुत फैलाकर बात किए जाने का चलन चल पड़ा है। इसमें विदेशी शासन के नाम पर ब्रिटिश शासन और उससे पहले रहे सल्तनत काल तथा मुग़ल काल, सबको एक ही डंडे से हांकने की कोशिश की जाती है। इस प्रवृत्ति को देखते हुए, मैं इस नुक्ते पर ज़रा ठहर कर बात करना चाहूंगा। ब्रिटिश राज की दो मुख्य आर्थिक विशेषताएं थीं। पहली, ‘निरुद्योगीकरण’ जिसका अर्थ था, स्थानीय पूर्व-पूंजीवादी उत्पादकों को उजाड़कर उनकी जगह पर इंग्लैंड से पूंजीवादी उत्पादों के आयातों को बैठाया जाना। और दूसरी विशेषता थी, संपदा की लूट या ‘ड्रेन आफ वैल्थ’, जिसका अर्थ है साल-दर-साल भारत से आर्थिक अधिशेष या सरप्लस के एक हिस्से का ब्रिटेन के लिए हस्तांतरण कर दिया जाना, जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं मिलता था। और आर्थिक अधिशेष का यह हिस्सा जनता से मुख्यत: कर-राजस्व के रूप में निचोड़ा जाता था। इन दोनों का ही प्रभाव यह पड़ा कि स्थानीय दस्तकार बर्बाद हो गए। उपनिवेशवाद की पहली आर्थिक विशेषता ने तो विदेशी मशीन उत्पादों के साथ होड़ के लिए मजबूर करने के ज़रिए, दस्तकारी पर आधारित उत्पादन को तबाह कर दिया और बाद वाली विशेषता ने उन्हें इसलिए तबाह कर दिया कि अगर संपदा को लूट कर विदेश नहीं ले जाया जा रहा होता, तो शासन द्वारा इकट्ठा किया जा रहा राजस्व स्थानीय स्तर पर ही ख़र्च किया जा रहा होता और इसलिए उससे स्थानीय दस्तकारी उत्पादन को सहारा मिल रहा होता। लेकिन, अब तो राजस्व का यह हिस्सा, खाद्यान्नों तथा कच्चे माल के रूप में, पानी के जहाजों से ढोकर सीधे-सीधे इंग्लैंड पहुंचाया जा रहा था। औपनिवेशिक राज की ये दोनों आर्थिक विशेषताएं, घरेलू उत्पाद को घटाने का और इस तरह बेरोज़गारी बढ़ाने का काम कर रही थीं। और बेरोज़गारी जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे-वैसे सीधे-सीधे तो ग़रीबी बढ़ाती ही है, इसके अलावा परोक्ष रूप से भी ग़रीबी बढ़ाती है। इसकी वजह यह है कि बेरोज़गारी बढ़ने से एक ओर तो मज़दूरियां घटती हैं और दूसरी ओर, इसके चलते भूमि का किराया या लगान बढ़ता है। इसकी वजह यह है कि खेती की भूमि की जो सीमित मात्रा उपलब्ध होती है, बेरोज़गार बनाकर कंगाल कर दिए लोगों की विशाल संख्या को भी, उस ज़मीन का ही आसरा लेने की ओर धकेला जा रहा होता है।

भारत पर हुई इससे पहले की किसी भी विजय का ऐसा प्रभाव नहीं पड़ा था। इससे पहले बाहर से जो भी विजेता आए थे, यहीं बस गए थे। वे न तो साल दर साल अपने साथ देश में निरुद्योगीकरण करने वाले आयात लाए थे और न साल-दर-साल मुफ़्त में पानी के जहाजों में लादकर कच्चे माल तथा प्रसंस्कृत उत्पाद देश से बाहर लेकर जाते थे। इस तरह, उनके इस देश में उत्पाद की मात्रा को घटा देने का या बेरोज़गारी पैदा करने या ग़रीबी बढ़ाने का कोई सवाल ही नहीं था। इस लिहाज से उनमें और देश में उनसे पहले तथा उनके बाद में भी रहे शासकों में कोई अंतर ही नहीं था। ये शासक हिंदू थे या मुसलमान, वे कहीं बाहर से आए थे या यहीं पैदा हुए थे, इसका अर्थव्यवस्था पर रत्तीभर असर नहीं पड़ता था और इसलिए जनता की भौतिक ज़िंदगी के हालात पर कोई असर नहीं पड़ता था। लेकिन, उपनिवेशवाद का मामला पूरी तरह से अलग था। इसलिए, ‘विदेशी शासन’ की संज्ञा का प्रयोग उपनिवेशवाद के संदर्भ में किया जाए तभी उसका अर्थ है, अन्यथा उसके प्रयोग का कोई अर्थ ही नहीं बनता है।

प्रोफेसर शीरीं मूसवी ने एक दिलचस्प गणना की है। यह गणना दिखाती है कि 1910 में भारत में प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय, 1575 की प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय से कम रह गयी थी। 1575 की आय की गणना उन्होंने अबुल फ़ज़ल के आंकड़ों से की है। इसका अर्थ यह है कि औपनिवेशिक शासन के दौर में, आम मेहनतकशों की माली हालत, पहले के मुक़ाबले बदतर हो गयी थी। हमारे पास इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य भी मौजूद हैं। ये साक्ष्य, ब्रिटिश भारत में खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता के आंकड़ों के रूप में हैं और 1897 से लगाकर इसके आंकड़े हमारे पास हैं। प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता, जो बीसवीं सदी के आरंभ में 200 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष थी, भारत के स्वतंत्र होने तक गिरकर, 150 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष ही रह गयी थी। वास्तव में, 1946-47 के लिए यह आंकड़ा सिर्फ 137 किलोग्राम ही था।

0 भारत में ब्रिटिश राज के प्रभाव के इस पक्ष की ओर क्या मार्क्स का ध्यान नहीं गया था?

00 इस तथ्य को जानकर तो मार्क्स को भी हैरानी हुई होती। बेशक, न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून  के अपने लेखों में मार्क्स ने भारत पर औपनिवेशिक राज के विनाशकारी प्रभावों को दर्ज किया था। हां! उनके विचार में ब्रिटिश-पूर्व भारतीय समाज ‘परिवर्तनहीन ग्रामीण समुदायों’ से ही गठित था और उनकी यह धारणा औपनिवेशिक प्रशासकों की जानकारियों पर आधारित थी और तथ्यात्मक रूप से सही नहीं थी। खैर! मार्क्स को लगता था कि भारत पर ब्रिटिश राज का एक ‘नवजीवनकारी’ प्रभाव भी होगा। मिसाल के तौर पर यही कि रेलवे के आने से भारत में पूंजी माल उद्योग आएंगे। लेकिन, इस मामले में वह सही नहीं थे। वास्तव में, रूसी नरोद्निक अर्थशास्त्री, डेनिअल्सन को 1881 में लिखे अपने एक पत्र में मार्क्स ने भारत से बाहर संपदा की विशाल सालाना ‘निकासी’ या ड्रेन का उल्लेख किया था, जो छ: करोड़ कृषि मज़दूरों की आमदनियों के बराबर बैठता था। इस तरह, निहितार्थत: उन्होंने यह माना था कि औपनिवेशिक राज के अंतर्गत भारत की अर्थव्यवस्था का नवजीवन असंभव ही था। मार्क्स तो हमेशा ही, अपने संज्ञान में आए नये साक्ष्यों की रौशनी में, अपनी धारणाओं में बदलाव करने के लिए तैयार रहते थे। यही सही वैज्ञानिक रुख है। और इस मामले में बाद के दिनों में उनके विचार उतने भी आशावान नहीं रहे होंगे जितने 1850 के दशक में थे, जब उन्होंने ट्रिब्यून के उक्त लेख लिखे थे।

0 स्वतंत्रता के बाद भारत में आयीं सरकारें इस दयनीय विरासत से कैसे उबर सकीं? इस मामले में उनके प्रयासों की क्या सीमाएं रहीं?

00 ज़ाहिर है कि यह ज़रूरी है कि हम वर्तमान नवउदारवादी दौर और उससे पहले रहे नियंत्रणात्मक या डिरिजिस्टे नीतियों के दौर के अंतर को समझें। नियंत्रणात्मक दौर में देश में ऐसी अर्थव्यवस्था क़ायम की गयी थी जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र नेतृत्वकारी भूमिका संभाल रहा था, जबकि निजी पूंजीपतियों के निवेशों पर, लाइसेंसिंग की पाबंदियां लगी हुई थीं और व्यापार व पूंजी पर कड़े नियंत्रण लगे हुए थे। यह ऐसी व्यवस्था थी जिसमें राज्य या शासन, समाज से ऊपर स्थित एक आसन पर खड़ा नज़र आता था और विभिन्न वर्गों के बीच पंच की भूमिका अदा करता था। इस दौर में औपनिवेशिक दौर के बढ़ती भूख और बढ़ती गरीबी के रुझान को पलटने में बेशक कामयाबी मिली थी। मिसाल के तौर पर, खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता, जो देश को आजादी मिलने के समय 150 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष थी, 1980 के दशक के आख़िर तक आते-आते यानी उदारीकरण की पूर्व-संध्या में, क़रीब 180 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष पर पहुंच गयी थी। इसी प्रकार, नियंत्रणात्मक अर्थव्यवस्था के दौर में आयात-प्रतिस्थापनकारी उद्योगीकरण के ज़रिए साठ के दशक के मध्य तक 7-8 फ़ीसद के क़रीब तथा उसके बाद से इससे थोड़ी कम औद्योगिक वृद्घि दर हासिल की जा सकी थी। यह दर, ऐतिहासिक रूप से भारत के औद्योगीकरण का जो स्तर रहा था, उसको देखते हुए उल्लेखनीय रूप से ऊंची दर ही थी। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्घि दर भी 3.5 से 4 फ़ीसद सालाना के बीच बनी रही थी यानी आबादी की वृद्घि दर से ठीक-ठाक ज़्यादा। रोज़गार की वृद्घि दर क़रीब 2 फ़ीसद सालाना बनी रही थी, जो बेशक अपने आप में ठीक-ठाक दर थी, लेकिन बेरोज़गारी के बैकलॉग को ख़त्म करने के लिए काफ़ी नहीं थी।

इस रणनीति की सीमाएं मूलगामी भूमि पुनर्वितरण के अभाव से निकली थीं। मूलगामी भूमि पुनर्वितरण के अभाव ने कृषि उत्पादन की वृद्घि को और इसलिए, कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर को सीमित कर दिया था। इसकी वजह यह थी कि नियंत्रणात्मक  व्यवस्था तो मूलत: घरेलू बाज़ार के विकास पर ही निर्भर थी। इसका अर्थ यह था कि हालांकि अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर इससे पहले जितनी रही थी, उससे बेशक कहीं ज्यादा थी, फिर भी यह दर एक नव-स्वाधीन देश की जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इस सीमा को इस तथ्य ने और भी चुभने वाला बना दिया था कि स्वतंत्रता के बाद देश में शिक्षा तथा स्वास्थ्य की सुविधाओं को उस तरह सार्वजनीन नहीं बनाया गया था जैसे बनाए जाने की ज़रूरत थी।

मूलगामी भूमि पुनर्वितरण नहीं होने का गहरा सामाजिक प्रभाव पड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि ज़मींदारों के सामाजिक आधिपत्य को नहीं तोड़ा जा सका और इसलिए, दलितों का सशक्तीकरण वास्तविकता से दूर ही बना रहा। याद रहे, दलितों का कमतर सामाजिक दर्जा अब तक निहितार्थत: इस तथ्य में प्रतिबिंबित होता आया था कि उन्हें ज़मीन की मिल्कियत का अधिकार ही नहीं था। अगर हमारे संविधान में हरेक नागरिक के जो मौलिक राजनीतिक अधिकार दिए गए हैं, उन्हीं के तुल्य हरेक नागरिक के लिए मौलिक आर्थिक अधिकार भी दिए गए होते, तो सरकारों को जनता की आर्थिक दशा में सुधार के लिए क़दम उठाने पर मजबूर कर दिया गया होता। लेकिन, संविधान में आर्थिक मुद्दों को तो ‘राज्य के नीति के निदेशक  सिद्घांतों’ के खाने में ही डाल दिया गया, जिनका पालन करने के लिए शासन बाध्य नहीं था। सरकारों ने अब तक जो भी कल्याणकारी क़दम उठाए हैं, मतदाताओं के संबंधित हिस्सों को खुश करने के लिहाज से ही उठाए हैं और ये प्रावधान खैरात बांटने के तौर पर ही उठाए गए हैं, न कि जनता को अधिकार देने के रूप में।

नियंत्रणात्मक दौर की आर्थिक व्यवस्था का सकारात्मक पहलू यह था कि इस दौर में विकास का एक ऐसा यात्रापथ बनाने का प्रयास किया जा रहा था जो साम्राज्यवाद से स्वतंत्र था। वास्तव में, इस चरण में विकास का यात्रापथ इससे पहले के उस उपनिवेशविरोधी संघर्ष की निरंतरता में था, जिसमें अनेक वर्षों के साझा संघर्षों से बना ‘राष्ट्र’, साम्राज्यवाद के वर्चस्व के जुए को उतार फेंकने का प्रयास कर रहा था। तब तो बड़े पूंजीपति तक एक ऐसे विकास के हामी थे जो साम्राज्यवाद से अपेक्षाकृत स्वायत्त होता। हैरानी की बात नहीं है कि यह रणनीति इस पर काफ़ी ज़्यादा निर्भर थी कि सार्वजनिक क्षेत्र, विकसित दुनिया की या मैट्रोपोलिटन पूंजी के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की दीवार की तरह काम करेगा। और यह रणनीति, मदद के लिए सोवियत संघ के भरोसे थी। विदेश नीति के क्षेत्र में इस रणनीति का समकक्ष गुटनिरपेक्ष आंदोलन था, जो विश्व राजनीति में एक ताक़तवर कारक बनकर सामने आया था।

0 आपके विचार में, पहले की उस नियंत्रणात्मक रणनीति को छोड़कर नवउदारवाद की रणनीति के अपनाए जाने क्या कारण रहे?

00 जैसा कि हम पहले बता आए हैं, नियंत्रणात्मक रणनीति एक ऐसे वर्गीय गठबंधन के समर्थन के आधार पर अपनायी गयी थी, जिसने उपनिवेशविरोधी लड़ाई लड़ी थी। भूमि पुनर्वितरण के मुद्दे पर पल्टी मारने के बावजूद, यह वर्गीय गठबंधन उपनिवेशविरोधी संघर्ष की भावना को जारी रखना चाहता था। इसे छोड़कर, नवउदारवाद की रणनीति का अपनाया जाना इस वर्गीय गठबंधन के टूटने से जुड़ा हुआ था। इस वर्गीय गठबंधन में यह टूट सिर्फ़ अंदरूनी कारणों से ही नहीं आयी थी। यह टूट देश के बाहर के महत्वपूर्ण घटनाविकास को भी प्रतिबिंबित कर रही थी।

अमरीका का भुगतान संतुलन में लगातार जो चालू खाता घाटा चलता रहा है, उसके लिए वित्त व्यवस्था अतिरिक्त डॉलर छापकर की जाती रही है। यह इसलिए संभव हुआ है कि ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के अंतर्गत, डालर को ‘सोने के तुल्य’ माना जाता रहा है और वास्तव में आधिकारिक रूप से डालरों को सोने में तब्दील किया भी जा सकता था। ये अतिरिक्त डालर बड़े अमरीकी तथा योरपीय बैंकों के हाथों में पहुंचते रहे थे। लेकिन तेल की क़ीमतों में तेज़ी आने के बाद इन बड़े बैंकों की जमा राशियां और भी बढ़ गयीं, क्योंकि तेल उत्पादक (ओपेक) देश तेल की अपनी कमाइयां इन बैंकों में जमा करने लगे। विकसित दुनिया के ये बैंक, अपनी इन जमा राशियों का दुनिया भर में निवेश करना चाहते थे, लेकिन विभिन्न देशों में लागू पूंजी नियंत्रण इसके रास्ते में आते थे। इसलिए, इस तरह के नियंत्रणों को ही कमज़ोर कराने की कोशिशें शुरू हो गयीं। और ये कोशिशें कामयाब इसलिए हो गयीं कि चालू खाता व्यापार घाटे झेल रहे देशों को, इस तरह के नियंत्रणों को खत्म करने पर, विदेश से सस्ते ऋण मिल सकते थे। इस तरह से, दुनिया भर में आवाजाही करने वाली या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी सामने आयी, जिसने सफलता के साथ अर्थव्यवस्थाओं का उदारीकरण कराना जारी रखा। ‘उदारीकरण’ साठ के दशक के उत्तरार्द्ध तथा सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में योरप में हुआ और अस्सी के दशक में अफ्रीका तथा लातीनी अमरीका में।

0 और भारत में?

00 भारत में इस दिशा में चलने का दबाव, बड़े पूंजीपति वर्ग के समर्थन के चलते कामयाब हो गया। भारत के बड़े पूंजीपति, घरेलू अर्थव्यवस्था तक ही सीमित रहने को अपने लिए एक बंधन मानते थे और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी  बनना चाहते थे। इसके लिए बड़े पूंजीपति वर्ग को बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ एक तरह की सुलह करनी थी और यह घरेलू अर्थव्यवस्था के भी दरवाजे बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए खोलने के ज़रिए किया गया। पेशेवरों से बना उच्च मध्य वर्ग भी ‘उदारीकरण’ के लिए अपने समर्थन के साथ इस खेल में शामिल हो गया। आख़िर उसे इस तरह विकसित देशों में अपने लिए रोज़गार के अवसर खुलते दीख रहे थे और उसे इसकी संभावनाएं भी दिखाई दे रही थीं कि अगर बहुराष्ट्रीय निगमों को बेरोक-टोक यहां भी आने दिया जाता है, तो देश में भी उनके लिए ऐसे ही अवसर खुल सकते हैं। लिहाज़ा, वे भी घरेलू अर्थव्यवस्था का ‘उदारीकरण’ देखना चाहते थे। इस तरह घरेलू तौर पर इसके लिए दबाव बढ़ गया कि नवउदारवाद की रणनीति अपनायी जाए और यह दबाव इसलिए कामयाब भी हो गया कि देश में वृद्घि दर उम्मीद से कम बनी रही थी, जिसके कारणों का हम पहले ही ज़िक्र कर आए हैं। इन हालात में नियंत्रणात्मक रणनीति के कोई प्रबल घरेलू पैरोकार रह ही नहीं गए थे। लेकिन, सबसे बढ़कर सोवियत संघ के बिखराव तथा पूर्वी-योरपीय समाजवाद के पराभव ने नियंत्रणात्मक व्यवस्था का अंत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

0 भारतीय संदर्भ में नवउदारवाद के अपनाए जाने को क्या सामराजी नियंत्रण की वापसी जैसा कुछ कहा जा सकता है?

00 भारत जैसे देश में नवउदारवादी व्यवस्था का अपनाया जाना, पलट कर फिर से साम्राज्यवाद के वर्चस्व को अंगीकार कर लेने जैसा ही है, मगर दो महत्वपूर्ण भिन्नताओं के साथ। पहली भिन्नता तो यह कि यह वर्चस्व किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण के ज़रिए लागू नहीं किया जा रहा है। और यह किसी ख़ास देश का वर्चस्व भी नहीं है बल्कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का ही वर्चस्व है, जिसे सभी विकसित देशों की सरकारों का समर्थन हासिल है। संक्षेप में, यह एक पूरी तरह से भिन्न विन्यास में साम्राज्यवाद के अपना ज़ोर दिखाने का मामला है। और दूसरी भिन्नता यह कि हमारे घरेलू समाज का एक हिस्सा, जिसमें बड़े पूंजीपति तथा उच्च मध्य वर्ग शामिल हैं, इस तरह की व्यवस्था के साथ मिल गया है। दूसरी ओर, मेहनतकश अवाम यानी मज़दूर, काश्तकार, लघु उत्पादक, दस्तकार, मछुआरे, कारीगर तथा छोटे पूंजीपति भी, अब भी स्वतंत्रता से पहले के दौर की ही तरह उस सामराजी व्यवस्था की मार झेल रहे हैं जो नवउदारवादी पूंजीवाद में समायी हुई है।

0 लेकिन, क्या नवउदारवादी व्यवस्था के चलते सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्घि दर में भारी तेज़ी नहीं आयी है? और क्या इसके चलते, कम से कम हाल में आयी महामारी से पहले तक, करोड़ों लोगों को ग़रीबी की खाई से बाहर नहीं निकाला जा रहा था? औपनिवेशिक दौर में साम्राज्यवाद ने भारत में जो कुछ किया था, जैसा कि आप ने खुद ही शुरूआत में बताया था, क्या यह सब उससे उल्टा ही नहीं है?

00 उपनिवेशवाद की पहचान ही थी, उपनिवेशों में मेहनतकश अवाम का आर्थिक रूप से निचोड़ा जाना। और जैसा मैंने शुरू में ही ज़िक्र किया, औपनिवेशिक दौर में भारत में मेहनतकश अवाम के जीवन स्तर में शुद्घ गिरावट आयी थी। लेकिन इस समय भी ठीक ऐसा ही हो रहा है। लाखों-करोड़ों लोगों को ग़रीबी से उबारे जाने के सारे के सारे सरकारी आंकड़े पूरी तरह से ग़लत हैं। मेहनतकश जनता का अर्थिक रूप से निचोड़ा जाना मौजूदा व्यवस्था के लिए इसलिए भी ज़रूरी है कि इसी तरह ऐसे अनेक उष्णकटिबंधीय मालों की घरेलू खपत को घटाया जा सके जिनकी मांग पश्चिम में बढ़ रही है, जबकि उनका उत्पादन इस बढ़ोतरी के हिसाब से बढ़ाया नहीं जा सकता है। इनके उत्पादन के बढ़ाए न जा सकने की एक वजह तो यह है कि उष्णकटिबंधीय भूमि का रकबा भी सीमित है तथा पहले ही पूरा-पूरा उपयोग हो रहा है। दूसरे, उतनी ही भूमि से पैदावार बढ़ाने के क़दमों के लिए, किसानी खेती को पुख्ता करने के लिए शासन द्वारा सक्रिय रूप से मदद किए जाने की ज़रूरत होती है और यह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को बिल्कुल ही पसंद नहीं है। वास्तव में, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तो किसानी खेती को कमज़ोर ही कराना चाहती है और इसके लिए उन्हें कॉरपोरेट पूंजी का चाकर बनाना चाहती है। तीन नये कृषि क़ानून, जिन्हें किसानों के अभूतपूर्व प्रतिरोध के चलते सरकार को वापस लेना पड़ा है, ठीक यही करने की कोशिश कर रहे थे।

नवउदारवाद के अंतर्गत—जो कि बुनियादी तौर पर राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार मालों, सेवाओं तथा पूंजी की मुक्त आवाजाही सुनिश्चित करता है, जिसमें सबसे बढ़कर वित्तीय पूंजी की आवाजाही शामिल है—राष्ट्र-राज्य का सामना अंतरराष्ट्रीय पूंजी से होता है। इसके चलते, राष्ट्र-राज्य को चाहे-अनचाहे वही नीतियां अपनानी पड़ती हैं जिनकी मांग अंतरराष्ट्रीय पूंजी करती है। राष्ट्र-राज्य को हमेशा इसका डर रहता है कि अगर उसने अंतरराष्ट्रीय पूंजी की मांगें पूरी नहीं कीं, तो पूंजी तथा ख़ासतौर पर वित्तीय पूंजी थोक के हिसाब से देश से फुर्र हो जाएगी और देश में वित्तीय संकट पैदा हो जाएगा। इसका नतीजा यह होता है कि जो राज्य नवउदारवाद से पहले की व्यवस्था में सभी वर्गों से परे खड़ा दिखाई देता था और वहां से सभी वर्गों के हितों की हिफ़ाज़त करता नज़र आता था, वही राज्य अब सिर्फ़ और सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के और उसके साथ एकीकृत हो गए घरेलू कॉरपोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र के ही हितों का संरक्षक तथा मददगार बन जाता है। इसलिए, लघु उत्पादन तथा किसानी खेती की मदद करने के लिए नियंत्रणात्मक व्यवस्था में जो कदम लागू किए गए थे, राज्य या शासन उनसे हाथ खींच लेता है। भारत में, वाणिज्यिक फसलों के उत्पादन के लिए शासन की सहायता से तो पहले ही हाथ खींचे जा चुके थे, लेकिन खाद्यान्नों की पैदावार के मामले में ऐसा नहीं किया जा सका था। बहरहाल, अब वापस हो गए कृषि क़ानून ठीक ऐसा ही करने के लिए थे।

इसका अर्थ होता है, लघु उत्पादन तथा किसानी खेती का अवहनीय हो जाना और उसका संकट में फंस जाना। ऐसे हालात में इन क्षेत्रों से जुड़े उत्पादक, इन क्षेत्रों को छोड़कर, रोज़गार के विकल्पों की तलाश में दूसरे आर्थिक क्षेत्रों की ओर रुख करते हैं। मिसाल के तौर पर, 1991 और 2011 की जनगणनाओं के बीच ‘काश्तकारों’ की संख्या में 1 करोड़ 50 लाख की कमी हो गयी। इनमें से कुछ तो संभवत: ‘खेत मजदूरों’ की कतारों में शामिल हो गए होंगे, लेकिन दूसरे लोग रोज़गार की तलाश में शहरी इलाक़ों की ओर निकल गये होंगे।

लेकिन इसके साथ ही साथ, नवउदारवाद का अर्थ यह भी होता है कि अर्थव्यवस्था में प्रौद्योगिकीय बदलावों पर लगे सारे अंकुश हट जाते हैं। प्रौद्योगिकीय बदलावों पर पहले लगे रहे अंकुश हटाना इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि अब संबंधित देश के घरेलू उत्पादन को, आयातित मालों से कमोबेश नियंत्रण-मुक्त प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा होता है। और प्रौद्योगिकीय बदलावों पर लगे अंकुश हटाए जाने का मतलब यह होता है कि श्रम की उत्पादकता की दर बढ़ जाती है। और इसका अर्थ होता है, किसी भी निश्चित उत्पाद वृद्घि दर पर रोज़गार में वृद्घि की दर का नीचे खिसक जाना। इसलिए नवउदारवादी पूंजीवाद बुनियादी तौर पर रोज़गार को सिकोड़ने वाला पूंजीवाद होता है।

0 पर सरकारी आंकड़े तो शायद कुछ और दावा करते हैं!

00 भारत में रोज़गार में वृद्घि की दर, जो पहले 2 फ़ीसद सालाना हुआ करती थी, नवउदारवाद के दौर में गिरकर 1 फ़ीसद रह गयी है। दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में श्रम की मांग पहले वाले दौर के मुक़ाबले आधी रह गयी है, जबकि जीडीपी की वृद्घि की दर, कथित रूप से दोगुनी हो गयी बतायी जाती है। रोज़गार में वृद्घि की यह दर तो इतनी कम है कि इससे तो श्रम शक्ति में प्राकृतिक बढ़ोतरी को भी नहीं खपाया जा सकता है, फिर नवउदारवाद के दौर में उजड़ रहे किसानों तथा लघु उत्पादकों को खपाए जाने का तो सवाल ही कहां उठता है। इसका नतीजा यह है कि बेरोज़गारों की कतारें लंबी से लंबी होती जा रही हैं। इसमें अर्द्ध-रोज़गारशुदा, अस्थायी रूप से रोज़गारशुदा, जब-तब रोज़गार पाने वाले आदि-आदि शामिल हैं। मार्क्स की दी हुई संज्ञा का सहारा लें तो ‘श्रम की सुरक्षित सेना’ बढ़ती जा रही है।

इस संबंध में यह भी याद रखना चाहिए कि कुल श्रम शक्ति में श्रम की इस सुरक्षित सेना का सापेक्ष आकार जितना बढ़ता है, समूची कामकाजी आबादी का जीवन-स्तर उतना ही नीचे खिसकता जाता है। बेशक, श्रम की इस सुरक्षित सेना का जीवन-स्तर तो शुद्घ रूप से नीचे जाता ही है। लेकिन, जिनके पास सुरक्षित नौकरियां होती भी हैं, जिन्हें किसी दूसरी स्थिति में गुज़ारे लायक़ मज़दूरी मिल गयी होती, अब उतनी मज़दूरी भी हासिल नहीं कर पाते हैं, क्योंकि श्रम की सुरक्षित सेना के बढ़ने से उनकी मालिकान से सौदेबाज़ी करने की ताक़त घट जाती है। और किसानों तथा लघु उत्पादकों के जीवन-स्तर में तो गिरावट हो ही रही होती है; वास्तव में इसी से तो श्रम की सुरक्षित सेना बढ़ रही होती है। मेहनतकश अवाम की माली हालात में इस गिरावट से, कुल आबादी में शुद्घ या घोर दरिद्रता के आकार में बढ़ोतरी ही होती है।

आंकड़ों से भी हमारी इस बात की ही पुष्टि ही होती है। ग्रामीण भारत में ग़रीबी के माप का परंपरागत पैमाना यही रहा है कि 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन आहार का सामर्थ्य है या नहीं? राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, 1993-94 में 58 फ़ीसद ग्रामीण आबादी इस मानक के हिसाब से ग़रीब थी। और 2011-12 तक यही हिस्सा बढ़कर 68 फीसद पर पहुंच चुका था। शहरी भारत के लिए ग़रीबी का परंपरागत माप 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन आहार का सामर्थ्य है और उक्त अवधि में ही शहरी आबादी में इस पैमाने से ग़रीबों का हिस्सा 57 फ़ीसद से बढ़कर 65 फ़ीसद हो गया था। 2011-12 के बाद के दौर में हालात में और इतनी ज़्यादा गिरावट आयी है कि मोदी सरकार ने 2017-18 के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े प्रकाशित ही नहीं किए। और तो और, उसने तो पहले वाले रूप में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण को बंद ही करने का ही फ़ैसला कर लिया है।

0 आप अक्सर नवउदारवाद और नवफ़ासीवाद के गठजोड़ की बात करते हैं। इस तरह के गठजोड़ से आपका ठीक-ठीक आशय क्या है?

00 नवउदारवाद के संबंध में गौर करने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अब एक बंद गली में पहुंच गया है, एक ऐेसे तीव्र संकट में फंस गया है, जिससे निकलने का कोई रास्ता ही नज़र नहीं आता है। इस संकट की वजह यह है कि नवउदारवादी व्यवस्था में, मेहनतकश अवाम की आमदनियां घटती हैं और यह श्रम की उत्पादकता में तेज़ी से बढ़ोतरी होने के चलते होता है। इससे असमानता में जो बढ़ोतरी होती है, वह अपर्याप्त सकल मांग की समस्या पैदा करती है क्योंकि मेहनतकश अवाम ही है जो अपनी आय का कहीं बड़ा हिस्सा उपभोग पर ख़र्च करता है, जबकि अमीर कहीं कम हिस्सा ख़र्च करते हैं। और इसके चलते जब उपभोग के लिए मांग घटती है, तो निवेश में भी कटौती शुरू हो जाती है। और यह सब किसी एक देश में नहीं होता है बल्कि हर जगह होता है और इसलिए दुनिया भर में होता है। अधि-उत्पादन या ओवर प्रोडक्शन की इस प्रवृत्ति को कुछ समय तक प्रकट होने से तो रोका जा सकता है, बशर्ते कोई परिसंपत्ति मूल्य बुलबुला बन जाए, जो कृत्रिम तरीके से लोगों की संपदा को बढ़ाकर दिखाने लगे और उन्हें कहीं ज़्यादा उपभोग करने के लिए प्रेरित करे। लेकिन, इस बुलबुले के बैठते ही संकट दोबारा सामने आ खड़ा होता है। और सचाई यह है कि 2008 में अमरीका में आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद से उस तरह का कोई बुलबुला प्रकट ही नहीं हुआ है और विश्व अर्थव्यवस्था एक दीर्घ संकट में फंस गयी है, जिससे बाहर निकलने का नवउदारवाद के दायरे में तो कोई रास्ता नज़र नहीं आता है।

विशेष रूप से राज्य द्वारा ख़र्चा किए जाने के सहारे इस संकट से अर्थव्यवस्था को तब तक नहीं निकाला जा सकता है, जब तक इसके लिए वित्त जुटाने के लिए या तो राजकोषीय घाटे का सहारा नहीं लिया जाता है या अमीरों पर कर नहीं लगाए जाते हैं। राज्य या शासन द्वारा ख़र्चा किए जाने के लिए अगर मेहनतकश अवाम से ही कर वसूल किए जाते हैं, तो यह तो बस एक तरह की मांग की जगह पर दूसरी तरह की मांग को बैठाने का ही काम करेगा क्योंकि मेहनतकश अवाम, अपनी आय का अधिकांश उपभोग में लगा देते हैं। इससे समग्रता में मांग में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी और इसलिए अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति की कोई काट भी नहीं होगी। लेकिन राजकोषीय घाटे का बढ़ाया जाना और अमीरों पर ज़्यादा कर लगाया जाना, दोनों ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की नज़रों में कुफ़्र हैं और इसलिए नवउदारवादी व्यवस्था में इनकी इजाज़त नहीं दी जा सकती है। इसीलिए नवउदारवाद के दायरे में इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं है।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा, नवउदारवाद, जो साम्राज्यवादी वर्चस्व के दोबारा स्थापित किए जाने और औपनिवेशिक दौर के साम्राज्यवादविरोधी गठबंधन में फूट पड़ने को दर्शाता है, भारत की दीर्घ क्रांति के खिलाफ एक प्रतिक्रांति की परिस्थितियां बनाता है और यह स्थिति फ़ासीवादी तत्वों को बढ़ावा देती है। लेकिन जब नवउदारवाद खुद ही संकट में फंस जाता है, उक्त प्रवृत्ति और भी पुख्ता हो जाती है। नवउदारवाद अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए ही अपरिहार्य रूप से नवफ़ासीवाद के साथ गठजोड़ क़ायम कर लेता है।

0 यानी नवफ़ासीवाद का जो उभार आज हम देख रहे हैं, उसे एक वैश्विक प्रवृत्ति की तरह भी देखा जाना जरूरी है?

00 फ़ासीवादी तत्व वैसे तो हरेक आधुनिक समाज में मिलते हैं। पर अक्सर ये हाशिए के तत्वों के रूप में ही पाए जाते हैं। वे मुख्यधारा में तभी आ पाते हैं जब उन्हें बड़े कॉरपोरेटों का समर्थन मिल जाता है, जो खुद वैश्वीकृत पूंजी से जुड़े हुए होते हैं। और इन तत्वों को कॉरपोरेटों का समर्थन तब मिलता है, जब आर्थिक व्यवस्था संकट में फंस जाती है। ऐसे हालात में वे इन तत्वों के साथ गठजोड़ क़ायम करते हैं, जो हमारे मामले में कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ है। यह गठजोड़ विमर्श को जीवन की भौतिक स्थितियों से जुड़े मुद्दों की ओर से मोड़ता है, क्योंकि इस तरह के विमर्श के आगे बढ़ने से बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है। यह गठजोड़ विमर्श का रुख ऐसे मुद्दों की ओर कर देता है, जिनसे बड़े पूंजीपतियों को कोई ख़तरा नहीं होता है, जैसे कि क्या मंदिर वहीं नहीं बनना चाहिए, जहां मस्जिद रही है! इसके अलावा, धार्मिक या एथनिक समुदायों के बीच नफ़रत का फैलाया जाना मेहनतकश अवाम को बांटता है और उनकी एकजुट कार्रवाई का रास्ता रोकता है। संकट में पड़ा पूंजीवाद हमेशा ही अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए फ़ासीवाद की ओर रुख करता आया है और नवउदारवादी पूंजीवाद संकट के समय नवफ़ासीवाद की ओर रुख कर रहा है, ताकि अपने अस्तित्व की रक्षा कर सके। इसलिए यह अचरज की बात नहीं है कि चूंकि नवउदारवाद का वर्तमान संकट सर्वव्यापी है, इसलिए दुनिया भर में नवफ़ासीवाद की ओर झुकने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है।

लेकिन, नवफ़ासीवाद की यह ख़ासियत है कि शास्त्रीय या पुराने फ़ासीवाद के विपरीत, यह नवउदारवाद को उसके संकट से उबार नहीं सकता है। उसके नवउदारवाद को संकट से उबारने के रास्ते में भी वही बाधा आती है जो इस संकट के किसी उदारवादी समाधान के रास्ते में आती है। यह बाधा है, सार्वजनिक ख़र्च में ऐसी बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का विरोध, जिस बढ़ोतरी के लिए वित्त व्यवस्था राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी के ज़रिए की जाए या कॉरपोरेटों पर कर बढ़ाने के ज़रिए की जाए। यही बाधा नवफ़ासीवादियों को भी नवउदारवादी व्यवस्था को संकट से उबारने से रोकती है। दूसरे शब्दों में, नव-फ़ासीवाद भी इस सचाई को लांघ नहीं सकता है कि वह एक राष्ट्र-राज्य का संचालन कर रहा होता है, जबकि पूंजी अंतरराष्ट्रीय हो गयी है। इसलिए अगर नव-फ़ासीवाद को चुनाव में हरा दिया जाता है और उसकी जगह एक उदारपंथी शासन आ जाता है, तब भी नवउदारवाद का बोलबाला बना रह सकता है। उस सूरत में नव-फ़ासीवाद तब तक इंतज़ार करता रह सकता है जब तक उदार प्रशासन भी नवउदारवादी व्यवस्था की शर्तों के दायरे में संकट को दूर करने में असमर्थ होने के चलते अपना चुनावी समर्थन खो नहीं देता है। इसके बाद नव-फ़ासीवाद फिर से भी सत्ता में आ सकता है। इसलिए जब तक नवउदारवादी पूंजीवाद को ही लांघकर आगे नहीं निकला जाता है, भारत की दीर्घ क्रांति के ख़िलाफ़ यह प्रतिक्रांति चलती रहेगी।

0 आप भारतीय समाज और भारतीय जनगण के लिए बेहतर भविष्य की क्या कोई उम्मीद देखते हैं और कैसे?

00 फ़ासीवाद पर काबू पाने के लिए हमें उस परिस्थिति संयोग से उबरना होगा जो फ़ासीवाद के उभार को पैदा करता है। इसका अर्थ यह है कि हमें नवउदारवादी पूंजीवाद से उबरना होगा। मेरा तो मानना है कि नवउदारवादी पूंजीवाद से उबरने की प्रक्रिया तथ्यत: समाजवाद में संक्रमण की प्रक्रिया होगी। लेकिन दूसरे लोग जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे भी नवउदारवाद के दायरे में हमारी मुश्किलों का समाधान तो शायद ही देख पाते होंगे।

हमारे देश में किसानों के साल भर लंबे प्रतिरोध ने नवउदारवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष की संभावनाओं को रेखांकित किया है। मैं समझता हूं कि राजनीतिक पार्टियों तथा संगठनों का एक ऐसा व्यापक फ़ासिस्टविरोधी गठबंधन बनाए जाने की ज़रूरत है जिसका एजेंडा वर्तमान संकट के सामने मेहनतकश जनता को राहत दिलाने का हो। यह नवउदारवादी-नवफ़ावादी गठजोड़ के ख़िलाफ़ संघर्ष का पहला चरण होगा। यह तो स्वत: स्पष्ट ही है कि इसका ज़ोर नवफ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई पर होगा। लेकिन, यह नवउदारवादविरोधी भी होगा क्योंकि जनता के लिए राहत दिलाने के हरेक व्यवस्थागत प्रावधान का नवउदारवाद द्वारा विरोध किया जाएगा। इसलिए अगर कोई मेहनतकश अवाम को राहत दिलाने के लिए प्रतिबद्घ है, तो उसे नवउदारवाद को लांघकर उससे आगे जाना ही होगा।

नवउदारवाद तथा नवफ़ासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष सिर्फ़ भारत तक ही सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक संघर्ष है क्योंकि नवफ़ासीवादी प्रवृत्तियां सर्वव्यापी हैं। दूसरी ओर, भारत में और अन्यत्र भी परिस्थितियां मज़दूर-किसान गठबंधन के बहुत ही अनुकूल हैं। इसकी वजह यह है कि अब यह साफ़ हो गया है कि अगर किसान जनता की दशा में सुधार नहीं होता है, तो मज़दूरों की दशा में सुधार भी नहीं हो सकता है। अब हर जगह इस तरह के संघर्ष फिर से उभरकर सामने आ रहे हैं। लातीनी अमरीका में ‘गुलाबी ज्वार’ का पुनरोदय देखने को मिल रहा है। फ्रांस में वामपंथ एकजुट हो रहा है, जो कि अगर थोड़ा-सा ही पहले हो गया होता तो शायद मैलेंको फ्रांस के राष्ट्रपति होते। मुझे पक्का यक़ीन है कि भारत भी इस बढ़ते ज्वार से अनछुआ नहीं रहेगा।


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