कला कौशल की किताब ‘फ़ेसबुक तुक’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। संस्मरण और समीक्षा जैसी विधाओं को समेटती 772 पृष्ठों की यह पुस्तक साहित्य, समाज और सियासत, सबसे वास्ता रखती है। कहानीकार के रूप में ‘1857 के नायकों पर केंद्रित कहानी-संग्रह ‘तमन्ना थी कि वतन आज़ाद हो जाए’ के रचयिता कला कौशल समाजवैज्ञानिक विषयों पर भी गंभीर लेखन करते रहे हैं। ‘फ़ेसबुक तुक’ उनकी इस रेंज का भी प्रतिनिधित्व करती है। फिलहाल पढ़िए इस पुस्तक के एक संस्मरणात्मक अध्याय का अंश :
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वहाब खान और अज़हर अली अंसारी ने जब ‘फ़त्ह मंज़िल’ की अपनी यात्रा को नाकामयाब और बकवास बताया तो मैंने उसका प्रतिवाद किया था। यह ठीक है कि उन्होंने अपने उसूल को आपके काम से बड़ा महत्त्व दिया, पर आप यह क्यों भूल जाते हैं कि एक ऐसी शख़्सीयत ने अपने रोज़नामचे में आपको जगह दी, जो ख़ुद एक तवारीख़ है। जिनका इत्तेसाल न केवल फख्रे़ क़ाबिल है,बल्कि आपके जीवन की एक अहम उपलब्धि भी।
वे ख़ुदा तो नहीं?
हां, यह सच है कि वे खु़दा नहीं। पर अपनी इल्मीयत में उससे… मेरे लफ़्ज मुंह में ही लटक गये। वे नाखु़दा हैं। मैंने टालना चाहा।
मेरा यह अंदाज़े बयां शायद मेरे अज़ीज़ दोस्त को नागवार लगा, पर वह ख़ामोश ही रहा।
ऊपरी बातें ‘फ़त्ह मंज़िल’ से लौटने के बाद की हैं।
जब हम लोग (16-10-2000) आज़मगढ़ से चल कर खोरासन रोड रेलवे स्टेशन पर उतरे तो हमारे क़दम मेजवां ग्राम की ओर रफ़्तार पर थे। अतः इस सुहाने सफ़र को शादाब और यादगार बनाने के लिए ही हम लोगों ने शेरो सुखन का रंग जमाना शुरू किया। सर्वप्रथम मैंने चंद नज़्मों को लब पे लाया तो वे दोनों फड़क उठे।
अरे,वाह! क्या बात है! क्या खूब कहा!
वहाब और अज़हर के इस तरह दाद देने से मैं भी सुरूर में आने लगा। पूरी अदा से उन्हें शुक्रिया कह अगला शेर पूरी तबीयत से कहा- “होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा…।”
उसने ‘इरशाद’ फ़रमाया और इस तरह मैंने पूरी नज़्म कह डाली। उसने ‘एक और…एक और’ की रट लगा दी। मैं भी फूले न समाया और फिर एक नज़्म शुरू कर दी- “आप भी बैठ जाइए कैफ़ी,देख कर घना साया, अपने सर को छुपाइए कैफ़ी।”
इस बार उसने शाबाशी नहीं दी, मुझे घूरा। मुझे लगा उसकी संदेह की नज़रें मेरे अंदर धंसी जा रही हैं। “यह आपकी नज़्म है?” उसने कड़क कर पूछा।
“मैंने कब कहा कि यह मेरी नज़्म है,पहले वाली भी मेरी नहीं थी।” मैंने सफ़ाई दी।
“फिर किसकी थी?” उन लोगों की उत्सुकता उठान पर थी।
“जिनके यहां हम लोग जा रहे हैं। जी हां, यह कैफ़ी आज़मी के पहले मजमूआ ‘आख़िरी शब’ के कुछ मिस्रे थे।”
वह चौंका और मुझे लगा मेरा जादू चल गया। तभी आधे घंटे का वक़्त पूरा हो चला था और हम लोग मेजवां की सरहद में तशरीफ़ रख रहे थे। सरहद पार एक ज़ईफ़ दाई ने हमें बताया था कि सामने जो बंगला दिखाई दे रहा है, वह कैफ़ी साहब का घर है। वहां पहुंच कर ‘फ़त्ह मंज़िल’ लिखे गेट पर हमने दस्तक दी।अंदर से आवाज़ आई, “कौन?”
“हम लोग सिवान से आए हैं,” वहाब ने कहा था।
आवाज़ की सहमति से हम लोग गेट के अंदर दाख़िल हुए। तभी बाएं अंग में फ़ालिज की पीड़ा लिए हुए वे ख़ादिम गोपाल की मदद से अपनी लाइब्रेरी से सीधे हम लोगों के बीच आये। अपने कैंपस स्थित आम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर लगी चारपाई पर आकर लेट गये। जहां पेड़ की विपरीत दिशा में एक बड़ा-सा छाता अपने स्टैंड पर मानो सहस्त्र फण लिए खड़ा था। और बेंत की आरामदेह कुर्सियां क़रीने से मेहमानों का इंतज़ार कर रही थीं। घंटी बजी तो लंबे तार के सहारे टेलिफ़ोन भी लाकर रखा गया।
मैंने कला कौशल की सदारत में छपी पत्रिका ‘वापक’-1 के रज़ा अश्क अंक की प्रति उन्हें दी। उसके राय-मंडल के सदस्य गण डा.केदारनाथ कंत, डा.चंद्रभूषण त्रिवेदी, श्री रामेश्वर प्रशांत, श्री शिव शंकर ठाकुर, श्री कुंवर कन्हैया का साहित्यिक, सांगठनिक तआरुफ़ दिया तो वे बेहद ख़ुश हुए। वहाब भी ख़ुश हुआ, चलो खु़शनुमा माहौल में दिल की बात छेड़ेंगे। जब हमारी उनसे दरमियानी झिझक टूटी तो ऐसा ही हमने किया भी।
पर हाय,यह क्या! शिब्ली नैशनल कॉलेज़ में उसकी दाख़िले संबंधी पैरवी के मेरे दरख़ास्त को एक झटके में ख़ारिज करते हुए वे नाराज़ हो गये। उधर वहाब भी असंतुष्ट! एडमिशन टेस्ट के सवालों के बारे में जब वहाब ने कहा कि उसका कुरान की आयतों वाला चैप्टर ही ख़राब गया, तो उन्होंने कहा कि वह तो अब मुझे भी याद नहीं।
तभी तीन लोग और आ गये। प्रसंग बदला, बातें बदल गयीं। उम्र के पचासीवें वर्ष में कैफ़ी साहब गुज़िश्ता दिनों को याद कर थोड़ा जज़्बाती, थोड़ा आत्मलीन हो जाते हैं। उसी अंतर्ध्यान के क्षणों में मुझे कभी किसी अख़बार में छपा उनका वह इज़हारे दर्द याद हो आया जिसमें उन्होंने कहा था कि जंगे आज़ादी में हमने ख़ून जलाया था, पता नहीं अब लोग क्या जलाते हैं!
उनका नाम तो इंक़लाबियों की फ़ेहरिस्त में पहले ही दर्ज हो चुका था। अतः अंग्रेज़ी हुकूमत की टेढ़ी नज़र उन पर लगी थी। 1942 की तहरीक जब अपने पूरे शुमार पर थी तो कानपुर रेलवे स्टेशन पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। और वतन परस्ती के जुर्म में इंक़लाबी कैफ़ी को 3 महीने की क़ैद हो गयी। उन क़ैद के यातनापूर्ण दिनों को पहले उन्होंने बनारस के सेंट्रल जेल में बिताया, फिर नासिक जेल भेज दिए गये। यह सब उन्होंने बाज़बान कहा था। इसी बीच फ्रिज की ठंडी जलेबी और पानी आ गया। इस तरह एक बार फिर हमारी गुफ़्तगू पर रोक लग गयी।
अगली बार पहल उन तीन लोगों की तरफ़ से हुई थी। कैफ़ी साहब का कहना था कि जब वे महानगर मुंबई से लौट कर अपने गांव आए तो यहां के हालात एकदम बदतर थे। ग्रामीणों के लिए बाहर से आने वाले पटवारी और डाकिए ही सबसे बड़े आदमी होते थे। जब कैफ़ी साहब ने गांव में प्राइमरी स्कूल खोलने की बात की तो लोगों ने मसख़री की। कहा कि हमारे बच्चे भैंस चराएंगे कि स्कूल में पढ़ेंगे ! ‘बच्चे ना पढ़ेंगे तो तुम अपनी भैंस ही बांधना, पर स्कूल तो बन जाने दो,’ कैफ़ी साहब ने उन्हें समझाया था।
इस पर वहां हाज़िर सभी लोगों के चेहरे पर हंसी उभर आयी। लोगों की हंसी देख वे भी मुसक दिये।
हमारी कोशिशों से गांव में स्कूल बन गए और उनके बच्चे पढ़ते भी हैं।अब मेरी जितनी उम्र बची है, उसे मेजवां की तरक़्क़ी में लगा देना चाहता हूं। कैफ़ी साहब ने यह बड़े इत्मीनान से कहा था। लड़कियों के डिग्री कॉलेज़ खोले जाने की तरक़्क़ी पर उन्होंने सुकून व्यक्त किया था और पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाकर उन लोगों को रुख़सत किया।
एक बार फिर ख़ामोशी छा गयी। उधर वहाब की नोंक मैं साफ़ महसूस कर रहा था। ज़ाहिर है, उसका इशारा अपनी पैरवी, सिफ़ारिश के लिए फिर से गुज़ारिश करने की ओर था। पर मैंने उसे निराश करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ अर्थात् अंजुमन तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़ीन के लखनऊ (स्वर्ण जयंती समारोह) जलसे में उठे हंगामेदार विवाद का ज़िक्र कर दिया। इस संबंध में तत्कालीन ‘नवभारत टाइम्स’ की उस ख़बर की ओर उनका तवज्जोह ले जाना चाहा, जिसकी सुर्ख़ी थी कि ‘नामवर भी सांप्रदायिक निकले।’
इस पर वे कुछ लम्हा ख़ामोश रहे, फिर उम्मीद के विपरीत संक्षिप्त-सा जवाब दिया था। दरअसल उस जलसे में कुछ हिंदी वाले उर्दू को बंटवारे की ज़ुबान कह रहे थे। उन्होंने इसकी मुख़ालफ़त की, इसमें नामवर सिंह और बाबा नागार्जुन हमारे साथ थे।
आगे इस संबंध में और कुछ पूछे जाने की गुंजाइश न देख, मैंने वामपंथी लेखक संगठनों के बीच फासिस्ट फ़ोर्स के बढ़ते ख़तरे के मद्देनज़र विलय संबंधी एक लगातार चलने वाले डायलॉग की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। कैफ़ी साहब इस सवाल से तक़रीबन बचते हुए ख़ामोश ही रहे। उनकी ख़ामोशी लंबी होती देख मैंने फ़नकारों,इल्मकारों के सोशल कमिटमेंट का सवाल दरपेश कर दिया। वहाब की उकताहट को नज़रअंदाज़ करते हुए,मैंने कहा-“गुस्ताख़ी माफ़,सर, मजरूह सुल्तानपुरी, अली सरदार जाफ़री, राही मासूम रज़ा, राम विलास शर्मा, शील, भैरव प्रसाद गुप्त और केदारनाथ अग्रवाल आदि एक-एक कर चले जा रहे हैं, नयी नस्ल का प्रेरणा-स्रोत सूखता जा रहा है, ऐसे में आपकी निस्बत में बैठ,बतिया कर बहुत सब्र,सुकून का एहसास हो रहा है। मैंने महसूस किया कि वे लेखकीय प्रतिबद्धता के मुद्दे पर बहुत संजीदा हैं। मेरे इस सवाल पर उन्होंने मुड़ कर मुझे देखा और हर्ष पूर्ण सहमति व्यक्त की।
जब मैंने हसरत जयपुरी का ज़िक्र किया तो उनका रुख़ एकदम रंजीदा रहा। यहां ग़ौरतलब है कि फिल्म्स के नगमा निगारों में चाहे जितना जमालीयात हो, कशिश हो, चाहे जितना ग्लैमर हो, वह अदब से छोटी चीज़ मानी जाती है। हसरत जयपुरी का उर्दू अदब में कोई ख़ास असर नहीं। कैफ़ी साहब की रंजीदगी इसी बात का सबूत थी।
मौन का पसार देखकर मेरे दिल में सवालों का सैलाब उतर आया। पर बग़ल में पड़े कमबख़त टेलिफ़ोन ने घंटी बजा दी और इस तरह हमारे तबादले ख़याल पर रोक लग गयी। मैंने रिसीवर उनके दाहिने हाथ में थमा दिया। वे फ़ोन वार्ता में मशग़ूल हो गये। जब वे वापस रिसीवर मेरे हाथ में देने को हुए कि इत्तेफ़ाक़न एक आदमी ने आकर हमारे क़यास पर पानी फेर दिया। पल भर के लिए वे हमारी तरफ़ मुख़ातिब हुए और गोपाल से कहा, जो उन्हें दवा देने के लिए खड़ा था कि डीएम साहब को फ़ोन लगाओ, और मुझसे कहा- सॉरी, कॉमरेड!
एतबार लिए बैठे वहाब से कहा-“माफ़ करना, मैं तुम्हारा काम नहीं कर सकता।”
फिर क्या था, हम लोग आदाब की मुद्रा में खड़े हुए और ‘फ़त्ह मंज़िल’ से बाहर हो गये। हम लोग फिर फूलपुर (खोरासन रोड रेलवे स्टेशन के बाहर का क़स्बा) जाने वाली सड़क पर आ गये। वे दोनों मायूस थे। अतः मुझे भी मायूसी का जामा पहनना पड़ा। जब उसकी ज़बान खुली तो उस पर शिकवे के अल्फाज़ थे। वे खुदा तो नहीं? उसके तंग मिज़ाज और भारीपन को हल्का करने की नीयत से मैंने फिल्म्स की हल्की-फुल्की बातों का तज़्किरा शुरू कर दिया। मैंने कहा- “शबाना उनकी बेटी है और मशहूर शाइर जांनिसार अख़्तर उनके समधी हैं।” मुझे लगा, मेरा सिक्का ठीक नहीं बैठा, अतः वह मायूस ही रहा। मैंने फिर कहा-“लुधियाना वाले साहिर साहब का नगमा ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा’… सुना है न ! मरहूम साहिर उनके अज़ीज़ दोस्त थे, जैसे मैं आपका।” वह सहज होने लगा था। मुझे लगा, वह इस तरह की बचकानी बातों से ख़ुश हो रहा है। अतः मैंने उसे तूल दिया। फिर कैफ़ी साहब के एक सुपरहिट नगमे ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ के मुखरे को तरन्नुम से दोहरा दिया। अब वह बिलकुल असर पिज़ीर हो रहा था। जनाब, जिस क़ौमी तराने से आप इस तरह मुतासिर हो रहे हैं, उसके लकब और कोई नहीं, मोहतरम कैफ़ी साहब ही हैं। मैं लगातार कहे जा रहा था।
अब उसने हारे हुए ग़नीम की तरह अंतिम हथियार उठा लिया-“वे ख़ुदा तो नहीं?”
मैंने उसके हथियार का हंस कर मुक़ाबला किया। एक ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा- “वे हमारे अजनबी ख़ुदा हैं।”और इस तरह अपने को एक बड़ी हुज्जत में शहीद होने से बचा लिया।
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यमुना कृष्णा पुरम्, यशपाल नगर, न्यू कॉलोनी, बाघा डाकघर-सुहृद नगर, बेगूसराय, बिहार
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