“अब उच्च शिक्षा संस्थानों, विशेष रूप से विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में नियुक्तियों का केवल एक ही पैमाना रह गया है। वह है ऐसे प्रत्याशियों को नियुक्त करना जो आरएसएस से सम्बद्ध हों, या उनके प्रभाव में हों या जो इतने कमज़ोर या विचारहीन हों कि उनसे मनमाफ़िक काम लिया जा सके।”–उच्च शिक्षा में नियुक्तियों की स्थिति पर जवरीमल्ल पारख का लेख:
अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर प्रोफेसर सुधा सिंह की नियुक्ति की गयी है जिसको लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिल्ली विश्वविद्यालय में किसी भी विभाग का अध्यक्ष पद तीन साल के लिए वरीयता क्रम से प्रोफेसरों के बीच बारी-बारी घूमता रहता है। आमतौर पर वरीयताक्रम का कुलपति द्वारा पालन किया जाता है और अध्यक्ष पद पर नियुक्ति करते हुए वरिष्ठता का ध्यान रखा जाता है। इस बात को समझने के लिए एक काल्पनिक उदाहरण लिया जा सकता है। किसी विभाग में मान लीजिए चार प्रोफेसर हैं, क, ख, ग और घ। क शेष तीनों प्रोफेसरों से वरिष्ठ है, इसलिए नियमानुसार या परंपरा अनुसार सबसे पहले विभागाध्यक्ष प्रोफेसर क बनेंगे, उसके बाद ख बनेंगे जो ग और घ से वरिष्ठ हैं लेकिन क से कनिष्ठ है। उसके बाद ग बनेंगे जो घ से वरिष्ठ हैं लेकिन क और ख से कनिष्ठ हैं। और अंत में घ बनेंगे जो क, ख और ग से कनिष्ठ हैं लेकिन वरीयताक्रम में अब घ की बारी है, इसलिए उसे अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया जाता है। यानी कि जब घ विभागाध्यक्ष बनेगा तब शेष तीनों प्रोफेसर वरिष्ठता में घ से ज़्यादा वरिष्ठ होंगे। इसके बावजूद विभागाध्यक्ष घ ही बनेंगे। जब घ का कार्यकाल समाप्त होगा, तब या तो फिर से क विभागाध्यक्ष बनेगा या अगर इस दौरान उस विभाग में कुछ और प्रोफेसरों की नियुक्ति हो जाती हैं तो वरीयताक्रम से वे विभागाध्यक्ष बनेंगे। मेरी जानकारी के अनुसार, दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में विभागाध्यक्ष बनने के लिए इसी परंपरा का लंबे समय से अनुपालन होता आ रहा था। लेकिन हिन्दी विभाग में इस बार वरिष्ठता का पालन करने की इस परंपरा का अनुपालन कुलपति ने नहीं किया और प्रोफेसर अपूर्वानन्द, जिनको वरिष्ठता के अनुसार इस बार अध्यक्ष बनना चाहिए था, के स्थान पर प्रोफेसर सुधा सिंह को नियुक्त कर दिया गया जो अपूर्वनन्द से वरिष्ठता क्रम में एक पायदान नीचे हैं।
किसी समय विभागों के अध्यक्ष सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर बनते थे और वे कई-कई सालों तक बने रहते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ही प्रोफेसर नगेन्द्र लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। उस दौर में विभागों में प्रोफेसर के पद भी बहुत कम होते थे, ज़्यादातर मामलों में एक या दो। जब एक ही व्यक्ति लंबे समय तक प्रोफेसर पद पर रहता था, तो उस विभाग के शेष अध्यापकों को प्रोन्नति के अवसर बहुत कम मिल पाते थे। अधिकतर अध्यापकों की प्रोन्नति प्रोफेसर ही नहीं, रीडर पद पर भी नहीं हो पाती थी। इसकी वजह यह थी कि उस समय प्रोन्नति के कोई नियम नहीं थे। रीडर और प्रोफेसर के पद प्रोन्नति से नहीं बल्कि ओपन सिलेक्शन से भरे जाते थे और ऐसी स्थिति में उस विश्वविद्यालय के बाहर से आवेदन करने वाले प्रत्याशी के चयन की संभावना काफ़ी रहती थी और आंतरिक अध्यापक रीडर और प्रोफेसर पद पर चयनित होने से रह जाते थे। इसलिए अध्यापकों में असंतोष बढ़ता जाता था और इस असंतोष का असर उनके अध्यापन कार्य पर पड़ना स्वाभाविक था। प्रोफेसर पद पर नियुक्त अध्यापक और अगर वह विभागाध्यक्ष बन जाता है तो उसमें एक तरह की श्रेणीबद्धता का भाव पैदा हो जाता है और वह अन्य अध्यापकों से अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है। जबकि अध्यापकों के पद में वरिष्ठता का अर्थ श्रेणीबद्धता नहीं है। अध्यापन में अनुभव का महत्त्व होता है, लेकिन उसके साथ ही उसकी उस विशेषज्ञता का भी कम महत्त्व नहीं होता जो उसने अपने अनुशासन के किसी क्षेत्र विशेष में हासिल की है जिसकी उस विभाग को ज़रूरत है और मुमकिन है कि इसी विशेषज्ञता को नियुक्ति के समय ध्यान में रखा गया हो। हिन्दी में प्रोफेसर होने का अर्थ यह नहीं है कि वह हिन्दी भाषा और साहित्य के सभी क्षेत्रों का विशेषज्ञ हो गया है। इस बात की बहुत संभावना रहती है कि उस विभाग का कोई व्याख्याता ज्ञान के किसी क्षेत्र विशेष का अपने विभाग के अन्य अध्यापकों की तुलना में, जिनमें प्रोफेसर भी शामिल होते हैं, बेहतर जानकार हो। एक अच्छा विभाग वह होता है जहाँ कार्यरत अध्यापकों में अनुशासन से संबंधित विभिन्न तरह की विशेषज्ञता वाले अध्यापक हों। एक अध्यापक से यही अपेक्षा की जाती है कि वह अध्यापन का कार्य कितनी कुशलता से कर पाता है। अध्यापन एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है जिसके लिए अध्यापक को बहुत अधिक मेहनत और तैयारी करनी पड़ती है। हिन्दी का कुशल अध्यापक होने के लिए केवल अपने अनुशासन और विशेषज्ञता में ही ज्ञानवान होना पर्याप्त नहीं हैं। भाषा और साहित्य का क्षेत्र अन्य कई अनुशासनों से जुड़ा होता है, जिसकी जानकारी और समझ दोनों का होना भी ज़रूरी है। कक्षा किसी भी विषय से संबंधित क्यों न हो, एक अच्छा अध्यापक पूरी तैयारी के साथ कक्षा में आता है। वह अपने ज्ञान से विद्यार्थियों को आतंकित नहीं करता वरन पहले उनके स्तर तक उतरकर और फिर उन्हें अपने साथ ऊपर उठाते हुए संवाद स्थापित करता है। यह बात सभी अध्यापकों पर लागू होती है, लेकिन विभागाध्यक्ष बनने के लिए ऐसी किसी अतिरिक्त शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विभाग में कार्यरत होने के कारण वहाँ उसकी योग्यता नहीं बल्कि वरिष्ठता ही महत्त्वपूर्ण है और वह भी सिर्फ़ प्रोफेसर पद पर। योग्य शिक्षक तो वह होगा ही, तभी वह प्रोफेसर के पद तक पहुँचा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपने विभाग के सभी अध्यापकों से ज्यादा योग्य है या उसे ऐसा होना चाहिए।
कहने का तात्पर्य यह है कि विभागाध्यक्ष पद का अध्यापन, विद्वता और शैक्षिक अनुभव से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसका संबंध केवल प्रोफेसर पद पर कुल अनुभव की अवधि का है जिससे वरिष्ठता का निर्धारण होता है। विभागाध्यक्ष पद पर कार्य की प्रकृति शैक्षिक कम और प्रशासनिक अधिक है। विभागाध्यक्ष को एक कुशल और लोकतान्त्रिक ढंग से काम करने वाला प्रशासक होना चाहिए, लेकिन उस तरह का प्रशासनिक पद नहीं है जैसे विश्वविद्यालय में कुलपति, समकुलपति, कुलसचिव, सहायक कुलसचिव आदि के प्रशासनिक पद होते हैं, जिन पर कार्य करने वाले व्यक्तियों को अपने अधीनस्थ कार्मिकों को आदेश देकर कार्य कराना होता है, और जिसके लिए उसे विश्वविद्यालय के नियम-क़ायदों की पर्याप्त और सही जानकारी का होना भी ज़रूरी होता है; विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन व्यक्ति को अपने साथ काम करने वाले अध्यापकों के साथ मिलजुल कर काम करना और कराना होता है। उसके पदनाम में अध्यक्ष शब्द ज़रूर है लेकिन उसके काम की प्रकृति अध्यक्ष की तरह की नहीं बल्कि संयोजक की तरह की होती है। जिस इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में मैंने लगभग तीन दशक तक अध्यापक के रूप में कार्य किया था, वहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय की तरह विभाग नहीं हैं और इसलिए विभागाध्यक्ष का पद भी नहीं है। हिन्दी अध्यापकों के बीच परस्पर तालमेल के लिए अनौपचारिक रूप से एक अध्यापक संयोजन का कार्य देखता है। संयोजक के रूप में एक अध्यापक एक साल के लिए काम करता है और वरिष्ठता क्रम से सभी अध्यापकों के बीच यह संयोजक के पद का भार आता-जाता रहता है। केवल प्रोफेसरों के बीच नहीं बल्कि व्याख्याताओं से लेकर प्रोफेसरों के बीच तक। यह संयोजन का कार्य सिर्फ़ विषय विशेष के अध्यापकों के बीच सीमित होता है और उसकी वैसी कोई प्रशासनिक जिम्मेदारी या जवाबदेही नहीं होती जैसी और जितनी दिल्ली विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्षों की होती है। हाँ, स्कूल के स्तर पर दो और निकाय होते हैं। एक स्कूल कौंसिल और दूसरा स्कूल बोर्ड। स्कूल कौंसिल का गठन कुलपति के आदेश से किया गया था जबकि स्कूल बोर्ड एक वैधानिक निकाय होता है जिसका प्रावधान इग्नू ऐक्ट में किया गया है। स्कूल कौंसिल और स्कूल बोर्ड की अध्यक्षता स्कूल का डायरेक्टर करता है। स्कूल कौंसिल में स्कूल के सभी अध्यापक सदस्य होते हैं और उसका संयोजक अध्यापकों के बीच से ही वरिष्ठता क्रम से एक साल के लिए बारी-बारी से बनाये जाते हैं। स्कूल बोर्ड में स्कूल के सभी प्रोफेसर सदस्य होते हैं लेकिन रीडर और व्याख्याता कुछ ही मनोनीत किये जाते हैं। स्कूल बोर्ड में विश्वविद्यालय के अन्य स्कूलों के कुछ अध्यापकों को कुलपति मनोनीत करता है और कुछ अन्य विश्वविद्यालयों के अध्यापकों को भी कुलपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। लेकिन ये सभी नाम स्कूल कौंसिल द्वारा सुझाये जाते हैं और निदेशक के माध्यम से विचारार्थ कुलपति के पास भेजे जाते हैं। इग्नू में विद्यापीठ का निदेशक पद ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होता है और वह ठीक उसी तरह का पद है जैसा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल डायरेक्टर का पद होता है या दिल्ली विश्वविद्यालय में फैकल्टी के डीन का पद होता है। इन पदों पर नियुक्ति भी स्कूल के विभिन्न विभागों के सबसे वरिष्ठ प्रोफेसरों के बीच से होती है और इस बात का ध्यान रखा जाता है कि क्रमानुसार प्रत्येक विभाग की बारी आती जाये। विभागाध्यक्ष की तुलना में डीन या डायरेक्टर के पास ज़्यादा अधिकार और ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ होती हैं। वे विश्वविद्यालय के अकादेमिक कौंसिल के पदेन सदस्य होते हैं और इस तरह उस निकाय विशेष में वे अपने स्कूल का प्रतिनिधत्व कर रहे होते हैं। कुछ अन्य निकायों में भी एक या दो स्कूल डायरेक्टर को कुलपति मनोनीत करते हैं।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, दिल्ली विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष को विभाग में नियुक्तियों के समय सिलेक्शन बोर्ड का पदेन सदस्य बनाया जाता रहा है। वह नवनियुक्त अध्यापक को स्थायी बनाये जाने के लिए और असोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पदों पर प्रोन्नति के लिए डीन और कुलपति को गोपनीय रिपोर्ट देता है। वह सिलेक्शन बोर्ड का सदस्य भी होता है। कुछ विभागों के अध्यक्षों को कुलपति अकेडमिक कौंसिल में सदस्य मनोनीत करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में विभागों में नियुक्ति में ही नहीं, दिल्ली विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में नियुक्ति में भी कुलपति द्वारा उसे सिलेक्शन बोर्ड में मनोनीत किया जाता है। इस तरह के कई छोटे-बड़े दायित्वों के कारण विभागाध्यक्ष को अपना पद प्रोफेसर के पद से अधिक गरिमामय और अधिकारसम्पन्न लगता है, जबकि सच्चाई यह है कि इन सभी कामों में विभागाध्यक्ष एक तरह के दबाव में रहता है। उसे यदि एक ओर विभाग के सभी अध्यापकों को साथ लेकर चलना होता है तो उसे कुलपति की इच्छा-अनिच्छा का भी ध्यान रखना होता है। यानी विभाग के अध्यापक भले ही अपने को विभागाध्यक्ष का अधीनस्थ न मानें, लेकिन स्वयं विभागाध्यक्ष को इस बात का अहसास बार-बार होता और कराया जाता है कि वह कुलपति के अधीनस्थ है और उसके आदेशों का पालन करना उसका अलिखित कर्त्तव्य है। इसका अर्थ यह भी है कि सिलेक्शन बोर्ड में, निकायों में भी वह कुलपति के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर पाता।
विश्वविद्यालय के बहुत से मामलों में कुलपति को लिखित नियम-अधिनियम के अनुसार कार्य करना होता है। बहुत से मामलों में निकायों के निर्णय कुलपति के लिए बाध्यकारी होते हैं, लेकिन बहुत से मामलों में उसे अपने विवेक का इस्तेमाल करना होता है तो कुछ मामलों में लंबे समय से बनी परंपरा का पालन करने की अपेक्षा उससे की जाती है। परंपरा का पालन करना कुलपति के लिए बाध्यकारी नहीं होता। वह चाहे तो अपने विवेकानुसार फ़ैसले ले सकता है। लेकिन अच्छा यही समझ जाता है कि वह परंपरा का पालन करे। विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्ति और उसके अधिकारों और दायित्वों की परंपरा बनी हुई है लेकिन विश्वविद्यालय के कुलपति उन्हें तोड़ते भी रहते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह के समय तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष को पहले से बनी परंपरा के विपरीत नियुक्तियों के लिए बने सिलेक्शन बोर्ड में मनोनीत नहीं किया जाता था और विभाग के किसी अन्य प्रोफेसर या किसी अन्य विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को मनोनीत किया जाने लगा था, जबकि कुलपति को ऐसा नहीं करना चाहिए था। कुलपति द्वारा परंपरा का उल्लंघन ही बाद में परंपरा बन गयी। स्पष्ट ही इसके पीछे कारण कुलपति की यह अधिकार चेतना भी हो सकती है कि उसे उन परंपराओं का पालन क्यों करना चाहिए जिसके कारण वह अपनी इच्छानुसार काम न कर सके? या उसका ऐसा सोचना भी मुमकिन है कि सत्ता में बैठे उन शक्तिशाली लोगों के पक्ष में काम करने में कोई बाधा न हो जिनकी कुलपति के पद पर नियुक्ति में भूमिका रही हो या वह अपनी मनमर्जी के लोगों को नियुक्त कर सके। तो वह ऐसे किसी व्यक्ति को सिलेक्शन बोर्ड में क्यों चाहेगा जिसके द्वारा उसके फ़ैसले के विरोध की हल्की सी भी संभावना हो? हालाँकि मेरा अपना अनुभव यह बताता है कि सिलेक्शन बोर्ड में विभागाध्यक्ष अपवाद रूप में भी कुलपति का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते। हिन्दी के अध्यापक तो और भी कम।
कुलपतियों की मनमानी जितना बड़ा सत्य है, उससे भी ज़्यादा बड़ा सत्य उनका सत्ता में बैठे अपने आकाओं की कठपुतली होना है। मौजूदा आरएसएस-भाजपा के सत्ता में आने से पहले भी विश्वविद्यालयों में राजनीतिक और निहित स्वार्थों की नियुक्तियों में दख़लंदाज़ी कोई लुकी-छिपी चीज़ नहीं थी। लेकिन तब एक ही राजनीतिक विचारधारा या समूह की मनमानी नहीं चला करती थी। अगर कुलपति और सिलेक्शन बोर्ड में बैठे कुछ अध्यापकों की थोड़ी भी निष्ठा शैक्षिक कार्य के प्रति होती थीं तो योग्य और प्रतिभावान अध्यापकों की नियुक्ति की संभावना बनी रहती थी। हालाँकि नियुक्तियों में कुछ सामाजिक पूर्वाग्रहों को पहले भी देखा जा सकता था। अमरोहा के जिस कॉलेज में मैं 11 साल अध्यापक रहा था, वहाँ एक भी दलित अध्यापक नहीं था और केवल एक ओबीसी अध्यापक था, क्योंकि तब तक आरक्षण लागू नहीं हुआ था। मुस्लिम बहुल आबादी का शहर होते हुए भी केवल एक मुस्लिम अध्यापक था। ज़्यादातर अध्यापक एक ही बनिया कम्युनिटी के थे जिनका वह कॉलेज था। इस स्थिति में बदलाव तब हुआ जब नियुक्ति का अधिकार निजी प्रबंधन के हाथ से निकालकर विश्वविद्यालयों के हाथ में आ गया। आरक्षण लागू होने के बाद ज़रूर दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्गों से अध्यापक नियुक्त होने लगे। लेकिन विभागों में वर्चस्व सवर्ण जातियों का ही है। पिछले दस सालों में स्थितियाँ और बदतर हुई हैं जबसे सत्ता आरएसएस-भाजपा के हाथ में आयी है।
अब उच्च शिक्षा संस्थानों, विशेष रूप से विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में नियुक्तियों का केवल एक ही पैमाना रह गया है, वह है ऐसे प्रत्याशियों को नियुक्त करना जो आरएसएस से सम्बद्ध हों, या उनके प्रभाव में हों या जो इतने कमज़ोर या विचारहीन हों कि उनसे मनमाफ़िक काम लिया जा सके। इसके लिए सबसे पहले योजनाबद्ध ढंग से आरएसएस के प्रति निष्ठावान अध्यापकों को कुलपति के पदों पर नियुक्त किया जाता है। कुलपति के चयन की पूरी प्रक्रिया ऊपरी तौर पर काफ़ी लोकतान्त्रिक नज़र आती है, लेकिन सच्चाई यह है कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति पद पर उसी व्यक्ति की नियुक्ति हो पाती है जिसे सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति या संगठन का समर्थन प्राप्त हो। आज वह संगठन आरएसएस है। आरएसएस एक सांप्रदायिक फासीवादी संगठन है जो हिंदुत्ववादी विचारधारा में यकीन करता है। यह केवल राजनीतिक विचारधारा नहीं है बल्कि पूरी एक विश्वदृष्टि है जो भारतीय संविधान के बिल्कुल प्रतिकूल है। शैक्षिक संस्थानों पर इस विचारधारा का वर्चस्व होना काफी ख़तरनाक है और युवाओं को वह संविधान के मूलभूत मान्यताओं से दूर कर सकती है और भटका सकती है। ऐसा होता हुआ हम आज अपने आसपास देख सकते हैं।
आरएसएस समर्थित कुलपति के माध्यम से उन प्रत्याशियों की नियुक्ति करना आसान हो जाता है, जिनकी सिफ़ारिश आरएसएस के माध्यम से कुलपति तक पहुँची हो। आरएसएस से किसी भी रूप में जुड़े अध्यापकों की नियुक्ति में कुछ भी ग़लत नहीं है। ग़लत यह है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति की, जो आरएसएस की विचारधारा से सहमत नहीं है या उसका विरोध करता है, अकादमिक योग्यता अन्यों की अपेक्षा बेहतर होने के बावजूद उसकी नियुक्ति अब लगभग असंभव हो गयी है। अभी हाल ही में ऐसे कई अध्यापकों को, जिनका वैचारिक झुकाव वामपंथ की तरफ़ था और जो कई वर्षों से अध्यापक के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अस्थायी रूप से काम कर रहे थे, हटा दिया गया। आरएसएस एक ब्राह्मणवादी संगठन भी है जो मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति ही नहीं, दलितों और पिछड़ों के प्रति भी पूर्वाग्रह रखता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि अभी हाल ही में हिन्दी विभाग में असोशिएट प्रोफेसर के पाँच पद जो ओबीसी के लिए आरक्षित थे, उन पर किसी की भी यह कहते हुए नियुक्ति नहीं की गयी कि कोई भी प्रत्याशी इन पदों के लिए योग्य नहीं था। यह कैसे संभव है? इन पदों के लिए जो भी प्रत्याशी साक्षात्कार देने के लिए आये होंगे, वे सभी पहले से ही सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत होंगे। यही नहीं, असोशिएट प्रोफेसर के पद के लिए जो शैक्षिक योग्यता, अनुभव और अकेडमिक कार्य की माँग रही होगी, वे भी वे पूरी करते होंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें साक्षात्कार के लिए भी नहीं बुलाया जाता। स्पष्ट है कि वे इस पद के लिए आवश्यक योग्यता पूरी करते थे और उनका अयोग्य होना केवल साक्षात्कार में उनकी कथित परफॉरमेंस के आधार पर ही तय किया गया होगा। अगर सहायक प्रोफेसर का पद होता तो थोड़ी देर के लिए माना जा सकता था कि वे सारी अर्हताएं पूरी करते हुए भी इस पद के लिए उपयुक्त न हों। हालाँकि वहाँ भी पाँचों के पाँचों पदों पर कोई भी योग्य प्रत्याशी न हो, यह विश्वसनीय नहीं लगता। अगर पद दलित या ओबीसी के लिए आरक्षित हो तो इस बात की बहुत संभावना है कि इन पदों को जानबूझकर ख़ाली रखा जा रहा है ताकि भविष्य में इन आरक्षित पदों को सामान्य श्रेणी में डाला जा सके। असोशिएट प्रोफेसर के सभी पाँचों पदों पर किसी भी प्रत्याशी के योग्य न पाये जाने के पीछे ओबीसी वर्ग के पीछे पूर्वाग्रह होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता ताकि भविष्य में इन पदों को भी सामान्य श्रेणी में डाला जा सके। जातिपरस्त पूर्वाग्रह समय-समय पर कई रूपों में व्यक्त होता है। हिन्दी विभाग में ही जब प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन जो दलित जाति से आते हैं, को विभागाध्यक्ष बनना था, तब विश्वविद्यालय ने समय पर नियुक्ति पत्र जारी नहीं किया और जानबूझकर यह असमंजस पैदा होने दिया कि उनको विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया जायेगा या नहीं। लेकिन लेखकों के दो संगठनों जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच ने प्रोफेसर बेचैन की नियुक्ति के पक्ष में आवाज उठायी। अध्यापकों ने कुलपति कार्यालय के सामने प्रदर्शन भी किया और इसका परिणाम यह ज़रूर हुआ कि प्रोफेसर बेचैन की विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्ति हो गयी।
बताया जाता है कि प्रोफेसर सुधा सिंह भी ओबीसी है और यह अच्छी बात है कि जाति के कारण उनके साथ इस मामले में अन्याय नहीं हुआ। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा कि उन्हें ओबीसी होने का लाभ मिला। ओबीसी होने के कारण लाभ मिलता तो असोशिएट प्रोफेसर के पाँच पद रिक्त नहीं छोड़े जाते। सुधा सिंह को विभागाध्यक्ष बनाये जाने का कारण केवल एक था, वह यह कि अपूर्वानन्द को नहीं बनाना था। वरिष्ठता में सुधा सिंह का नाम अपूर्वानन्द के बाद था और इसलिए वे बना दी गयीं, न कि इसलिए कि वे ओबीसी वर्ग से हैं। प्रोफेसर अपूर्वानन्द के न बनाये जाने का मामला बहुत सीधा और साफ़ है। वे जाति से ब्राह्मण है और वर्तमान सत्ता के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी! लेकिन ब्राह्मण होते हुए भी वे विभागाध्यक्ष पद के लिए अयोग्य थे क्योंकि वे वर्तमान सत्ता के कट्टर विरोधी हैं और उन्होंने यह कभी छुपाया नहीं कि वे वैचारिक रूप से न केवल आरएसएस की विचारधारा के विरोधी हैं बल्कि एक शिक्षक और बौद्धिक के रूप में वे इस विरोध को ज़रूरी कार्यभार समझते हैं और इसके लिए लगातार सक्रिय रहते हैं। उनकी इस सक्रियता की यह तो बहुत छोटी सजा है, अन्यथा वह उन्हें कभी भी और बड़े संकट में डाल सकती है। स्पष्ट ही ऐसा कोई कुलपति जो आरएसएस के प्रति निष्ठा के कारण ही कुलपति पद तक पहुँचा हो, वह जानते-बूझते ऐसे किसी व्यक्ति को हिन्दी विभाग का अध्यक्ष कैसे बना सकता है जो आरएसएस का न केवल घोषित विरोधी हो बल्कि विरोध में बहुत सक्रिय भी हो। जितना मैं जानता हूँ, प्रोफेसर सुधा सिंह आरएसएस समर्थक नहीं है। उनकी सक्रियता का क्षेत्र अकादमिक कार्य ही है और यह कार्य गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट भी है। इसके बावजूद अगर यह कहा जाता है कि अपूर्वानन्द को उनकी वैचारिक सक्रियता की सज़ा मिली है, तो यह ग़लत नहीं है और इस बात का सुधा सिंह के विभागाध्यक्ष बनने से कोई संबंध भी नहीं है। सुधा सिंह की जगह कोई अन्य निरापद व्यक्ति होता, तो कुलपति उसे विभागाध्यक्ष बना देते।
यहाँ एक सवाल और उठता है कि शिक्षक संघ और शिक्षक बिरादरी को ऐसे मामलों में जितना सक्रिय होना चाहिए, वह सक्रिय क्यों नहीं हो पाती? अन्याय के ज़्यादातर मामलों में सन्नाटा ही छाया रहता है। प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन के मामले में तो सक्रियता नज़र आयी, लेकिन जब अस्थायी अध्यापकों को, जिनमें से बहुत से तो दस-दस सालों से काम कर रहे थे, अपने पदों से हटा दिया गया तो विरोध का कोई स्वर नहीं उभरा। इसी तरह जब एक साथ असोशिएट प्रोफेसर के पाँच रिक्त पदों पर, जो ओबीसी के लिए आरक्षित थे, किसी प्रत्याशी को योग्य नहीं पाया गया तो इसका भी विरोध किया जाना चाहिए था, लेकिन नहीं किया गया। इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि कुलपति पहले से बनी हुई परंपरा का पालन करे और यह तभी मुमकिन है जब विश्वविद्यालय का शिक्षक संघ ऐसे मामलों में सजग हो और शिक्षक सामूहिक रूप से ऐसे विचलनों के विरुद्ध आवाज़ उठाये। लेकिन देखा यही गया है कि ऐसा होता नहीं है। शिक्षक संघ की या तो वैचारिक सहमति और मिलीभगत रहती है, या वे इस हद तक कमज़ोर हो चुके हैं कि उनकी बात का कोई वज़न नहीं रह गया है और अध्यापक भविष्य के ख़तरों और लाभों को ध्यान में रखते हुए चुप रहना ही बेहतर समझते हैं।
बहरहाल, हिन्दी विभागों की मुख्य समस्या कौन विभागाध्यक्ष नियुक्त होता है, यह है ही नहीं या कहना चाहिए कि बहुत छोटी समस्या है। मुख्य समस्या है, पठन-पाठन की वह परंपरा जो काफ़ी हद तक अब भी ब्राह्मणवाद और सांप्रदायिकता के प्रभाव में हैं। हिन्दी विभाग आरएसएस के लिए पहले भी उर्वर भूमि रहा है। हालाँकि वामपंथी झुकाव वाले अध्यापक भी ठीक-ठाक संख्या में होते हैं। अब हिन्दी विभागों में दलित और पिछड़े समाजों (ओबीसी) से भी अध्यापकों की नियुक्ति होने लगी हैं और कई विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य भी पढ़ाया जाने लगा है। लेकिन हिन्दी साहित्य की एक हज़ार साल की कथित परंपरा को जानने और समझने का आधार अब भी रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ ही है जो साहित्य की इस परंपरा को ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक दृष्टि से प्रस्तुत करती है।
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विभागाध्यक्ष बनाने की पूरी पूरी नूराकुश्ती पर से पर्दा उठाने वाला लेख। हिन्दी विभागों की हक़ीक़त और पठन पाठन की गुणवत्ता में आ रही गिरावट को बहुत ही संजीदगी से आपने प्रस्तुत किया है। आपकी लेखनी को नमस्कार।
प्रोफ़ेसरों के बीच भी एक UGC द्वारा एक और श्रेणी बनाई गई ‘सीनियर प्रोफेसर’। विभागाध्यक्ष की सीनियर्टी लिस्ट में अब UGC के कायदों के हिसाब से अब वह सीनियर माना जायेगा जो ‘सीनियर प्रोफेसर’ ग्रेड पर कार्यरत होगा. प्रोफेसर सुधा सिंह सीनियर प्रोफेसर हैं. क्या अपूर्वानंद जी भी सीनियर प्रोफेसर ग्रेड पर हैं?
आप का विचार श्रेष्ठता को दर्शाता है। इस विषय पर संज्ञान लेते हुए। विरोध किया जाए। ताकि सही नियम का शक्ति से पालन किया जा सके।
ऐ न्यायालय का मामला है।