ये उस कवि की कविताएँ हैं जो ‘कवि नहीं होना चाहता, कविता हो जाना चाहता’ है। इन कविताओं में एक दुर्लभ अनायासता है–ऐसी सहज अभिव्यक्ति जिसमें प्रयत्न के चिह्न लगभग अनुपस्थित हैं, और इसीलिए आप तक जिसकी पहुँच अबाधित है! महज़ साढ़े बाईस साल के केतन यादव इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में एवं वेब माध्यमों पर कविताएँ प्रकाशित।
सबके हिस्से
हो ;
कुछ भी हो जाने पर भी हो
न होने पर भी —
हो ,
होने और न होने की हद के बाहर हो।
हर उदास रात के हिस्से —
दाग़दार चाँद हो
हर जंगल के हिस्से —
एक रास्ता हो ,
सूखे पत्तों के हिस्से जड़ हो
मुरझाये फूलों के हिस्से हो ग़मगीन डायरी !
आँसू के हिस्से —
गाल हों
सहानुभूति के हिस्से करुणा हो
पराजय के हिस्से सांत्वना हो
और हर विछोह के हिस्से —
प्रेम हो
सबके हिस्से —
कोई न कोई हो
सबके पास हो कोई न कोई कंधा
जिनके ऊपर सिर रख कर
उड़ेली जा सके अकथ रुलाई
सबके हिस्से हो ऐसा दोस्त
जिससे असमय गले लगा जा सके ।
( आकाश के लिए )
पिया परदेसिया
केवल कलकत्ता ही कहाँ
बंबई, हैदराबाद, गुजरात और भी
बड़ा हो चुका है परदेस
कहीं भी जा सकते हैं बलम परदेसिया
पर अपना शहर किसी कुँआरी प्रेयसी सा
अगोरता रहता है हरदम
न जाने अबकी कितना बदला होगा गाँव
क़स्बे में कितनी दुकानें खुली होंगी
छोटुआ रिंटुआ साले पुलिया पर लड़की ताड़ते होंगे
अभी भी चुराते होंगे खेत से लौकी कोंहड़ा
अमरूद से गमकता होगा अमरुतानी
झरबेर और टिकोरों से पूरा बगइचा।
गाँव में अभी भी नदी ज़िंदा है
कोई मल्लाह बँसवारे राशनकार्ड में ही सही
पटिदारी के लफड़े में फँसा खपड़ैल
ज़िंदा है कुएँ पर झाड़ में खड़ा रहट
तिजोरिया से संझौती तक
और रतजगा के गीत गारी गूँजती पुरनिया,
सीडी कैसेट से निकलकर डीजे बुफर तक
वह गाना पहुँच चुका अब यूट्यूब के प्लेलिस्ट तक
खाते हुए सरक जाता है भात
और बस याद आ जाता है घर
त्योहार में सबसे ज़्यादा खलता है परदेस
और छठ में तो जान निकाल देती दूरी
जब सोलर पैनल के छज्जे पर चमकता है हीलियम
तब पूरब की औरतें पूजती हैं सुरुज
कोई पंक्षी जगा रहा उसे या कोई पेड़-पौधा
या कोई कुलमुलायी टीसती याद
उसकी एक आवाज़ की पुकार पर
मचल उठते हैं कितने परदेसिया प्रवासी ,
पुरबियों का सूरज
शारदा सिन्हा के जगाने पर जागता है।
पाठक
अब वह जैसे चुनता है
अपनी पसंद का फूल, अपनी पसंद के गाने या खाद्य ही
वैसे ही चुन लेता है कोई कविता या उपन्यास
अपने मूड के हिसाब से
अब जब यह ज्ञात हो चुका है कि कोई भी महान नहीं
यह सिद्ध हो चुका है कि कुछ भी अभूतपूर्व नहीं
यह समझा जा चुका है कोई भी स्थायी मानक नहीं
अब कविता खुद चली आती है ज़रूरतमंद पाठक के पास
स्क्रोल करते हुए अपने मोबाइल की सैड स्क्रीन
या वह खुद चला जाता किसी पेज या वेबसाइट तक
या ऑर्डर करता है फ्लिपकार्ट या अमेज़न से किताब
और सारे आवरण आभरण को फाड़कर छूता है
अपनी प्रति को खुद अपने हाथों से
सरल हुआ है पाठक का जीवन
बहसबाज़ियों के बीच थोड़ा बहक कर सम्भल कर
सीख कर, पर पहुँच जाता है
पहले आलोचक ब्रह्मा हुआ करता था
अब वह एक मानवीय पाठक में तब्दील हो चुका है
अब वह किसी रचना को सिद्ध नहीं करता
अब वह उसका पाठ करता है
अब आलोचक और कवि के मध्य
आकर बैठ चुकी है वह सत्ता खुद-ब-खुद आप
हाँ वही ! जिसके लिए बरसों से होता आया है
लिखने का प्रपंच, स्वांत: सुखाय नहीं
पूरे अवबोध के साथ
देखने और ताड़ने के बीच का अंतर
अब मेरी भाषा के पाठक ने सीख लिया है
कवि नहीं होना चाहता हूँ
कविता के बाहर के नागरिक जब चुप्प पड़ गये थे
तब कविता के भीतर के नागरिकों ने बोलना चुना
मुझे पता है मेरी कविता गोला बारूद नहीं बन पायेगी
न जुल्म-ओ-सितम रोकने का कोई हथियार
कविता अनाज भी नहीं है कि भूख मिटा पाये
न ही वह कोई ज़िंदा इंसान है दर्द बाँटने के लिए ;
पर मैं ऐसी कोशिश करते रहना चाहता हूँ
बाहर की दुनिया से जितना उदास और निर्विकल्प होता हूँ
इसकी दुनिया में उससे निकलने की उतनी ही संभावनाएं
तलाशता रहता हूँ हर रोज़
सोचता हूँ कभी तैयार करूँगा ऐसी समर्थ भाषा
जिसमें बेचैनी को महसूस की गयी तीव्रता जितना दर्ज कर पाऊँ
जिस दिन से मुझे पता चला तुम कविताएँ लिखते हो
मैं तुम्हारे बोले हुए से अधिक तुम्हारे लिखे पर भरोसा करता हूँ
हमेशा नौवें महीने की किसी गर्भवती स्त्री जैसा होता है
किसी कवि का चेहरा
मन के पेट के बाहर हज़ारों स्ट्रेच मार्क्स
यातनाओं की लंबी चौड़ी दास्तान कहती हुई
संसार का झेला हुआ सब दुख अकेले भोगने की प्रक्रिया में
खुद को धोखा देता हुआ जीवन को छलता है
ढकेलता है खुद को अबूझ गहराइयों में
वहाँ से निकलने की चाभी गुम हो जाने के सुख के साथ
बढ़ता रहता है कदम-दर-कदम अपरिचित
वे सभी डिक्शनरियाँ भाषा की कब्रगाह हैं
इसीलिए मैंने उस शब्द का अर्थ वहाँ खोजने की बजाय
उसके अर्थ की अनुभूति के साक्षात्कार की प्रतीक्षा की
जितना चीन्हा गया हूँ
जानता हूँ उतना ही अजनबी होता जा रहा
इसीलिए खुद को तैयार कर रहा बड़े अकेलेपन के लिए
जैसी अकेली रहती है कविता
कविता की तरह जीवन के व्याकरण को
तोड़-मरोड़ देना चाहता हूँ
करना चाहता हूँ पुरानी कविता का उल्लंघन
पिछली भाषा का अतिक्रमण
पुराने शिल्प का विसर्जन
दुख की कविता पढ़कर दुख नहीं मिटता कवि का
इसलिए कविता में दुख हो जाना चाहता हूँ
एक दुख से निकलने के क्रम में दूसरे में जा गिरता हूँ
बड़े संकट से जूझते हुए कई छोटे संकटों में फँसता गया
जैसे उसका कारण बताने के सच के बदले सौ और झूठ चुना
बेकारी के दिनों को काटने के लिए जेब में जितना हाथ घुसेड़े रखना था
वहाँ उतनी ही जेबें ढीली हुईं
कई बार लगा कि मेरा आवारापन इतना मँहगा ईमानदार है
कि उसके बोझ तले कई लोगों के सपने दब रहे हैं
कई आशाएँ निराशित हो रही हैं या होंगी
नौकरी करने के लिए स्वास्थ्य बचाना था
मैंने बिमारियाँ बचायीं और पालीं
जितना अनुशासन चाहिए था व्यवस्थित होने के लिए
उतनी ही अराजकता चुनी बार-बार दुस्साहस के साथ
हल्का हो सके मन इसलिए खूब सारे स्टेटस लगाता हूँ
ताकि किसी से बात करने की ज़रूरत न पड़े
कुछ देर बाद जाकर डिलीट कर आता
अपने काम के आदमी और सरकार के प्रशंसक के सामने
जीभर के ऊट-पटांग गालियाँ बकता हूँ
और दिनभर कितना कुछ करने के बाद भी
रात को खुद को भीतर से भरा हुआ ही पाता हूँ हमेशा
कई बार लगता है कि मैं कुछ नहीं कर पाता
इसलिए कविताएँ लिखता हूँ
कुछ नहीं बदल पाता इसलिए पंक्तियाँ बदलता हूँ
कुछ नहीं सुधार सकता
इसलिए ड्राफ्ट्स सुधारता रहता
लिखना चाहता हूँ तब तक कविता
जब तक पूरा ख़त्म न हो जाये
कविता की पूर्णता तक नहीं
पूरी तरह कविता हो जाने तक
अपनी इतनी सारी जटिलताओं के मध्य
जीवन को एक सरल वाक्य में लिखना चाहता हूँ
कुछ बोल नहीं पाता
इसलिए बस कविता कहता हूँ
“ कहूँ तो हर कविता में जैसे सैकड़ों चुप्पी
जो चुप होऊँ तो जैसे कोई कविता चुप कर गयी हो
चलूँ तो जैसे नियमों को तोड़ते हुए कोई कविता चले
रुकूँ तो जैसे कविता में कहीं मन ठहर गया हो
मुडूँ तो जैसे पहले किसी पुरानी कविता की भ्रमित याद मुड़े
हँसूँ तो खिलखिला उठे कोई अनगढ़ कविता
रोऊँ तो कलपे जैसे कविता का एक-एक शब्द
सोचूँ तो कविता की दुनिया में ही भटकता फिरुँ
और भूलूँ तो जैसे कविता की कोई मुख्य पंक्ति भूल गयी
मिटूँ तो जैसे केवल कविता की प्रतिलिपि मिटे
मिलूँ तो जैसे बरसों की अगोरी कोई कविता मिल जाये
सहमूँ तो जैसे कविता में सहमी हो समूची दुनिया
खुलूँ तो जैसे कई पाठों के भिन्न अर्थ खुले
जिऊँ तो एक सचमुच की कविता की उम्र जिऊँ
वरना मर जाऊँ किसी कविता की ही चाह में
बचूँ तो जैसे आख्यानों में कोई कविता बच जाये”
निकलूँ तो ऐसे ही निकल जाना चाहता हूँ जैसे
किसी बेदिल के पास से कविता निकल जाती ;
जीवन की कविता और
कविता का जीवन जीना चाहता हूँ अब
कवि नहीं होना चाहता हूँ मैं, कविता हो जाना चाहता हूँ अब
yadavketan61@gmail.com
8840450668
केतन यादव उभरते हुए लोगों में एक महत्वपूर्ण नाम है, केतन जी की कविताएं जीवन की संवेदनाओं से जुड़ी हुई है ,उनकी कविताओं में जहां गांव बसता है वहीं पर वह छोटे लोग भी हैं जो अछूते रह गए हैं ,संभावना से भरी हुई कविताएं केतन भाई को साधुवाद खाने कहने के लिए बाध्य करती हैं
बहुत अच्छी कविताएँ
केतन को शुभकामनाएँ