अंग्रेजी के ख्यात कवि, कला-समीक्षक, कला-सिद्धांतकार, और लल द्यद का अंग्रेजी में अनुवाद करनेवाले रणजीत होसकोटे ने इंटरनेशनल सेंटर गोवा में 15 फरवरी 2024 को गोवा आर्ट एण्ड लिटरेचर फेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए जो वक्तव्य दिया, वह आज के दौर में लेखकीय दायित्व पर एक विलक्षण टिप्पणी है। उनका मानना है, ‘यह सोच कर हम खुद को भरमा सकते हैं कि हमारी आवाज़ें हाशिये पर हैं, कि उनकी कोई हैसियत नहीं है, कि ऐसे समय में अपने पाठकों को देने के लिए उनके पास न तो तसल्ली है, न भरोसा और न ही आगे बढ़ने का कोई रास्ता ही।… मगर, यह एक ग़लती होगी।’
अंग्रेजी सेअनुवाद मनोज कुलकर्णी ने किया है।
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1.
मैं आपसे गुज़ारिश करूंगा, ग़ाज़ा के बच्चों के लिए एक प्रार्थना में मेरे साथ शामिल होने की।
बच्चे, जो बेरहम हवाई-बमबारी और तोपख़ानों की गोलाबारी से मार डाले गये हैं।
बच्चे, जो अपने घरों, अपनी पाठशालाओं, अपने पुस्तकालयों, अपने अस्पतालों के मलबों तले ज़िन्दा दफ़्न कर दिये गये हैं।
जब हम यहां शांति और सद्भावना के नखलिस्तान में इकट्ठा हुए हैं, तब भी दहशतज़दा बच्चे राफ़ा के आसमान को ताक रहे हैं। यह जानते हुए कि वहां क़त्लेआम की ताक़तें हैं और मदद का कोई हाथ किसी भी तरफ़ से नहीं बढ़ा है।
जब राफ़ा में उन बच्चों में से आख़िरी को क़त्ल कर दिया जायेगा, उनके साथ फ़िलिस्तीन का भविष्य भी मर जायेगा।
2.
एक पल के लिए भी यह कल्पना न करें कि ग़ाज़ा बहुत दूर है। ग़ाज़ा हर कहीं है। हम सांस ले रहे हैं जिस हवा में, ग़ाज़ा उसमें है। आज, एक ऐसी दुनिया में जिसकी पहले कल्पना तक मुमकिन न थी और जो अक्सर भयावह तौर पर जुड़ी हुई है, ग़ाज़ा हमारे दिलों में है।
मसलन, इज़राइल में ईजाद निगरानी की टेक्नालॉजियों का इस्तेमाल भारत में किया गया है। नाइत्तफ़ाक़ी, तर्क और प्रतिरोध की आवाज़ों के विरुद्ध। आईडीएफ— इज़राइल का रक्षा बल— भारत में तैयार ड्रोन का उपयोग कर रहा है। नागरिक आबादी— ग़ज़ा के बच्चों, महिलाओं, पुरुषों— पर हमलों के लिए। इज़राइल को संयुक्त राज्य अमेरिका धन और हथियार मुहैया करा रहा है, बावजूद इसके कि बड़ी तादात में दोनों मुल्कों के नागरिक तबाही की बेरहम मुहिम से भौंचक हैं और हिम्मत से उसकी मज़म्मत और ईमानदारी से मुख़ालफ़त कर रहे हैं। हथियारबंद जर्मनी इज़राइल की पैरवी कर रहा है, लगता है जैसे अनेक जर्मन सांसद मान बैठे हैं कि सर्वनाशी शोह (होलोकास्ट) जैसे किसी उन्मादी क़त्लेआम का प्रायश्चित करने का बेहतर तरीक़ा किसी अन्य जनसंहार, जैसे नकबा, के लिए मदद और बढ़ावा देने में है।
‘बटरफ्लाई इफ़ेक्ट’ से हांकी जा रही आज की दुनिया में हम जहां कहीं हो, भूगोल के हिसाब से चाहे जितनी दूर, हमारी नियतियां आपस में गहरे जुड़ी हैं। आज ग़ाज़ा से लगाकर कश्मीर, मणिपुर, भारत के खनिज-सम्पन्न आदिवासी ज़िलों और दिल्ली की सरहदों तक, जहां इंसाफ़ की मांग को लेकर किसान आ डटे हैं—मुखतसर में, जहां कहीं ध्रुवीकरण ही मुख्य सियासी उसूल बन चुका है, प्रतिहिंसा ही सांस्कृतिक रूढ़ि बन गई है, और दुश्मनी सामाजिक रिश्तों का प्रभुत्वशाली रूप, और जहां कहीं इस फ्यूहरर उसूल का बोलबाला है कि “निरंकुश सत्ता ऊपर से नीचे की ओर और परम हुक्मबरदारी नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित होती है” —ऐसी सभी जगहों के बीच नियंत्रण की विकृतियों और बंदिश के तौर-तरीक़ों, दमन के तंत्रों और बेदखली की तकनीकों की खुली लेन-देन हो रही है।
3.
इस अनियत, आघाती बल्कि सदमों से भरे तवारीख़ी लम्हे में विषादग्रस्त विनती और गहन उदासी की भावना के साथ मैं आपके साथ जर्मन भाषा में लिखी गयी अब तक की सबसे महान, सबसे मार्मिक कविताओं में से एक साझा करना चाहता हूं। ‘ग्रोडेक’ शीर्षक की यह कविता नवंबर 1914 में लिखी गयी। पहली आलमी जंग की सबसे खूनी लड़ाइयों में से एक के बाद। जो सितंबर 1914 की शुरुआत में ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य और रूसी साम्राज्य के बीच पूरब के मोर्चे पर लड़ी गयी थी। जहां कभी गैलिशिया था और जो आज जंग, तबाही और मनुष्य जीवन और क्षमताओं की विवेकहीन बर्बादी के एक और इलाक़े, यूक्रेन का हिस्सा है।
‘ग्रोडेक’ ऑस्ट्रिया में जन्मे कवि जॉर्ज ट्रैक्ल (1887-1914) ने लिखी थी, जो ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेना के एक चिकित्साधिकारी के बतौर उस लड़ाई में शामिल होकर उसका डरावनापन देख चुके थे। अपनी सरकारी भूमिका में जिन्होंने बेदर्दी से मार डाले गये सैनिकों की लाशें आती देखीं और भयानक ज़ख़्मी और अपाहिज कर दिये गये लोगों की तीमारदारी की। उन्हें युद्ध में मारे गये लोगों की बढ़ती संख्या का मिलान करना था— तमाम ऐसे जवान जिनके आगे जीवन की समूची धाराएं मौजूद थीं, ऐसे क्षितिज थे जिनकी खोज वे कभी नहीं कर सकेंगे। ‘ग्रोडेक’ आख़िरी कविता थी जो ट्रैक्ल लिख सके। लड़ाई के दो महीने बाद यह उनके सामान में पायी गयी थी, उनकी वसीयत के पीछे घसीटी हुई-सी।
एक गहरे अर्थ में ‘ग्रोडेक’ उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा थी। रूह कंपा देने वाले एक विलाप में लिपटी उनकी विरासत। वियना में अपने मित्र और हिमायती लुडविग वॉन फ़िकर को इसे भेज देने के तुरंत बाद ट्रैक्ल ने खुदकुशी कर ली थी। इस तरह उसने, अपनी भावनात्मकता को ललकारने वाले, संवेदनशीलता का मज़ाक बनाने वाले, और प्रतिकार के लिए तलब की जा सकने वाली भाषा के स्रोतों का अनादर करने वाले एक कल्पनातीत संत्रास का गवाह होने की चरम क़ीमत चुकायी।
मैं ‘ग्रोडेक’ को पहले मूल रूप में और फिर अनुवाद पढ़ूंगा।
Grodek [auf Deutsch]
Am Abend tönen die herbstlichen WälderVon tödlichen Waffen, die goldnen Ebenen Und blauen Seen, darüber die Sonne Düstrer hinrollt; umfängt die Nacht Sterbende Krieger, die wilde Klage Ihrer zerbrochenen Münder.
Doch stille sammelt im Weidengrund Rotes Gewölk, darin ein zürnender Gott wohnt Das vergoßne Blut sich, mondne Kühle; Alle Straßen münden in schwarze Verwesung.
Unter goldnem Gezweig der Nacht und Sternen Es schwankt der Schwester Schatten durch den schweigenden Hain, Zu grüßen die Geister der Helden, die blutenden Häupter; Und leise tönen im Rohr die dunkeln Flöten des Herbstes. O stolzere Trauer! ihr ehernen Altäre Die heiße Flamme des Geistes nährt heute ein gewaltiger Schmerz, Die ungebornen Enkel.
ग्रोडेक
सांझ के वक़्त, गूंज उठते हैं शरद के जंगल
घातक हथियारों से, सुनहरे मैदान
और नीली झीलें, जिन पर ढुलकता है
गहराता सूरज; रात लेती है गिरफ़्त में
मरते सैनिकों को, सांय-सांय करता है वन
उनके कुचले मुंहों से।
मगर चुपचाप वे इकट्ठा होते हैं विल-वृक्षों के उपवन में
एक क्रुद्ध देवता को पोसते रक्तिम बादल,
छलका हुआ खून खुद, चांद सा ठंडापन;
काली सड़न में मिलती सारी सड़कें।
रात की सुनहरी डगालों और सितारों तले
बहन की परछाईं झूलती है ख़ामोश जंगल में
वीरों के भूतों, लहूलुहान सिरों को सलाम करने;
और बंदूक की नालों में, शरद की उदास बांसुरियों की फीकी पड़ती ध्वनि।
हे स्वाभिमानी संताप ! तुम कांसें की बलिवेदियो,
विशाल व्यथा से पोषित है आत्मा की उग्र लपट आज,
सन्ततियां कभी जन्मेंगी नहीं।
4.
बतौर लेखक हम जानते हैं कि चिंतन-मनन करने, रचने, रचते रहने की हमारी क़ाबिलियत— हमारा जीवन-सार— एकांत पर निर्भर होता है। दीर्घ चिंतन और उसे आहिस्ता-आहिस्ता मुक्त करने की दुनियादारी पर। हम एक गहरी आंतरिकता में रहते हैं, दुनिया का सामना करते और उससे समझौते करते हुए भी उससे रचनात्मक दूरी बरतते हैं। हम अपने एकांत को महत्व देते हैं, इसे ज़रूरी मानते हैं कि हमारी सर्जनात्मकता बिन बाधा फल-फूल सके।
बेशक, हम सबका तजुर्बा है कि इस बात में ख़ासी सच्चाई है। हालांकि, इन हालात के साथ दिक्क़त यह है कि अगर इन्हें आख़िरी छोर तक ले जाया जाये तो ये एक ऐसे एकांतवाद में तब्दील हो सकते हैं जो मुश्किल वक़्तों में सुरक्षा को विशेषाधिकार बना दे, ऐसा निष्कर्मवाद जो किसी भी तरह के संकट से दूर रहे। जो बतौर लेखक साक्षी होने के हमारे काम का ज़रूरी हिस्सा है।
‘ग्रोडेक’ में ट्रैक्ल ने इस काम को सटीक तरह से अंजाम तक पहुंचाया। धर्मनिष्ठ नीरस उक्तियों या महज़ नारों से नहीं बल्कि उग्र, निडर भावमय दावे के साथ उन्होंने अपने पाठकों का ध्यान खींचा। अपने भाषायी आलोड़न से, अपने बिंबों को तोड़ और फिर सिरज कर, प्राकृतिक दृश्यों की रूमानियत को खंडित और चकनाचूर कर, गोलियों से टूटी हड्डियों-खोपड़ियों, बिखरे खून, मांस के लोथड़ो, स्तब्ध सरायों और बूटों से कुचले कीचड़ से संकेत लेता एक ऐसा काव्यमय चयन पेश किया जो वीरता की पुराकथाओं का भावप्रवण यथार्थ निर्मित करता है।
जब सार्वजनिक वृत्त में सम्मोहक हालात हमें, मुठभेड़ और फ़ौरी तौर पर अत्यावश्यकता की, दूसरी ही स्थिति में जाने को न्योतते हैं, हम समीक्षा की अनिवार्यता, आलोचनात्मक कार्रवाई के नैतिक फ़र्ज़ से मुंह नहीं मोड़ सकते। यह सोच कर हम खुद को भरमा सकते हैं कि हमारी आवाज़ें हाशिये पर हैं, कि उनकी कोई हैसियत नहीं है, कि ऐसे समय में अपने पाठकों को देने के लिए उनके पास न तो तसल्ली है, न भरोसा और न ही आगे बढ़ने का कोई रास्ता ही।
मगर, यह एक ग़लती होगी। स्पष्ट किये जाने की मांग करते एक बेहद ज़रूरी संघर्ष को गढ़ने के लिए शिल्पों, मौक़ों और मंचों की सक्रिय तलाश के बजाय हम अपने गैरमौजूं होने की खुशफहमी से खुद को बहका नहीं सकते, जबकि अपने पेशेवर लक्ष्यों का पीछा हमने जारी रखा हुआ है।
हम लेखक हमारी अपनी खुलती-फैलती काल्पनिक यात्राओं के प्रति सचेत रहते हैं; किन्तु हम संवैधानिक तौर पर संकल्पित एक राष्ट्र-राज्य के नागरिक भी हैं। व्यापक अर्थों में एक ऐसी दुनिया के बाशिंदे, जो नितांत प्रतिकूल मालूम देने के बावजूद सुविधाओं-अभावों, लेन-देन तथा रोक, नापसंद झटकों और मुक्त करने वाले अचरजों के एक मोंताज़ से बड़ी बारीकी से बंधी है। लेखक के रूप में हम जिस रचनात्मक आज़ादी की प्रबल लालसा रखते हैं, उसे उन बड़ी स्वतंत्रताओं से अलगाया नहीं जा सकता जिन्हें हम अपने साथी शहरियों के साथ साझा करते हैं; जो हमारे जीवन, स्वाधीनता तथा उम्मीदों और ख़्वाबों को पाने की हमारी संभावनाओं की गारंटी देती हैं। आज़ादियां, जिनकी हमें हिफ़ाज़त करनी चाहिए।
ऐसे में बतौर लेखक-नागरिक हमारा कर्तव्य है कि हुकूमत द्वारा आज़ादी, विकल्प और व्यक्तिगत संप्रभुता को विकृत और नष्ट किए जाने के विरुद्ध गवाही देने अनिवार्य तौर पर सामने आयें।
महान उर्दू शायर मीर तकी मीर (1723-1810) ने जैसा लिखा था [दीवान-ए-पंजुम: 1706.5]:
शा’इर हो मत चुपके रहो अब चुप में जानें जाती हैं
बात करो अब्यात पढ़ो कुछ बैतें हमको बताते रहो
उल्लेखनीय है कि उर्दू शब्द बैत (मूलतः अरबी) का शाब्दिक मतलब ‘घर’ है, यहां उसका प्रयोग एक छंद या कविता के अर्थ में किया गया है। मीर ने यहां दो बार इसे बहुवचन में बरता है : अब्यात, जो अभिजात और दुरुस्त रूप है, तथा ‘बैतें’ जो ज़्यादा लोकप्रिय, खुरदुरा और सुलभ रूप है। दोनों का उपयोग कर उन्होंने पूरे समाज को समो लिया जिसमें उच्च और निम्न, कुलीन और कारीगर, सभी दमन और थोपी गयी ख़ामोशी के शिकार के तौर पर एक समान हैं।
जब जानें जा रही होती हैं, लोग तब भी मौन साधे रहते हैं, ऐसे में अपने श्रोताओं की आवाज़ों के ज़रिये मीर खुद से कह रहे हैं कि आज़ाद और बेखौफ़ इज़हार का फ़र्ज़ कभी नहीं छोड़ा जाना चाहिए। जो सुनेंगे उन्हें शरण देने के लिए, जबकि हुकूमत की मशीनरी उन्हें सुरक्षा और अपनापे के दायरे से बेदख़ल कर शरणार्थियों में बदल चुकी है।
5.
तब भी लोग हैं जो हम से कहेंगे कि जो कहा जाना चाहिए, उसे कहने, हुकूमत को खरी सुना देने, हमारे युग के दुराग्रहों को संबोधित करने का यह बिलकुल भी मुनासिब वक़्त नहीं है।
जातीय या सांप्रदायिक संवेदनशीलताएं दांव पर हैं। यह सही समय नहीं है।
सियासी प्रतिक्रियाएं गंभीर होंगी। यह सही समय नहीं है।
जनता की मनस्थितियां प्रतिकूल है। यह सही समय नहीं है।
कूटनीतिक मुद्दे दांव पर हैं। यह सही समय नहीं है।
अपनी असहमतियों को महत्व देने के लिए हमारे पास पर्याप्त आधार नहीं है। यह मुनासिब वक़्त नहीं है।
सही समय कब होगा? मैं अपनी घड़ी देख रहा हूं जो शाम के 6 बज कर 55 मिनिट का समय बता रही है। अभी शाम के 6:55 बजे है और अभी, अभी, अभी ही बिलकुल वाजिब वक़्त है, और हमेशा रहेगा, अत्याचार के विरुद्ध आपकी आवाज़ बुलंद करने का। हमारी आवाज़ें बुलंद करने का, क्योंकि एक साथ मिलकर हम विविध स्वरों की संगति हैं, हम समुदाय हैं, हम जमघट हैं, हम एकजुटता हैं। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ें उठाने के लिए। नाइंसाफ़ी के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए। जनतांत्रिक असहमति के ख़ात्मे और विरोध के दमन और सेंसरशिप के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठाने के लिए। हर उस चाल, जाल-फरेब और रणनीति के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए जिनका इस्तेमाल सत्ता करती है स्वतंत्रता के महान मानवीय अभियान को रोकने और कमज़ोर करने में—जिज्ञासा और सृजनात्मक खोज के हमारे अधिकार की कटौती करने में; मोहब्बत, भरोसे, नैतिक दृढ़ता और साहस की बुनियाद पर रिश्ते बनाने के हमारे खुलेपन की कटौती करने में; विचारधारा द्वारा तय किसी एकरंगी अतीत और केंद्रीय रूप से नियोजित भविष्य की साज़िश का हिस्सा बने बगैर अपने बहुलतामूलक अतीतों को उजागर करने और बहुलतामूलक भविष्यों का तसव्वुर रचने के हमारे विशेषाधिकार की कटौती करने में।
समय आ गया है। इसी भावना के साथ मैं अक्षरों, विचारों और मुबाहिसों के इस शानदार जलसे ‘गोवा कला और साहित्य उत्सव’ को, जिसका यह 12 वां संस्करण है, ये शब्द समर्पित करता हूं। यह हमेशा रचनात्मक जुड़ाव और जरूरी मुद्दों पर खुली और निडर बातचीत का मंच बना रहे।
अंग्रेज़ी से अनुवाद – मनोज कुलकर्णी
manoj4165@gmail.com
ग्रोडेक के बहाने आपने हमारे समय को पहचानने की कोशिश की है, हम अपनी कविताओं को कहानियों को अपने कलाओं को निडर बनाने की इस बहाने कोशिश कर सकते हैं, मनोज भाई साधुवाद
आज के वक़्त का यह सच है …ग़ाज़ा हर कहीं है।
अच्छा विवेचन। बेहतरीन अनुवाद।
ग्रोडेक पढ़ते-पढ़ते रुलाई उमड़ी। उसे रोका भी नहीं। उसे क्या रोकना जिसकी व्यर्थता का अहसास दिन में दस बार होता है!
रणजीत होसकोट मायूस नहीं हैं, नाउम्मीद नहीं हैं। वे जानते हैं कि कला और साहित्य की झीनी-सी अभिव्यक्ति भी मायने रखती है।
‘नया पथ’ का आभार कि ऐसी नायाब रचना पढ़ने को मिली।
मनोज कुलकर्णी ने मूल से सवाया तर्जुमें में मुहैया कराया।
Hoskote ने बहुत बेहतर तरीके से एक रचनात्मक अपील की है प्रतिरोध की.
गाजा के बच्चों के लिए प्रार्थना में शामिल होने” का आह्वान सच कहा जाए तो लेखकीय जिम्मेदारी से जुड़े हुए लोगों के लिए आशा के साथ ही कर्तव्य का आह्वान भी है, कि वे बोलें। गाजा के लिए बोलें, फिलिस्तीन के लिए बोलें। जहां भी अन्याय हो रहा है उसके लिए बोलें।
रणजीत होसकोट का यह व्याख्यान साबित करता है कि कॉर्पोरेट से अलग भी साहित्य उत्सव अपनी जिम्मेदारी और भूमिका बना सकते हैं। बशर्ते कि वे उसे समझें।
मैंने जार्ज टैक्ल की ‘गोडेक’ नहीं पढ़ी लेकिन यह व्याख्यान पढ़ने के बाद जरूर पढ़ूंगी। मनोज कुलकर्णी के अनुवाद ने इस बहाने कई प्रश्न उठाए हैं। उन्हें और नया पथ को बहुत-बहुत बधाई।
मेरे मन में सवाल यही उठ रहा है बार बार। ठीक क्या करना चाहिए।सब लेखक एकजुट हों तभी कोई ठोस कदम उठाया जा सकता है। सवाल है कि कौन उसका अगुआ बनेगा? विरोध में सिर्फ छिटपुट लिख कर नहीं ,लोगों को एकत्र करके बाकायदा सड़क पर उतर कर प्रदर्शन करना होगा, लड़ाई करनी होगी। नेतृत्व कौन करेगा? किसमें वह माद्दा है, कौन प्रबंधन में निपुण है जो सामूहिक तौर पर संचालन कर सके। मैं जानती हूं, मुझ में ये गुण नहीं हैं। किसमें है? ऐसा इंसान जो गुणवान भी हो और मौजूदा हालात से हलकान भी।
बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य