कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया / मुरली मनोहर प्रसाद सिंह


अली मदीह हाशमी की किताब  प्रेम और क्रांति : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जीवनी (अनुवाद : अशोक कुमार, 2021, सेतु प्रकाशन, दिल्ली) पर मुरली मनोहर प्रसाद सिंह  की टिप्पणी :

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फ़ैज़ की शख़्सियत और उनकी ज़िंदगी पर एक मुकम्मल किताब अली मदीह हाशमी ने लिखी है। लेखक खुद एक मनोचिकित्सक हैं और रिश्तेदारी में फ़ैज़ के नाती लगते हैं। उनकी इच्छा है कि इस किताब को उसकी योग्यता के आधार पर परखा जाये, न कि रिश्तेदारी के आधार पर । फिर भी फ़ैज़ को अंदर-बाहर जानने के बहुत सारे सूत्र थे जो उन्हें सहज ही उपलब्ध थे, जिनमें उनकी दिलचस्पी भी थी। इस किताब में फ़ैज़ की फ़ौजी ज़िंदगी के बारे में अधिकृत रूप से बताया गया है। फ़ैज़ ब्रिटिश फ़ौज में क्यों शामिल हुए, यह सवाल अक्सर उठता रहा है। विभिन्न उर्दू और हिंदी समालोचकों ने फ़ैज़ और दिनकर के प्रसंग में यह सवाल उठाया है कि ये दोनों यदि सच्चे देशभक्त थे तो फिर ब्रिटिश फ़ौज में क्यों भर्ती हुए? फ़ैज़ ने इस आलोचना का जो जवाब दिया, उसके आरंभिक इशारे इस तरह हैं:

‘मैं देख रहा था कि फ़ासिस्ट ताक़तें किस तरह तीन तरफ़ से हमले कर रही थीं—पूरब में बर्मा, पश्चिम में उत्तरी अफ्रीका, और उत्तर में दक्षिणी रूस की तरफ़ से। और जब हमारी ज़मीन भी इस हमले की ज़द में आती दिखी तो मैं फ़ौज में भर्ती हो गया।’

जब हिटलर की सेना ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया तो जुलाई 1941 में ब्रिटेन उसकी मदद के लिए आगे आया। यह एक ऐतिहासिक रूप से भिन्न परिस्थिति थी। ब्रिटेन सोवियत संघ की मदद करे, यह अनुमान से परे एक घटना थी। इस घटना ने फ़ैज़ को प्रेरित किया कि वे फ़ासिस्ट ताक़तों के विरुद्ध ब्रिटिश फ़ौज में शामिल हो जायें।

अली मदीह ने इस प्रसंग में यह जोड़ा है:

‘भारत की ब्रिटिश सरकार ने भारत में वामपंथी और प्रगतिशील संगठनों पर प्रतिबंधों को ढीला कर दिया। जर्मन सेना के विरुद्ध सोवियत सेना और ब्रिटिश सेना का यह सहयोग एक तरह से सोवियत संघ और ब्रिटेन का मित्र राष्ट्र के रूप में सहयोग था। इसीलिए भारत के प्रगतिशीलों का दृष्टिकोण भी बदला।’

फ़ैज़ का फ़ासीवाद के विरुद्ध बहुत स्पष्ट दृष्टिकोण था। इस पुस्तक के लेखक अली मदीह हाशमी का कहना है:

‘फ़ैज़ का यह मानना था कि सभी विचारशील लोगों को फ़ासीवाद के उभार का प्रतिकार करना चाहिए। … फ़ैज़ समझते थे कि मंगोलों और तातारों के ख़ूनी हमले इतिहास की बात हो गयी। आधुनिक युग में फ़ासीवाद पूंजीवादी दमन का एक रूप है जिसमें हमलावर दूसरे क्षेत्र की ज़मीन, संसाधन और लोगों पर क़ब्ज़ा करके उनका लाभ के लिए इस्तेमाल करता है और ग़ुलाम लोगों को अपनी तरह की ज़िंदगी जीने नहीं देता।’

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का यह दृष्टिकोण आज के भारत में भाजपा-आरएसएस राज की भी पूरी तरह से व्याख्या कर देता है। फ़ासीवाद केवल विश्वस्तर पर विश्वयुद्ध का ही रूप नहीं लेता, एक देश के अंदर जनसाधारण के जीवन को भी तबाह कर देता है। भारत में आज यही हो रहा है। अली मदीह हाशमी ने यह भी बताया है कि फ़ैज़ का यह पक्का मानना था कि मानव सभ्यता ने हज़ारों सालों के संघर्ष और बलिदान के बाद जो कुछ भी हासिल किया है, उसे फ़ासीवाद नष्ट कर दे, इससे पहले इसे कुचल देना बहुत ज़रूरी है।

ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के बाद शुरुआत में फ़ैज़ को कैप्टन का रैंक दिया गया और प्रसारण तथा सूचना विभाग का काम सौंपा गया। असल उद्देश्य जनमत को जंग के पक्ष में मोड़ना था। यही काम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का भी था। उनके द्वारा बनाया गया और प्रचारित यह गीत, ‘ज़िंदगी है मौज में / भर्ती हो जा फ़ौज में’, भी इसी मक़सद से गाया जाता था।

ब्रिटिश अधिकारी सेना में फ़ैज़ के काम से काफ़ी प्रभावित थे, लेकिन फ़ैज़ को मालूम हो गया था कि ब्रिटेन सोवियत संघ के ख़िलाफ़ साज़िश की तैयारी कर रहा है। इसलिए जंग ख़त्म होते-होते उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और ब्रिटिश सेना से अलग हो गये। वे अगर कैरियर को ध्यान में रखते तो फ़ौजी अनुभव के आधार पर ब्रिटिश सेना में ऊंचे पद पर पहुंच सकते थे। पर यह सब उन्हें मंज़ूर नहीं था।

अली मदीह हाशमी ने फ़ैज़ की शख़्सियत और ज़िंदगी पर लिखी इस मुकम्मल किताब में उनके फ़ौजी जीवन पर ठीक से विचार किया है। यह पुस्तक फ़ासीवाद से संघर्ष के संदर्भ में बहुत ही उपयोगी है।

फ़ौज की नौकरी में तरक़्क़ी होते-होते अंततः वे 1944 में लेफ़्टिनेंट कर्नल हो गये और उनकी तनख़्वाह 2500 रुपये महीना हो गयी। इस्तीफ़ा देने के बाद वे महज़ 1000 रुपये की तनख़्वाह पर पाकिस्तान टाइम्स के संपादक के पद पर नियुक्त हुए। फ़ैज़ की जान-पहचान के एक प्रकाशक, इफ़्तीख़ारुद्दीन, पाकिस्तान टाइम्स के मालिक थे। उन्होंने कभी भी संपादन कार्य में अपनी तरफ़ से रोकटोक नहीं की। पाकिस्तान टाइम्स पाकिस्तान की ग़रीब जनता का मुखपत्र बन जाये और लोकतांत्रिक रुझानों का पहरेदार बने—इस कोशिश में फ़ैज़ ने शुरुआत में बहुत परिश्रम किया।

इस किताब का दूसरा महत्त्वपूर्ण अध्याय फ़ैज़ के इंतिकाल से संबंधित है। एक और महत्त्वपूर्ण अध्याय बदनाम रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी केस से संबंधित है। बग़ावत का झूठा मुक़दमा, फांसी की सज़ा का अंदेशा, और अलग-अलग जेलों में चार साल की क़ैद। यह सिलसिला लियाक़त अली खां के अलावा दूसरी हुकूमतों में जारी रहा।

इस किताब की ख़ास विशेषता है, फ़ैज़ की शायरी और उनके विचारों पर लेखक की टिप्पणियां। फ़ैज़ की शायरी की पहली किताब है, नक्श-ए-फ़रियादी। इसकी नज़्मों की लय और संगीत पर ध्यान दें तो उनके मित्र अनवर की भूमिका की स्पष्ट तस्वीर उभरती है। अनवर भगत सिंह के साथी थे। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में फ़ैज़ की दोस्ती ख़्वाज़ा खुर्शीद अनवर से हुई जो संगीत के गहरे आशिक़ थे। अली मदीह हाशमी ने इस बात का उल्लेख किया है कि अनवर की सोहबत में फ़ैज़ ने संगीत की बारीक़ियां सीखीं। संगीत और शायरी के शौक़ीन दोस्तों की जो मंडली बनी, उनमें रफ़ीक़ ग़ज़नवी, आग़ा हमीद, नवी अहमद और शेर मुहम्मद हमीद शामिल थे। ये सभी दोस्त सियासत में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं रखते थे, पर शायरी और संगीत से बेहद लगाव रखते थे। फ़ैज़ की शायरी पर आधारित उर्दू संगीत का जो सिलसिला चल पड़ा, उसके पीछे खुर्शीद अनवर का महत्त्व समझा जा सकता है। पूरे पाकिस्तान में ही नहीं, जहां-जहां उर्दू शायरी और संगीत से लोगों का लगाव है, फ़ैज़ की शायरी में संगीत का जो तत्त्व है, उसका महत्त्व सर्वाधिक है। फ़ैज़ की शायरी की सांगीतिक धुनों के असली उस्ताद अनवर ही माने जायेंगे। रावी नामक पत्रिका में फ़ैज़ की शुरुआती नज़्में प्रकाशित होती रहीं। पतरस बुखारी के घर पर हर महीने शायरी की महफ़िल जमने लगी जिनमें फ़ैज़, इम्तियाज अली, एम डी तासीर, हफ़ीज़ जालंधरी, चिराग़ हसन हसरत और सूफ़ी तबस्सुम आदि की मौजूदगी में लोग अपनी शायरी सुनाने लगे। नज़रे मोहम्मद राशेद फ़ैज़ के सीनियर थे, और वे भी पतरस साहब के घर की इस महफ़िल में भाग लेते थे। चूंकि अच्छे-अच्छे रचनाकार इस महफ़िल में आते थे, शायरी का स्तर ऊंचा होता गया। फ़ैज़ ने इन महफ़िलों का महत्त्व स्वीकार किया है। फ़ैज़ की रचनाशीलता के विकास के विभिन्न पड़ावों का अध्ययन-अनुशीलन अली मदीह हाशमी ने बहुत अच्छी तरह किया है। इससे पाठकों को फ़ैज़ की रचनाशीलता के निखार और उत्तरोत्तर विकास को समझने में मदद मिलती है।

रावलपिंडी कॉन्सपिरेसी केस के सिलसिले में फ़ैज़ चार साल जेल में रहे। उनकी जेल डायरी तो नहीं है, लेकिन अली मदीह हाशमी ने जेल जीवन का विस्तृत ब्योरा लिखा है। उनका कहना है:

‘पढ़ने की आदत जो उनकी छूट गयी थी, उसके लिए भी जेल में ख़ूब समय मिला। जो किताबें वे पढ़ रहे होते, उन पर उनकी 2-3 लाइन की सटीक टिप्पणियां जेल में एलिस के नाम लिखे उनके ख़तों में मिलती हैं। कॉलेज में वे अंग्रेज़ी पढ़ाते थे मगर उर्दू, अरबी, फ़ारसी पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी और पढ़ना तो उन्हें बचपन से ही पसंद आने लगा था। उन्होंने अपने लिए अरबी कवि अबू तमाम का ‘दीवान’ ख़ास तौर से जेल में मंगवाया था। उन्होंने एलिस से ये कताबें मंगवायीं—रेनॉल्ड दी नकोलसन की अ हिस्ट्री ऑफ़ कोर्टिंग, अर्नोल्ड ट्वायनबी की अ स्टडी ऑफ़ हिस्ट्री, सर्वपल्ली राधाकृष्णन की इंडियन फिलासफी एवं अन्य। इन किताबों की सूची से पता चलता है कि वे मानव-सभ्यता और संस्कृति तथा उसके विकास में कितनी दिलचस्पी रखते थे। साहित्य हमेशा से उनका पसंदीदा विषय रहा और उनकी पठनीय किताबों में अलफ़ोन्स दौडेट की साफ़ो, सीन ओ केसी का नाटक द स्टार टर्न्स रेड, टी एस इलियट की कविताएं, चेख़व और मोंपासां की कहानियां तथा उपन्यास, जेम्स आल्डरिज का उपन्यास द डिप्लोमैट, अप्टोन सिंक्लेयर का द जंगल, गोगोल की कहानियां और शेक्सपियर की रचनाएं शामिल थीं। वे हैवलॉक इलिस और नीत्शे की किताब भेजने का अनुरोध करते थे।’

फ़ैज़ ने एलिस को भेजे एक ख़त में मशहूर रूसी चिकित्सक और लेखक चेख़व के बारे में लिखा: ‘चेख़व की लेखनी से कितनी मोहब्बत, कितना जज़्बा टपकता है। उनके नाटकों में इतनी ताज़गी और इतना नयापन है कि हम उन्हें ट्रैजडी नहीं कह सकते, उम्मीद और हमदर्दी ही उनके नाटकों की केंद्रीय बिंदु है जो हर सीन में पैबस्त है।’

कहीं और उन्होंने लिखा: ‘मैं ईलियट की एक कविता पढ़ रहा हूं। वक़्त मारता भी है, ज़िंदगी भी देता है। यह एक ख़ूबसूरत कविता है। हालांकि इलियट ने इसमें जो नतीजे निकाले हैं, वे काफ़ी बेमानी हैं।’

नीत्शे की दस स्पेक जरथ्रुष्ट के बारे में उन्होंने लिखा: ‘इससे पहले मैंने यह किताब नहीं पढ़ी थी, हालांकि नीत्शे की कुछ और किताबें पढ़ चुका हूं। वे आज ज़िंदा होते तो नाज़ियों से लड़ते क्योंकि उन्होंने उनके विचारों को पूरी तरह से तोड़-मरोड़ दिया है और उनके लेखन के वास्तविक पहलुओं को बिगाड़ दिया है। वे भी एक अनाड़ी थे मगर काफ़ी जज़्बाती और शायराना अनाड़ी।’

उनकी पठनीय किताबों और उनकी विस्तृत टिप्पणियों से पता चलता है कि उनकी रचनात्मकता में निखार आने का मूल कारण क्या है।

रावलपिंडी षड्यंत्र मामले में फ़ैज़ चार साल जेल में रहे। इन चार सालों में उनकी शायरी के दो संकलन तैयार हुए। पहला संकलन दस्त-ए-सबा और दूसरा ज़िंदांनामा। दूसरा रिहाई के बाद ही छप पाया। फ़ैज़ जो भी नया लिखते, एलिस को भेज देते थे। एलिस उस शायरी को अख़बारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा देती थीं। अली मदीह हाशमी ने इस प्रसंग में लिखा है: ‘जेल में फ़ैज़ को अपनी शायरी के शिल्प को मुकम्मल करने और मांजने का पूरा समय और आज़ादी मिली।’ इसके साथ ही हाशमी की टिप्पणियों में इस बात के भी हवाले हैं कि नयी शैलियों, नये ख़यालों के साथ फ़ैज़ ने ख़ूब प्रयोग किये। फ़ैज़ की पसंद की विधाएं नज़्म और ग़ज़ल रही हैं। उन्होंने इस बीच 32 ग़ज़लें और 31 नज़्में लिखीं। फ़ैज़ ने इन ग़ज़लों और नज़्मों में ऐसे विषय भी शामिल किये जो एकदम नये थे, पर उनकी भाषा में कोई फेरबदल नहीं कर सके, न कर सकते थे।

जेल-जीवन के चार सालों (1951-55) में पत्रकारिता ख़ुशामदी हो गयी थी। हाशमी ने लिखा है: ‘फ़ैज़ के लिए यह सब असहनीय था। वे उस नैतिक, लोकतांत्रिक पत्रकारिता को बहाल करने की कोशिश करने लगे।’ जेल से निकलने के बाद पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ का काम संभालने लगे। लेकिन इन पत्रों में भी पतन के चिह्न दिखायी देने लगे थे। इन प्रवृत्तियों को ठीक करने में फ़ैज़ तत्पर हो गये। हाशमी ने बताया है कि फ़ैज़ अपने इर्द-गिर्द हो रही नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ पाकिस्तान टाइम्स में लिखते रहे और सरकार की नीतियों की आलोचना करते रहे। लेकिन पाकिस्तान टाइम्स के प्रबंधन में ऐसी व्यवस्था हो गयी थी कि फ़ैज़ के लिए यह काफ़ी मुश्किलों और दर्द का वक़्त बन गया था। उर्दू आलोचक और मार्क्सवादी टिप्पणीकार सिब्ते हसन ने भी उपर्युक्त बातों का समर्थन किया है। लेकिन जब अयूब ख़ां फ़ौजी तानाशाह बने तो पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ के साथ पूरे प्रकाशन समूह का ही अधिग्रहण कर लिया। यह घटना 1958 की है।

ज़िंदांनामा का प्रकाशन फ़ैज़ की रिहाई के बाद ही संभव हो सका। पर इसमें अनेक मशहूर मार्मिक कविताएं हैं। उदाहरण के लिए, ‘आ जाओ अफ्रीका’, ‘हम जो तारीक राहों में मारे गये’, ‘मुलाक़ात’ और ‘दरीचा’ जैसी कविताएं। दर्द और मुक्ति के मर्मस्पर्शी चित्र खींचने के लिए फ़ैज़ ने ‘सबा’ (पूरब की बयार), ‘अब्र-ए-बहार’ और ‘माह-ए-ताबनाक’ (चमकता चांद) जैसे बिंब और रूपक का धार्मिक और काव्यात्मक संदर्भों में इस्तेमाल किया है। इसके अलावा गहरी उदासी से भरी ‘ऐ रोशनियों के शहर’ जैसी रचना लिखी है। प्रतिकार से भरपूर कविता, ‘बुनियाद कुछ तो हो’ भी इस संग्रह में शामिल है। हाशमी की मान्यता है कि ज़िंदांनामा उनकी सबसे लोकप्रिय और कालजायी रचना साबित हुई।

जेल से निकलने के कई सालों बाद उनके साहित्यिक निबंधों का संग्रह मीजान नाम से 1962 में प्रकाशित हुआ।

फ़ैज़ की इतनी लोकप्रियता और प्रसिद्धि हो चुकी थी कि उन्हें विश्वकवि का दर्जा प्राप्त हो गया। अंग्रेज़ी में विक्टर कीर्नन ने उनकी कविताओं के अनुवाद ही नहीं किये, उन अनूदित कविताओं के संग्रह के प्रकाशन के भी इंतज़ाम किये। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ ने उनकी रचनाओं का ठीक से प्रचार-प्रसार किया। इस कड़ी में 1956 में एशियाई लेखकों का पहला सम्मेलन प्रगतिशील लेखक संघ ने आयोजित किया। मुल्कराज आनंद ने उन्हें निमंत्रण भेजा। इसमें भाग लेने के बाद इक़बाल पर आयोजित मुशायरे में शायर की हैसियत से वे सम्मिलित हुए। कुछ सालों बाद 1958 में अफ्रीकी-एशियाई लेखक सम्मेलन में भाग लेने फ़ैज़ ताशकंद पहुंचे। फिर पाकिस्तान में अयूब ख़ां की फ़ौजी तानाशाही शुरू हुई और फ़ैज़ सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ़्तार कर लिये गये। 1959 में उन्हें रिहा किया गया। कुछ दिनों बाद अयूब ख़ां के मार्शल लॉ शासन के दौर में ही उन्हें लाहौर आर्ट्स काउंसिल के निदेशक पद पर नियुक्त किया गया। लाहौर आर्ट्स काउंसिल का फ़ैज़ ने एक जीवंत सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुनरुद्धार कर दिया। 59 से 62 तक तीन साल आर्ट्स काउंसिल के निदेशक पद पर वे कार्य करते रहे। इन तीन सालों में एक बेजान संस्था को एक सक्रिय, लोकतांत्रिक और जीवंत संस्था बनाने में वे कामयाब हो गये।

इस बीच उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार मिला। पुरस्कार समारोह क्रेमलिन के ग्रांड पैलेस हॉल में हुआ जिसमें दुनिया भर के लेखक, कलाकार और शांतिप्रेमी बुद्धिजीवी मौजूद थे।

यह ध्यान देने की बात है कि फ़ैज़ किसके माध्यम से 1947 से पहले ही कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी विचारधारा और प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आये। अली मदीह हाशमी ने लिखा है कि जब वे अमृतसर के मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर पद पर नियुक्त हुए तो उनका परिचय वाइस प्रिंसपल महमूदुज़्ज़फ़र से हुआ। उनकी पत्नी राशिद जहां थीं। दोनों वामपंथी रुझान रखते थे। दोनों के प्रयत्न से फ़ैज़ वामपंथ में दिलचस्पी लेने लगे, मज़दूरों और किसानों की समस्याओं में दिलचस्पी लेने लगे। हाशमी की मान्यता है कि ‘अमृतसर में ही फ़ैज़ मार्क्सवादी चिंतन के केंद्रीय सिद्धांत, समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद से परिचित हुए। …फ़ैज़ जैसे व्यक्ति के लिए यह मार्क्सवाद के दूसरे पहलुओं की तरह एक भावबोध बन गया।’ हाशमी ने यहीं यह भी बताया है कि महमूदुज़्ज़फ़र और डॉ. राशिद जहां के कारण ही कामगारों की बस्तियों में फ़ैज़ ने काम शुरू किया। फिर वे मज़दूर संघ के सदस्य बन गये जो ऐटक से संबद्ध था। ऐटक का संचालन तब कम्युनिस्ट पार्टी करती थी। फ़ैज़ का यह पहला अनुभव था। उन्हें सिद्धांत बघारने के बजाय मज़दूरों के संपर्क में काम करना अच्छा और व्यावहारिक प्रतीत हुआ। अमृतसर की पहली नौकरी में ही यह अवसर उन्हें मिला। महमूदुज़्ज़फ़र और राशिद जहां के सान्निध्य में उन्होंने मार्क्स, एंगल्स, लेनिन और सोवियत बोल्शेविक पार्टी की जानकारी हासिल की।

फ़ैज़ को पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमत से लेनिन पुरस्कार लेने के लिए मास्को जाने की इजाज़त मिल गयी। डॉक्टरों की सलाह के अनुसार फ़ैज़ समुद्री रास्ते से रवाना हुए और परिवार के लोग हवाई जहाज़ से नेपल्स पहुंचे, जहां से उन्हें ट्रेन से मास्को जाना था। मास्को से पुरस्कार लेने के बाद वे 1962 में लंदन आये। एलिस और मोनीजा पहले ही वहां पहुंच चुकी थीं। फ़ैज़ और एलिस ने कुछ सालों तक लंदन में ही रहने का फ़ैसला किया। फ़ैज़ ने उत्तरी लंदन में एक मकान ख़रीदा। सलीमा कॉलेज में पढ़ रही थीं और मोनीजा स्कूल में। अपने छोटे प्रवास के दौरान यूरोप, क्यूबा, अल्जीरिया और सीरिया की यात्रा करते रहे। लंदन में फ़ैज़ का मन रम नहीं रहा था। वहां की बनावटी ज़िंदगी उन्हें पसंद नहीं आयी।

कुछ महीनों बाद फ़ैज़ पाकिस्तान लौट आये। सबसे पहले कराची लौटे। बंदरगाह और समुद्री किनारा होने की वजह से कराची का मौसम फ़ैज़ को अच्छा लगा। वहां तरह-तरह के होटल, नाइट क्लब, कॉफ़ी हाउस, सिनेमा, पुस्तकालय, क्रीड़ा केंद्र और खेल के मैदान थे। यहीं फ़ैज़ के पुराने दोस्त कर्नल मजीद मलिक और उनका परिवार रहता था। उनसे पुराना रिश्ता था। उन्हीं के प्रयास से वे ब्रिटिश फ़ौज में भर्ती हुए थे। रायटर न्यूज़ एजेंसी में वे एक प्रसिद्ध पत्रकार भी हो गये थे। कराची में फ़ैज़ के प्रेमियों का बड़ा समूह भी था। क्यूबा का सफ़रनामा कराची में प्रसिद्ध हुआ था।

यहीं शौकत हसन से उनका संबंध प्रगाढ़ हुआ। सर अब्दुल हारून—जो कि व्यापारी और परमार्थी थे और सियासतदान भी, उनकी बेटी थीं शौकत हसन। अब्दुल हारून स्कूल के लिए फ़ैज़ ने अपना समय दिया। यह ग़रीब बच्चों की तालीम के लिए बना हुआ एक केंद्र था। ग़रीब बस्ती ल्यारी के क़रीब के इलाक़ों का फ़ैज़ ने दौरा किया। वहां मीलों तक न कोई स्कूल था, न अस्पताल। बेगम हारून को फ़ैज़ ने सलाह दी कि वहां दो सत्रों वाला कॉलेज शुरू किया जाये। और दो साल के भीतर बैचलर डिग्री का कॉलेज शुरू किया गया। एक वोकेशनल सेंटर भी शुरू किया गया। कॉलेज के प्रिंसपल पद पर उन्हें नियुक्त किया गया। 1800 रुपये वेतन पर फ़ैज़ ने काम शुरू कर दिया, यद्यपि शौकत हारून ने 3000 रुपये की पेशकश की थी। फ़ैज़ काम में जुट गये। कॉलेज और सेंटर तुरंत सक्रिय हो गये और चमक उठे।

अब्दुल हारून वोकेशनल इंस्टिट्यूट की भी स्थापना हो गयी और यह संस्था भी चल पड़ी।

फ़ैज़ सपरिवार 1964 से 1972 तक आठ साल यहां रहे और इस शहर पर भी अपनी छाप छोड़ गये। यहीं कराची आर्ट्स काउंसिल का गठन और विस्तार किया गया। उनके क़रीबी दोस्त मिर्ज़ा जफ़रुल हसन के साथ मिलकर इदारा-ए-यादगारे ग़ालिब शुरू किया गया। यहां ग़ालिब पर अनुसंधान और सेमीनार का आयोजन किया गया। ग़ालिब की जन्म शताब्दी शानदार तरीक़े से मनायी गयी। मख़दूम मुहीउद्दीन के दोस्त थे मिर्ज़ा जफ़रुल हसन। फ़ैज़ के लिए यह एक शानदार रिश्ता था। ग़ालिब लाइब्रेरी बनायी गयी जो आज भी चलती है।

1971 में भुट्टो ने पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के मुखिया के तौर पर पाकिस्तान का ज़िम्मा संभाला। केवल पश्चिमी हिस्से में सिमट गया पाकिस्तान बिखर चुका था। इसके बाद पाकिस्तान के सभी सूबों में अलगाववादी जज़्बे उभरे।

फ़ैज़ इन हालात से काफ़ी मायूस थे। भुट्टो भी परेशान थे। इन्हीं दिनों भुट्टो ने फ़ैज़ को सांस्कृतिक मामलों के राष्ट्रीय सलाहकार के पद को स्वीकार करने की पेशकश की। अयूब ख़ां के शासन के दौरान ही वे सांस्कृतिक मामलों की एक राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष रह चुके थे और उसकी रिपोर्ट छह महीने के अंदर सरकार को सौंप चुके थे।
संस्कृति सलाहकार के नये ओहदे पर आने के बाद पाकिस्तान नेशनल काउंसिल ऑफ़ आर्ट्स का निर्माण किया। इसके अध्यक्ष फ़ैज़ ही थे। इस संस्था के कार्यालय के लिए ज़मीन दी गयी और फ़ैज़ इसके विकास के काम में जुट गये।

एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन का मुख्यालय काहिरा में था। वहीं से 1968 में लोटस का प्रकाशन शुरू किया गया। पहले इसके मुख्य संपादक पत्रकार यूसुफ़ अल सिबाई थे जो बाद में मिस्र के संस्कृति मंत्री बने। 1978 में अल सिबाई की हत्या साइप्रस के एक राष्ट्रवादी ने कर दी।

एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन का छठा सम्मेलन 1979 में अंगोला के लुआंडा में हुआ। और इस बीच लोटस के संपादक के रूप में फ़ैज़ काम संभालने लगे।

बाद में लोटस पत्रिका के मुख्यालय के लिए अराफ़ात और फ़िलस्तीन मुक्ति संगठन ने लेबनान के बेरुत में जगह देने की पेशकश की। इसराइल बनने के बाद बेरुत हमेशा के लिए जंग का मैदान बन गया था। चारों तरफ़ तबाही, टैंक से टूटी-फूटी इमारतें और हमेशा गोलाबारी। यह ज़माना लेबनान पर इसराइली हमले का था। लगातार बमबारी हो रही थी। फ़ैज़ किसी तरह निकलकर लंदन गये, उसके बाद मास्को।

सबसे अंत में हाशमी ने ‘आभार’ व्यक्त किया है। दो ऐसे लोगों को ‘आभार’ के अंतर्गत याद किया गया है जो गहरे शोध और विद्वत्ता के कारण हाशमी की इस किताब के प्रेरणा-बिंदु बने। ये दो लोग रहे हैं—ज़िक्र-ए-फ़ैज़ के लेखक सैयद मज़हर जमील और शोधकर्त्ता डॉ. राय इमरान ज़फ़र। इन दोनों की मदद के बिना इस किताब को हाशमी लिख ही नहीं सकते थे।

अपने दोस्तों और सहपाठियों—डॉ. ख़ालिद सोहेल, डॉ. रख्शांदा जलील तथा मुशर्रफ़ अली फ़ारुक़ी—के प्रति भी हाशमी ने आभार प्रकट किया है।

murli.rekha@gmail.com

 


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