जन्मशती पर आलोचक चंद्रबली सिंह का स्मरण / चंचल चौहान


20 अप्रैल 2024 से आलोचक और जनवादी लेखक संघ के संस्थापक महासचिव चंद्रबली सिंह का जन्मशती वर्ष आरंभ हुआ है। इस अवसर पर उन्हें याद कर रहे हैं चंचल चौहान। 

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हिंदी के जाने माने आलोचक चंद्रबली सिंह का जन्म 20 अप्रैल 1924 को गाज़ीपुर ज़िले के रानीपुर गांव में हुआ था जहां उनकी ननिहाल थी। शुरू शुरू में उनकी पढ़ाई लिखाई वाराणसी में हुई । बाद में उन्होंने बी ए और एम ए (अंग्रेज़़ी, 1944) इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। उसके बाद वे बलवंत राजपूत कालेज आगरा में और बाद में वाराणसी के ही उदयप्रताप कालेज में अंग्रेज़़ी के प्राध्यापक हो गये। अपने सेवा कार्य से 1984 में सेवामुक्त हो कर स्वतंत्र लेखन और संगठनात्मक कार्य में लग गये। 23 मई 2011 को चंद्रबली सिंह का देहावसान हो गया।

चंद्रबली जी से मेरा पहला परिचय 1978 में ‘जनवादी लेखन के दस वर्ष’ पर तीमारपुर में सत्यवती कालेज में आयोजित ‘लेखक शिविर’ में हुआ था। मैं आयोजन समिति का सदस्य था तो उस समय उनसे औपचारिक दुआ सलाम ही हुई, कोई साहित्यिक चर्चा या किसी लेखकीय मुद्दे पर या किसी लेखक को लेकर गपशप नहीं हुई। मेरा पहला इम्प्रैशन उत्साहवर्द्धक नहीं था। यहां यह सच्चाई क़बूल करने में कोई हर्ज़ नहीं कि उस समय तक न तो मैंने उनका लिखा हुआ कुछ पढ़ा था और न उन्होंने उस दौर में लघु पत्रिकाओं में छप रहे मेरे लेख ही पढ़े थे, इसलिए हम दोनों ‘अपरिचय’ के शिकार थे। बाद में 1980 में मुंशी प्रेमचंद की जन्मशती पर जेएनयू के तत्वावधान में आयोजित एक अखिल भारतीय सेमिनार के अवसर पर जनवादी लेखक संघ के गठन का विचार सामने आया तो उस दिन के बाद शुरू हुई गठन की प्रक्रिया में चंद्रबली सिंह को याद किया गया। उस दौर में सभी नामचीन ऐसे लेखकों से संपर्क किया गया जो 1975 की कांग्रेस की ऐमर्जेंसी के प्रतिरोध में और जनवाद की रक्षा में अपने लेखन से जनपक्षरधरता का इज़हार कर रहे थे। उस दौर में पुराने प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े अनेक लेखक आज के दौर के अनेक अंधभक्तों की तरह तत्कालीन तानाशाही निज़ाम के साथ खड़े थे। उनसे अलग, चंद्रबली सिंह ऐसे लेखकों में थे जिन्होंने अपने जनवादी मूल्यों के लिए अपनी लोकदृष्टि को धूमिल नहीं होने दिया, सत्ता से किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया। संकट के ऐसे दौर के लिए कभी मुक्तिबोध ने कहा था, ‘संक्रमणकाल है धैर्य धरो, ईमान न जाने दो।’ हिंदी-उर्दू के लेखकों में ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी थी, जो 1975 की कांग्रेस की तानाशाही प्रवृत्ति के प्रतिरोध में और अभिव्यक्ति की आज़ादी समेत जनता के जनवादी अधिकारों की रक्षा के सवाल पर सत्ता के विरोध में मज़बूती से खड़े थे, जबकि डांगेपंथी कम्युनिस्ट धड़े के अनुयायी लेखक तक जनवाद पर पनप रहे ख़तरे को नहीं पहचान पा रहे थे। उस दौर की तानाशाही रंगत की सत्ता के प्रतिरोध में ही एकजुट हुए लेखकों के विशाल समुदाय ने ‘जनवादी लेखक संघ’ का गठन किया। संगठन को वैचारिक आधार देने वाले घोषणापत्र और संविधान के मसौदे के लेखन की ज़िम्मेदारी चंद्रबली सिंह को दी गयी।  उसे पूरे देश में लेखकों के पास भेजा गया जो संशोधन आये उन पर एक कोर कमेटी ने विचार विमर्श किया और तब चंद्रबली सिंह ने उसे अंतिम रूप दिया जो  फ़रवरी 1982 के स्थापना सम्मेलन में पारित हुआ।

1982 के जनवादी लेखक संघ के उसी स्थापना सम्मेलन में वे महासचिव निर्वाचित हुए थे और 1987 में वे उसके अध्यक्ष बने।

विषयांतर के तौर पर यहां यह बताना ज़रूरी है कि आख़िर ‘जनवादी लेखक संघ’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में आधारभूत भेद क्या है। असली भेद भारत के सामाजिक  यथार्थ के वर्गीय विश्लेषण को ले कर था। प्रलेस ने ग़लत समझ की वजह से उस दौर में उभर रही एक दलीय तानाशाही का समर्थन कर दिया था, जिसे लेखकों के विशाल समुदाय ने ग़लत क़दम बताया था। दर असल, जलेस का गठन भारत के लेखकों के उस अनुभव से गुज़रने के बाद हुआ था, जिसमें उस समय देश के शोषक शासक वर्ग भारतीय संविधान में मिली नागरिक आज़ादियां छीनने और एक दलीय तानाशाही थोपने की कोशिशें कर रहे थे। आज 21वीं सदी में वही कारपोरेट पूंजी आरएसएस-भाजपा के माध्यम से संविधान ख़त्म करने और जनता के जनवादी अधिकार छीनने की ताबड़तोड़ कोशिश कर रही है। उस दौर में कारपोरेट पूंजी ने कांग्रेस के माध्यम से ऐमर्जेंसी के हथियार का प्रयोग किया था, जिसमें लेखकों की कलम की आज़ादी छीन ली गयी थी। भारतीय समाज के बदले हुए यथार्थ पर बहस मुबाहिसे के बाद जो साझा समझ बनी, चंद्रबली सिंह ने नये संगठन के मूलभत नज़रिये के तौर पर उसे आत्मसात करके संगठन के घोषणापत्र के मसौदे में रखा, जिसमें संगठन का केंद्रीय सरोकार सूत्रबद्ध था, ‘जनवाद की रक्षा और विकास’, क्योंकि आज़ादी के बाद देश में जनतंत्र को ख़तरा खुद उन्ही वर्गों से आ रहा था जिनके हित साधन के लिए यह जनतंत्र क़ायम किया गया था; मगर व्यापक जनसमुदाय भी उससे कुछ न कुछ हासिल करने लगा था और कम से कम संगठित हो कर अपनी प्रतिरोधी आवाज़ तो उठा सकता था जिसे दबाने के प्रयास चल रहे थे, प्रेस बिल आदि आ रहे थे। अपने समाज की इस पहचान को ही सूत्रबद्ध करना था जिसे चंद्रबली सिंह ने घोषणापत्र के मसौदे में रखा था और इसी पर्सपेक्टिव से जलेस की एक अलग पहचान बनी थी। 1987 में जब डा. नामवर सिंह ने ‘बासी भात में खुदा का साझा’ शीर्षक से उर्दू पर हमला बोला और शुकदेव सिंह ने भी उर्दू के ख़िलाफ़ लिखा तो जलेस ने इन लेखकों के द्वारा उर्दू के प्रति अपनाये गये रुख़ की आलोचना की और अपने जनवादी रुख़ को स्पष्ट करते हुए जो प्रस्ताव जारी किया उसे भी चंद्रबली सिंह ने उसी पर्सपेक्टिव के तहत तैयार किया था जिसमें कहा गया था कि ‘उर्दू की रक्षा और विकास का सवाल देश में जनवाद की रक्षा और विकास से जुड़ा हुआ है।’ इस प्रस्ताव को उर्दूभाषी बुद्धिजीवियों ने सबसे सही और तर्कसंगत बताया और उर्दू अख़बारों में हमारे रुख़ को सराहते हुए संपादकीय लिखे गये। चंद्रबली सिंह की नेतृत्वकारी भूमिका का यह छोटा सा उदाहरण है।

बनारस में चंद्रबली सिंह जनमशती समारोह

 

उनमें जो बौद्धिक क्षमता थी वह उनकी सर्वहारावर्ग के प्रति अटूट निष्ठा से आयी थी जिससे वे अपने समय के सामाजिक यथार्थ को सही तौर पर चीन्ह पाते थे। 1984 का दूसरा सम्मेलन वाराणसी में ही हुआ था, हालांकि महासचिव की रिपोर्ट सामूहिक रूप से लिखी गयी थी, जलेस में यही चलन है, मगर उसे एक सूत्र में बांध कर जो अंतिम रूप उन्होंने दिया उसमें ऐसे भविष्य के संकेत उन्होंने जोड़े जो बाद में सही साबित हुए। मसलन, उसमें देश की एकता और अखंडता के लिए ख़तरा पैदा होने की आशंका सामाजिक यथार्थ के केंद्रीय मुद्दे के तौर पर थी, और सम्मेलन के एक सप्ताह बाद ही देश की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में वह ख़तरा मूर्त हो कर सामने आ गया, साम्राज्यवाद के द्वारा देश के बाल्कनाइजे़शन की साज़िश के तहत विखंडन की एक बड़ी खाई दो समुदायों के बीच उस दौर में पैदा कर दी गयी जिसका उल्लेख रिपोर्ट का केंद्रीय सूत्र था। इसी तरह बाबरी मस्जिद के बहाने हिंदू फ़ासीवादी ताक़तों के आक्रामक होते जाने की आशंका भी उसी रिपोर्ट में जतायी गयी थी वह भी सच साबित हुई। ध्यान रहे कि राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद का ताला 1986 में खुलवाया था, जलेस की रिपोर्ट 1984 में लिखी गयी थी। सामाजिक यथार्थ पर उनकी अदभुत पकड़ का यह उदाहरण है। डा. रामविलास शर्मा उनकी इस प्रतिभा को जानते थे और उन्होंने अपनी एक किताब तक चंद्रबली सिंह को समर्पित की थी।

आलोचना की उनकी दो पुस्तकें, लोकदृष्टि और हिंदी साहित्य और आलोचना का जनपक्ष काफ़ी सराही गयीं। वे वाराणसी से प्रकाशित अख़बार, आज के रविवारीय संस्करण के साहित्यिक कालम में काफ़ी अरसे तक लिखते रहे। इसके अलावा, हंस, पारिजात, नयी चेतना, नया पथ, स्वाधीनता, कलम आदि अपने समय की अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहे। एक अनुवादक के रूप में भी उनके काम की गुणवत्ता का हर कोई प्रशंसक रहा। उनके द्वारा पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अनुवाद का एक उत्कृष्ट संचयन साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया, नाज़िम हिकमत की कविताओं का अनुवाद, हाथ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन की चुनी हुई कविताओं के अनुवाद संचयन सीरीज़ में वाणी प्रकाशन ने छापे। इसके अलावा उन्होंने ब्रेख़्त, मायकोव्स्की, आदि की हज़ारों पृष्ठों में फैली हुई कविताओं के हिंदी रूपांतर किये थे। दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश शायद अब भी अप्रकाशित हैं। इसके अलावा नागरी प्रचारिणी सभा के विश्वकोश की अंग्रेज़़ी साहित्य से संबंधित जो भी प्रविष्टियां हैं, उन्हें चंद्रबली सिंह ने ही लिखा था।

वे युवा काल में ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गये थे। पार्टी के विभाजन के बाद वे सीपीआइ(एम)के साथ रहे और जीवन भर अपनी प्रतिबद्धता से विचलित नहीं हुए। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के कई कामरेड उनसे अनेक मसलों पर सलाह लेने आते थे। अपनी वैचारिक दृढ़ता और भारत के शोषित जनगण के संघर्षों के प्रति अडिग लगाव के कारण वे हम जैसे बाद की पीढ़ी के लेखकों के प्रेरणा स्रोत रहे।

मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनके साथ काम करने का अवसर 1982 में जनवादी लेखक संघ के गठन के समय से मिलता रहा।  सांगठनिक कामकाज की केंद्रीय ज़िम्मेदारी 1984 में मेरे सिर आ गयी और वे भी अपने कालेज से रिटायर हो कर संगठन में ज़्यादा समय देने लगे, वाराणसी से दिल्ली आ कर आफ़िस में ही काफ़ी दिनों तक रह जाते थे, रोज़ाना ही मिलने और उन्हें क़रीब से जानने का मौक़ा मिला और यह सिलसिला 2003 तक चला, उनकी खूबियों और कमज़ोरियों का भी अहसास इसी दौर में हुआ।

उनकी पहली पुस्तक, लोकदृष्टि और हिंदी साहित्य, पहले 1956 में वाराणसी से छपी थी जिसमें उसकी भूमिका के अनुसार ‘1947 और 1950 के बीच लिखे गये’ आलोचनात्मक लेख हैं, जब इसका दूसरा संस्करण पीपुल्स लिटरेसी से 1986 में छपा तभी इसकी प्रति हमें मिली, उन्होंने खुद ही अपने हस्ताक्षर के साथ एक प्रति मुझे दी, तभी उनके आलोचनाकर्म से विधिवत परिचय हुआ। इस पुस्तक में शामिल लेखों को पढ़ने से एक बात तो साफ़ तौर से सामने आती है कि वे उस दौर के दूसरे आलोचकों, ख़ासतौर से प्रकाशचंद्र गुप्त और रामविलास शर्मा से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे रचनाकार की निजी ज़िंदगी पर ध्यान केंद्रित न करके रचना को रचना के तौर पर देखते हैं और उसमें से ही रचना में निहित विचारधारा की पड़ताल करते हैं। धर्मवीर भारती के साथ उनका एक परिसंवाद भी इसमें छपा है उससे उनके आलोचनात्मक दृष्टिकोण का पता चलता है। ‘आलोचना की कुछ समस्याएं और हिंदी आलोचना’ नामक निबंध जो पुस्तक के अंत में छपा है, उनकी अध्ययनशीलता और विवेकसम्मत तर्कपद्धति का उदाहरण है। ज़्यादातर लेखों में कृतियों का विश्लेषण है, आचार्यत्व की मुद्रा में लिखे गये सैद्धांतिक लेख नहीं; जब कि हमारे समय के छोटे बड़े आलोचक कृति-विश्लेषण से बच कर सिर्फ़ सिद्धांतों का या पश्चिमी दुनिया में प्रतिपादित सिद्धांतों की जुगाली करके आचार्य की मुद्रा अपनाये घूमते हैं।

उनकी दूसरी आलोचना पुस्तक, आलोचना का जनपक्ष, 2003 में छपी। इसमें तीन खंड हैं जिनमें पहले में साहित्य के कुछ मसलों पर सैद्धांतिक लेख हैं, दूसरे खंड में मूल्यांकनपरक लेख हैं और तीसरे खंड में कुछ दस्तावेज़ हैं जिनमें ज़्यादातर जलेस के महासचिव के तौर पर लिखी गयी रिपोर्टें भी शामिल हैं। उनका प्रतिभाशील व्यक्तित्व इन रिपोर्टों में भी झलकता है, हालांकि इन रिपोर्टों में उन तमाम साथियों का भी योगदान रहा है जो जलेस के केंद्रीय नेतृत्व के हिस्से रहे हैं। मेरे विचार से उन्हें इन रिपोर्टों को अपना निज का लेखन मानकर इस पुस्तक में शामिल नहीं करना चाहिए था। उनकी वे रिपोर्टें जलेस के दस्तावेज़ों का हिस्सा हैं।

चंद्रबली सिंह के वैचारिक, साहित्यिक और संगठनात्मक कार्य ने हमारे समाज और संस्कृति की जनवादी परंपरा में जो योगदान दिया है, उसे भुलाया नहीं जा सकता। उनके जन्मशती वर्ष में उन्हें एक बार फिर से याद करते समय यही कहा जा सकता है कि हम उनसे प्रेरणा ले कर शोषित वंचित दलित वर्गों की पक्षधरता में चल रहे विचारधारात्मक  संघर्ष में अपना योगदान करते चलें, संगठन के विकास में भी उसी मनोयोग से हिस्सेदारी करें जैसी चंद्रबली सिंह ने की थी। उनके वैचारिक व संगठनात्मक काम को आगे बढ़ायें, उनके जन्मशती वर्ष में उनके प्रति  यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

dr.chnchlchauhan@gmail.com

 


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