‘इसी पाखंड पर नंगेली ने किया प्रहार / मत भूलें! चेरथला की विद्रोहिणी का प्रतिकार’ –प्रकाश चंद्रायन की कविताएँ भूलने के विरुद्ध हैं। यहाँ हवा में फैली ‘निश्शब्द संबंधों की यादें’ हैं तो चेरथला चन्नार की विद्रोहिणी का भी स्मरण है और सिंधु घाटी सभ्यता के साथ याद आता युगोस्लाविया और फ़लस्तीन भी।
चेरथला-चन्नार की विद्रोहिणी
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:
सुनें भारतम्मा! इस सुभाष्य का सरल अर्थ है-
जहाँ नारी की पूजा होती है,
वहीं देवपुरुष रमण करते हैं।
इसका गूढ़ार्थ भी तो पढ़ें-
जहाँ देवता रमण करेंगे,
वहाँ देवियां ही होंगी।
जहाँ रमणियाँ होंगी,
वहाँ देवता नहीं आयेंगे।
देवता वहीं रमण करेंगे,
जहाँ नारियाँ पवित्रा-पूज्या होंगी।
सभासदन में उच्च स्वर में बोला स्वयंभू सूत्रधार,
उच्च वचन का कैसे कोई नकार।
न कोई वाद-विवाद-संवाद,
न कोई तर्क-वितर्क-शास्त्रार्थ।
अकाट्य है धर्मादेश,
कहाँ कहीं है भरतखंड में क्लेश?
स्त्रियों का संरक्षित अधिवास है भारत,
कन्याओं का सुरक्षित रहवास है भारत।
पुण्यभूमि में रमणभूमि भी है भारत,
पितृभूमि में ही भारतम्मा है भारत।
न हिंसा न दमन न वध है महाभारत!
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जैसे ही समाप्त हुआ यह आर्यवचन,
वैसे ही गूँजा हिन्द-अरब महासागर का गर्जन।
वहीं देवभूमि केरल से उठी चमकीली आवाज़,
चेरथला की नंगेली ने किया भाष्यों का प्रतिवाद।
चन्नार ने भी किया वार,
स्वयंभू सूत्रधारों की एक और हार।
त्रावणकोर राज्य में थी पवित्र अश्लीलताएँ,
पद्मनाभ की छत्रछाया में देवदूतों की लिप्साएँ।
वक्ष न ढँकें वंचिताएँ-शूद्राएँ-अतिशूद्राएँ,
गर ढँका स्तन तो सशर्त राजकर चुकाएँ।
चुकाएँ मुलाक्करम बचाएँ अधरम-करम,
ऐसे चलन का वाहक है नंगधड़ंग पावन।
जैसे ही खड़ा होता है परिवर्तन,
वैसे ही हारता है जड़ पुरातन।
उठ खड़ी हुई पहली विद्रोहिणी नंगेली,
जैसे खड़े होते हैं झंझा में नारियल वृक्ष।
वक्ष ढँका,
वक्षकर देने से भी किया इंकार।
झंझा आयी,
हिंद-अरब महासागर गरजा फिर एक बार।
देवभूमि को तब नंगेली ने नंगा कर दिया,
जब केले के पात पर अपना कटा वक्ष दिया।
जैसे पत्ता हो हरी धरती,
कटा वक्ष हो रक्तरंजित विद्रोह का घंटानाद।
नंगेली ने तोड़ी ज़ंजीर, खोला मुक्ति का द्वार,
ऐसे लिया अपनी देह पर अपना अधिकार।
कामुको! आँखें खोलो अपना कामलेख पढ़ो!
कितनी महान रहीं परंपराएँ,
कामातुर हवेलियों की नंगी कामनाएँ।
तीन रातें ड्यौढ़ी के नाम,
डरी-सहमी सुबहें घुटी-घुटी शाम।
वंचिता नवविवाहिताओं पर भी अधिकार,
कितना राजसी रहा कामाचारॽ
किसने ढलवाईं वे आकृतियाँ,
मुआन-जो-दारो की लघु और दीदारगंज की उदग्र मूर्तियाँ।
किसने बनाया उन्हें नटी और यक्षिणी,
कितने स्वाधीन रहे होंगे शिल्पकार?
अक्क महादेवी को मिला वचन का शिखर,
लल्ल दद्य को भी वाख का अमर घर।
नगेलियों पर तो टूटता ही रहा कहर?
कहीं देवदासियाँ कहीं गणिकाएँ,
कहीं तवायफें महफिलें सजाएँ।
हर राजधानी में नगरवधुएँ,
हर नगर के कोने-कोठों पर खड़ी की गयीं देहिकाएँ।
क्या वे नहीं पूजित नारियाँ,
कौन रमण करते रहे सदियाँ-दर-सदियाँ?
कौन थीं हूरें,कौन थीं अप्सराएँ?
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जब आया बाज़ार का जनतंत्र,
तब सजा जनतंत्र का बाज़ार।
रैंप पर उतारी गयीं आधुनिकाएँ,
मंच पर नग्न सौंदर्य की स्पर्धाएँ।
३६-२४-३६ का पैमाना,
एक-एक अंग पर निशाना।
विज्ञापनों में देह, देह का विज्ञापन,
नये आवरण में नाचता कुलीन तनमन ।
आर्यावर्त से इंडिया तक सब व्यापार,
यहीं तो करते हैं देह-दिमाग़ के शिकार।
कभी नारी नरकस्य द्वार:,
कभी यत्र नार्यस्तु पूज्यंते।
कभी वाणिज्ये वसति लक्ष्मी:
भाष्यों के बदले-बदले कथासार।
लोलुप नज़रों में चुभते रहे वे अनावृत वक्ष,
जिनकी छाया तक रही अशुद्ध।
प्रत्यक्ष में लेते रहे वक्षकर,
काया का भी उपभोग खुल-छिपकर।
इसी पाखंड पर नंगेली ने किया प्रहार,
मत भूलें! चेरथला की विद्रोहिणी का प्रतिकार।
याद रखें! चन्नार क्रांति की लहर,
वक्ष के नाप से कर का कहर।
मुलच्छीपुरम ने जीता कुप्पायम का अधिकार,
मिटाये न मिटेंगे नीच श्रेष्ठों के अत्याचार।
कभी मनायेगा नंगेली दिवस,
आधी आबादी का यह देश?
शायद ही कभी!
[त्रावणकोर राज्य में दो-ढाई सौ साल पूर्व शूद्र-अतिशूद्र स्त्रियों को वक्ष ढँकने की मनाही थी। वक्ष ढँकने वाले
वस्त्र को कुप्पायम कहते हैं। वक्ष ढँकने पर मुलाक्करम (नाप के अनुसार वक्षकर) देना पड़ता था।चेरथला गाँव की
नंगेली ने विरोध में वक्ष ढँका और कर में वक्ष काटकर दे दिया। उसकी शहादत से चिंगारी भड़की और चन्नार में भी
विद्रोह भड़का। प्रतिरोध के बाद इस अत्याचार का अंत हुआ। विद्रोहिणी नंगेली इतिहास में दर्ज हो गयी। जहाँ नंगेली ने विद्रोह किया, उस जगह का नाम मुलच्छीपुरम (स्तन का स्थान) पड़ा, लेकिन बाद में नाम बदलकर मनोरमा जंक्शन किया गया।]
इन कविताओं के साथ दी गयी मुख्य तस्वीर प्रसिद्ध चित्रकार टी मुरली के चित्रों की उस शृंखला से ली गयी है जो उन्होंने नंगेली की कथा से प्रेरित होकर बनायी।
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सिंधु घाटी सभ्यता
चुप नहीं रहती चुप मान ली गयी सभ्यता
चुपके-चुपके कहती रहती हैं आत्मकथा।
अवशेषों पर अधिकार में भी घुटती है अंतर्कथा
साफ़ कह नहीं पाते कभी पुरातत्ववेत्ता और सत्ता।
एक ने ले लिया नारी
नाम दिया डांसिंग गर्ल उर्फ़ नटी।
दुनिया उसकी देहभाषा पर ठगी सी
वह दुनिया से दूर क्षितिज सी।
दूसरे ने ले लिया नर
नाम दिया प्रिस्ट प्रिंस उर्फ़ पुजारी राजा।
दुनिया उसकी मुखमुद्रा पर थमी-थमी
वह दुनिया की अपठ लिपि।
कुछ भी नाम दे लो
मूर्ति को क्या पता?
मूर्तिकार ने रच दी आकृति
मान लो मूल की प्रतिकृति।
अपनी-अपनी परिभाषाएँ गढ़ दो
कहीं दबी कहीं डूबी रहेगी सिंधु कथा!
एक ने लिया मुआन-जो-दारो और हड़प्पा
दूसरे ने लिया राखीगढ़ी और धोलेवीरा ।
किसने सभ्यता का ध्वंस किया
किसने पुरावशेषों को बाँटा।
कोई तो है विध्वंसक
कोई तो है विभाजक।
पूछता है नद पूछती है घाटी
पूछते हैं अवशेष पूछती है लिपि।
देखता है बामियान घाटी का खोखल
कहीं होगा कालीबंगा कहीं लोथल।
साढ़े तीन हजार साल पहले जो विनाश घटा
अपनी-अपनी नज़रों की सिंधु घाटी सभ्यता।
मिटाया गया युगोस्लाविया मिट रहा फलस्तीन
मिटायी जाती है हर दौर की सिंधु घाटी सभ्यता!
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रेसकोर्स
माना कि मुंबई आर्थिक राजधानी है,
तभी तो जाना कि महालक्ष्मी रेसकोर्स है।
देखो! घुड़दौड़ हो रहा है,
जाॅकी दौड़ रहा है।
जाॅकी को क्या मालूम उसके घोड़े होने का,
घोड़े को क्या पता उसके जाॅकी होने का!
दोनों को नहीं पता कि उस पर सट्टे की होड़ है,
क्या भारत सटोरियों की घुड़दौड़ है ?
गेटवे ऑफ़ इंडिया ओर है
तो इंडिया गेट छोर है।
रेसकोर्स के छुट्टे घोड़े दनदनाते हैं,
गेटवे ऑफ़ इंडिया से इंडिया गेट तक।
रायसीना हिल बजाता रहता है बिगुल,
कहता है विजय चौक-वेलकम! वेलकम!
उसे मायानगरी कहकर छोटा न करो,
सपनों का शहर कहकर हेठा न करो।
दलाल स्ट्रीट के गुस्सैल साँढ़ को देखो,
खूनी आँखों, नथुनों और खुरों में जबड़जोर है।
दिल्ली राजनीतिक राजधानी है तो रहे,
सचमुच मुंबई ही बड़जोर है।
उठती-गिरतीं हैं अरब सागर में लहरें ,
यमुना में कहाँ हिलोर और हिलकोरें।
न कंपन न स्पंदन बस ध्वजवंदन,
रामलीला मैदान में घिसो चंदन…चंदन…चंदन।
दलाल स्ट्रीट के फ़ैसले पर
पार्लियामेंट स्ट्रीट के हस्ताक्षर
दिल्ली की दस्तख़त पर विश्व बैंक की मुहर।
देखा क्या एक अदेखा ग्रेट इंडियन रेसकोर्स,
यहाँ कौन जाॅकी कौन घोड़ा।
वाल स्ट्रीट का बिगुल सबसे बड़ा,
क्या इतना बड़ा कि सिमट जाये दुनिया का दायरा?
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मुर्दाघर
सबके नाम हैं
और पैर के अँगूठे में लटका नंबर भी।
लाशों की भीड़ में ये सात लाशें किसकी हैं
अनाम सिर्फ अँगूठे में लटका नंबर ही पहचान?
लावारिस बताने से कोई बेपहचान नहीं होता
वे वारिस होते हैं इंसानी विरासत के।
कोई आसमान से नहीं टपकता
भले ही वे नये आसमान का सपना देख रहे हों।
सँवारना चाहते हों पृथ्वी
ज़िंदगी ज़िंदा हो और ज़िंदों में हो ज़िंदगी।
मुर्दाघरों की दीवारें भी जानतीं हैं
कौन कैसे मरा कौन कैसे मारा गया।
सभी लावारिस नहीं होते ,
वे होते हैं सही रास्ते के राही।
उन राहों पर डालियाँ झुकाये खड़े हैं पेड़
झरे हैं फूल फैली है खुशबू
हवा में निःशब्द सम्बन्धों की यादें।
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मक्खी और घोड़ा
आँखें खोल कर देखें-
बंदूक की दोनाल के एकदम नोक पर
ठीक बीचोबीच होती है
एक नन्ही बुंदकी
जिसे नाम दिया गया मक्खी।
पीछे से हाथ भर पहले होती है
दो लिबलिबियाँ
जिसे कहा गया घोड़ा
उस पर तैनात उंगलियों का जोड़ा।
न मक्खियों की प्रजाति मानेगी
कि वह कहीं से धातुई मक्खी है
न घोड़ों की प्रजाति कहेगी
कि वह भी कहीं से धातुई घोड़ा है।
हथियारों के सौदागर जो भी नाम धरें,
वह थोड़मथोड़ा है।
काश कि घोड़े रहे होते स्वाधीन,
तो उस पर हमेशा नहीं होती तैनाती।
मुँह में लगाम पैरों में ठुँकी नाल
पीठ पर जीन, काठी, रिकाब
ऊपर बैठा चाबुकदार सवार,
हटो…बचो… ख़बरदार।
किसके लिए अश्वशक्ति, किसका हार्सपावर?
हुसेन की पेंटिंग में भी बेचैन बेख़बर।
कहीं खेत में कहीं जंग में,
कभी तो हो अपने रंग-तरंग में।
जितने कहाते विजेता,
सबकी होती हैं अश्वारूढ़ मुद्राएँ।
गर होते न घोड़े,
रणभूमि में होते औंधे पड़े।
कहीं नहीं दर्ज है अश्वयुग,
कब सुनी गयीं हिनहिनाहटें,
अनसुनी रहीं टापों की आहटें।
अजायबघरों से गायब,
इतिहासों से नदारद।
कहीं-कहीं गुफा चित्रों में आयद।
यह मक्खी भी कभी नहीं दुक्खी,
बस, वह तो निशान साधे पक्की।
ज़िंदा मक्खियां भी चौंक जायेंगीं,
उसके नाम से चलती है मौत की चक्की।
मक्खियों से बचती चलती है सफ़ेद दुनिया,
काली दुनिया पर नाचतीं हैं मक्खियाँ।
वह तो सनातन घिनघिन-भिनभिन की प्राणी,
फिर कैसे बनी दुनाली की सिरमौर रानी?
जब घोड़ा दबता है,
कारतूस चीखता है ..धाँय….धाँय …।
रक्तरंजित राज दिलाता रहा घोड़ा।
हार हो कि जीत मरता रहा घोड़ा,
युद्धस्थल पर सबसे पहले आती रहीं हैं असली मक्खियाँ,
उड़ती नहीं बैठी रह जाती हैं बंदूकों की इस्पाती मक्खियाँ।
कोई संहारी-व्यापारी बना सकता है
बंदूकों पर मक्खी और घोड़ा।
उपसंहार सुन लो कुदरत के बंदो-
कोई मगरूर पूरी ज़िंदगी मगज़ मार ले,
वह एक मक्खी तक नहीं बना सकता है।
उसके पास कहाँ है इतनी सी अक्ल कि एक घोड़ा बना ले,
बस करो! मक्खियाँ रहेंगी और घोड़े भी रहेंगे।
मौत के सौदागर नहीं रहेंगे ।
क्या पता बंदूक की मक्खी उसे ही निशाना साध ले
और घोड़ा उस पर ही दब जाए।
ऐसा भी हो जाता है तो कविता का क्या कसूर?
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संपर्क : 92730 90402
बहुत सुंदर कविताएं
बहुत सधी और प्यारी कविताएं, प्रकाश जी धन्यवाद
प्रकाश चंद्रायन गंभीर और संवेदनशील कवि हैं, उन्होंने आज के समय को चूका हुआ नहीं माना जो उनकी पीढ़ी के कवि दक्षिणपंथ के चोर दरवाज़े पर खड़े मिल जाते हैं…
मानवीय चेतना जगाने वाले विद्रोही कवि की
कविताएं।
बहुत अच्छी कविताएँ
सभी कविताएं यथार्थबोध की कविताएं हैं। सभी कविताओं में क्रांति ज्वाला है। सभी कविताएं बोलती हैं। सभी कविताएं एक आह्वान हैं। कविताएं जब हुंकार भरती हैं तो वे स्वयं में एक बेहतरीन शिल्प गढ़ लेती हैं। ये कविताएं कुछ ऐसे ही शिल्प की जोखिम उठाती हैं।