हिंदी में दो तरह के फ़िल्मकार हैं। एक वे जिनका मकसद सामाजिक बदलाव से प्रेरित सोद्देश्य फ़िल्म बनाना है, और दूसरे वे फ़िल्मकार जो व्यवसायिक उद्देश्य से प्रेरित मनोरंजन प्रधान फ़िल्म बनाते हैं। फ़िल्म चाहे कोई भी क्यों न हो, उसमें हमारे समय के यथार्थ की अभिव्यक्ति होती है। चूंकि यथार्थ विविधतापूर्ण होता है, इसलिए उससे प्रेरित सिनेमा भी विविधतापूर्ण होता है। उस वैविध्यपूर्ण यथार्थ को प्रत्येक फ़िल्मकार अपने नज़रिए से देखता है और उसकी फ़िल्म में उस दृष्टि को पहचाना जा सकता है। ग़रीबी, पिछड़ापन, शिक्षा और रोज़गार जैसे पहलू अब समकालीन सिनेमा में कम ही जगह पाते हैं, जबकि ये हमारे समय और समाज की सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने वाले वे जटिल प्रश्न हैं जिन्हें सिनेमा में भी जगह मिलनी चाहिए। बड़े बजट की फ़िल्में आमतौर पर इन सवालों को नहीं छूतीं। लेकिन कुछ फ़िल्मकार इनको अपनी फ़िल्म में न केवल जगह देते हैं बल्कि उन्हें यथासंभव यथार्थ के प्रति ईमानदार रहते हुए पर्दे पर रचनात्मक रूप से उतारने की कोशिश भी करते हैं। विधु विनोद चोपड़ा की फ़िल्म 12वीं फेल इसी तरह की एक उत्कृष्ट फ़िल्म कही जा सकती है।
विधु विनोद चोपड़ा (1952) हिंदी फ़िल्मों के प्रख्यात निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक हैं। पिछले चार दशकों से वे फ़िल्मों का निर्माण और निर्देशन कर रहे हैं। वे एक कामयाब फ़िल्मकार हैं और कई सोद्देश्य फ़िल्में उन्होंने बनायी हैं। 12वीं फेल एक जीवनीपरक फ़िल्म है। यह अनुराग पाठक लिखित पुस्तक पर आधारित है, जिसमें मनोज कुमार शर्मा नामक एक युवक के संघर्ष की कहानी कही गयी है। वह चंबल क्षेत्र के एक गांव का रहने वाला निम्न-मध्यवर्गीय परिवार का युवक है जिसके गांव के स्कूलों में नक़ल करना एक आम रिवाज बन गया है और जिसे स्वयं स्कूल के अध्यापक प्रोत्साहित करते हैं। मनोज कुमार शर्मा ने भी नक़ल से ही दसवीं पास की है और 12वीं की परीक्षा भी नक़ल से ही पास करने की उम्मीद लगाये बैठा है। लेकिन उसी समय उस इलाक़े में एक नया ईमानदार पुलिस अधिकारी आता है और वह स्कूलों में नक़ल रुकवा देता है, जिसका नतीजा यह निकलता है कि उस साल स्कूल के सारे बच्चे 12वीं की बोर्ड परीक्षा में फेल हो जाते हैं। मनोज कुमार के घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह पढ़ाई जारी रख सके, इसलिए अपने भाई के साथ मिलकर टेंपो (जिसे स्थानीय भाषा में ‘जुगाड़’ कहा जाता है) चलाता है और साथ में अपनी पढ़ाई भी जारी रखता है। पुलिस अफ़सर से प्रेरणा लेकर वह ईमानदारी से परीक्षा देता है लेकिन तृतीय श्रेणी में ही पास हो पाता है। वह राज्य प्रशासनिक सेवा में नौकरी करने के लिए ग्वालियर चला आता है लेकिन जो पैसे अपनी दादी से लेकर आता है, वे चोरी चले जाते हैं। अपने ही जैसे किसी अन्य युवक की मदद से वह दिल्ली चला आता है और यहां आकर वह भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) की परीक्षा में शामिल होने का निर्णय करता है। यह परीक्षा वह हिंदी माध्यम से देता है। हिंदी माध्यम से आइएएस, आइपीएस जैसी परीक्षाएं पास करना लगभग नामुमकिन होता है। हर साल हिंदी माध्यम से लगभग दो लाख परीक्षार्थी परीक्षा में बैठते हैं लेकिन मुश्किल से 20-25 अभ्यर्थी ही चुने जाते हैं। अपनी मेहनत, लगन और संघर्ष के बल पर मनोज कुमार शर्मा का आइपीएस में चयन हो जाता है। उसके इसी संघर्ष की सच्ची कहानी अनुराग पाठक की पुस्तक में कही गयी है। इसी पुस्तक से प्रभावित होकर विधु विनोद चोपड़ा इस पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला करते हैं और इसी का परिणाम है, 12वीं फेल फ़िल्म।
आमतौर पर हिंदी का व्यावसायिक सिनेमा यदि इस तरह के किसी विषय को उठाता भी है तो उसे मेलोड्रामा में बदल देता है, जिसका परिणाम यह होता है कि मूल विषय और उसकी प्रस्तुति, दोनों ही काफ़ी नाटकीय और अयथार्थ हो जाते हैं। लेकिन इस फ़िल्म को विधु विनोद चोपड़ा ने यथार्थ के दायरे से बाहर नहीं जाने दिया। न तो उसे नाटकीय बनने दिया और न ही अतिरंजनापूर्ण घटनाओं द्वारा अविश्वसनीय बनाया गया। फ़िल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है, वह मूल कथानक की ईमानदार प्रस्तुति है। फ़िल्म की ताक़त उसकी इस ईमानदारी में निहित है, जिसके कारण प्रत्येक चरित्र और प्रत्येक प्रसंग अपनी पूरी रचनात्मक क्षमता के साथ हमारे सामने आते हैं। इसके लिए फ़िल्मकार ने सिनेमा की ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया है जिसमें सहजता है, संवेदनशीलता है और सच्चाई है।
कह सकते हैं कि युवाओं के लिए बहुत ही प्रेरणास्पद फ़िल्म है। फ़िल्म इधर-उधर भटकती नहीं और अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ती रहती है। मनोज की भूमिका में विक्रांत मेस्सी ने बहुत ही प्रभावशाली काम किया है। अन्य चरित्र भी काफी प्रभावाशाली हैं। अधिकतर कलाकार नये हैं, इसलिए भी हमारे बीच के युवा ज्यादा लगते हैं। फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अवास्तविक और फ़िल्मी कहा जा सके। यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।
लेकिन इस समस्या को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि यह फ़िल्म हमारे समाज के कुछ बुनियादी सवालों से बचकर निकलती है। क्या केवल मेहनत के बल पर सफलताएं हासिल की जा सकती हैं? नायक के नाम से स्पष्ट है कि वह जाति से ब्राह्मण है और एक ग़रीब ब्राह्मण को संघर्ष के मार्ग में उन चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता जो एक दलित को भुगतना पड़ता है। क्या मनोज कुमार शर्मा की जगह कोई ग़रीब दलित होता तो कहानी का स्वरूप ठीक ऐसा ही होता? और आज के समय में क्या एक अल्पसंख्यक की कहानी ठीक इसी तरह पेश की जा सकती है? यह संयोग नहीं है कि फ़िल्म में अटल बिहारी वाजपेयी की कविता का इस्तेमाल किया गया है जिनका खुद का इतिहास ब्राह्मणवाद को मज़बूत करने का रहा है।
यह प्रश्न भी जरूर उठाया जाना चाहिए कि क्या युवाओं का लक्ष्य आइएएस, आइपीएस जैसी परीक्षाओं में कामयाबी हासिल करना ही होना चाहिए? इन परीक्षाआओं में सफल होने वाले अभ्यर्थी अंतत: व्यवस्था के कलपुर्ज़े ही बनते हैं। व्यवस्था का जो चरित्र होगा, उसी के अनुसार उनकी भूमिका होगी। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी व्यवस्था के चरित्र को बदलने में कोई भूमिका नहीं निभा पाती। स्वयं मनोज के पिता का उदाहरण है जो ईमानदार है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष भी करते हैं, लेकिन नतीजा यह निकलता है कि उनको नौकरी से निलंबित कर दिया जाता है। कई आइएएस, आइपीएस अधिकारी जो ईमानदारी के मार्ग पर चलने की कोशिश करते हैं, उन्हें तंत्र के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है या उन्हें इस तंत्र को छोड़कर बाहर आना पड़ता है। गुजरात काडर के आइपीएस अधिकारी संजीव भट्ट का उदाहरण सामने है जो पिछले कई सालों से इसलिए जेल में हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की कारगुज़ारियों का पर्दाफ़ाश किया गया था। मनोज की कहानी इस अर्थ में अधूरी है कि वह पुलिस अधिकारी तो बन जाता है लेकिन चयन होने के बाद जिस व्यवस्था में रहकर उसे काम करना है, वह अब तक के संघर्ष से कहीं ज़्यादा मुश्किल और चुनौतीपूर्ण होता है। वहां एक मोर्चे पर नहीं, कई-कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी होती है। ज़ाहिर है कि 12वीं फेल के मनोज कुमार की असली परीक्षा संघर्ष के उस मैदान से आंकी जायेगी, जिसे अभी कहा जाना शेष है। यह फ़िल्म उस संघर्ष की ओर उंगली तक नहीं उठाती।
फ़िल्म का नाम : 12वीं फेल (2023); निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक : विधु विनोद चोपड़ा; अनुराग पाठक की पुस्तक ‘12वीं फेल’ पर आधारित; संगीत : शांतनु मोइत्रा; कलाकार : विक्रांत मेस्सी, मेधा शंकर, अनंत वी जोशी, अंशुमान पुष्कर।
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