शबाना आज़मी से एक बातचीत / अजय ब्रह्मात्मज


हिन्दी सिनेमा की प्रख्यात अभिनेत्री शबाना आज़मी से यह बातचीत मार्च 2003 में की गयी थी। पिछले दिनों पुराने कागज-पत्र संभालते और छानते समय इस अप्रकाशित बातचीत की प्रति मिली। उन दिनों शबाना आज़मी राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यसभा की सांसद थीं। तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। इस इंटरव्यू का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्व है और यह वर्तमान दौर में प्रासंगिक भी है। – अजय ब्रह्मात्मज

अजय ब्रह्मात्मज : शायर कैफ़ी आज़मी की बेटी के रूप में आप खुद को किस तरह देखती हैं?

शबाना आज़मी : मैं जो कुछ भी हूं, उसमें कैफ़ी साहब का बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िंदगी जिस तरह की जी, उसमें बचपन से ही एहसास था कि मर्द और औरत दोनों बराबर का दर्जा रखते हैं। वैसे जब मैं 19 साल की थी तो पहली बार पता चला कि मैं जो अपनी जाती ज़िंदगी में देखती हूं, वैसा हर औरत के साथ हिंदुस्तान में नहीं है।  मेरी मम्मी के साथ उनका बराबरी का रिश्ता था। वह सिर्फ़ कथनी में नहीं, करनी में भी वैसे ही थे। जैसा वह लिखते थे, वैसा ही व्यवहार भी करते थे। इसलिए चाहे स्त्री के सशक्तिकरण की बात हो या सांप्रदायिकता की मुखालफ़त हो… मैं आज जो भी काम करती हूं, उस पर मेरे पिताजी की किसी ना किसी नज़्म या ग़ज़ल का असर रहता है। एक साइनपोस्ट की तरह मुझे प्रेरणा देती हैं उनकी रचनाएं। ‘मकान’, ‘औरत’, ‘बहुरूपनी’ नज़्मों को मैं अपने काम की प्रेरणा मानती हूं।

अजय ब्रह्मात्मज : मां शौकत आज़मी से विरासत में क्या मिला? उनकी कौन-सी आदतें आपने अपनायीं?

शबाना आज़मी : सबसे पहले तो एक्टिंग। मेरे बचपन का माहौल ऐसा था कि एक तरफ़ हमारे यहां मज़दूर-किसान आते-जाते थे, दूसरी तरफ़ बेगम अख्तर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फ़िराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, ये तमाम लोग हमारे यहां हाउस गेस्ट की तरह रहते थे। एक सोच तो यह थी कि बड़ा और छोटा इंसान पैसों की वजह से नहीं होता। जिस तरह हमारा घर कलाकारों के लिए खुला हुआ था, उसी तरह से मज़दूर-किसान के लिए भी खुला था। अब्बा का यह ख़ास मानना और कहना था कि कोई भी चौकीदार हमारे घर में नहीं होगा और किसी की पूछताछ नहीं होगी कि क्यों आ रहे हो? बचपन से ही देखा कि एक तरफ़ से गवर्नर साहब शान-ओ-शौकत के साथ आ रहे हैं। दूसरी तरफ़ बिना चप्पल के मज़दूर आ रहे हैं और कैफ़ी साहब दोनों से बराबर सम्मान के साथ मिल रहे हैं। मां  भी ऐसा ही सोचती थीं। दो-तीन चीज़ें मुझे सिर्फ़ मां से मिली हैं। एक तो एक्टिंग की सलाहियत… 3 साल की उम्र में मम्मी मुझे अपने साथ लेकर स्टेज यात्रा पर चली जाती थीं। वह पृथ्वी थिएटर के साथ काम करती थीं। होता यह था कि किसी नाटक में समूह के दृश्य  होते थे तो मैं भी स्टेज पर आ जाती थी। पृथ्वीराज कपूर ने मेरे लिए भी ड्रेस सिलवा दिये थे। दो यादें हैं बचपन की। एक तो मम्मी के नाटक के समय मैं ग्रीन रूम में सो जाती थी। दूसरा यह कि अब्बा मुशायरे में जाते थे तो वहीं गाव-तकिये के पीछे मैं सो जाती थी। इस तरह मां-बाप दोनों का बराबर का प्रभाव रहा। मेरी मां ग़ैरमामूली इंसान है। बहुत ही स्पॉन्टेनियस हैं, जो उनके दिल में है, वह उनके जुबान पर हैं। वह बहुत खुले दिल से तारीफ़ करती हैं और बहुत खुले दिल से आलोचना करती हैं। उनमें हमदर्दी का बड़ा जज़्बा है। ख़ासकर अपने से कम वालों के लिए। जिन लोगों के पास हमसे कम है, उनके प्रति उनका व्यवहार बेहद हमदर्दी का रहता है। बड़ा जज़्बा है उनका। मम्मी से जो चीज़ मैंने सीखी है, एक तो इंसान की पहचान वह बहुत जल्द कर लेती हैं। वह दो मिनट में इंसान को परख लेती हैं कि वह कितने पानी में है? और मुझे लगता है कि कुछ हद तक यह सलाहियत मुझमें भी है। मुझे मां से मिली है। उनकी सबसे बड़ी खूबी जो मैं आज तक अपना नहीं पायी हूं – अगर कोई चीज उन्हें ठेस पहुंचाती है, कोई बात बहुत बुरी लगती है तो ऐसी चीज़ें वह पी जाती हैं। इसका इज़हार वह नहीं करतीं।  उसे मुद्दा नहीं बनातीं। उन्हें मालूम है कि किसे मुद्दा बनाना चाहिए और किसे नहीं बनाना चाहिए। यह इंसान की बहुत बड़ी खूबसूरती होती है। मुझे लगता है, ज़िंदगी से निपटने में यह बहुत काम आती है। यह कूव्वत मुझमें अभी तक नहीं आयी है। असल में, पिताजी के साथ मेरे रिश्ते को बहुत सेलिब्रेट किया गया। उसके बारे में लोगों ने काफ़ी चर्चा की है, लेकिन मेरा अपनी मां के साथ जो रिश्ता है, उसके बारे में लोग कम जानते हैं। सही बात तो यह है कि मैं अपनी मां को बहुत ग़ैरमामूली इंसान मानती हूं। उनकी बहुत सारी बातें, जो मुझे उन्होंने नहीं कही हैं, लेकिन उनसे जज़्ब करके मैंने ज़िंदगी जीने का तरीक़ा सीखा है।

अजय ब्रह्मात्मज : बचपन की कुछ प्रेरक यादों के बारे में बताएं? 

शबाना आज़मी : हम लोग बहुत छोटे से कॉटेज में रहते थे। उसमें सिर्फ़ एक कॉमन बाथरूम था। दो ही कमरे थे और मेरे कमरे में मेहमान रुकते थे। मेहमानों के आने पर बाबा (भाई) और मैं बगैर कमरे के हो जाते थे। इधर-उधर कहीं हमारा बिस्तर लगा दिया जाता था। पहले तो हमें बहुत बुरा लगता था कि हमसे हमारा कमरा क्यों छीन लिया गया। एक चीज़ जो अब्बा ने हमेशा की, उन्होंने हमें उनके बीच ही रखा। मेरी जिज्ञासा होती थी कि ये लोग कौन है? और ये लोग क्या बातें करते हैं? उनकी बातें तो कभी समझ में आती नहीं थीं, लेकिन मुझे मज़ा बहुत आता था। जिस तरह के माहौल में बातें होती थीं, जितने कहकहे होते थे। लगता था कि वे लोग बहुत खुश हैं और कुछ बेहद संजीदगी की बातें कर रहे हैं। अब्बा हमें कभी नहीं कहते थे कि तुम हमारे साथ नहीं बैठ सकते। वह कहते थे, आओ बैठो, जब तक बैठना चाहो, बैठो, लेकिन यह ज़िम्मेदारी तुम्हारी है कि कल सुबह स्कूल खुद उठ कर जाओगी। इसका मतलब यह नहीं कि आज तुम देर तक जागती रही तो कल स्कूल नहीं जाओगी। उन्होंने मुझे हमेशा अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास दिया और व्यस्त होने का एहसास दिया। इस माहौल में मैं पली-बढ़ी तो मेरे शब्दों के साथ, शायरी के साथ जो रिश्ता है, आर्ट के साथ जो रिश्ता है, वह खुद बनता चला गया। मेरे मां-बाप ने कभी उसे गले में ठूंसने की कोशिश नहीं की। उस माहौल में मुझे पाला-पोसा, इसलिए मैं इस तरह की हूं… जैसी हूं।

अजय ब्रह्मात्मज : बचपन की कुछ और यादें? 

शबाना आज़मी : सरदार जाफ़री ने बताया था। तब मैं शायद 13 साल की थी। ग्रांट रोड स्टेशन पर टिकट कंडक्टर से किसी बात पर लड़ रही थी। सरदार जाफ़री वहां से गुज़र रहे थे। उन्होंने देखा कि बहुत गरमा गरम बातें हो रही हैं। मुझे स्कूल के लिए देर हो रही थी। जाफ़री साहब ने पूछा कि क्या बात है? मैंने उनसे कहा, दादा, आप जाइए, मैं इनसे निपट लूंगी। जाफ़री साहब ने कभी कहा था कि 13 साल की वह लड़की आज तक दुनिया की नाइंसाफ़ी से निपट रही है। गुरबत से निपट रही है। उसमें स्पार्क पहले से था। मुझे उनकी यह सोच संगत लगती है।

अजय ब्रह्मात्मज : सामाजिक, सार्वजनिक या व्यक्तिगत जीवन की कोई ऐसी घटना जब औरत होने की तकलीफ हुई हो? 

शबाना आज़मी : अपने व्यक्तिगत जीवन में नहीं हुआ। इसका मतलब यह नहीं कि मुझे इस बात का एहसास नहीं है। ऐसा होता है और खूब होता है। औरतों के साथ जितनी नाइंसाफी होती है, जितना जुल्म होता है, उसमें कई औरतें ऐसा सोचती होंगी कि काश मैं औरत नहीं होती। हां, 1992 में शायद एक बार हल्का एहसास हुआ था मुझे, लेकिन मैंने पलट कर जवाब दिया था। मैं मोंट्रियल फ़िल्म फेस्टिवल में ज्यूरी की अध्यक्ष बनी थी। बाकी 10 सदस्य मर्द थे। हुआ यह कि दो-तीन दिनों तक दुनिया भर के वे मर्द पत्रकार, लेखक और निर्देशक मुझसे कहते रहे कि आप तो हमारी रानी हैं। हम तो आपके ग़ुलाम हैं। आप जैसा कहेंगी, वैसा हम करेंगे। इतनी खूबसूरत हमारी चेयरपर्सन हैं। इस तरह की बातें हालांकि मज़ाक में ही की जा रही थीं, मगर उनकी कोई ज़रूरत नहीं थी। अगर मैं मर्द होती तो इस तरह की बात ही नहीं होती। मैं चुपचाप उनकी बातें सहती रही। जब हमारी पहली मीटिंग हुई तो मैंने अपने पर निकाले और कुछ शर्ते रखीं। मैंने कहा कि ये शर्ते हैं और इसकी बुनियाद पर ही हमें तय करना होगा कि क्या निर्णय लेना है। मेरी शर्तों से उन्हें ज़ाहिर हो गया कि यह दिमाग़ रखती है। यह अपने दिमाग़ और अधिकार का इस्तेमाल करेगी। मुझे याद है, जिस हैरत और अचंभे से उन्होंने मुझे देखा था… उसमें तकरीबन घृणा थी… उनका एटीट्यूड था कि एक तो तुम एक्ट्रेस हो, ऊपर से तुम तीसरी दुनिया की हो…. हमने तुम पर बड़प्पन दिखाया कि अभी तक तुमसे मज़ाक करते रहे और अब तुम हमारे सिर पर चढ़कर बैठोगी? हमें बताओगी कि यह खेल किस तरह खेला जाता है? यह तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। पहली बार मुझे पश्चिमी जगत में औरतों के प्रति पूर्वाग्रह दिखा। ख़ासकर खूबसूरत और एक्ट्रेस औरत के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह दिखा। उनका इतना नंगा सबूत दिखा कि मैं चौंक उठी। यह 1992 की बात है। में 1900 की बात नहीं कर रही हूं। उनकी प्रतिक्रिया पर मुझे गुस्सा आया, लेकिन मैंने ठंडे दिल से पूरे अधिकार के साथ अपना काम किया और करवाया।  वह ठोस उदाहरण था। हमें लगता है कि हमारे हिंदुस्तानी समाज में ही पूर्वाग्रह है, औरतों के प्रति। यह पूर्वाग्रह पश्चिमी समाजों में भी है।

अजय ब्रह्मात्मज : फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐसा कोई कड़वा अनुभव रहा? यहां भी तो पुरुष केंद्रित व्यवस्था है। अभिनेता और अभिनेत्री के प्रति अलग रवैया रहता है?

शबाना आज़मी : फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐसा नहीं हुआ। एक तो उन्हें मालूम था कि मैं कैफ़ी आज़मी की बेटी हूं। उन्हें मालूम था कि एक बुद्धिजीवी की बेटी है। इसका नज़रिया अलग है। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से मुझे गोल्ड मेडल मिला था। श्याम बेनेगल के साथ मैंने शुरुआत की थी। हमेशा उनका व्यवहार ऐसा होता था कि यह तो कुछ अलग ही चीज़ है। बहुत कम ऐसी अभिनेत्रियां हैं जो किसी फ़िल्म में अपने रोल के अलावा भी दिलचस्पी लेती हैं। मेरी बहुत भागीदारी रहती है। आमतौर पर यूनिट के सदस्य अभिनेता से ऐसी अपेक्षा तो रखते हैं, लेकिन अभिनेत्री से ऐसी अपेक्षा नहीं रखते। मैंने देखा कि जब मैंने भागीदारी दिखायी तो उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया।

अजय ब्रह्मात्मज : क्या शुरू से ही अभिनय में रुचि थी? आपने कब फ़ैसला किया कि एक्टिंग को ही कैरियर बनाना चाहिए? 

शबाना आज़मी : रुचि शुरू से थी और यह मैंने बताया ही है कि ग्रीनरूम में सो जाया करती थी। एक नर्सरी गीत है ‘काउ जंप ऑन द मून’ उसमें मैं हिस्सा ले रही थी। मैं गाय का रोल कर रही थी। मुझे चांद के ऊपर से छलांग लगानी थी। मेरा समय गलत हो गया और मैं चांद के ऊपर ही कूद गई। चांद भी तीन साल की लड़की बनी थी। वह उठकर चीखी और उसने एक थप्पड़ मुझे मारा। मैंने भी उसे मारा। फिर पर्दा गिरा देना पड़ा। वही मेरी एंट्री थी अभिनय जगत में। तभी लोगों ने तय कर लिया कि यह तो ज़रूर एक्ट्रेस बनेगी। स्कूल में थी तो हमेशा नाटकों में भाग लेती थी। मेरा गर्ल्स स्कूल था तो हमेशा लड़कों के ही रोल मुझे मिलते थे और आमतौर पर विलेन के मिलते थे। फिर जब सेंट जेवियर्स में आई तो वहां केवल अंग्रेजी थिएटर हुआ करता था। हिंदी थिएटर बिल्कुल नहीं था। फारूख शेख और मैंने मिलकर हिंदी नाट्य मंच बनाया। फिर हमने नाटकों में काम किया। हर नाटक में मुझे अव्वल नंबर मिलता था। बहुत सारे अवार्ड जीते मैंने। सेंट जेवियर्स के अंतिम साल में मैंने संजीदगी से सोचना शुरू किया कि एक्टिंग करनी है। मैंने जया भादुड़ी की डिप्लोमा फ़िल्म सुमन देखी थी। मुझे उनका काम बहुत अच्छा लगा था। मैंने सोचा कि इस तरह की फ़िल्म बने तो मैं इसमें काम करना चाहूंगी। तब फ़िल्म इंस्टीट्यूट में गयी। उस समय फ़िल्म इंडस्ट्री फ़िल्म इंस्टीट्यूट के छात्रों में बहुत दिलचस्पी ले रही थी।  उन्हें काम दिया जा रहा था। आप यक़ीन मानिए, मैंने अपनी परीक्षा 30 अप्रैल को दी और पहली मई से मैं शूटिंग कर रही थी। कांतिलाल राठौड़ की फ़िल्म परिणय थी। ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फ़िल्म फ़ासला और कांतिलाल राठौड़ की फ़िल्म परिणय फ़िल्म इंस्टीट्यूट में ही मुझे मिल गयी थी। उसके बाद श्याम बेनेगल की अंकुर मिली। अंकुर पहले प्रदर्शित हो गयी। उसके बाद की यात्रा तो सभी जानते हैं।

अजय ब्रह्मात्मज : आपका झुकाव कला फ़िल्मों की ओर अधिक हुआ। आपको उन फ़िल्मों से पहचान भी मिली। उन फ़िल्मों के सरोकार के बारे में क्या सोचती हैं?  उनमें औरतों का चित्रण किस रूप में हो पाया? 

शबाना आज़मी : अगर आप सही मायने में देखें तो मैं सही वक़्त पर सही जगह थी। इसी कारण मुझे थोड़ी बहुत कामयाबी मिली। अंकुर बनी 1974 में, तब कोई पैरेलल सिनेमा नहीं था हिंदी में। बंगाल में सत्यजित राय थे, मगर हिंदी में कुछ नहीं था। अंकुर कामयाब फ़िल्म हुई। बॉक्स ऑफिस पर भी चली और समीक्षकों ने भी सराहा। उसके कारण मुझे ढेर सारी फ़िल्में मिलीं और इनमें जैसी औरतों के रोल मिले, वे मुख्यधारा के सिनेमा से अलग थे। इसी वजह से मुझे मुख्तलिफ़ क़िस्म की भूमिकाओं के मौक़े मिले। ये फ़िल्में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे से जुड़ी हुई थीं और ऐसी फिल्में थीं जो शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती हैं। मेरी परवरिश एक ऐसे माहौल में हुई थी जहां मेरे मां-बाप ने हमेशा यह सिखाया कि कला को सामाजिक बदलाव का हथियार बना लेना चाहिए। एक तो वह समझ मेरी बचपन से थी। फिर मुझे ऐसी फ़िल्में मिलीं जो कि सामाजिक मुद्दों को लेकर बन रही थीं। एक वक़्त आता है जब कलाकार के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि वह अपने काम को सिर्फ़ 10 से 5 का जॉब मान ले। अगर आपमें एहसास हैं और आप पूरी लगन से काम करते हैं तो यह तो होना ही है। दिनभर जो काम करते हैं, जिन किरदारों को निभाते है, उनका कुछ ना कुछ आपके साथ रह जाएगा ना! आप ऐसे किरदारों को जीते हैं, जिसका आपके व्यक्तिगत जीवन से कोई रिश्ता नहीं होता। ऐसे किरदारों को जीते समय उनकी समस्याओं को अपना बना लेते हैं। एक वक़्त आया कि जब पार और अर्थ बन रही थीं, तो मैंने यह महसूस किया कि कलाकार पर यह बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। लोग कलाकार और किरदार में कंफ्यूज़ हो जाते हैं। अर्थ के समय झुंड की झुंड औरतें मेरे घर आने लगीं। वे सभी प्रशंसिका या ऐक्ट्रेस के फैन के तौर पर नहीं आती थीं। अपना बहानापा ज़ाहिर करने आती थीं। उम्मीद करती थीं कि उनकी शादी की समस्याएं मैं हल कर दूंगी। मुझे डर लगा, क्योंकि मैंने तो  महज़ किरदार निभाया था और मेरा बिल्कुल एहसास नहीं था कि उसका उस कदर प्रभाव हो सकता है। पहले तो मैं डर गयी, लेकिन फिर मैंने उस ज़िम्मेदारी को अपना लिया। तब जाकर मैं महिला आंदोलन के साथ जुड़ी।

अजय ब्रह्मात्मज : अपनी ऐसी कुछ फ़िल्मों और किरदारों के बारे में बताएं, जिन्हें निभा कर आप संतुष्ट हों और जो महिलाओं को सही परिप्रेक्ष्य में दिखाती हों? 

शबाना आज़मी : अर्थ मेरे लिए मील का पत्थर बन गयी है। जहां भी मेरी फ़िल्मों के रेट्रोस्पेक्टिव होते हैं… न्यूयॉर्क में हो… लंदन में हो, अर्थ के लिए लोगों की भारी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, बहुत सारी औरतें मुझे अर्थ के बारे में बताती हैं।

अजय ब्रह्मात्मज : व्यावसायिक फ़िल्मों में औरतों का किस रूप में इस्तेमाल हो रहा है? 

शबाना आज़मी : अगर आप देखिए तो छठे दशक के बाद सातवें दशक की बात करें तो बहुत सारी ऐसी फ़िल्में बनती थीं जिनमें औरतें प्रमुख होती थीं। उनमें भारतीय नारी के ही रूप दिखते हैं। माफ़ कर देने वाली पत्नी, स्वीकार करने वाली मां, समझदार भाभी…  इस तरह की ही औरतें आयीं। एक फ़िल्म बनी थी, ‘मैं चुप रहूंगी’।  हालांकि औरत प्रधान फिल्म थी, मगर शीर्षक ही अर्थ ज़ाहिर कर देता है कि किसे गुण समझा जाता था। उसमें यक़ीनन तब्दीली आयी है, मगर जो तब्दीली आयी है, वह ऊपरी क़िस्म की है। आप देखे कि नौवें दशक के आरंभ में ‘शेरनी’, ‘ज़ख्मी औरत’, ‘इंसाफ़ की देवी’, ‘मैं इंसाफ़ चाहती हूं’ आदि में इन फ़िल्मों में निर्देशकों की कॉस्मेटिक समझदारी दिखती है। दरअसल, वही लकीर की फकीरी चल रही थी, जिसमें पुरुष होते हैं। बदला लेने की भावनाओं पर फ़िल्में बनी। मगर बदला लेने का तरीक़ा पुरुषों का ही रहा। औरत होने की जटिलता का समावेश नहीं हो पाया। पहले सभी रैंबो थे, बाद में रैंबोलिना बनने लगीं। औरतों को सही प्रतिनिधित्व पैरेलल सिनेमा में ही मिला। पिछले दशक की शुरुआत से मध्यमार्गी सिनेमा में फ़ायर, साज़, गॉडमदर, मृत्युदंड जैसी फ़िल्मों में औरतों को नये रोल में रखा गया। थोड़ा अलग चित्रण किया गया। तब्दीली आ रही है और खुशी की बात है कि मुख्यधारा सिनेमा के लोग भी जानते हैं कि अब औरतों को केवल शो पीस बनाकर नहीं दिखा सकते। उसे व्यक्तित्व नहीं देंगे तो आज के दर्शकों को रोल पसंद नहीं आयेगा। ऊपरी तौर पर औरतों के चरित्र को मज़बूत करने की कोशिश शुरू हो चुकी है।

अजय ब्रह्मात्मज : क्या सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर आपको प्रतिरोध भी झेलना पड़ा? चूंकि आप एक मशहूर अभिनेत्री हैं, इसलिए संभव है कि आपकी सामाजिक कार्यों के प्रति शंकाएं रही हों?

शबाना आज़मी : शुरू में कई तरह के सवाल उठे। क्यों कर रही हैं? क्या किसी प्रकार का प्रचार चाहती हैं? क्या राजनीति में आना चाहती हैं? जब भी कोई मशहूर व्यक्ति किसी और क्षेत्र में क़दम रखता है, तो शंकाएं उठना स्वाभाविक हैं। इसमें कोई हर्ज़ नहीं है। हम भी कहां किसी नये व्यक्ति को एकदम स्वीकार करते हैं? उसे किसी-न-किसी परीक्षा से गुज़ारते हैं। मैंने यही सोचा कि शंकाओं और संदेहों को काटने या दूर करने का एक ही तरीक़ा है कि अपने काम को लगातार करते जाएं और अब 18 साल से ज़्यादा हो गए। मैं निवाड़ा हक के साथ काम करती रही हूं। वह झुग्गी-झोपड़ी वालों के बीच काम करने वाली संस्था है। अब इस तरह का संदेह कोई नहीं करता।

अजय ब्रह्मात्मज : मुंबई की औरतों की क्या ख़ास समस्याएं हैं? 

शबाना आज़मी : मैं मुंबई की औरतों को पूरे हिंदुस्तान से अलग थोड़े ही मानती हूं। उत्तर प्रदेश में मैंने काम किया है। मिजवां में जाकर अब्बा बस गये थे। वहां मिजवां वेलफेयर सोसाइटी है। वहां उन्होंने पूरा काम औरतों के सशक्तिकरण के लिए किया। तीन स्कूल बनवाये। कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर खोले। औरतों के रोज़गार के अवसर जुटाये। उसकी वजह से गांव की औरतों से मेरा मिलना-जुलना काफ़ी रहता है। औरतों की दो-तीन बड़ी समस्याएं हैं। मैं उन समस्याओं के प्रति चिंतित भी रहती हूं। औरत की सेहत का मामला लें। हम उनकी शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता की बातें करते हैं, मगर उनकी सेहत पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह बहुत ही अफसोस की बात है कि आज़ादी के 55 सालों बाद भी हम गांव की औरतों को सेहत की सुविधा नहीं दे पाये हैं, ख़ासकर देहात की औरतों को सुरक्षित मातृत्व तक नहीं दे सके। हिंदुस्तान में जितनी औरतें सिर्फ़ एक साल में गर्भ के कारण मरती हैं, यूरोप में उतनी कुल औरतें एक साल में नहीं मरतीं। विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें 70 फ़ीसदी औरतों को बचाया जा सकता है। बहुत साधारण-सी दवाएं हैं। उनका एनीमिया नियंत्रित हो। टिटनेस प्रतिरोधी सूई दे दें। और भी कई छोटी चीज़ें हैं। इसी को यूं कहूं कि इतनी मौतें एयरक्रैश में होतीं तो सरकारें बदल जातीं। मगर औरतों की कौन परवाह करता है? उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति है या दूसरी नीतियां हैं, मैं उनके बारे में भी सोचती हूँ। एक नियम है कि 18 साल से कम उम्र में यदि लड़की की शादी हो जाती है, तो उसे कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। यह तो पीड़ित व्यक्ति को ही सजा देने की बात हो गयी। हम व्यवस्था में सुधार नहीं चाहते। आप अधिकारियों को दंडित करने के बजाय पीड़ित को दंडित कर रहे हैं। 18 साल से कम उम्र में शादी कर लेने का फ़ैसला लड़की खुद नहीं करती। फ़ैसला तो उसके परिवार के लोग करते हैं। उसके बाद नौकरी और रोज़गार के मौक़े सरकार उससे छीन रही है, फिर वह औरत क्या करेगी? ऐसी नीतियों में सुधार होना चाहिए।

अजय ब्रह्मात्मज : एक सांसद के तौर पर आप क्या कर सकती हैं? क्या उपलब्धियां रही हैं आपकी? 

शबाना आज़मी : सांसद के तौर पर मेरी जो ताक़त है, वही मेरी कमज़ोरी है। मेरी आवाज़ आज़ाद है। मैं राष्ट्रपति द्वारा नामांकित सांसद हूं। मैं जिस मुद्दे पर जब भी चाहूं, बात कर सकती हूं और करने की मुझे आज़ादी है और करती भी हूं। मेरी कमी यह है कि मैं किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्य नहीं हूं जो मेरी बात का समर्थन करे, तो उसे नीति में ला पाना मुश्किल होता है। इसके बावजूद कुछ नीतियों को मैंने प्रभावित किया है। वह औरतों की सेहत को लेकर है। नारी सशक्तिकरण की समिति की मैं सदस्य हूं। शहरी और ग्रामीण विकास की स्थायी समिति की सदस्य हूं। झुग्गी-झोपड़ी की नीति और सस्ते आवास की नीति को प्रभावित कर सकती हूं। दुर्भाग्य से जनसंख्या के मुद्दे पर जितना काम होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता है। जनसंख्या पर लोगों की सही समझदारी नहीं है। अब भी कहते हैं कि एक अरब जनसंख्या हो गयी। अब क्या होगा किसी के पास नीति नहीं है। जनसंख्या नियंत्रण को ज़बरदस्ती नहीं लागू किया जा सकता। आवश्यकता है कि हम अपनी व्यवस्था में ही कुछ करें। लोगों को चुनाव का मौक़ा दें।  प्रसव के समय माता और बच्चे की मौत हो जाती है। प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों की बुरी हालत है। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम बहुत पीछे हैं। इसकी वजह शायद यही है कि स्वास्थ्य किसी भी राजनीतिक पार्टी की प्राथमिकता नहीं है। किसी के राजनीतिक एजेंडे पर सेहत नहीं है।

अजय ब्रह्मात्मज : देश की वर्तमान राजनीति में चल रही विभिन्न धाराएं आपको किस तरह प्रभावित कर रही हैं? क्या राजनीतिक पार्टियां देश हित में कुछ कर रही हैं?

शबाना आज़मी : यह जो सरकार आयी है, इसने जिस तरह से सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है, वह इस देश के लिए बहुत ख़तरनाक है। हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ताक़त है उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब, उसकी सामासिक संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता। धर्म के नाम पर इस तरह खून-खराबा करना, सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना… इन चीज़ों से किसी पार्टी को तुरंत फ़ायदा हो सकता है, मगर लंबे समय में यह देश को तितर-बितर कर देगा। तहस-नहस कर देगा। इस तरह की राजनीति से हम जितना दूर रहें उतना ही अच्छा रहेगा। हमारी आज की लड़ाई हिंदू-मुसलमान के बीच की नहीं है। सांप्रदायिक ताक़तें इसे इसी रूप में पेश करती हैं। सही लड़ाई धर्मनिरपेक्ष, उदार और सांप्रदायिकत  तत्वों के बीच है। वक़्त तो यह है कि हम धर्मनिरपेक्ष और उदार ताक़तों के साथ हो जाएं और सांप्रदायिक तत्वों से लड़ें। सांप्रदायिक तत्व तो आपस में दोस्त हैं। विभाजन धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में है। धर्म को समाज से निकालना मुश्किल है। हिंदू और मुसलमान धर्म को सही स्वरूप में पहचानें। अपने धर्म का पालन करें और देश के हित में काम करें।

अजय ब्रह्मात्मज : देश की मुसलमान महिलाओं की क्या समस्याएं हैं? उनसे रूबरू होने पर आप क्या महसूस करती हैं? 

शबाना आज़मी : मुसलमान औरतों की समस्याएं बाकी औरतों से अलग नहीं हैं। देखा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्य प्रदेश की औरतों का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स नीचे है। किसी भी समाज में औरतों के साथ अल्पसंख्यकों का ही व्यवहार होता है‌। अगर आप मुसलमान औरत हैं तो दोहरे हाशिये पर चली जाती हैं। उससे निकलना चाहिए। निकलने का बेहतर ज़रिया है शिक्षा। औरतों के प्रति समाज का नज़रिया बदलना चाहिए। बच्चों को पढ़ाया जाता है कि मां रसोई में है और पिता दफ़्तर में है। सिर्फ़ आर्थिक आमदनी से बदलाव नहीं होगा। उनमें आत्मनिर्भरता भी होनी चाहिए। एक औरत कई शिफ्ट में काम करती है। पैसों पर उसका नियंत्रण हो तो बात बनती है।

अजय ब्रह्मात्मज : जावेद अख्तर की पत्नी के तौर पर आप कितनी संतुष्ट हैं? इस भूमिका में खुद को कहां पाती हैं? 

शबाना आज़मी : जावेद अख्तर के साथ मेरा बहुत ग़ैरमामूली रिश्ता है। जावेद बहुत ही ग़ैरमामूली इंसान है। सचमुच। मैं अपने अब्बा को फेमिनिस्ट समझती थी। सोचती थी कि मेरा मियां भी वैसा हो। जावेद भी संपूर्ण फेमिनिस्ट हैं। बराबरी में यक़ीन करते हैं। हम लोग मियां-बीवी तो हैं ही, एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी हैं। हमारा सपोर्ट सिस्टम बहुत अच्छा है और उसके साथ ही आलोचना करने की भी आज़ादी है। जावेद मुझ से अपेक्षा नहीं करते कि मैं उनके लिए उस तरह के काम करूं जो घर की बीवी करती हैं। मैं उनसे यह उम्मीद नहीं करती कि वे उस तरह के काम करें जो शौहर करते हैं। हम एक-दूसरे की इज़्ज़त करते हैं। एक-दूसरे के काम की बहुत इज़्ज़त करते हैं। किसी भी संबंध में वह रिश्ता ही सब कुछ हो जाए तो उस पर बहुत भार पड़ता है। अपनी अलग-अलग ज़िंदगी भी महत्वपूर्ण है। फिर आपके रिश्ते को बल मिलता है। जावेद से मेरी शादी नहीं होती तो मैं इतने सारे काम नहीं कर पाती। इसमें जावेद का बहुत बड़ा हाथ है। अब्बा का बहुत बड़ा हाथ है। मम्मी और भाई का हाथ है। पूरे परिवार का समर्थन मिला है। उनसे मुझे ताक़त मिलती है कि मैं पर लगाकर उड़ सकूं। उनके बिना यह मुकम्मल नहीं हो सकता था।

मोब. : 9820240504

 


3 thoughts on “शबाना आज़मी से एक बातचीत / अजय ब्रह्मात्मज”

  1. नया पथ का यह मुहिम बहुत जरूरी पहल है। प्रगतिशील जनवादी चेतना के अलख जगाने का यह प्रयास हमे सांस्कृतिक गतिविधियों से जोड़ने का उचित माध्यम बन सकता है।
    सादर नमन

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  2. एक जरूरी साक्षात्कार , शबाना जी के व्यक्तिगत एवं सामाजिक सोच पर केंद्रित यह इंटरव्यूअच्छा लगा

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