समकालीन हिंदी कहानी में विविधता का सवाल / मनोज कुमार पाण्डेय


9-10 सितंबर, 2023 को इलाहाबाद में प्रलेस, जलेस और जसम के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘शेखर जोशी स्मृति आयोजन’ के एक सत्र में पेश किया गया मनोज कुमार पांडेय का आलेख :

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जब नयी कहानी के दिनों में राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की तिकड़ी दिल्ली से लेकर बंबई (आज का मुंबई) तक छा गयी थी, उसी के समानांतर इलाहाबाद ने एक दूसरी तिकड़ी दी। ये तीन कथाकार थे—मार्कंडेय, अमरकांत और शेखर जोशी। दिल्ली की उस मशहूर तिकड़ी के बरक्स यहां पर विविधता अधिक थी। भाषा में, चरित्रों में और उनके जीवन में भी। मार्कंडेय गांव को केंद्र में रखकर अपनी कहानियां लिख रहे थे। अमरकांत के यहां व्यंग्य और विडंबना के गहरे बोध के साथ शहरी निम्नवर्गीय जीवन की मुश्किलें और अंतर्विरोध थे, तो शेखर जोशी के यहां पहाड़ का जीवन था, मज़दूरों का जीवन था।

इन तीनों कथाकारों के साथ एक और इलाहाबादी कथाकार, शैलेश मटियानी जो जोड़ दिया जाय तो यहां महानगरों में लिखी जा रही कहानियों के बरक्स एक दूसरी दुनिया नज़र आयेगी। मेरा इरादा दिल्ली और इलाहाबाद को आमने सामने रखने का नहीं है; न ही मैं शहरों के मध्य या उच्च मध्य वर्ग पर कहानियां लिखने को ग़लत मानता हूं, जिस तरह से अनेक आलोचक ये कहते पाये जाते हैं कि फलां कथाकार मध्यवर्गीय संवेदना की कहानियां लिख रहा है या कि उसके यहां गंवई चरित्र नहीं हैं। मेरा मानना है कि कोई भी एक कथाकार सारी चीज़ों के बारे में नहीं लिख सकता और सारे जेनुइन कथाकार मिलकर हिन्दी कहानी की एक मुकम्मल तसवीर बनाते हैं।

ज़ाहिर है कि इस तस्वीर में फणीश्वरनाथ रेणु, हरिशंकर परसाई, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, चंद्रकिरण सोनरेक्सा, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी और कृष्ण बलदेव वैद सहित और भी अनेक कथाकार हैं जो किसी त्रयी या चतुष्टय में नहीं समाते, लेकिन हिंदी कहानी के सिरमौर हैं। उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इस रूप में नयी कहानी के जितना उर्वर समय हिंदी कहानी में दोबारा नहीं आया। इसके बाद एक कथा आंदोलन के रूप में साठोत्तरी पीढ़ी ने हिंदी कहानी के भूगोल को विस्तार दिया। इनमें से ज़्यादातर ने अपने लिए एक अलग भाषा की खोज की और भाषा के बाहर और भीतर की एब्सर्डिटी को अपनी कहानियों में जगह दी।

रवीन्द्र कालिया, ज्ञानरंजन या महेंद्र भल्ला की कहानियों की भाषा हिंदी में पहली बार प्रकट हुई थी। इसी तरह राजकमल चौधरी और दूधनाथ सिंह की भाषा भी। काशीनाथ सिंह और दूधनाथ सिंह ने एक क्षेत्रीय टोन के सहारे अपनी भाषा के सामर्थ्य को नये सिरे से धार दी। इसी तरह एक तंजिया और कटखनी भाषा के समर्थ उपयोग से ममता कालिया ने अपनी कहानियों में नये अर्थ भरे। पर इनके पहले और बाद में समर्थ कथाकारों की संख्या कम नहीं है। गुलशेर खां शानी, मंज़ूर एहतेशाम, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मृदुला गर्ग, स्वयं प्रकाश, अरुण प्रकाश, स्वदेश दीपक, संजीव, ओम प्रकाश वाल्मीकि, असग़र वजाहत, मृणाल पांडे, रघुनंदन त्रिवेदी, उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, अखिलेश, प्रियंवद, अलका सरावगी, गीतांजलि श्री, सारा राय, राजू शर्मा, योगेंद्र आहूजा, मनोज रूपड़ा, देवेंद्र, सृंजय, संजय खाती, ओमा शर्मा से लेकर मो. आरिफ़, नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, पंकज मित्र, कैलाश वानखेड़े, चंदन पांडेय और कुणाल सिंह तक और भी अनेक समर्थ कथाकारों की एक भरी पूरी दुनिया है जिन्होंने हिंदी को अपनी कहानियों से समृद्ध किया है और विविधता दी है।

यहां जिन कथाकारों के नाम लिये गये, उनके अलावा भी अनेक कथाकार हैं जिन्होंने हिंदी कहानी और भाषा को समृद्ध किया है। ज़ाहिर है कि नाम लेते समय इसमें स्मृतियों के खेल के साथ साथ मेरी निजी पसंद-नापसंद भी सहज ही शामिल है। इन सभी कथाकारों के पास ऐसी अनेक कहानियां हैं जो मुझे इस हद तक प्रिय हैं कि मैं उन्हें आपको सुना सकता हूं। उन्होंने हिंदी कहानी के भीतरी और बाहरी भूगोल को विस्तार दिया है, उसे समृद्ध किया है। जैसे मैं योगेंद्र आहूजा की ‘लफ़्फ़ाज़’, ‘मर्सिया’ या ‘खाना’ जैसी कहानियां या राजू शर्मा की ‘कदाशय सदाशय’, ‘शांता’ या ‘आर टी ओ क्रासिंग’ जैसी कहानियां याद करूं तो मैं हिंदी कहानी को लेकर एक सुंदर और सकारात्मक एहसास से भर जाता हूं।

ऐसी और भी अनेक कहानियां हैं, मसलन—अखिलेश की ‘शृंखला’, शिवमूर्ति की ‘ख्वाजा ओ मेरे पीर’, उदय प्रकाश की ‘दिल्ली की दीवार’ सहित और भी कई कहानियां, मनोज रूपड़ा की ‘साज़-नासाज़’ या ‘टॉवर ऑफ़ साइलेंस’, नीलाक्षी सिंह की कई कहानियां, चंदन की ‘ज़मीन अपनी तो थी’, कुणाल सिंह की अभी पिछले साल हंस में आयी कहानी ‘प्रतिबंधन, या एकदम नये कथाकार कैफ़ी हाशमी की कहानी ‘शिया बटर’ पढ़ते हुए मुझे लगता है कि मुझे हिंदी कहानी की बिरादरी का एक अदना-सा सदस्य होने पर गर्व करना चाहिए। इनमें से अनेक कहानियों को मैं दुनिया की किसी भी भाषा की समर्थ कहानियों के साथ और समकक्ष रख सकता हूं।

लेकिन… लेकिन इतने प्रिय कथाकारों और सैकड़ों चर्चित कहानियों के बावजूद मन में एक लेकिन लग जाता है। ये लेकिन मेरा एकदम निजी भी हो सकता है। जरूरी नहीं कि आप मुझसे सहमत ही हों। इसलिए आगे मैं जो बातें कहूंगा, वह बतौर कथाकार कहने के बजाय बतौर पाठक कहूंगा। एक ऐसा पाठक जो नये नये विषयों पर हमेशा अच्छी कहानियों की तलाश में रहता है और अगर उसकी पसंद की उसे एक भी कहानी मिल जाती है तो उसे हर किसी को पढ़वा देना चाहता है। भले ही उसे उसकी फोटोकॉपी कराके या मोबाइल पर फोटो खींच कर उनकी पीडीएफ़ फ़ाइल बनाकर ही क्यों न भेजना पड़े।

तो इस पाठक को हिंदी कहानी में वह विविधता नहीं दिखती जिसमें हमारे समकालीन पाठक—जिसमें से मैं भी एक हूं—इस समय का सही चेहरा देख सकें। मैं यहां यह बात किसी आरोप या शिकायत के बजाय आत्मालोचना के शिल्प में करना चाहता हूं। और जब शिल्प की बात आ ही गयी है तो बात यहीं से शुरू कर लेते हैं। क्योंकि हिंदी में ‘शिल्प बड़ा कि कथ्य’ टाइप की मुर्दार बहसें आज भी चलती हैं और किसी की भाषा या शिल्प ज़्यादा संपन्न हो तो शीतयुद्धकालीन शब्दावली में उसे कलावादी या रूपवादी कहकर उड़ा दिया जाना आसान हो जाता है। एक ठस्स किस्म का यथार्थवाद हिंदी कहानी की दुनिया का सबसे प्रचलित लेकिन घिसा और फटा हुआ फैशन है जिसके भीतर से कहानी के अलग अलग अंग मौक़े के हिसाब से कभी अपने आपको छुपाते तो कभी प्रदर्शित करते नज़र आते हैं।

ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि हिंदी कहानी के कब के वयस्क हो चुके शरीर के लिए उसकी नाप के नये कपड़े सिले जायें और तरह तरह से सिले जायें! मसलन, एक कपड़ा वह है जिसे जासूस करमचंद पहनता था। हिंदी में एकदम शुरुआत में देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी जैसे कथाकारों ने हिंदी कथा साहित्य को जासूसी वाले कपड़े पहनाने की कोशिश की थी। उन्हें लोकप्रियता तो खूब मिली, पर उनकी इतनी भर्त्सना हुई कि हिंदी साहित्य में यह परंपरा बनने से पहले ही ध्वस्त हो गयी। मैं यहां ‘पॉपुलर’ साहित्य की बात नहीं कर रहा हूं जिसमें खूब जासूसी उपन्यास लिखे और पढ़े गये।

तो सवाल यह है कि जासूसी के शिल्प का मतलब क्या है? मेरे लिए इस शिल्प का सीधा सा मतलब यह है कि इसमें पाठक की उत्सुकता को लगातार जागृत रखते हुए उसके साथ संवाद किया जाता है। कथाकार उसे अपनी बराबरी पर रखते हुए साथ चलने की चुनौती देता है। लगातार पाठकों के कम होने की शिकायत करते रहने के युग में पाठकों को अपने साथ बांध लेने वाला जासूसी का शिल्प क्या जरा भी हमारे काम का नहीं था? क्या जासूसी के शिल्प से हमारे कथा साहित्य की शुद्धता ख़तरे में आ जाती? जबकि हम देखते हैं कि दोस्तोयव्स्की के अपराध और दंड से लेकर उम्बर्तो इको के खाली नाम गुलाब का तक दुनिया के अनेक कालजयी उपन्यासों ने जासूसी के पहनावे को सफलतापूर्वक धारण किया है। ओरहान पामुक के ज़्यादातर उपन्यास जासूसी या थ्रिलर की शैली में लिखे गये हैं। यह एक उदाहरण भर है। पर अपने यहां शैली पर ज़्यादा बात करने पर रूपवादी या कलावादी नाम की गाली दी जाती है और किसी भी तरह की गाली से मेरा जी घबराता है, इसलिए मैं बात बदल दे रहा हूं। आप खुद सोच लीजिए कि हिंदी कथा साहित्य अपने आपको रचने के लिए और किस किस तरह के बाने धारण कर सकता है।

मैं कंटेंट या कथ्य की ग़रीबी की तरफ़ आता हूं, जहां पर हिंदी कहानी लगातार ‘नो रिस्क जोन’ में खेलती आयी है। मसलन आप साम्प्रदायिकता पर कहानी लिखेंगे और धर्म को हाथ लगाते हुए डरेंगे तो कैसे लिख पायेंगे? राज्य सत्ता से लड़ना तो फिर भी आसान है, पर धर्म की सत्ता पर लिखना या उसका विखंडन करना दिन पर दिन भयावह होता जा रहा है। जबकि मानवता को चोट पहुंचाने वाली ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है जिसके पीछे धर्मसत्ता पूरी ताक़त के साथ न खड़ी हो। लेकिन दलित लेखकों को छोड़ दें तो हमारे ज़्यादातर लेखकों के लिए फिल्मों या पाठयक्रमों में बार बार दोहरायी गयी वह बात ही अंतिम सत्य बनी हुई है कि सभी धर्म अच्छे हैं। वे अच्छी बातें सिखाते हैं, बस बीच में कुछ धार्मिक दलाल या राजनीतिक गुबरैले आकर उसका स्वरूप भ्रष्ट कर देते हैं।

जबकि धर्म का असली स्वरूप क्या है, यह बात धार्मिक हत्यारों और उन्मादी जातिवादियों से लेकर बाज़ार तक सबको पता है। उनके लिए धर्म सभी तरह के वरदान देने वाला है। उनका मनचाहा पूरा करने वाला है, पर अपने मानने वालों के भीतर से इंसानियत और भाईचारे या तार्किकता की आखिरी बूंद तक चूस लेने वाला है। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो धर्म हमारे लेखकों के लिए पता नहीं क्यों सही विषय नहीं बन पाया। ज़्यादा से ज़्यादा वे कुछ गोल मोल सुधारों की बात करके रह जाते हैं। अब तो खैर धर्म क्या, अन्धविश्वासों पर लिखना भी घातक हो गया है। अब इसके लिए आपका सिर भी काटा जा सकता है। नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश, पेरूमल मुरुगन से लेकर गोविन्द पानसरे तक या कि सलमान रुश्दी से लेकर तस्लीमा नसरीन तक अनेक लेखकों के उदाहरण सामने हैं। पता नहीं यह हैरत की बात है या राहत की, कि इनमें से एक भी हिंदी कथाकार नहीं है।

धर्म को छोड़िए, राजनीतिक सत्ता पर आते हैं। एक नयी परिघटना है जिसका नाम है ‘आधार कार्ड’। इसके बिना न आप जन्म ले सकते हैं, न मर सकते हैं। लेकिन इस पूरे मसले पर राजू शर्मा की ‘यूक्लिड और दावौस : एक घटता हुआ अफ़साना’ के अलावा कोई दूसरी कहानी आपने पढ़ी है क्या? बल्कि बतौर पाठक मेरा आपसे सवाल है कि आपने यह कहानी भी पढ़ी है क्या? आप में से जो भी इसे पढ़ना चाहेंगे, मैं इसका पता बताऊंगा या कि आपके लिए इसे उपलब्ध करवाऊंगा… जबकि यह कहानी की शक्ल में एक पूरा उपन्यास है, फिर भी।

राजनीतिक सत्ता की आतंककारी ताक़त पर अखिलेश की कहानी ‘शृंखला’ याद की जा सकती है। राजू शर्मा का उपन्यास विसर्जन भी यहां याद किया जा सकता है जहां एक बहुत बड़ा अर्थशास्त्री एक साज़िश भरे प्रयोग के तहत एक नकली घोटाला प्लांट करता है। विनोद राय के समय की कैग की अतिरंजित रिपोर्टों से लेकर एक दूसरे की जासूसी करती हुई आईबी और रॉ जैसी संस्थाएं वहां पर मौजूद हैं। यह उपन्यास जैसे किसी भविष्यवाणी की तरह प्रकट हुआ था। पर हिंदी की दुनिया ने इस पर अमूमन चुप्पी ही साधे रखी। तो जिस स्तर पर राजनीतिक दुरभिसंधियां सब तरफ़ चल रही हैं, उस स्तर पर हमारे समय की राजनीति का सच बयान करने वाले हमारे उपन्यास और कहानियां कहां हैं। अपवाद स्वरूप मैं चंदन पांडेय और रणेंद्र के इधर आये उपन्यासों का नाम लेना चाहूंगा।

एक मुद्दा है विज्ञान कथाओं का या कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी को केंद्र में रखकर लिखे गये साहित्य का। संजीव के उपन्यास रह गयीं दिशाएं इसी पार को अपवाद मान लें तो विज्ञान भी ऐसा विषय है जिसे छूने से हिंदी कथाकारों का 24 कैरेट वाला खरापन दूषित हो जाता है। दुनिया की अनेक भाषाओं में मुख्यधारा के साहित्यकार वैज्ञानिक अवधारणाओं को अपने कथा साहित्य का विषय बनाते रहे हैं, पर हिन्दी में यह अब तक संभव नहीं हो सका है। जबकि हम विज्ञान कथाओं की तरफ़ जाते हैं तो पता चलता है कि बहुत सारी चीज़ों की कल्पना पहले विज्ञान कथाओं में आयी और इसके लंबे वक़्त के बाद वे चीज़ें या स्थितियां सचमुच अस्तित्व में आ गयीं। कोरोना आया तो ऐसी न जाने कितनी फ़िल्में सामने आयीं जो उस स्थिति पर हैरतअंगेज़ ढंग से लागू हो रही थीं।

आप कह सकते हैं कि साहित्य के इलाक़े में मैं विज्ञान को प्रवेश देने की वकालत क्यों कर रहा हूं। तो मेरा जवाब यह है कि बतौर हिंदी भाषी पाठक मुझे इसकी ज़रूरत महसूस होती है। मैं जिस समाज से आता हूं, उसमें टेक्नोलॉजी से पैदा हुई चीज़ें ग़रीब घरों में भी पहुंच गयी हैं। आज आधी से ज़्यादा आबादी के हाथों में मोबाइल है, इंटरनेट डाटा है। वे सबसे उन्नत टेक्नोलॉजी का उपयोग कर रहे हैं, पर उसके सहारे कर क्या रहे हैं वे? उसके सहारे तमाम मनुष्यता विरोधी भावनाएं और घृणित अंधविश्वास सब तरफ़ फैलाये जा रहे हैं। और लोग उन बातों पर भरोसा कर रहे हैं। मेरा तो यह भी मानना है कि जियो के फ्री डाटा से जो खेल शुरू हुआ था, भाजपा के चुनाव जीतने में उसकी गहरी भूमिका है। मोबाइल और इंटरनेट न होता तो मतदाताओं के मन में झूठ और घृणा भरी सामग्री को इस सफलता से परोस पाना संभव न होता।

आप किसी चीज़ के बारे में बात शुरू ही करते हैं कि आपका मोबाइल उस चीज़ के विज्ञापन दिखाना शुरू कर देता है। रोबोटों ने टीवी पर ख़बरें पढ़ना शुरू कर दिया है। कंप्यूटर आपके सर्वश्रेष्ठ शतरंज खिलाड़ियों को कई कई बार हरा चुके हैं। भीमा कोरेगांव केस में हमने बार बार पढ़ा कि उसमें आरोपितों के कंप्यूटर हैक करके उनमें ‘सबूत’ प्लांट किये गये। इस तरह की चीज़ों की उपस्थिति आपके चरित्रों के जीवन में बढ़ती ही जा रही है। आज हम जार्ज ओर्वेल के 1984 में पहुंच गये हैं जहां बिग बॉस सचमुच सब कुछ देख रहा है। आपकी निजी से निजी चीज़ों पर उसकी नज़र है, पर ये बातें हमारी कहानियों में कहां हैं?

दूसरी तरफ चांद और मंगल पर पहुंचने के इस युग में उपग्रहों को उनके सही लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए वैज्ञानिक (?) मंदिरों में लोट रहे हैं। तमाम देशभक्त (?) जनता उनकी सफलता के लिए मंदिरों में आरती और हवन कर रही है, मस्जिदों में नमाज़ पढ़ रही है। कोर्ट में मंगली लड़कियों की कुंडली मांगी जा रही है। पुलिस विभाग अपराध रोकने के लिए ज्योतिष की शरण में जा रहा है। खुद हमारे प्रधानमंत्री गणेश जी को प्लास्टिक सर्जरी का कारनामा बता चुके हैं और हमारी आबादी का बहुमत इन बातों पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहा है। यह सब कुछ इसलिए हो पा रहा है क्योंकि हम विज्ञान के उपभोक्ता मात्र हैं। वैज्ञानिक चेतना से हमारा दूर दराज़ का भी रिश्ता नहीं बन पा रहा है। साहित्य में विज्ञान की उपस्थिति इस दिशा में बेहतर काम कर सकती है। इसमें बहुत सारे नये पाठकों को भी साहित्य से जोड़ने की क्षमता है।

इसी तरह से प्रकृति और पर्यावरण के इलाक़े अभी भी साहित्य के लिए किसी और दुनिया की चीज़ बने हुए हैं। हालांकि इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय काम आये हैं। नवीन जोशी के उपन्यासों और कहानियों में प्रकृति और पर्यावरणीय चिंताएं सघनता से रची गयी हैं, पर यह ऐसा इलाक़ा है जिस पर जितना रचा जाय उतना कम है। हम बार बार धरती के बिगड़े हुए संतुलन की बात सुनते हैं और सोचते हैं कि यह दूर किसी ध्रुव, सागर, पहाड़ या जंगल में घट रहा है। नहीं, यह एकदम यहीं पर, हमारे चरित्रों के जीवन में घट रहा है। यह हमारी एक एक सांस से जुड़ा मसला है। यह जीवन बचाने की लड़ाई है। हम सबका जीवन ख़तरे में है। हमारी पृथ्वी का जीवन ख़तरे में है।

ज़हरीले पानी और गैसों से लोग बीमार हो रहे हैं। उनकी फसलें उपज देना बंद कर रही हैं। ज़मीन का पानी लगातार नीचे जा रहा है। नदियां ख़त्म हो रही हैं। जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की न जाने कितनी क़िस्में हमेशा के लिए समाप्त हो गयी हैं। बहुत सारी तेज़ी से समाप्त होने की तरफ बढ़ रही हैं और यह सब हमारी कहानियों के बाहर हो रहा है। ये सब न जाने कब से कथा साहित्य के दरवाज़े के बाहर खड़े होकर कुंडी खटखटा रहे हैं और खुद के लिए जगह की गुहार लगा रहे हैं। पर यहां पर अभी ‘नो इंट्री’ का बोर्ड लगा हुआ है। सवाल यह भी है कि हम दूसरे जीव जन्तुओं या पेड़ पौधों की कहानियां कैसे लिखेंगे जबकि हम अपनी लोककथाओं को अपनी स्मृतियों से पूरी तरह से पोंछ चुके हैं जो एक साथ सबको धरती का बराबर का वासी मानते हुए अपने भीतर समेट लेती थीं? और उन्हें अपनी बात कहने के लिए किसी स्थूल किस्म के कार्यकारण संबंध की ज़रूरत नहीं होती थी?

ऐसे ही मुझे समझ में नहीं आता कि जब तरह तरह के अपराध घर से बाहर तक सब तरफ़ पसरे हुए हैं, हमारी जेलें कथित अपराधियों से भरी हुई हैं, अख़बार अपराध और हिंसा से भरे हैं, तो उन्हें हमारी कहानियों और उपन्यासों में आने से किसने रोक रखा है? जबकि हम जानते हैं कि अपराध ऐसा इलाक़ा है जहां तरह तरह की ग़ैरबराबरी, अभाव, विडम्बनाएं, विकृतियां या विसंगतियां एकदम नंगी होकर हमारे सामने होती हैं। तो क्या हम उनके इस नंगेपन से घबड़ाते हैं? बल्कि यह भी अधिक संभव है कि जब हम इस नंगेपन की पड़ताल करने बैठें तो सामाजिक, धार्मिक, लैंगिक, आर्थिक सत्ताओं से होते हुए सीधे उस अपराधी सत्ता संरचना के एकदम सामने हों जो अपराध रोकने और अपराधियों को सुधारने या सज़ा देने का नाटक करते हुए इन सभी स्थितियों के मूल में बैठी हुई है।

इसी तरह शिक्षा की भी बात है। कोटा से लेकर इलाहाबाद तक न जाने कितने बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। गली मुहल्लों में खुले कॉन्वेंटों में हमारा भविष्य विकृत हो रहा है। वहां स्कूल पूरी तरह से पैसा वसूलने वाली दुर्दांत मशीनरी में बदल गये हैं। पर नीलाक्षी सिंह की ‘ऐसे ही कुछ भी’, ओमा शर्मा की ‘दुश्मन मेमना’ और बिपिन कुमार शर्मा की ‘जाग तुझको दूर जाना’ जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इन स्थितियों की कहानियां कहां हैं? आज मध्य वर्ग में एक नया शब्द आया है, ‘डमी एडमिशन’, जो कोचिंग सिस्टम ने अपने फायदे के लिए गढ़ा है और वही उसे संचालित भी कर रहा है। इस ‘डमी एडमिशन’ और हत्यारे कोचिंग सिस्टम की कहानियां भी कहां हैं? जबकि कम या अधिक, ज़्यादातर लोग इन स्थितियों के भुक्तभोगी हैं।

और भी तमाम समकालीन स्थितियां और मुद्दे हैं। सवाल यह है कि इन्हें किस तरह से रचा जाय। साहित्य मुख्य रूप से वर्ग, जाति, जेंडर, धर्म और प्रकृति के चलते मानवीय संबंधों में आये बदलाव को दर्ज करता रहा है। मोबाइल युग के बाद वे भी जिस तेज़ी से बदले हैं कि उनका यह बदलाव अभी भी हमारे लिए दूर की कौड़ी ही बना हुआ है। जबकि इस सदी के इन तेईस सालों के भीतर लोगों के चलने का तरीक़ा बदल गया है। किसी जाने-अनजाने आदमी से बात करने का तरीक़ा बदल गया है। लोगों का मनोविज्ञान तेज़ी से बदला है, जिसमें कोरोना की परिघटना ने कोढ़ में खाज का ही काम किया है। इन स्थितियों पर कुछ छिटपुट काम के उदाहरण आप भी दे सकते हैं और मैं भी, पर बात इतने से बनती नहीं दिखायी देती।

हम अक्सर अपने समय के यथार्थ से बहुत पीछे नज़र आते हैं क्योंकि हम मुख्य रूप से घट चुके यथार्थ पर ज़्यादा काम करते आये हैं। जो तुरंत अभी घट रहा है, उस पर हमारा काम बहुत ही कम है और जो घटने वाला है, उस पर तो हम नज़र ही नहीं डालते। क्यों? यह सवाल आप से भी है और अपने आप से भी, और मंच पर बैठे हुए अपने प्रिय और वरिष्ठ कथाकारों से भी। मुझे लगता है कि इस ‘क्यों’ के जवाब में शायद उस समस्या से निपटने या समझने के कुछ सूत्र भी मिलें जिससे साहित्य और उसके पाठकों के बीच के अंतस्संबंधों के बारे में भी समझा जा सके। या कि इस बहाने थोड़ी सी बातचीत पाठकों की विविधता, रुचियों और ज़रूरतों पर भी हो सके जिन्हें एक ईकाई के रूप में देखने का चलन बना हुआ है।

chanduksaath@gmail.com

 


4 thoughts on “समकालीन हिंदी कहानी में विविधता का सवाल / मनोज कुमार पाण्डेय”

  1. हिन्दी साहित्य की तमाम प्रवृत्तियों, प्रभावों और अभावों को उद्घाटित करने वाला बेहतरीन आलेख। लेखक और संपादक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

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  2. आपका लेख 2 बार पढ़ लिया। अचरज और रंज में हूँ कि ‘समकालीन हिन्दी कहानी में विविधता का सवाल’ से सम्बंधित शीर्षक देकर आप आलोचना का निबन्ध लिख रहे हैं तो आपको व्यक्तिगत पसन्द और नापसन्द के कथाकारों में भेद करने का अधिकार किसने दिया? बेहतर होता कि यह व्यक्तिगत ब्लॉग या सम्पदक के नाम पत्र रूप में होता। लेख तैयार करते समय अपने मित्रों परिचितों के अलावा कितने दूसरे कथाकारों की कहानियों को आपने देखा?भाषा और ग्रामीण कथ्य की विविधता से भरे महेश कटारे आपको नही दिखे, गांव देहात से मेडीकल कॉलेज के कथ्य वाले पंकज सुबीर नही दिखे, प्रेम के विविध रूप से लेकर स्त्री के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के चितेरे ए असफल का अस्तित्व आपको पता ही नहीं,कोटा के कोचिंग पर उपन्यास लिखते अरुण अर्णव खरे को आपने पढ़ा ही नहीं, हिंदी में साधुओं की भीतरी दुनिया तथा आशाराम -राम रहीम जैसे मनमुखी निगुरे साधुओं का अनूठा विषय पेश करता राज बोहरे का अस्थान काहे को देखोगे, पर्यावरण से जुड़ी कहानी पेड़ और पेंटिंग के रचयिता कैलास बनबासी का कोई साहित्य आपने पढ़ा ही नही। कमर मेवाड़ी का विज्ञान साहित्यिक जीवन व्यर्थ गया।कल हिन्दी कथा साहित्य शोधकर्ताओं के बीच यह लेख पहुंचेगा तो कोई आपकी व्यक्तिगत पसन्द न मानते हुये इसे शाश्वत सत्य मानेगा। दोस्ती का चश्मा उतार के आपको अदोस्त व कथाकारों को भी देखिए जनाब।

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  3. नमस्ते राम गोपाल जी। कोटा के कोचिंग सिस्टम पर अरुण अर्णव खरे के उपन्यास की जानकारी देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। बाकी बात यह है आप व्यर्थ ही भावुक और आक्रामक हो रहे हैं। आपने अन्य जो नाम गिनाए हैं उनके काम से आपसे कम परिचित तो नहीं ही हूं। पर अरुण कुमार असफल और कैलाश वनवासी जी की अनेक कहानियां पसंद होने के बावजूद विविधता के उदाहरण के रूप में मैं उनके नाम अभी भी नहीं लेना चाहूंगा। बाकी बात यह है दोस्त कि लिखते समय या अपनी पसंद जाहिर करते समय दोस्ती या दुश्मनी कुछ भी निभाने की आदत नहीं है। न यहां पर, न कहीं और पर। क्या ये बेहतर नहीं होगा कि आप मुझसे ये पूछने की जगह कि ‘मुझे ये हक किसने दिया’ कि मैं आपके मित्रों का नाम न लूं, आप थोड़ा व्यवस्थित होकर विविधता के सवाल पर अपनी पसंद के लेखकों के बारे में जरा विस्तार से लिखें। इस तरह से शायद मेरी भी जानकारी और समझ में थोड़ा इजाफा हो।

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